उस दिन दफ्तर से वापस लौटते समय मेरा वाहन अचानक झटके से रुका। मैं किन्ही विचारों में डूबा था। अत: झटका जोर से लगा। मेरा ब्रीफकेस सरक कर सीट से गिरने को हो गया। देखा तो पता चला कि एक सांड़ सड़क क्रॉस करते करते अचानक बीच में खड़ा हो गया था। वाहन उससे टकराते - टकराते बचा।
उसके बाद मैने केवल छुट्टा घूमते सांड़ गिने। वे सड़क के किनारे चल रहे थे। कुछ एक दूसरे से उलझने को उद्धत थे। एक फुंकार कर अपना बायां पैर जमीन पर खुरच रहा था। एक नन्दी के पोज में बैठा जुगाली कर रहा था। अलग-अलग रंग के और अलग-अलग साइज में थे। पर थे सांड़ और शाम के धुंधलके में गिनने पर पूरे बाइस थे। शायद एक आध गिनने में छूट गया हो। या एक आध कद्दावर गाय को सांड़ मानने का भ्रम हुआ हो। पर १५ किलोमीटर की यात्रा में २२ सांड़ दिखाई पड़ना --- मुझे लगा कि वाराणसी ही नहीं इलाहाबाद भी सांड़मय है।
पहले सुनते थे कि नस्ल सुधार के कार्यक्रम के तहद म्युनिसिपालिटी (टंग ट्विस्ट न करें तो मुंसीपाल्टी) सांड़ों को दाग कर छोड़ देती थी। अब वह पुनीत काम मुंसीपाल्टी करती हो - यह नहीं लगता। पर कुछ पता नहीं कि मुन्सीपाल्टी क्या करती है। क्या नहीं करती - वह साफ साफ दीखता है। इसलिये श्योरिटी के साथ कुछ कहा नहीं जा सकता। क्या पता ये सांड़ मुन्सीपाल्टी ने छोड़े हों। चूंकि उनपर दागने के निशान नहीं थे, तो यह भी सम्भव है कि दागने की रकम का कहीं और सदुपयोग हो गया हो।
"देखिये तो पहले हर गली, सड़क, चौराहे पर सांड़। सही है कि पहचान थे बनारस के। न राहगीरों को उनसे दिक्कत न उनको राहगीरों से! अत्यन्त शिष्ट, शालीन, धीर-गम्भीर, चिन्तनशील। न ऊधो का लेना, न माधो का देना। आपस में लड़ लेंगे पर आपको तंग नहीं करेंगे। बहुत हुआ तो सब्जी या फल के ठेले पर मुंह मार लिया, बस! वह भी तब जब देखा कि माल है लेकिन लेनदार नहीं। आप अपने रास्ते, वे अपने रास्ते। वर्ना बैठे हैं या चले जा रहे हैं - किसी से कोई मतलब नहीं। मन में कोई वासना भी नहीं। गायों के साथ भी राह चलते कोई छेड़खानी नहीं। हां, भूख से बेहाल आ गयी तो तृप्त कर देंगे! निराश नहीं लौटने देंगे!" "महोदय, यह अपने बारे में बोल रहे हैं या सांड़ों के बारे में?" |
बहरहाल सांड़ थे। कद्दावर पन में वे स्मृति के पुरनियां सांड़ों से कहीं कमजोर और कमतर थे, पर थे सांड़। और गायों की नस्ल को देख कर नहीं लग रहा था कि वे नस्ल सुधार में सफलता हासिल कर रहे थे। वे मात्र मटरगश्ती कर रहे थे। सोचना अपना पुश्तैनी मर्ज है। उसके चलते वे अचानक मुझे आदमियों में और विशेषत: सरकारी कर्मियों में मॉर्फ होते दिखे। कितने सांड़ हैं सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों में!
छुट्टा घूमना, जुगाली करना, प्रोक्रेस्टिनेशन में समय व्यतीत करना, सेलरी/डीए/प्रोमोशन/इन्क्रीमेण्ट की गणना करना, पर निन्दा करना, सीट से गायब हो जाना, मेज पर अपनी उपस्थिति के लिये छाता, बैग या रुमाल छोड़ जाना - बड़ा सामान्य दृष्य है। कोई जिम्मेदारी न लेना, अपने अधिकार के लिये लाल झण्डा तानने में देर न लगाना पर काम के विषय में विस्तृत विवेचना तैयार रखना कि वह उनका नहीं, फलाने का है - यह सरकारी सांड़ का गुणधर्म है।
पर छोड़िये साहब। जैसे मुन्सीपाल्टी के साड़ों को स्वतन्त्रता है, वैसे ही सरकारी जीव को भी। अब ये सांड़ हैं, वाराणसी के दागे हुये बकरे नहीं जो चार छ दिन दिखें और फिर गायब हो जायें। इनके मौलिक अधिकार सशक्त हैं।
एक मई को आपने ढेरों अधिकारवादी पोस्टें नहीं पढ़ीं?!
बड़े भाई। आप का कोई वाहन नहीं, आप सफर करते हैं गाड़ी में, और आप के सामने आ गया वाहन। भोलेशंकर समझदार थे उन्हों ने उसे वाहन बनाया था, जिसे वह छुट्टा न घूमे। उन्हें क्या पता था दिन में लोग पांच बार उन्हें जल जरुर चढ़ा देंगे। 24 घंटों जलेरी में रखेंगे, जिस से वे गरम नहीं हों, पर वाहन के मामले में उन का अनुसरण नहीं करेंगे।
ReplyDeleteसीधे बैठने की हिम्मत न हुई तो उसे गाड़ी में जोत दिया। सदियों तक जोतते रहे। लेकिन वह पिछड़ गया गति में। न गाड़ी में जोता जाता है और न ही हल में। अब वह जाए तो कहाँ जाए। अब इन्सान को मादा की तो जरुरत है, लेकिन नर की नहीं, है भी तो केवल वंश वृद्धि के लिए। कितनों की? जितने मुन्सीपैल्टी दाग देती थी। बाकी का क्या। आप ने सारे रास्ते चौबीस देखे। इस से अधिक तो यहाँ कोटा के शास्त्रीनगर दादाबाड़ी में मिल जाएंगे। कभी कभी तो एक साथ 15 से 20 कतार में एक के पीछे एक जैसे उन की नस्ल बदल गई हो। अब तो जंगल भी नही जहाँ ये रह सकते हों। गौशालाएँ गउओं के लिए भी कम पड़ती हैं।
मई दिवस तो शहादत का दिन है। लेकिन अक्सर शहादतों को पीछे से दलालों ने भुनाया है। वे भुनाएंगे। क्यो कि शोषण का चक्र जारी है। शोषक को दलाल की जरूरत है। शोषितों की मुक्ति के हर प्रतीक को वे बदनाम कर देना चाहते हैं जिस से कोई इन शहादतों से प्रेरणा नहीं ले सके। लेकिन मुक्ति तो मानव का अन्तिम लक्ष्य है। कितनी ही कोशिशें क्यों न कर ली जाएं, मानव को मुक्त तो होना ही है। एक प्रतीक टूटेगा तो नया बनेगा। मानव को इस जाल से मुक्ति नहीं मिलेगी तो सम्पूर्ण मानवता ही नष्ट हो लेगी।
घरों में बन्द स्त्रियाँ बाहर आ रही हैं, तेजी से पुरुषों के सभी काम खुद सम्भालने को तत्पर हैं। अभी भी अनेक पुरुष पी-कर, खा-कर सिर्फ जुगाली करते हैं धीरे धीरे इन की संख्या भी बढ़ रही है। विज्ञान संकेत दे रहा है कि प्रजनन के लिए भी पुरुषों की जरुरत नहीं। कहीं ये छुट्टे घूमते साँड मानव पुरुषों के भविष्य का दर्शन तो नहीं हैं।
एक बार दिल्ली भी हो ही लें-५४२ तो लोक सभा में जुगाली करते मिल जयेंगे बाकि राज्य सभा मे और विधान सभ में मिलाकर तो जो आंकड़ा आयेगा, उतनी गिनती तो आपने सीखी ही नहीं है.
ReplyDeleteअधिकतर सरकारी कर्मचा्री सांड होने की फिराक में हैं-हुए नहीं हैं. बहुतेरे भैंसा और पाड़ा ही हैं.. :)
बाण भट्ट की आत्मकथा के एक दगहे सांड के बाद यह दूसरा सांड काव्य मानस तंतुओं को झंकृत कर रहा है .द्विवेदी जी ने भी अछा सांड स्तवन किया है -मैं ख़ुद अपनी स्मृति की संकरी होती गलियों मे कटरा के एक उस सांड को अब भी देख पा रहा हूँ जिसने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक गवंयी छात्र की सायिकिल के स्टैंड से प्राणी शास्त्र की एक किताब और प्रोफेस्सरों के व्याख्यानों की नोट बुक को छीन कर उदरस्थ कर गया और हक्का बका वह युवक देखता रह गया -कोई आगे नही आया इस अनहोनी को रोकने के लिए ...
ReplyDeleteरही बात बनारस के सांडों की तो वे तुलनात्मक रूप से निश्चित ही शालीन है -
हाँ एक कहावत यहाँ भी है जो काशी की एक पहचान है ,जिसे शायद ही किसी ने न सूना हो -
रांड सांड सीढ़ी सन्यासी
इनसे बचे तो सेवे काशी
अभी एक बनारसी सांड ने एक फिरंगी को सरे बाज़ार दे पटका,बिचारे की कमर टूट गयी
मुनिस्पलती हँसती रही ...
यह केवल देशी लोगों के लिए ही शालीन लगते है ...
और अब तो एक नया सुक उन पर तारी है -बहु मंजिली इमारतों पर चढ़ना ...यह बैल कथा अनंत है .....शिव तत्व के पास ही विराम पाती है ....
ज्ञान जी, सुबह-सुबह उठकर भोलेबाबा की सवारी पर आपकी मानसिक हलचल का रोजनामा पढ़कर अच्छा लगा। सांड़ भी हमारे समाज का आईना बन गया, यह आपकी सूक्ष्म दृष्टि का कमाल है।
ReplyDeleteसांड कथा है परम अलंका
ReplyDeleteएक रावण जिस्का बजता था डंका
अब है सांड मोड मोड पर
संसद से गावो के रोड पर
सांड सर्वत्र हैं।
ReplyDeleteसांड़ मयी दुनिया मैं जानी
करहु प्रणाम हे कृपानिधानी
सांड़ जमे हुए हैं, राज्य सभा के बुढऊ मेंबरान की तरह, जगह खाली नहीं करते.
सांड़ जमे हुए हैं, पुरानी संस्थाओं में, नयों के लिए जगह खाली नहीं करते
सांड़ों से निपटने का एक ही रास्ता है आप खुदै सांड़ बन जाओ,
पर तब आप उन्हे सांड़ कहने के अधिकारी ना रह जायेंगे।
हालांकि कहने के अधिकारी होकर ही क्या हो जा रहा है।
जमाये रहिये-यह संदेश आपकी पोस्ट के लिए नहीं है, बल्कि सांड़ों के लिए है।
यह संदेश
मुझे लगा की अब मानव जन्म लिया है तो कुछ तो करके जौ.. कोई ग्रंथ या पुराण ही लिख दु.. अब आपने विषय दे दिया है.. जल्द ही लिखेंगे.. "सांड पुराण"..
ReplyDeleteदादा सांड से सांड पने के अलावा कोई काम ना लिया जाता है,ना ही उससे उम्मीद की जाती है वो करेगा, हमेशा जोतने के लिये बैल का प्रयोग किया जाता है, जो मांस खाने के काम आने वाले बकरे की तरह ही बधिया कर दिया जाता है
ReplyDeleteऔर अब तो सांदो के उपर भी बहुराष्ट्रीय कंपनिया हावी हो चुकी है, दिल्ली और एन सी आर से तमाम सांड रातो रात क्रेन से उठवाकर एक्सपोर्ट कर दिये गये है कहा अब ये जांच का विषय है ,आपको बधाई आपके यहा भारत मे रहने का एह्सास दिलाने के लिये ये अभी भी ये मौजूद है ,तभी आप इन पर पोस्ट लिख सके ना :)
आपने सरकारी कर्मचारी को छुटा साँड कह पंगा तो मोल नहीं लिया ना :)
ReplyDeleteसरकारी साड़ों और उनके मौलिक आधिकारों की अच्छी चर्चा की आपने, ये अब निजी क्षेत्र में भी पहुच रहे हैं :-)
ReplyDeleteआपकी इन सांडो पे कवर स्टोरी पढ़के मैं भावुक हो गया हमारे मेरठ मे कदम कदम पे ये मुए किसी गाय के पीछे रेप करने के लिये भागेगे ओर कोई गाय की मदद को नही आता अलबत्ता कई बार ट्रैफिक तहस नहस हो जाता है ...पता नही इनसे टक्कर के बाद हुए किसी वहां की भरपाई का जिम्मा इन्सुरेंस वाले देते है नही? सरकारी सांडो पे वैसे मुहर लगी होती है..........
ReplyDeleteआप की नज़र भी कहाँ कहाँ जाती है कमाल है ...उड़न तशतरीजी का कमेट पढ़ कर दिल खुश हो गया.
ReplyDeleteनीरज
:)
ReplyDeleteएक छोटी सी घटना को वृहद् संदर्भों के साथ इतनी खूबसूरती से गूँथ देना कमाल की बात है. आपसे ऐसी ही उम्मीद रहती है. बढ़िया पोस्ट.
ReplyDeleteभाग्यशाली हैं आप की आप को वहां की सड़कों पर ऐसे सब जीव देखने को मिलते हैं यहां तो इन्हे देखना होगा तो कत्लखाने जाना होगा। सड़क पर तो सिर्फ़ कुत्ते, बिल्ली और भीख मांगते हाथी ही दिखते हैं। वैसे सरकारी मुलाजिमों की तुलना सांड से पढ़ कर अच्छा लगा। दिवेदी जी और समीर जी की टिप्पणियां अच्छी हैं।
ReplyDelete