Wednesday, April 23, 2008

विकास में भी वृक्षों को जीने का मौका मिलना चाहिये


मैने हैं कहीं बोधिसत्त्व में बात की थी वन के पशु-पक्षियों पर करुणा के विषय में। श्री पंकज अवधिया अपनी बुधवासरीय पोस्ट में आज बात कर रहे हैं लगभग उसी प्रकार की सोच वृक्षों के विषय में रखने के लिये। इसमें एक तर्क और भी है - वृक्ष कितने कीमती हैं। उन्हे बचाने के लिये निश्चय ही कुछ सार्थक किया जाना चाहिये। आप पोस्ट पढ़ें:



पारम्परिक चिकित्सा मे विभिन्न पेड़ों की छालों का उपयोग किया जाता है। छालों का एकत्रण पेड़ों के लिये अभिशाप बन जाता है। धीरे-धीरे पेड़ सूखने लगते हैं और अंतत: उनकी मृत्यु हो जाती है। देश के पारम्परिक चिकित्सक इस बात को जानते हैं। उन्हे पता है कि पुराने पेड़ दिव्य औषधीय गुणो से युक्त होते है और उन्हे खोना बहुत बडी क्षति है। इसलिये जब छाल का एकत्रण करना होता है तो वे अलग-अलग पेड़ों से थोडी-थोडी मात्रा मे छाल का एकत्रण करते हैं। इसे आज की वैज्ञानिक भाषा मे रोटेशनल हार्वेस्टिंग कहते है।

पर जब पेड़ विशेष की छाल एकत्र करनी होती है और वे पेड़ कम संख्या मे होते हैं तो वे एक विशेष प्रक्रिया अपनाते हैं। वे इन्हे उपचारित करते हैं। उपचार पन्द्रह दिन पहले से शुरु होता है। दसों वनस्पतियो को एकत्रकर घोल बनाया जाता है और फिर इससे पेड़ों को सींचा जाता है। इस सिंचाई का उद्देश्य पेड़ों को चोट सहने के लिये तैयार करना है। रोज उनकी पूजा की जाती है और कहा जाता है कि अमुक दिन हम एकत्रण के लिये आयेंगे, छाल को दिव्य गुणों से परिपूर्ण कर देना।

साथ ही हमे इस कार्य के लिये क्षमा करना। फिर एकत्रण वाले दिन अलग घोल से सिंचाई की जाती है। एकत्रण के बाद भी एक सप्ताह तक चोटग्रस्त भागों पर तीसरे प्रकार के घोल को डाला जाता है ताकि चोट ठीक हो जाये। यह प्रक्रिया अलग-अलग पेड़ों के लिये अलग-अलग है और हमारे देश मे इस विषय मे वृहत ज्ञान उपलब्ध है। क्या इस अनोखे पारम्परिक ज्ञान का आधुनिक मनुष्य के लिये कोई उपयोग है? इसका जवाब है- हाँ।


आधुनिक विकास पुराने वृक्षो के लिये अभिशाप बना हुआ है। हमारे योजनाकार पेड़ों की कीमत कुछ सौ रुपये लगाते हैं। जबकि एक पेड़ की असली कीमत लाखों में है।


सडकों या नये भवनो के निर्माण में बाधक बनने वाले पेड़ों को बेहरमी से काट दिया जाता है। चिपको आन्दोलन का पाठ पढने के बाद भी कोई सामने नही आता। कुछ अखबार इस पर लिखते भी हैं पर फिर भी ज्यादा फर्क नही पड़ता। पुराने वृक्ष सघन बस्तियों के लिये फेफड़ो का काम करते हैं और इनका बचा रहना जरुरी है। पर यदि इन्हे हटाना ही है तो फिर इन्हे जीने का एक और मौका दिया जाना चाहिये। यह असम्भव लगता है पर वर्षो पुराने वृक्षों को एक स्थान से उखाडकर दूसरे सुरक्षित स्थान तक पहुँचाया जा सकता है। यह दूरी कुछ मीटर से लेकर दसों

किलोमीटर तक की हो सकती है।


जिस पारम्परिक ज्ञान की बात हमने ऊपर की है उसके उपयोग से पुराने वृक्षो को जीवित रखा जा सकता है। उन्हे चोट से उबरने मे मदद की जा सकती है। विदर्भ मे कुछ प्रयोग हम लोगो ने किये पर चूँकि पारम्परिक चिकित्सक हमारे साथ नहीं थे इसलिये सफलता का प्रतिशत बहुत कम रहा। आमतौर पर पीपल और बरगद के पेड़ों को ही हटाना होता है। इस विषय मे पारम्परिक चिकित्सक गहरा ज्ञान रखते है और अपनी सेवाएं देने को तैयार है। उनके साथ मिलकर प्रयोग किये जा सकते हैं और मानक विधि विकसित की जा सकती है। इससे देश भर मे उन पुराने पेड़ो को बचाया जा सकेगा जो आधुनिक विकास के लिये तथाकथित बाधा बन रहे हैं।


मैने इस पारम्परिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण किया है। तीन सौ से अधिक वृक्ष प्रजातियो के विषय मे जानकारी एकत्र की जा चुकी है। पर जमीनी स्तर पर सफलता के लिये सभी को मिलकर काम करने की जरुरत है।


पंकज अवधिया

© इस पोस्ट पर सर्वाधिकार श्री पंकज अवधिया का है।


पिछले गुरुवार को अवधिया जी पर जंगल में फोटो खींचते समय मधुमक्खियों ने हमला कर दिया। बावजूद इसके, उन्होने समय पर अपना लेख भेज दिया। उनकी हिम्मत और लगन की दाद देनी चाहिये।

12 comments:

  1. क्या हमारी अद्भुत परम्परा, उग्र विकासवाद के बाज़ार में नष्ट हो जाएगी..?

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  2. अवधियाजी की चिंता और अभय तिवारी का सवाल चिंतित करते हैं। मधुमक्खी के काटने से हुये दर्द का एहसास कर सकता हूं। आशा है जल्द स्वस्थ होंगे अवधियाजी।

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  3. बहुत बढ़िया जानकारी देने के लिए पंकज जी का धन्यवाद और साथ ही उनकी हिम्मत और लगन की तारीफ करनी होगी की मधु मख्खियो के काटने के बाबजूद उन्होंने अपनी बात सबके सामने रखी .

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  4. पंकज जी में इतने गुण और मिठास है की मधुमख्खियों ने पहले हमला क्यों नहीं किया? बहुत सार गर्भित और ज्ञान वर्धक लेख के लिए बधाई.
    नीरज

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  5. पेड़ों की उपचार प्रक्रिया के बारे मे जानकारी बड़ी अच्छी लगी----

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  6. वृक्षों को बचाने का एक तरीका ये भी हो सकता है... ऐसे नियम बनें कि अगर कोई एक पेड़ काटता है तो उसके बदले उसे २-३ पेड़ लगाना पड़े. कई बार वृक्षों को काटना जरूरी हो जाता है, पर ऐसे नियम कुछ तो मदद कर ही सकते हैं.

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  7. पंकज जी का आभार उन्होंने हमे जानकारी दी....हमारे यहाँ भी एक अवस्था ऐसी जिसे स्टीवन ज्होंसन सिंड्रोम कहते है ओर जो काफी घातक है उसमे केले के छाल के पत्तो पे मरीज को लिटाते है,कुछ मरीजो मे इसका लाभ देखा गया है......

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  8. एक और ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए शुक्रिया।

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  9. हमारे इंदौर में हजारों पेड विकास की भेंट चढ़ चुके है. अभी ऑफिस आते हुए १० -१२ किमी के रस्ते में छांव और पेड़ ढूंढें नही मिलते हैं. अपने सामने आज भी सरकारी अधिकारियों को सड़क के किनारे पेड़ कटवाते हुए देखता हूँ लेकिन कुछ नही कर पाता हूँ. वाकई हालत बहुत ख़राब है. कोई हल सुझाइए प्लीज़.

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  10. सामयिक लेख. इस प्रकार के ज्ञानवर्धक लेखों से ब्‍लाग जगत की गरिमा बढ़ती है.

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  11. हमेशा की तरह, एक और विचारपरक लेख ।
    इस विषय में दो बाते कहना चाहूँगा ।

    १) मैने कुछ महीनो पहले अपने कालेज में ६-७ पेडों(पूर्ण विकसित) को उनके स्थान से उखाडकर लगभग २०० मीटर दूर रोपित करते देखा था । ऐसा इसलिये किया गया था कि वे पेड एक निर्माण में बाधक बन रहे थे । ये पहली बार देखकर अचम्भा हुआ था और पूछ्ने पर पता चला कि कालेज ने एक प्रति पेड लगभग १०,००० (हाँ दस हजार डालर) खर्च करना मंजूर किया बजाय पेड को काटने के । तो, इससे पेड की कीमत वाली बात सही साबित होती है, यूनिवर्सिटी अमीर है ये बात दूसरी है :-)

    २) हमारे कालेज के Constitution में प्रति विद्यार्थी पेडों का अनुपात निश्चित है । जैसे जैसे विद्यालय में छात्र बढ रहे हैं, उसी अनुपात में नये पेड भी रोपित किये जा रहे हैं । ऐसा ही कुछ अपने भारत के विद्यालयों में किया जा सकता है ।

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  12. पहले पेडो की पुजा इसीलिये करते थे, कि इसी बहाने यह सुरक्षित रहे,मे जब भी किसी पॆड को कटते देखता हू तो ऎसा महसुस होता हे जेसे कोई मेरा एक अंग काट रहा हो,पहले मेरे घर के तीन तरफ़ घने पॆड थे, रोशानी कम आती थी घर मे, पर मे खुश था, अब बस एक पॆड बचा हे,रोशानी घुब आती हे लेकिन एक सुनापन सा लगता हे, पकंज जी का ओर आप का धन्यवाद

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय