|| MERI MAANSIK HALCHAL ||
|| मेरी (ज्ञानदत्त पाण्डेय की) मानसिक हलचल ||
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|| मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग ||
Monday, April 7, 2008
मिट्टी का चूल्हा
मेरे पड़ोस में यादव जी रहते हैं। सरल और मेहनतकश परिवार। घर का हर जीव जानता है कि काम मेहनत से चलता है। सवेरे सवेरे सब भोजन कर काम पर निकल जाते हैं। कोई नौकरी पर, कोई टेम्पो पर, कोई दुकान पर।
अपनी छत पर जब हम चहल कदमी कर रहे होते हैं तो यादव जी के यहां भोजन की तैयारी हो रही होती है। वह भी खुले आंगन में। मिट्टी के चूल्हे पर प्रेशर कूकर या कड़ाही चढ़ जाती है। उनकी बिटिया सब्जी काटती, चावल दाल बीनती या चूल्हे में उपले डालती नजर आती है। बड़ी दक्षता से काम करती है। पास में ही वह उपले की टोकरी, दाल-चावल की परात, कटी या काटने जा रही सब्जी जमा कर रखती है। यह सारा काम जमीन पर होता है।
जब वह प्रेशर कूकर चूल्हे पर चढ़ाती है तो हण्डे या बटुली की तरह उसके बाहरी हिस्सों पर हल्का मिट्टी का लेप कर राख लगाई होती है। उससे चूल्हे की ऊष्मा अधिकाधिक प्रेशर कूकर को मिलती है। कूकर या अन्य बर्तन पतला हो तो भी जलता नहीं। इसे स्थानीय भाषा में बर्तन के बाहरी भाग पर लेवा लगाना कहते हैं।
मैने अपनी मां को कहा कि वे श्रीमती यादव से उस आयोजन का एक फोटो लेने की अनुमति देने का अनुरोध करें। श्रीमती यादव ने स्वीकार कर लिया। फोटो लेते समय उनकी बिटिया शर्मा कर दूर हट गयी। चूल्हे पर उस समय प्रेशर कूकर नहीं, सब्जी बनाने के लिये कड़ाही रखी गयी थी। उस दृष्य से मुझे अपने बचपन और गांव के दिनों की याद हो आती है।
मिट्टी के चूल्हे और उपलों के प्रयोग से यादव जी का परिवार एलपीजी की किल्लत से तो बचा हुआ है। वैसे यादव जी के घर में एलपीजी का चूल्हा और अन्य शहरी सुविधायें भी पर्याप्त हैं। गांव और शहर की संस्कृति का अच्छा मिश्रण है उनके परिवार में।
नेपाल में 10 अप्रैल को आम चुनाव हो रहे हैं। जनसंख्या में 57% मधेशी क्या नेपाली साम्यवादी (माओवादी) पार्टी को औकात बता पायेंगे? राजशाही के पतन के बाद पुष्पकमल दहल (प्रचण्ड), प्रचण्ड हो रहे हैं उत्तरोत्तर। पर अभी खबर है कि वे चुनाव को बोगस मानेंगे अगर साम्यवादी नहीं जीते और चुनाव में धान्धली हुई तो। यानी अभी से पिंपियाने लगे!
तीन सौ तीन की संसद में अभी उनके पास 83 बन्दे हैं। ये बढ़ कर 150 के पार हो जायेंगे या 50 के नीचे चले जायेंगे? पहाड़ के नेपाली (अ)साम्यवादी और तराई के मधेशी साम्यवाद के खिलाफ एकजुट होंगे?
पर नेपाल/प्रचण्ड/साम्यवाद/मधेशी? ...सान्नू की फरक पैन्दा है जी!
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क्या बताऊँ..यादव जी का जो आंगन का सेट अप देखा कि आनन्द ही आ गया. हमने भी जबसे भारत आये हुए हैं अपने आंगन में सिगड़ी और चूल्हा सेट किया हुआ है. आनन्द आ जाता है उस पर पके खाने का. रोज तो संभव नहीं होता मगर जब कभी भी.
ReplyDeleteवैसे शायद पड़ोसी सोचते होंगे कि कनाडा जाकर पागल हो गया है मगर हमें तो मजा आ रहा है.
पर नेपाल/प्रचण्ड/साम्यवाद/मधेशी? ...सान्नू की फरक पैन्दा है जी!
-हद कर दी आपने. कैसे भारतीय हैं जिसे दूसरों की नौटंकी में फरक (मजा) नहीं पड़ रहा है. अपनी कौन देखता है जी..बस, दूसरा परेशान तो समझो, हम पर खुदा मेहरबान. :)
अपने देश की एक बहुत बड़ी आबादी की जीवन कथा यही है। आपके चित्रण ने कोलकाता के दिनों की याद दिला दी। वहां के मजदूर बेल्ट में ये नजारा आम है।
ReplyDeleteचूल्हे का फोटो चौकस है।
ReplyDeleteएक गीत याद आ रहा है..
ReplyDeleteमेरे घर के आंगन में छोटा सा झूला हो..
सौंधी-सौंधी खुश्बू होगी, लीपा हुआ चूल्हा हो..
:)
हमारे मकान मालिक भी हफ्ते मे दो दिन और सरदियो मे तो लगभग रोज ही चूल्हा जलाये रहते है जी हमे भी उनकी रसोई से अक्सर् ये आनन्द मिल ही जाता है..:)
ReplyDeleteअब भी मौका मिलता है तो अपने देश आकर इसी तरह के माहौल में रहने का मौका ढूँढते हैं. चित्र देख कर फिर याद आ गई.
ReplyDeleteयादव जी के घर का चूल्हा बड़ा आसान है। पहले दो और तीन मुंह वाले चूल्हे भी बना करते थे, जिन पर एक साथ दाल-भार, तरकारी एक साथ पकती थी। मेरी मां मिटटी के ऐसे चूल्हे बनाने में माहिर थी। शायद मिट्टी की मूर्तियां बनाने का हुनर मुझे मां से ही जींस में मिला है।
ReplyDeleteज्ञान जी बचपन का दादी का घर याद आ गया । जहां रसोई को कुठरिया कहा जाता था । और वहां जैसा अनिल जी कह रहे हैं वैसा चूल्हा था। उस रोटी की खुश्बू और उस दाल का स्वाद । उफ़ । कब से मैं अपने ददिहाल जाना चाह रहा हूं । दस साल हो गये नहीं गया । वहां शायद अब भी मिट्टी का चूल्हा बचा होगा
ReplyDeleteमैं जब विंध्याचल में पोस्टेड था , तो उस समय ऐसे दृश्यों को देखना बार-बार होता था , मगर अब ऐसा मौका मिलता ही नही , उस समय जब भी इच्छा होती अपने सहयोगियों से कहता और वे बाटी-चोखा -दाल-चूरमा बनाने में जुट जाते , संसाधन वही होता जिसका आपने जिक्र किया है ! वैसे यही हमारी मौलिक पहचान है !
ReplyDeleteचूल्हे का फोटो चौकस है।
ReplyDeleteहमें तो अपना ही बचपन याद आ गया। 85 तक चूल्हे पर पकता खाना और चूल्हे की आंच के पास खाना बनाती हुई मां।
ReplyDeleteफिर एल पी जी आया उसके बाद से………………
भई सान्नू की वाले में में अपन उड़नतश्तरी से सहमत है, आखिर शिष्य धर्म भी तो निभाना होगा न हमें ;)
ज्ञान जी आप की इस पोस्ट ने तो ना जाने क्या-क्या याद कर दिया।वाह क्या सोंधी खुशबू और क्या स्वाद होता था उस खाने मे।
ReplyDeleteबचपन की याद ताजा हो आयी. बाकि अब तो चुल्हे वहाँ से भी गायब हो गये है. समय बदलता ही है.
ReplyDeleteक्या बात है! आज आप ने चूल्हे की बात की-
ReplyDeleteऔर सच में आज कल गाँव में भी चूल्हे नहीं दीखते.
वहाँ भी सिर्फ़ गैस खत्म होने पर ही बना हुआ चूल्हा निकलते हैं.
मुझे तो हमेशा से ही गीले हाथ की रोटी चूल्हे पर सीकी हुई बहुत पसंद है लेकिन अब कहाँ ??
खूब याद दिलाया आपने आज चूल्हे की सौंधी खुशबु को!
बचपन मे हम लोग अंगारका रोटी खाया करते थे इसी चूल्हे की मदद से। छोटी-छोटी मोटी रोटी को लालमिर्च की चटनी के साथ खाना याद आ गया चूल्हा देखकर।
ReplyDeleteचूल्हा तो अभी भी घर मे है पर ज्यादातर पानी गरम करने इसका प्रयोग होता रहा। अक्सर इसी मे काढे और तेल बना लेते है।
बढिया पोस्ट, सुबह-सुबह।
भईया
ReplyDeleteवो भूली दास्ताँ लो फ़िर याद आ गयी...चूल्हा ही नहीं उसके पास बैठी प्यार से रोटियां सेकती मेरी दादी और उपलों के जलने से उठता धुआं सब याद आ गया...बचपन में झाकने का सुनहरा मौका देने के लिए धन्यवाद...
नीरज
ज्ञान जी जब तक मे भारत मे था हमारे घर चुल्हा,अगीठी ओर स्टोव था, ओर सब से स्वाद खाना चुल्हे का था, अब यहा भी गर्मियो मे अपने बाग (घर के पीछेले हिस्से मे)चुलहा तो नही लेकिन ग्रिल पर कभी कभी खाना बना कर चुल्हे के खाने का मजा लेते हे,
ReplyDeleteचित्र बहुत आच्छा लगा, ओर आप के बताने क ढग भी अच्छा लगा.धन्यवाद
चूल्हे का शानदार सैटअप है। बरसों ऐसे ही चूल्हे पर बना भोजन किया और बनाया भी। अब तो तरस गए हैं उस भोजन के लिए।
ReplyDeleteअतीत का एक पन्ना उड़ता हुआ आंखों के सामने आ गया .
ReplyDeleteचूल्हा और कोयले वाली अंगीठी तो अम्मा ही सुलगाती थीं पर बाद में बुरादे की अंगीठी में बुरादा ठोक-ठोक कर भरने का काम हमसे भी करवाया जाता था . 'करवाया' इसलिए क्योंकि हमारे मटरगश्ती के टाइम में कटौती जो हो जाती थी .
ज्ञान जी हैं तो एक भिन्न और हाथ से छूटा हुआ देशकाल ब्लॉग-जगत में बचा और बसा हुआ है .
उनके होने का बड़ा अर्थ है जी इत्थे .
कुकर पर लेवा आँच की वजह से नहीं बल्कि बर्तन को काले होने से बचाने के लिये लगाया जाता है।
ReplyDeleteबाकी इस पोस्ट से मिट्टी की हंडिया में बनी काली (उड़द की) दाल और चूल्हे पर सिकी मक्की की रोटियाँ याद आ गई।
आह.. क्या दिन थे वे भी।
हम शहरी क्या जाने चुल्हे का स्वाद, जिन्दगी में शायद एक या दो बार ही ये स्वाद चखा है।
ReplyDeleteइस पोस्ट पर तो मेरी नजर अभी पडी .. सागर नाहर जी ठीक कह रहे हैं .. बर्तन पर लेवा आँच की वजह से नहीं बल्कि बर्तन को काले होने से बचाने के लिये लगाया जाता है .. आजकल गांव में भी लोग एल पी जी ही रखने लगे हैं .. लकडी , कोयले की दिक्कत जो होने लगी है !!
ReplyDeleteक्या बात है! आज आप ने चूल्हे की बात की-
ReplyDeleteऔर सच में आज कल गाँव में भी चूल्हे नहीं दीखते.
वहाँ भी सिर्फ़ गैस खत्म होने पर ही बना हुआ चूल्हा निकलते हैं.
मुझे तो हमेशा से ही गीले हाथ की रोटी चूल्हे पर सीकी हुई बहुत पसंद है लेकिन अब कहाँ ??
खूब याद दिलाया आपने आज चूल्हे की सौंधी खुशबु को!
यादव जी के घर का चूल्हा बड़ा आसान है। पहले दो और तीन मुंह वाले चूल्हे भी बना करते थे, जिन पर एक साथ दाल-भार, तरकारी एक साथ पकती थी। मेरी मां मिटटी के ऐसे चूल्हे बनाने में माहिर थी। शायद मिट्टी की मूर्तियां बनाने का हुनर मुझे मां से ही जींस में मिला है।
ReplyDeleteक्या बताऊँ..यादव जी का जो आंगन का सेट अप देखा कि आनन्द ही आ गया. हमने भी जबसे भारत आये हुए हैं अपने आंगन में सिगड़ी और चूल्हा सेट किया हुआ है. आनन्द आ जाता है उस पर पके खाने का. रोज तो संभव नहीं होता मगर जब कभी भी.
ReplyDeleteवैसे शायद पड़ोसी सोचते होंगे कि कनाडा जाकर पागल हो गया है मगर हमें तो मजा आ रहा है.
पर नेपाल/प्रचण्ड/साम्यवाद/मधेशी? ...सान्नू की फरक पैन्दा है जी!
-हद कर दी आपने. कैसे भारतीय हैं जिसे दूसरों की नौटंकी में फरक (मजा) नहीं पड़ रहा है. अपनी कौन देखता है जी..बस, दूसरा परेशान तो समझो, हम पर खुदा मेहरबान. :)