काशी तो शाश्वत है। वह काशी का राजा नहीं रहा होगा। वरुणा के उस पार तब जंगल रहे होंगे। उसके आसपास ही छोटा-मोटा राजा रहा होगा वह। बहुत काम नहीं था उस राजा के पास। हर रोज सैनिकों के साथ आखेट को जाता था। जंगल में हिंसक पशु नहीं थे। सो हिरण बहुत थे। वह राजा रोज एक दो हिरण मारता और कई घायल करता। उन सब को दौड़ाता, परेशान करता और उनकी जान सांसत में रखता सो अलग।
पर एक दिन विचित्र हुआ। आखेट के समय एक सुनहरे रंग का हिरण स्वत: राजा के पास चलता चला आया। मानव वाणी में बोला – राजा, आपसे एक अनुरोध है। आप मेरी प्रजा (हिरणों) को मारते हैं, सो ठीक। पर उनको जिन यंत्रणाओं से गुजरना होता है, उससे आप हमें मुक्त कर दें। नियम से आपके वधिक के पास हममें से एक चला आयेगा। पत्थर पर अपनी गर्दन टिका देगा। वधिक उसका वध कर आपकी आखेट की आवश्यकता पूरी कर देगा।
राजा स्वर्ण मृग की छवि, मानव वाणी और उसके आत्मविश्वास से मेस्मराइज हो गया। उसे यह ध्यान न रहा कि वह आखेट मांस के लिये कम, क्रूर प्लेजर के लिये ज्यादा करता है। वह स्वर्ण मृग की बात मान गया।
तब से नियम बन गया। पारी से एक हिरण वध के लिये चला आता। शेष सभी हिरण दूर खड़े आंसू बहाते। पर यह वेदना उन्हे आखेट की परेशानी से ज्यादा स्वीकार्य थी। सब सामान्य चलने लगा।
लेकिन एक दिन एक सद्य जन्मे हिरण-बछड़े की मां हिरणी की बारी आ गयी। वह हिरणी सभी से गुहार लगाने लगी – मुझे कुछ महीने जीने दो। मैं अपने बच्चे की परवरिश कर लूं। फिर मैं स्वयं वध के लिये चली जाऊंगी। कोई भी अपनी मृत्यु प्री-पोन करने को तैयार न था, कौन होता!
स्वर्ण मृग ने उसे आश्वासन दिया – चिंता न करो। अपने बच्चे की परवरिश करो। कल मैं जाऊंगा।
अगले दिन स्वर्ण मृग वध के लिये गया। पत्थर पर अपनी गर्दन झुका दी। पर वधिक को लगा कि कुछ गड़बड़ है। वह राजा के पास गया, यह बताने कि आज तो उनका मित्र स्वर्ण मृग ही आया है वध के लिये। राजा ने स्वर्ण मृग से पूछा तो हिरणी की बात पता चली। राजा ने कहा –“चलो रहने दो। आज मैं शाकाहार कर लूंगा। तुम्हें मरने की जरूरत नहीं है मित्र”।
“नहीं राजन। मैं रोज अपने साथी हिरणों का वध से मरण देखता हूं। आप मुझ पर कृपा करें। मुझे मरने दें। मैं इस दैनिक संताप से मुक्त हो जाऊंगा”।
राजा आश्चर्य में पड़ गया। उसने सभी हिरणों के आखेट पर रोक लगाने की घोषणा की। स्वर्ण मृग फिर बोला –“राजन, मृग तो बच जायेंगे। पर आप और आपकी प्रजा तब अन्य सभी वन्य जीवों पर टूट पड़ेगी। वे सब आखेट के पात्र बनेंगे। आप तो मेरा वध हो जाने दें”।
राजा पूरी तरह मानसिक रूप से बदल चुका था। उसने किसी भी प्रकार के आखेट या जीव हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
वे स्वर्ण मृग और कोई नहीं – बोधिसत्व थे। अनेक जन्मों बाद वे गौतम बुद्ध बने। और तब तक वह जंगल सारनाथ में परिवर्तित हो गया था।
आज भी जीवों के प्रति वह आखेट भावना, वह क्रूरता व्याप्त है।
हैं कहीं बोधिसत्व!
पुण्योँ का उदय होता जब जब
ReplyDeleteआत्मा मेँ
करुणा सौहार्द्र प्रेम की होती मँजुल बरसात !
सत्य वचन महाराज।
ReplyDeleteबोधिसत्व हैं, बाकायदा हैं, मुंबई में हैं।
बढ़िया फिल्में लिख रहे हैं,कविता लिख रहे हैं। कल आपके ब्लाग पर कमेंट भी किया था।
बोधिसत्व मुम्बई में हैं।
ReplyDeleteअब जो अन्न संकट आ रहा है। वह बोधिसत्व ही है। वही सिखायेगा लोगों को मांस भक्षण के लिए जानवरों का वध रोकना।
ReplyDeleteसही कहा सबने । वे हमारे पड़ोस में ही हैं । कभी कभी मिल जाते हैं । हंसी ठट्ठा होता है । ये हमारे वाले बोधिसत्व हैं । आपके वाले कौन से हैं सरकार
ReplyDeleteपर आज वाले बोधिसत्व नियम से बिना आखेट किये केंटुकी से फ़्राईड चिकन मंगा कर खालेते है हत्या का दोष सर पर नही लेते जी बाकी कोशिश यही करते है की प्याज लहसुन का परहेज जितना हो सके करते है :)
ReplyDeleteप्रेरक। वर्तमान संदर्भ में ऐसी प्रेरक कहानियों को बार-बार पेश किए जाने की जरूरत है
ReplyDeleteविचित्र बात है. आप बोधिसत्व की करुणा की कथा सुना रहे हैं और दलाई लामा की वेबसाईट कहती है कि वे पूर्णतः शाकाहारी नहीं हैं. जरा इस लिंक को देखें.
ReplyDeleteLunch is served from 11.30 a.m. until 12.30 p.m. His Holiness's kitchen in Dharamsala is vegetarian. However, during visits outside of Dharamsala, His Holiness is not necessarily vegetarian.
वैसे हमने कहीं उनका ये वक्तव्य भी पढ़ा था जिसमें उन्होंने कहा था कि वे शर्मिंदा हैं कि इतने वर्षों तक माँसाहारी रहे. इससे लगता है कि उन्होंने ये घृणित कार्य छोड़ दिया है.
प्रेरक बोध कथा.
ReplyDeleteअच्छा लगा पढ़ कर.
शुक्रिया
ReplyDeleteकाफी समय बाद राजा को सदबुद्धि आयी। उसे तो पहले ही प्रस्ताव वाली स्टेज पर शरमिन्दा हो जाना चाहिये था।
ReplyDeleteये भी पढा और READING LIST वाला BECKER-POSNER POST भी पढ़ा - मुम्बई वालों का हा हा [ :-)] का र [ :-)] भी - हमने तो कोलेस्ट्रोल के चलते बंद कर रखा है - समुंदरी मछली खा लेते हैं कभी कभार - सादर मनीष
ReplyDeleteज्ञानदत्त जी बचपन में जातक कथाएं खूब पढी हमनें... बहुत अच्छा लगता था...
ReplyDeleteआज आपने ये कथा लिखी बहुत प्रेरणादायक है.
और इसका मतलब सिर्फ़ मांसाहार ही तो नहीं है... असली संदेश तो है क्रूरता.
और वैसे भी अगर सभी मांस खाना छोड़ दें.. तो हम जैसे घास फूस खाने वाले तो भूखो ही मर जायेंगे :-)
बुद्ध की करूणा. सारनाथ का नाम मृगदाव मृगपत्तन भी है.
ReplyDeleteअभिषेक का कहना ठीक है ,बचपन मे कई जातक कथाये पढी थी ,अभी कुछ दिन पहले आहा जिंदगी मे अचानक एक पन्ने पे कुछ लिखा पड़ लिया कि आप उस जानवर का मांस खाते है जो मरना नही चाहता ....मन थोड़ा विचलित हो गया .....पाण्डेय जी आपकी ये ज्ञान वाणी भी याद रहेगी......
ReplyDeleteजब-जब बोधिसत्व के बारे में पढ़ता हूँ...डर जाता हूँ...मैं कुछ भी कर लूँ....बोधिसत्व नहीं हो पाऊँगा.....
ReplyDeleteबहुत अच्छा।
ReplyDeleteज्ञानदत्त बहुत सुन्दर कहानी ओर बहुत कुछ कह भी गई,हम ने यहां आज से १५,१६ साल पहले टी वी पर ऎसा ही प्रोग्राम देखा था ओर उसी दिन से मासं त्याग दिया,अब शुद्ध शाका हारी बन गये ,ध्न्यावाद
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