रविवार को भरतलाल अपनी साइकल चोरी की एफ़.आई.आर. दर्ज कराने शिवकुटी थाने गया। उपस्थित सिपाही ने पहले भरतलाल के घर की जगह की स्थिति के बारे में पूछा। विस्तार से बताने पर भी वह समझ नहीं पाया। भरत लाल के यह बतने पर कि घर शिवकुटी मन्दिर के पास है, सिपाही यह पूछने लगा कि शिवकुटी मन्दिर कहां है? विनम्रता से भरत ने बताया कि थाने का नाम भी शिवकुटी थाना है!(अर्थात सिपाही जी को अपने थाना क्षेत्र की भी जानकारी नहीं है!)
अब सिपाही ने कहा कि दरख्वास्त लिख कर लाओ, साइकल खोने की। उसने दर्ख्वास्त लिखी। फिर कहा गया कि टाइप करा कर लाओ। वह भी उसने किया। प्रमाण के तौर पर उसने अपनी नयी साइकल की रसीद भी नत्थी की।
उसके बाद सिपाही ने कहा कि साइकल की बिल की मूल प्रति वह नहीं लेगा। उसकी फोटो कापी करा कर लाये। मार्केट में बिजली नहीं थी। लिहाजा भरत ने सिपाही को कहा कि वह ओरिजिनल ही रख ले - आखिर जब साइकल ही नहीं है तो रसीद का भरत क्या अचार डालेगा! पर टालू सिपाही तैयार ही न हुआ।
इतने में एक अधेड़ औरत और उसके पीछे उसके लड़का बहू थाने में आये। प्रौढ़ा का कहना था कि उन दोनो बेटा-बहू ने उसे मारा है और खाना भी नहीं देते। सिपाही ने उसकी दरख्वास्त लेने की बजाय दोनो पक्षों को हड़काया। वे बैरंग वापस चले गये।
तब तक एक दूसरा सिपाही दारोगा साहब का गैस सिलिण्डर ले कर आया कि वह कल भरवाना है और थाने में उसे सुरक्षित रख दिया जाये। सिपाही जी परेशान हो गये कि थाने में सुरक्षित कैसे रखा जाये सिलिण्डर! शाम को तो ड्यूटी भी बदलनी है।...
भरतलाल ने घर आ कर कहा - "बेबीदीदी, जब ऊ दारोगा जी क सिलिण्डरवा भी सुरच्छित नाहीं रखि सकत रहा, त हमार साइकिल का तलाशत। हम त ई देखि चला आवा।" ["बेबीदीदी (मेरी पत्नीजी), जब वह दारोगा का गैस सिलिण्डर भी सुरक्षित नहीं रख सकता था तो मेरी साइकल क्या तलाशता। ये देख कर मैं तो चला आया।"]
हमारे थानों की वास्तविक दशा का वर्णन कर ले गया भरतलाल। यह भी समझा गया कि आम सिपाही की संवेदना क्या है और कर्तव्यपरायणता का स्तर क्या है।
भरतलाल मेरा बंगला-चपरासी है। भरतलाल की पुरानी पोस्ट पढ़ें - मोकालू गुरू का चपन्त चलउआ। इसे आलोक पुराणिक दस लाख की पोस्ट बताते है! ऊपर परिवाद के विषय में जो एटीट्यूड थाने का है, कमोबेश वही हर सरकारी विभाग का होता है। रेलवे में भी ढ़ेरों लिखित-अलिखित परिवाद रोज आते हैं। एक जद्दोजहद सी चलती है। एक वृत्ति होती है टरकाऊ जवाब दे कर मामला बन्द करने की। दूसरी वृत्ति होती है परिवाद करने वाले को संतुष्ट करने की। तीसरी वृत्ति होती है, परिवाद रजिस्टर ही न करने की। मैने कई स्टेशन स्टाफ के आत्मकथ्य में यह पाया है कि "वर्ष के दौरान मेरी ड्यूटी में कोई-जन परिवाद नहीं हुआ"। समझ में नहीं आता कि यह कर्मचारी को कौन सिखाता है कि जन परिवाद न होना अच्छी बात है। मेरा विचार है कि वह संस्थान प्रगति कर सकता है जो जम कर परिवाद आमंत्रित करता हो, और उनके वास्तविक निपटारे के प्रति सजग हो। |
मेरा विचार है कि वह संस्थान प्रगति कर सकता है जो जम कर परिवाद आमंत्रित करता हो, और उनके वास्तविक निपटारे के प्रति सजग हो-
ReplyDeleteआपका बिल्कुल सही विचार है जी. बिना इसके तरक्की तो भूल जाईये बल्कि डूबना तय जानिये.
बहुत बढ़िया विषय लिया है, बधाई.
सरकारी महकमें जवाबदेही में फिसड्डी होते जा रहे हैं और प्राइवेट सेक्टर से तो कोई उम्मीद ही नहीं की जा सकती। लाभ के लिए काम करना इनकी घोषित नीति है। वारण्टी और गारण्टी के फेर में उलझाये रखना इनकी फितरत है। लोककल्याणकारी राज्य (welfare state) की अवधारणा के अंतर्गत सरकारी संस्थानों से उम्मीद की जाती है कि लाभ के उद्देश्य को परे रखकर हमारे मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए ये काम करेंगे। इसी लिए इन्हे चलाने के लिए हम टैक्स देते हैं। लेकिन अफ़सोस ये है कि सब जगह आदमीं ही बैठा हुआ है जो परम स्वार्थी, कामचोर, धनलोलुप और अहंकारी होता जा रहा है। इसके पीछे भौतिकवाद और अतिशय उपभोक्तावाद की भूमिका भी है। नैतिक शिक्षा स्कूली किताबों तक सीमित हो गयी है।
ReplyDeleteसिपाही ससुर कुछो नही जानता है.... भरत से कुछ नोट कमाने चाहिए थे.... कम से कम १० रुपये तो मिल जाते.... सिपाही प्रगतिशील नही है... ऐसे ही सिपाहियों ने भारत को विकासशील बनाये रखा है नही तो भारत को तो अब तक विकसित देश हो जाना चाहिए थे....
ReplyDeleteआप की आज की पोस्ट कम से कम एक अरब की है। रुपयों की नहीं, आबादी की। पूर्वा (मेरी पुत्री) ने मुझे 25 जुलाई 2008 को 24 जुलाई की समाप्ति पर भारत की आबादी का प्रक्षेपण प्रेषित किया था जो 1166766158 है अर्थात् एक अरब था।
ReplyDeleteइस में से सोलह करोड़ सड़सठ लाख एक सौ अट्ठावन को घटा दें तो शेष एक अरब के साथ थानों में यही व्यवहार होता है। सभी सरकारी दफ्तरों में भी यही हाल है, चाहे आप कहीं चले जाएँ।
कारण एक ही है। हमारी घाटे की अर्थ व्यवस्था। हर स्थान पर लोगों की कमी है। बावजूद इस के कि देश में आबादी भारी बेरोजगारी भुगत रही है। हमारी प्रणाली में प्रतिशतता आंकती है। आप ने कितनी शिकायतों को निपटाया। 100 प्रतिशत। दस आए और दस निपटाए। क्षमता ही 10 की है तो बाकी तीस हों या चालीस क्या फर्क पड़ता है? दर्ज ही 10 करो बाकी को रवाना करो। दर्ज भी केवल उन को जिन को आसानी से निपटाया जा सके। फिर प्रथम सूचना केवल थानाधिकारी के निर्देश पर ही दर्ज होती हैं। क्यों कि वही प्रतिशतता के लिए जिम्मेदार है। पारिवारिक मामले थाने वैसे भी दर्ज नहीं करते। पहले तो डांट डूंट कर रवाना कर देते हैं। माथे ही आएँ तो उन के लिए नगरों में पारिवारिक थाने/महिला थाने स्थापित हैं, वहाँ भेज दिए जाते हैं। अब अगर परिवाद के निपटान की दर की प्रतिशतता के बजाय अधिक परिवाद दर्ज करने पर दर्ज करने वाले का गोपनीय प्रतिवेदन या पदोन्नति निर्भर करने लगे तो ढेर लगने लगेंगे। निपटान एक-दम न्यून आ जाएगा। इस से पुलिस के संख्या बल की कमी दिखाई देने लगेगी। जो सरकारों को पसंद नहीं आएगी। उन की राष्ट्रीय अन्तर्ऱाष्ट्रीय ख्याति पर असर आएगा। इस कारण से सरकारें भी इसे पसन्द नहीं करतीं। नतीजा सामने है।
आज कल बड़े नगरों में मौत के मुकदमे के अलावा आने वाले मुकदमों में प्रथम सूचना की रिपोर्ट दर्ज करने के लिए मंत्री जी की सिफारिश लगानी पड़ती है।
विश्लेषण लम्बा है। उस के लिए टिप्पणी क्या? एक आलेख भी पर्याप्त नहीं, आलेखों की श्रंखला जनमेगी। इस नाजुक विषय और जनता की दुखती रग पर कलम चलाने के लिए धन्यवाद और लख-लख बधाइयाँ।
पुलिस की कार्यों की समीक्षा में उपलब्धि धनात्मक नही ऋणात्मक देखी जाती है -जबकि कई दीगर विभाग उपलब्धि को बढ़ते ग्राफ से दर्शाते हैं -यहाँ पैटर्न उलट जाता है -पिछले माह कितनी ऍफ़ आई आर हुयी -१५ और इस माह -२० ,बस दरोगा गया काम से.तो फिर काहें ऍफ़ आई आर लिखी जायेगी !
ReplyDeleteअगर यह इस तरह होता -पिछले माह ऍफ़ आई आर ८५ आर इस माह अब तक १८० और दरोगा को शाबाशी तब पूँछ पूँछ कर ऍफ़ आई आर लिखी जाती .और यही होना भी चाहिए यद्यपि इसके अपने अन्तर्निहित खतरें हैं .
राजेश जी की बात सही है.. कम से कम 10 रुपये तो बनते ही थे.. ऐसे सिपाहियो को तो नौकरी से निकाल देना चाहिए
ReplyDeleteकैसा चपंतू चेला है आपका ? जिसे इतने सालो मे सरकारी नौकरी करने के बावजूद काम कैसे कराना है नही पता ? अरे शिकायत के साथ १०० के नोट दिखाता तो वो बिना रसीद के आपकी गाडी के चोरी होने की सूचना भी लिखवा आता. उसे ट्रेनिंग की सख्त जरूरत है , मुझॆ लगता है कि वह गलत संगत मे ( शायद गलत साहब की सोहबत मे बिगड गया है )पड गया है जिससे वह सारे सरकारी नियन कायदे भूल गया है , उपचार के लिये तुरंत उसका ट्रान्सफ़र किसी खाने पीने वाली जगह कराया जाया :)
ReplyDeleteसरजी एफआईआर दर्ज कराना विकट काम है।
ReplyDeleteफिर उसे कैंसल कराना उससे भी विकट काम है।
एक बार यूं हुआ कि मेरा स्कूटर चोरी टाइप हो गया।
मेरा चेला टीवी पर धांसू टाइप का क्राइम रिपोर्टर था, सो मेरे साथ गया वो। थानेदार साहब ने उसे देखकर रिपोर्ट तो लिख दी, एफआईआर लाइफ में पहली बार देखी, विकट दस्तावेज होता है, कई पन्नों का। एक प्रति मुझे भी मिली।
फिर हुआ यूं कि स्कूटर उसी इलाके में कहीं और पड़ा मिला, मुझे मिला, तो मैंने चाबी से खोला और उसे चलाकर थाने में ले गया। फिर तब बैठे अफसर से कहा जी स्कूटर तो आस पास पडा मिल गया। मैं लेकर जा रहा हूं। अफसर बोले ना अब तो ये केस प्रापर्टी हो लिया है, कोर्ट जाकर ही मिलेगा। आप पर ही पांच छह धारा लग सकती हैं, आपने केस प्रापर्टी से छेड़छाड़ की है, सबूतों से छेड़छाड़ की है, उसने इतनी धाराएं गिनायी कि मैं धाराशायी हो गया। फिर चेले को याद किया।
पांच मिनट में थानेदार साहब का फोन उस अफसर को आया, फिर मेरे मोबाइल पर आया जी आप तो स्कूटर ले जाओ। एफआईआर हम बाद में अपने रजिस्टर से फाड़ लेंगे। मस्त रहिये।
बाद में मुझे बताया गया कि पुलिस थाने से कुछ भी निकाल कर लाना बहुत मुश्किल काम है।
भरतजी के लिए सिर्फ शुभकामनाएं ही हैं। पुलिस से तो सिर्फ डकैत और जेबकट ही कुछ उम्मीद कर सकते हैं, और उनसे कोई उम्मीद नहीं कर सकता।
आप का भरत लाल समझदार है जो सब समझ कर लौट आया , भीष्म साहनी की कहानी स्कटर की चोरीकहानी का पात्र अपनी स्कूटर को पाने के लिए जवान से अधेड़ हो जाता है और उसके सकूटर के बदले एक खटारा मिलती है तीस पर भी उसे कोट के चक्कर लगाने पड़ते हैं यह साबित करने के लिए कि वह स्कूटर उसकी है.. ऐसे लचर व्यवस्था के आदि है हम.....
ReplyDeleteहम भी जनवरी की कडकडाती ठण्ड में एफ़ आइ आर लिखाने गये थे,आपने याद ताज़ा कर दी.हम भरत लाल जितने स्मार्ट नहीं थे,४ घण्टे लगाकर रिपोर्ट लिखवाई,किन्तु सामान ना मिलना था ना ही मिला.
ReplyDeleteबेचारे भरतलाल कंहा जाकर फंस गए.
ReplyDeleteक्या उन्हें पता नहीं था कि अगर थाने गए तो साईकिल मिलने कि रही सही चांस भी ख़त्म हो जायेगी.
और अगर थाने जाना ही था तो आपको बतलाकर और आपसे समझ कर जाना था कि सरकारी विभागों में काम काज कैसे करवाया जाता है.
:) :) :)
उफ़... सरकारी कार्यालयों का ये हाल तो सबका रोना है... यहाँ तो आशा ही नहीं दिखी, किसी बाबु के कार्यालय में पड़ जाय तो छोटे से मझले और बड़े बाबू सबके पास १० रुपये की नोट के नत्थी के साथ फाइल ऐसे घूमेगी की बेचारा ! इन्फ्लेसन ने शायद ये १० की नोट को रिप्लेस कर दिया हो.
ReplyDeleteही ही साइकिल तो अब कभी नही मिलने वाली, पुलिस ने अगर रिपोर्ट लिख भी ली, साइकिल ढुँढ भी ली तो उसे वो खूद ही चोर बाजार मे बेच आयेंगे, कोलकत्त मे कॉम्पलेक्स से पापा जी की बाईक चोरी हो गयी थी... बहूत खोजबीन के बाग जो तमाशा सामने आया वो कूछ कूछ ऐसा ही था. :P
ReplyDeleteशिकायत लिखाओ..खोया माल नहीं मिलना है, न मिलेगा. फिर काहे चक्कर मारने?
ReplyDeleteआलोकजी की व्यथा भी यही कहती है.
बधाई हो ज्ञानजी! मच्छर-मक्खी के बाद आज चपरासी की साइकल की बारी आ गयी आपके मन में हलचल पैदा करने के लिए।
ReplyDeleteचलो एक और विषय मिल गया आपको ब्लॉग लिखने के लिए और हमें टिप्पणी करने के लिए।
भरतलाल तो केवल एक चपरासी था।
आलोकजी के मज़ेदार किस्से के बाद, ज़रा मेरी कहानी भी सुनिए।
१९७३ में रूड़की विश्वविद्यालय में मैं ME कर रहा था।
एक दिन, हॉस्टल से मेरी साइकल की चोरी हो गई।
एक अनुभवहीन मूर्ख था मैं। तुरंत पुलिस थाने में रपट लिखने चला गया। वहाँ मेरी ऐसी ragging हुई, ऐसी ragging हुई की साइकल वाइकल सब भूलकर थाने से मुझे दुम दबाकर भागना पड़ा।
पूरे विवरण लिखने लगूँ तो टिप्पणी बहुत ही लंबी हो जाएगी।
संक्षिप्त में इतना कहूँगा कि formalities इतने ज्यादा थे कि घबराकर शिकायत न दर्ज करने का फ़ैसला ही ठीक समझा। एक तो मेरे पास साइकल की खरीद की कोई रसीद नहीं थी। (साइकल second hand थी, अपने सीनियर से खरीदी थी, और उसने भी अपने किसी सीनियर से खारीदी थी। मैं नहीं जानता कितनी पीढियों से यह चलता आ रहा था)
साइकल का प्रभुत्व का मेरे पास कोई प्रमाण नहीं था। न उसके कोई नंबर या और कोई विवरण जिससे उसकी पहचान हो सकती थी। केवल काला रंग का जिक्र करना और यह बताना के Atlas साइकल थी से क्या हो सकता था?
इसके अलावा, थाने में वो सनकी और चिढ़-चिढ़ा सिपाही का लेक्चर मुझसे नहीं सुना गया। कहने लगा कि क्या सरकार हमें इसलिए तनख्वाह देती है कि हम रूड़की विश्वविद्यालय की एक एक विद्यार्थी की साइकल पर नज़र रखें? हम आपके साइकल ढूँढने निकलें या समाज की सुरक्षा का खयाल करें? एक अच्छे ताले और जंजीर नहीं खरीद सकते थे क्या? यह भी आप बुद्धिजीवियों को हमें ही सिखाना पडेगा? जाओ अपने हॉस्टल के वॉर्डन से शिकायत करो या अपने वाइस चान्सेलर से कहो। शायद आपके प्रोफ़ेस्सर सभी पढ़ाना वड़ाना सब छोड़कर आपकी अमूल्य साइकल की खोज करने निकल आएंगे। यहाँ हमें पुलिस वालों के लिए और भी काम हैं। बहुत देखे हैं आप जैसे विद्यार्थियों को। जाओ। एक दो दिन में यहीं कहीं मिल जाएगी आपकी साइकल। नहीं मिली तो पैदल चलना सीखो। भले चंगे नौजवान दिखते हो। इतना छोटा कैंपस है। क्या जरूरत है साईकल की। वगैरह, वगैरह ।
पुलिस वालों के और भी किस्से हैं मेरे पास सुनाने के लिए। बस सही अवसर मिलने पर सुनाँगा। आशा अहि कि आपका ब्लॉग अवश्य यह अवसर शीघ्र प्रदान करेगा।
शुभकामनाएं
Filhaal to Police se abhi tak pala nahi pada hai.. aur Aisi halat dekhkar prathna karta hu ki kabhi pade bhi na :-)
ReplyDeleteNew Post :
Jaane Tu Ya Jaane Na....Rocks
आप साईकिल की बात करते है .हमारे एक मरीज अपनी बिटिया हमें दिखाने आये ,बाहर निकले तो उनका स्कूटर गायब ....उनकी परेशानी ये की थाने में कोई रिपोर्ट लिखने को तैयार नही ,न कोई प्रति देने को ...एक दरोगा बोले की तुम चलो हम तफ्शीश के लिए आते है......कौन आया ?कोई नही .....महीनो बाद .एक दरोगा जी उसी थाने के हमें मुफ्त जुगाड़ से दिखाने आये ..हमने कहा तुम रिपोर्ट नही लिखते .....बोले डॉ साहेब ऊपर से हुक्म है ,कहे तो आपको दूसरा स्कूटर दिलवा दे ..पर रिपोर्ट नही लिखेंगे ...माफ करना ...
ReplyDeleteमेरे भाई के लडके की नयी साईकिल खो गई थी, जब घर आया तो मे भी वही बेठा था, बच्चे ने जब बताया की कोई साईकिल चोरी कर के ले गया हे, तो सब ने कहा कोई बात नही, मेने कहा अजी इस की रिपोर्ट तो लिखाओ जा कर थाने मे,मां बोली नही कोई जरुरत नही , बाद मे मां ने बताया एक बार घर मे चोरी हो गई तो मा ओर पिता जी ने ्रिपोर्ट लिखवाई, थोडी देर बाद पुलिस भाई को पकड कर ले गई, क्यो अजी इन्कवारी करनी हे , फ़िर रिपोर्ट्वापिस ली भाई को छुडाने केलिये अलग से खर्च... फ़िर भी पुलिस आप की दोस्त
ReplyDeleteग्यान दत्त जी आप का लेख पढ कर मुझे घर की पुरानी कहानी याद आ गई
hum duaa karengey-- bharatlal jii ke liye------
ReplyDelete.
ReplyDeleteबेहतरीन मुद्दे पर एक बेहतरीन पोस्ट ,
विश्वास नहीं होता कि हम किस युग में जी रहे हैं ?
निश्चय मानिये यह ज़बरन ठेली गयी पोस्ट नहीं लगती,
और है भी नहीं ! बहुत ही सार्थक लेखन !
भरतलाल की समझदारी और दुनियादारी पर मुग्ध हैं हम। बाकी पुलिस के खिलाफ तो कुछ न कहलवाइये। इनसे हमारी पिछले जन्म की दुश्मनी है। लड़ाई, हाथापयी, गाली-गलौज सब हो चुकी है इनसे । अब और तंग नहीं करना चाहते इन्हें।
ReplyDeleteपुलिस के साथ अपना तो आज तक कोई पंगा हुआ नहीं....वैसे उनके बापों का फोन आ जाता है तो हें.हें करने लगते हैं...ऐसन मामलों में अपन बहुत सोर्स-प्रेमी जीव हैं...परसाईजी ने भी कहा था कि उन्होंने दुनिया में ऐसी सोर्स-प्रेमी जाति नहीं देखी.
ReplyDelete:)
सायकल छोडि़ये...सामने आदमी पिटता रहता है और ड्यूटी पर खड़े पुलिसवाले तमाशा देखते हैं.
लग रहा है आपलोगों का वास्ता अपेक्षाकृत शरीफ पुलिसवालों से रहा है। बिहार के थानों में एफआईआर के लिये कागज भी खुद ही खरीद कर ले जाना होता है, वह भी पूरा एक जिस्ता।
ReplyDeleteफिर, दस बीस व सौ रुपये से कुछ भी नहीं होनेवाला, न्यूनतम डिमांड दस से पांच हजार रुपयों के बीच होती है (भले ही आप दो जून की रोटी के भी मुहताज हों)। तीसरी बात, चोरी लूट डकैती आदि जैसे आपराधिक मामले दर्ज करने में तो पुलिस आनाकानी करती है, क्योंकि इनसे थाने का रिकार्ड खराब नजर आता है। लेकिन मारपीट व दुर्घटना के मामलों के लिए तो पुलिसवाले लार टपकाते रहते हैं। दोनों पक्षों को दूहने का मौका जो मिलता है।
एक और बात, आपने एफआईआर लिख कर दिया, इसका मतलब यह नहीं कि उसे पुलिसवाले अपने रजिस्टर में दर्ज ही कर लेंगे। उससे पहले पैसा और पैरवी का बड़ा खेल चलता है।
लेकिन सिर्फ पुलिस पर ही सारा दोषारोपण क्यों? मजबूरी में ही सही, पुलिस कुछ नेक काम भी कर देती है। दूसरे महकमों में तो स्थिति इससे भी बदतर है। रेलवे के टीटीई को ही लें, एक टीटीई के सत्कर्मों के आगे कई पुलिसवाले शर्मिंदगी महसूस करने लगेंगे।
bara shareef sipahi tha, itni der tak bharat laal se sarafat ke saath baat karta reha......
ReplyDeleteअब अपन आज टिपियाने आए है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ भरतलाल साहेब की खातिर।
ReplyDeleteसमझदार हैं वो जो लौट आए नई तो सौ रूपए का चूना लगता बस एफ़ आई आर दर्ज कराने मे, सायकिल तो मिलनी है नही।
भरतलाल जी की साइकल चोरी हो जाने का दुख है
ReplyDelete--
अब उन्के लिये
नयी साइकिल मिली या नहीँ ?
और हाँ,
पल्लवी जी कहाँ हैँ ??
...उनसे कहिये ,
शायद मदद कर देँ
.."तफ्तीश" शब्द ,
ना जाने कहाँ से आया होगा ?
..पर है बहुत ज़बरदस्त !
पहली बात तो हमें आज ही पता चला कि भरतलाल आप का चपरासी है। मन में थोड़ा कन्फ़्युशन था, एक और किरदार है आप की पोस्टों में उसका अक्सर जिक्र होता है (जिसके लिए आप ने कहीं टिप्पणी में कहा था कूपमण्डूक तो बिल्कुल नही है)लेकिन हमें आज तक पता नहीं चला कि वो किरदार काल्पनिक है या सचमुच में आप के घर का हिस्सा है। आज की पोस्ट देख कर लगता है कि हर किसी ने अपने जीवन में एक न एक बार तो चोरी और फ़िर पुलिस के माथे लगने का अनुभव किया ही है। आलोक जी का अनुभव सकारत्मक रहा अपने पुराने छात्र की वजह से, वैसे भी भाग्यशाली रहे कि स्कूटर अपने आप मिल गया। पुराने मॉडल का खटारा तो नहीं था जिसे स्टार्ट करने में पांव टूटते हों और चोर ने सोचा हो ये तो घाटे का सौदा हो गया…।:)
ReplyDeleteखैर अब सब ने अपने किस्से सुनाए तो हम कैसे पीछे रह जाएं। हुआ यूँ कि एक बार हमारी नयी कार चोरी हो गयी वो भी हमारे घर के नीचे से और वो भी सोसायटी के अंदर से, वॉचमेन के सामने कार ड्राइव करके ले गये और उसे पता भी न चला कि ये चोरी हो रही है, चोर इतने भद्र दिख रहे थे कि उसने सोचा कि शायद हमारे पति के मित्र हों। खैर जाके रपट लिखाई गयी।उसके बाद पति देव तो अपनी दफ़तर की रुटीन में व्यस्त हो लिए और वैसे भी बम्बई में ट्रेफ़िक जैम के चलते आधी जिन्दगी तो सड़को पर ही गुजर जाती है। लिहाजा थाने जा कर फ़ोलोअप करने का काम हमारे ऊपर आ गया। कभी किसी पुलिस वाले से वास्ता नहीं पड़ा था इस लिए डरते भी थे पुलिस स्टेशन जाने से। एक अधेड़ पड़ौसन के साथ जाना शुरु किया थाने पूछने के लिए क्या हुआ हमारे कैस का। एक ही जवाब होता जब हमारे अपने दरोगा की जीप पुलिस स्टेशन से चोरी हो गयी और नहीं मिली तो तुम्हारी क्या मिलेगी, भूल जाओ और जाकर इंश्यौरेंस क्लेम कर लो, इसी लिए तो एफ़ आइ आर लिख लिया है न, और कितनी मदद करें। एक महीने तक हम नियमित रूप से जाते रहे फ़िर हमारी पड़ौसन भी तंग आ गयी और हम भी अपने जख्मों को सहला रहे थे। तीन महीने गुजरने के बाद एक दिन रात को क्राईम ब्रांच के लोग पधारे, हम तो उनका डील डौल देख कर ही डर गये। पति देव अभी काम से लौटे नहीं थे। उन्होंने पूछा आप की कार चोरी हुई है, हमारे हां कहने पर बोले एक आई आर की कॉपी दिखाओ। फ़िर बोले आप की कार मिल गयी है।पता चला कि चोर सभ्रांत परिवार के पड़े लिखे लोग थे, हम फ़िर नीचे जा कर चोरों का चेहरा भी देख कर आये। लेकिन कार वापस लेने के लिए हमें 12000 खर्च करने पड़े। हमारी कार जो कि नयी थी चोरी कर किसी और को बेच दी गयी थी, उस बेचारे को तो लाखों का नुकसान हो गया। खैर अंत भला तो सब भला