Tuesday, April 1, 2008

विक्तोर फ्रेंकल का साथी कैदियों को सम्बोधन - 2.


अपनी पुस्तक - MAN'S SEARCH FOR MEANING में विक्तोर फ्रेंकल सामुहिक साइकोथेरेपी की एक स्थिति का वर्णन करते हैं। यह उन्होने साथी 2500 नास्त्सी कंसंट्रेशन कैम्प के कैदियों को सम्बोधन में किया है। मैने पुस्तक के उस अंश के दो भाग कर उसके पहले भाग का अनुवाद कल प्रस्तुत किया था।

(आप कड़ी के लिये मेरी पिछली पोस्ट देखें)

यह है दूसरा और अंतिम भाग:
.....
पर मैने (अपने सम्बोधन में) केवल भविष्य और उसपर पसरे आवरण की ही चर्चा नहीं की। मैने भूतकाल की भी बात की। यह भी याद दिलाया कि भूतकाल की खुशियां अभी भी आज के अन्धेरे में हमें रोशनी दिखाती हैं। मैने एक कवि को भी उधृत किया - "आपने जो भी जिया है, धरती की कोई ताकत आपसे वह छीन नहीं सकती"। न केवल हमारे अनुभव; पर हमने जो कुछ भी किया है; जो भी उच्च विचार हमारे मन में आये हैं; वे समाप्त नहीं हो सकते। वह भले ही हमारे अतीत का हिस्सा हों; पर वह सब हमने इस विश्व में सृजित किया है और वह हमारी ठोस उपलब्धि है।

जब भी नैराश्य मुझे घेरता है, विक्तोर फ्रेंकल (1905-1997) की याद हो आती है. नात्सी यातना शिविरों में, जहां भविष्य तो क्या, अगले एक घण्टे के बारे में कैदी को पता नहीं होता था कि वह जीवित रहेगा या नहीं, विक्तोर फ्रेंकल ने प्रचण्ड आशावाद दिखाया. अपने साथी कैदियों को भी उन्होने जीवन की प्रेरणा दी. उनकी पुस्तक “मैंस सर्च फॉर मीनिंग” उनके जीवन काल में ही 90 लाख से अधिक प्रतियों में विश्व भर में प्रसार पा चुकी थी. यह पुस्तक उन्होने मात्र 9 दिनों में लिखी थी.

तब मैने यह चर्चा की कि जीवन के बारे में सार्थक अर्थों में सोचने से कितनी सम्भावनायें खुल जाती हैं। मैने साथियों को (जो चुपचाप सुन रहे थे, यद्यपि बीच में कोई आह या खांसी की आवाज सुनने में आती थी) बताया कि मानव जीवन, किसी भी दशा में, कभी निरर्थक नहीं हो जाता। और जीवन में अनंत अर्थ हैं। उन अर्थों में झेलना, भूख, अभाव और मृत्यु भी हैं। मैने उन निरीह लोगों से, जो मुझे अन्धेरे में पूरी तन्मयता से सुन रहे थे, अपनी स्थिति से गम्भीरता से रूबरू होने को कहा। वे आशा कदापि न छोड़ें। अपने साहस को निश्चयात्मक रूप से साथ मे रखें। इस जद्दोजहद की लम्बी और थकाऊ यात्रा में जीवन अपने अभिप्राय और अपनी गरिमा न खो दें। मैने उनसे कहा कि कठिन समय में कहीं कोई न कोई है - एक मित्र, एक पत्नी, कोई जिन्दा या मृत, या ईश्वर - जो हमारे बारे में सोच रहा है। और वह नहीं चाहेगा कि हम उसे निराश करें। वह पूरी आशा करेगा कि हम अपनी पीड़ा में भी गर्व से - दीनता से नहीं - जानें कि जिया और मरा कैसे जाता है।

और अंत में मैने हमारे सामुहिक त्याग की बात की। वह त्याग जो हममें से हर एक के लिये महत्वपूर्ण था।1 यह त्याग इस प्रकार का था जो सामान्य दशा में सामान्य लोगों के लिये कोई मायने नहीं रखता। पर हमारी हालत में हमारे त्याग का बहुत महत्व था। जो किसी धर्म में विश्वास रखते हैं, वे इसे सरलता से समझ सकते हैं। मैने अपने एक साथी के बारे में बताया। वे कैम्प में आने के बाद ईश्वर से एक समझौते (पेक्ट) के आधार पर चल रहे हैं। उस समझौते के अनुसार वे जो वेदना/पीड़ा और मौत यहां झेलेंगे, वह उस व्यक्ति को, जिससे वे प्यार करते हैं, वेदना और दुखद अंत से बचायेगी। इस साथी के लिये पीड़ा और मृत्यु का एक प्रयोजन था - एक मतलब। वह उनके लिये उत्कृष्टतम त्याग का प्रतिमान बन गयी थी। वे निरर्थक रूप से नहीं मरना चाहते थे। हममें से कोई नहीं चाहता।

मेरे शब्दों का आशय यह था कि हमें अपने जीवन का अभिप्राय, वहां, उसी कैम्प की झोंपड़ी की बदहाल अवस्था में, समझना और आत्मसात करना था। मैने देखा कि मेरा यत्न सार्थक रहा। मेरे बुझे-बुझे से मित्र धीरे-धीरे मेरी ओर आये और अश्रुपूरित नयनों से मुझे धन्यवाद देने लगे।

लेकिन मैं यह स्वीकारोक्ति करना चाहूंगा। वह एक विरल क्षण था, जब मैं आंतरिक शक्ति जुटा पाया। मैं अपने साथियों को चरम वेदना की दशा में सम्बोधित कर पाया। यह करना मैं पहले कई बार चूक गया था।

1. उस दिन सभी 2500 कुपोषित कैदियों को भोजन नहीं मिला था। एक भूख से व्याकुल कैदी द्वारा आलू चुराने के मामले में उस कैदी को अधिकारियों के हवाले करने की बजाय सबने यह सामुहिक दण्ड स्वीकार किया था। अन्यथा उस कैदी को सेंधमारी के अपराध में फांसी दे दी जाती।
--------
यह प्रकरण विदर्भ के किसानों की घोर निराशा और उससे उपजी आत्महत्याओं पर सोच से प्रारम्भ हुआ और यहां इस पोस्ट के साथ समाप्त हुआ। विदर्भ के किसानों की समस्या में आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और भौगोलिक पहलू होंगे। कई घटक होंगे उसके। पर यह पोस्टें तो मैने अपनी मानसिक हलचल के तहद बनाई हैं। विदर्भ समस्या पर कोई पाण्डित्य प्रदर्शन का ध्येय नहीं है।

10 comments:

  1. Enlightening, meaningful & inspiring Post Gyan bhai sahab ....

    warmest Rgds,
    L

    ReplyDelete
  2. शुक्रिया इसे पढ़वाने के लिये।

    ReplyDelete
  3. सच है आशावाद न हो तो एक पल भी जीना दूभर हो जाए। इस किताब के बारे में बताने के लिए शुक्रिया।

    ReplyDelete
  4. किसी भी पिंड/व्यक्ति की अवस्था का अंत उस की अंतर्वस्तु के कारण होता है और अंतर्वस्तु ही उस के जीवन का कारण है। डूबते को तिनका नहीं बचाता, तिनका देख उत्पन्न हुआ उस का साहस उस की जीवन रक्षा करता है। यहाँ इस आलेख से हम ने तो यही सीखा कि वह तिनका पैदा करें जिस से जानें बचें। कुछ तो होंगे वहाँ जहाँ लोग आत्महत्याएं कर रहे हैं, जो तिनका बनें या तिनके बनाएँ।

    ReplyDelete
  5. आशावादिता से परिपूर्ण !

    ReplyDelete
  6. निराशाओं के स्तर अलग अलग हो सकते हैं। पर सबमें एक बात कामन होती है कि हम एकदम अकेले हैं। यह भाव कम करने में यह किताब मदद करती है। दरअसल यह किताब इस युग की गीता टाइप की है। निराशा अकेलापन जितना अभी घना है, शायद पहले कभी ना रहा होगा। मतलब सामूहिक स्तर पर इतना व्यापक अकेलापन कभी ना रहा होगा। सभी साथ हैं, फिर फिर भी अकेले हैं.
    इसी तरह की कुछेक पुस्तकों के बारे में छापते रहिये।

    ReplyDelete
  7. आपको लगातार पढ़ रहे हैं. सरल भाषा में उच्च गुणवत्ता के लेख आपकी विशेषता हैं. अनुवाद अत्यन्त सुंदर है. विक्तोर फ्रेंकल को ढूंढ कर अवश्य पढेंगे. आपका बहुत बहुत धन्यवाद परिचय करवाने के लिए.

    ReplyDelete
  8. दोनो भाग अत्यंत प्रेरणास्पद हैं। वैसे कठिन समय में अपन एक बात सोंचते हैं कि "दुनिया में कितना गम है, मेरा गम कितना कम हैं...।" सच मानिये, काफी टेंशन कम हो जाती है।

    ReplyDelete
  9. एक सार्थक पोस्ट।

    ReplyDelete
  10. एक आदमी पचास मंजिला इमारत से नीचे गिर रहा था। हर मंजिल की खिडकी से उनसे पूछा जाता कि मि. जान कैसे है? तो उसका जवाब होता 'अभी तक तो ठीक हूँ।' इस हद तक आशावादिता हम अपने मे चाहते है पर हर बार सफल नही हो पाते है। आपकी पोस्ट पढने के बाद एक बार फिर से संकल्प मजबूत हो रहा है। धन्यवाद।

    ReplyDelete

आपको टिप्पणी करने के लिये अग्रिम धन्यवाद|

हिन्दी या अंग्रेजी में टिप्पणियों का स्वागत है|
--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय