मध्य वर्ग की स्नॉबरी रेल के द्वितीय श्रेणी के वातानुकूलित डिब्बे में देखने के अवसर बहुत आते हैं। यह वाकया मेरी पत्नी ने बताया। पिछली बार वे अकेले दिल्ली जा रही थीं। उनके पास नीचे की बर्थ का आरक्षण था। पास में रेलवे के किसी अधिकारी की पत्नी अपने दो बच्चों के साथ यात्रा कर रही थीं और साथ के लोगों से टीवी सीरियलों पर चर्चा के रूट से चलती हुयी अपना पौराणिक ज्ञान बघारने में आ गयीं - "अरे महाभारत में वह केरेक्टर है न जिसका सिर काटने पर सिर उग आता है, अरे वही..."
लोगों ने प्रतिवाद किया तो उन्होंने अपने दिमाग को और कुरेदा। पहले कहा कि वह चरित्र है, पर नाम याद नहीं आ रहा है। फिर बाद में याद कर उन्होने बताया - "हां याद आया, शिखण्डी। शिखण्डी को कृष्ण बार बार सिर काट कर मारते हैं और बार बार उसका सिर उग आता है..."
मेरी पत्नी ने बताया कि उन भद्र महिला के इस ज्ञान प्रदर्शन पर वह छटपटा गयी थीं और लेटे लेटे आंख मींच कर चद्दर मुंह पर तान ली थी कि मुंह के भाव लोग देख न लें। बेचारा अतिरथी शिखण्डी। वृहन्नला का ताना तो झेलता है, यह नये प्रकार के मायावी चरित्र का भी मालिक बन गया। कुछ देर बाद लोगों ने पौराणिक चर्चा बन्द कर दी। आधे अधूरे ज्ञान से पौराणिक चर्चा नहीं चल पाती।
अब वे महिला अपने खान-पान के स्तर की स्नाबरी पर उतरा आयीं। बच्चों से कहने लगीं - हैव सम रोस्टेड कैश्यूनट्स। बच्चे ज्यादा मूड में नहीं थे। पर उनको खिलाने के लिये महिला ने न्यूट्रीशन पर लेक्चराइजेशन करना प्रारम्भ कर दिया।
मैने पूछा - तो बच्चों ने कैश्यूनट्स खाये या नहीं? पत्नी ने कहा कि पक्का नहीं कह सकतीं। तब से कण्डक्टर आ गया और वे महिला उससे अंग्रेजी में अपनी बर्थ बदल कर लोअर बर्थ कर देने को रोब देने लगीं। रेलवे की अफसरा का रोब भी उसमें मिलाया। पर बात बनी नहीं। कण्डक्टर मेरी पत्नी की बर्थ बदल कर उन्हें देने की बजाय हिन्दी में उन्हे समझा गया कि कुछ हो नहीं सकता, गाड़ी पैक है।
मैने पूछा - फिर क्या हुआ? पत्नी जी ने बताया कि तब तक उनके विभाग के एक इन्स्पेक्टर साहब आ गये थे। टोन तो उनकी गाजीपुर-बलिया की थी, पर मेम साहब के बच्चों से अंग्रेजी में बात कर रहे थे। और अंग्रेजी का हाल यह था कि हिन्दीं में रपट-रपट जा रही थी। इन्स्पेक्टर साहब बॉक्सिंग के सींकिया प्लेयर थे और बच्चों को बॉक्सिंग के गुर सिखा रहे थे।...
स्नॉबरी पूरी सेकेण्ड एसी के बे में तैर रही थी। भदेस स्नॉबरी। मैने पूछा - "फिर क्या हुआ?" पत्नी जी ने बताया कि फिर उन्हें नींद आ गयी।
स्नॉबरी मध्य वर्ग की जान है! है न!
स्नॉबरी (Snobbery): एक ही पीढ़ी में या बहुत जल्दी आये सामाजिक आर्थिक परिवर्तन के कारण स्नॉबरी बहुत व्यापक दीखती है। अचानक आया पैसा लोगों के सिर चढ़ कर बोलता है। पद का घमण्ड भाषा और व्यवहार में बड़ी तेजी से परिवर्तन लाता है। कई मामलों में तथाकथित रिवर्स स्नॉबरी - अपने आप को गरीबी का परिणाम बताना या व्यवहार में जबरन विनम्रता/पर दुखकातरता ठेलना - जो व्यक्तित्व का असहज अंग हो - भी बहुत देखने को मिलती है। मेरे भी मन में आता है कि मैं बार-बार कहूं कि मैं म्यूनिसिपालिटी और सरकारी स्कूलों का प्रॉडक्ट हूं! आज का युग परिवर्तन और स्नॉबरी का कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी। और इसके उदाहरण इस हिन्दी ब्लॉग जगत में भी तलाशे जा सकते हैं। |
अपने जीवन में बहुत सारी रेल यात्राएँ द्वितीय श्रेणी के अनारक्षित डिब्बे में की हैं | उसके बाद २ साल बंगलौर में थे तो हमेशा द्वितीय श्रेणी में ही लेकिन आरक्षण के साथ सफर किया | मथुरा से बंगलौर की यात्रा के दौरान अक्सर मेरे आस पडौस में फौज वाले मिल जाते थे और बहुत अच्छा समय बीतता था |
ReplyDeleteइस बार पहली बार भारत यात्रा के दौरान वातानुकूलित यात्रा का लुत्फ़ उठाया, हमारे आस पास तो बड़े अच्छे लोग बैठे हुए थे, अच्छा सफर रहा |
असल में पिछले दस वर्षों से घर से दूर हैं लेकिन एक विद्यार्थी के रूप में ही हैं, अधिक पैसे न हैं और न चाहत है | लेकिन जिस नए नए पैसे की बात आपने कही है भारत यात्रा के दौरान उसका अनुभव भी लिया | कुछ दिन पहले ही अपनी बड़ी बहन से पता चला कि उन्होंने हंसी खुशी अपने बेटे का दाखिला एक स्कूल में २०००० रुपये देकर कराया है जिसमे कि अभी केवल प्ले स्कूल है | बड़ी कोफ्त हुयी लेकिन कुछ कह न सके, बस दीदी से पूछा कि महीने के १०००० कमाने वालों के बच्चे कहाँ पढ़ते हैं | बाप रे!!! लगता है हम भी रिवर्स स्नाबरी ठेल गए, अब कुछ नहीं हो सकता :-)
स्नॉबरी मध्य वर्ग की जान है! है न! यह तो बिल्कुल सही कहा..पूरी तरह सहमत...कोई अतिश्योक्ति नहीं..कंधे से कंधा मिला समझिये!!
ReplyDeleteमगर??
इसके उदाहरण इस हिन्दी ब्लॉग जगत में भी तलाशे जा सकते हैं।...थोड़ा और खुलासा करिये न प्लीज...इतना तो मान रखेंगे न!! एक दो नाम तो बताईये न...जी....प्लीज़....चलिये प्लीज के ज में नुक्ता भी लगा दिया..बताईये न!!! आप तो जानते हैं!! मगर आप बहुत वो हैं..बता क्यूँ नहीं रहे..बता दो न!! :) प्लीज़!!!ज़!! ज़!!
@ ऊड़न तश्तरी -
ReplyDeleteआप की शरारत समझ आ रही है। ब्लॉग जगत से एक भी नाम गिनाने पर कपड़े उतरने का पूरा खतरा है! आपको वही मजा लेना है - हमारी कॉस्ट पर!
कल संसद के तमाशे से मन नहीं भरा! :-)
ज्ञान जी ,मैं तो ठहरा विज्ञान का आराधक ,सामाजिक मुद्दों को भी व्यवहार शास्त्र के नजरिये से देखने की गंदी आदत पड़ चुकी है .
ReplyDeleteजिस दिखावे की प्रवृत्ति का आपने उल्लेख किया वह सभी मनुष्यों में देश काल परिस्थिति के अनुसार है -यह आत्म प्रदर्शन जैसा है .
यह आदि वासियों में भी है और कथित सभ्य समाज की सभी श्रेणियों में .किंतु मात्र मनुष्य ही इन जैसे कई व्यवहारों का अपवाद भी बन कर उभरता है -दरअसल मानव व्यवहार बहुत जटिल है -इसे समझने में बहुत माथा पच्ची हो रही है .लेकिन आदिम वृत्तियाँ सभी में ,मुझमें और आप में भी कमोबेस मौजूद ही हैं .
हम भी कभी कभार दिखावे की सौजन्यता ,भद्रता का आवरण ओढ़ लेते हैं और ऐसा बहुधा पारिवारिक संस्कारों के चलते होता है -इलीट क्लास के कुछ स्टेरियोटाईप तो होते ही हैं -ओढी हुयी विनम्रता ,सज्जनता ये सब इलीट क्लास के चोचले ही तो हैं -वरना हम सभी [हमाम में नंगे ]/नंगे कपि ही हैं -एक कपि/कवि ह्रदय हम सभी में धड़कता है .
अजी काहे ट्रेन में चढें या ब्लॉगजगत खंगालें ... हमें तो लगता है कि कदम कदम पर ऐसे लोग दी्ख्खै हैं... जहॉं कतई नहीं होने चाहिए वहॉं भी.. जैसे कि कैंपस में...कई तो ऐसे हैं जो एक ही साथ स्नॉबरी व रिवर्स स्नॉबरी का प्रदर्शन कर बैठते हैं :)
ReplyDeleteभारत का जैसा इतिहास रहा है, उस ने यहाँ जनता में जितनी भिन्नताएँ उत्पन्न की हैं, वैसा शायद किसी और देश में नहीं मिलेगा। जाति, प्रान्त, क्षेत्र की भिन्नताएँ, फिर आर्थिक भिन्नताएँ,सरकारी गैरसरकारी होने की भिन्नताऐं.....पूरा पृष्ठ रंगा जा सकता है पर ये भिन्नताएँ कम न होंगी। अनेक वर्ग उत्पन्न हो गए हैं। दम्भ भरने के लिए बहुत उर्वर है जमीन। आप ने केवल सैकण्ड एसी के डब्बे का दंभ बताया जब कि ये हर कहीं दिखाई देता है। ब्लाग पर भी मिलेगा। जितने वर्ग उतने ही वर्ग-दम्भ।
ReplyDeleteस्नाबरी रोचक और इंटरटेनमयी होती है। उस पर एतराज नहीं ना करना चाहिए, उसका मजा लेना चाहिए। रेल की स्नाबरी से आगे की स्नाबरी होती है कार की स्नाबरी। नयी कार ले आये कोई बंदा, फिर खैर नहीं है। जब तक उसके सारे गुण ना गिना दे, चैन नहीं लेता। इनसे मजे लेने चाहिए। व्यंग्य की बहुत बड़ी खुराक यहीं से आती है। पर एक हद के बाद इन्हे नहीं झेला जा सकता। मजा यह है कि एक स्नाब दूसरे स्नाब को सहन नहीं करता। स्नाबरी के लिए चिरकुट श्रोता चाहिए। चिरकुटई में आनंद हैं। लिये जाइये।
ReplyDeleteये स्नॉबरी तो ब्लॉग जगत में भी नज़र आती है.. समेर जी से सहमत हू एक आध नाम गिनवा ही दीजिए..
ReplyDeleteभईया...ये हमारी हीन भावना है जो हमें ये सब करवाती है...जो हम हैं नहीं वो बनने की कोशिश करते हैं और हास्य के पात्र बन जाते हैं.... हम जैसे हैं वैसा अपने आप को बतलाने के लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए.
ReplyDeleteनीरज
हर व्यक्ति के किसी न किसी कोने में दंभ छिपा हुआ है, विवेक की लगाम कितनी कसी हुई है, बाकी उस पर निर्भर करता है.
ReplyDeleteअजी ट्रेन में बड़े रोचक टाइमपास लोग मिल जाते हैं. और पूर्वी उत्तर प्रदेश से इलाहबाद कानपुर तक कुछ ज्यादा ही. ट्रेन का एक किस्सा कहीं और के लिए रखा था लेकिन अब बात निकली है तो आज यही ठेल देता हूँ:
ReplyDelete_______
हम दो दोस्त ट्रेन में साथ-साथ जा रहे थे एक अंकल ने पूछा की बेटा क्या करते हो? और हम हमेशा की तरह खुशी-खुशी बता दिए कि आईआईटी में पढ़ते हैं. पर अंकलजी ठहरे अनुभवी आदमी और मेरा दोस्त ये बात ताड़ गया उसने कहा 'जी मैं तो हच के कस्टमर सर्विस में काम करता हूँ' अंकलजी मेरी तरफ़ देखते हुए बोले कुछ सीखो इससे... मन लगा के पढा होता तो आज ये हाल न होता. अब पढ़ते रहो अनाप-सनाप. मन से पढ़ा होता तो कहीं इंजीनियरिंग डाक्टरी पढ़ रहे होते, या फिर इसकी तरह नौकरी कर रहे होते. हमने अंकलजी की बात गाँठ बाँध ली और तब से हम भी ट्रेन में यही कहते की हम हच के कस्टमर केयर में काम करते हैं.
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अधजल गगरी छलकत जाएं भही गगरिया चुप्पे जाय किसी भी जगह मुझे ऐसा कुछ देखने सुनने को मिलता है तब मै सारा मामला समझ कर सारी बातों का मजा जम के लेती हूँ .....
ReplyDeleteयदि ऎसे लोग न होंगे, तो अपुन की ज़िन्दगी में मौज़ ही क्या रह जायेगी ?
ReplyDeleteअब देखिये आपको ही आज की पोस्ट का विषय नसीब करा दिया ।
बाई द वे, खाली बटुआ लेकर शापिंग के नाम पर
बाज़ार के चक्कर लगाने वालियाँ भी स्नाबरी के
किसी श्रेणी में आती हैं कि नहीं ? जिज्ञासा शांत की जाये, गुरुवर ?
स्नॉबरी मध्य वर्ग के गुब्बारे में हवा भरे रखती है,हालांकि उसके 'पंक्चर' और चेंपियां और थिगड़े दिखते रहते हैं . यूं होने को तो इस वर्ग का 'लेक्चराइजेशन' भी थोड़ी देर में 'थेथराइजेशन' में बदल जाता है . पर क्या किया जाए साहब तमाम दबावों के बीच वास्तविकता से नज़र चुराते इस 'इन्फ़्लेटेड ईगो' वाले भदेस मध्य/उच्च-मध्य वर्ग को 'स्नॉबरी' के तिनके का ही सहारा है .
ReplyDeleteतिस पर सींकिया इस्पेक्टर के सामने अफ़सर-पत्नी की 'स्नॉबरी' के तो कहने की क्या . अफ़सर-पत्नी,अंग्रेज़ी(?),कैश्यूनट्स और माइथोलोजी(?)का यह अनूठा संगम 'स्नॉबरी' के लिए अत्यंत उर्वर जमीन तैयार करता है .
आपने रिवर्स स्नॉबरी के खतरे की ओर भी सही इशारा किया है . पगडंडी संकरी है और खतरा दोनों ओर है .
सर जी अगर आपको याद हो तो आज से दस पहले इंडिया टुडे ने भी एक विशेष संस्करण निकाला था खास तौर से दिल्ली में उगी स्नाबेरी पर......उन दिनों इंडिया टुडे अच्छी हुआ करती थी ओर महीने में एक बार आती थी ....हम भी रोजाना दो चार हो जाते है पर सच बताये हमें आज मालूम चला की इसे स्नोबेरी कहते है ..क्या कहे हमारा अंग्रेजी में हाथ तंग है ना !
ReplyDeleteदंभ से मेरा भी कई बार टक्कर हुआ है।
ReplyDeleteट्रेन यात्रा का ही एक किस्सा सुनाता हूँ।
मेरी अंग्रेज़ी बुरी नहीं है। फ़िर भी एक बार, बिना जान पहचान के, ट्रेन में एक सुन्दर/स्मार्ट जीन्स पहनी हुई लड़की से बात करने की मैंने जुर्रत की। अपने सभी सामान को एक साथ रखने के लेए सीट के नीचे जगह बनाने की कोशिश कर रही थी। हमने सोचा, चलो इसकी मदद करते हैं और साथ साथ परिचय भी हो जाएगा और यात्रा के दौरान कुछ बातें भी हो जाएंगी। उससे मैंने अंग्रेज़ी में कहा "May I help you?"
मेरी तरफ़ केवल कुछ क्षण मुढ़कर तपाक से किसी पब्लिक स्कूल accent में उत्तर दिया उसने:
"Could you please speak in English?"
चेहरा और हावभाव कह रहे थे: "कैसे कैसे लोगों से मेरा पल्ला पढ़ता है इन ट्रेनों में! Daddy ठीक कहते थे. Plane का टिकट खरीदना था मुझे" (यह मेरी कल्पना मात्र है)
24 घंटे का सफ़र था। ठीक मेरे सामने ही बैठी थी और इस बीच में न उसने और न मैंने एक दूसरे से एक शब्द भी कहा।
मेरी आयु उस समय ५० की थी और बाल सफ़ेद होने लगे थे। लड़की शायद १८ की होगी और मेरी बेटी से भी कम उम्र की।
दुख अवश्य हुआ लेकिन उसे माफ़ करने के सिवा मैं और क्या कर सकता था?
म्यूनिसिपालिटी और सरकारी स्कूलों का प्रॉडक्ट? गुरुदेव ये तो अंडरस्टेटमैंट है। सही स्टेटमेंट है म्यूनिसिपालिटी और सरकारी स्कूलों का बाईप्रॉडक्ट। अपन भी वहीं की खर-पतवार हैं जी हाँ ये बात और है कि खर-पतवार फसल से अच्छी उग आई है। देखा जी एक ही वाक्य में स्नोबरी और रिवर्स स्नोबरी दोनों का ही घालमेल कर दिया। रेल में जाने का अवसर तो आजतक मिला नहीं मगर स्नोबरी तो कदम-कदम पर मिलती है, खासकर दिल्ली जैसे शहर में। दक्षिण में यह अपेक्षाकृत कम है।
ReplyDelete100 फीसदी सच। पूरा भारतीय मध्यवर्ग औपनिवेशिक खुरचन और गंवई सामंती अवशेषों को ठोये चला जा रहा है। न तो इसमें इंसानी गरिमा की पहचान है और न ही लोकतांत्रिक मूल्यों की। अपने से ताकतवर के आगे ये लोग दुम हिलाते हैं और अपने से कमज़ोर दिखनेवालों पर भौंकते हैं।
ReplyDeleteमोहन जी के कथन से मैं सहमत हूँ कि उत्तर भारत में स्नॉबरी ज़्यादा है, और दक्षिण भारत में अपेक्षाकृत कम.
ReplyDeleteडा. अमर कुमार की बात से सहमत-
ReplyDeleteयदि ऎसे लोग न होंगे, तो अपुन की ज़िन्दगी में मौज़ ही क्या रह जायेगी ? :)
स्नाबरी दरअसल स्ट्राबेरी की ही तरह है जो देसी बेर को स्ट्राबेरी कह कर खाते हैं तथा इसका प्रदर्शन भोंडे तरीके
ReplyDeleteसे करते हैं इन नव धनिकों के दोगले चोंचलों का उसी समय दर्पण दिखा कर मुंह बंद कर देना चाहिए पर मूर्खों से उलझाने का माद्दा भी होना चाहिए almond और केसुनत खा कर
ज्ञान जी, मैं आपकी बताई गई स्नॉबरी की परिभाषा से सहमत नहीं हूँ क्योंकि ऐसा व्यवहार तो मैंने उन लोगों में भी देखा है जो इस परिभाषा पर खरे नहीं उतरते, यानि कि सामाजिक/आर्थिक परिवर्तन से नहीं गुज़रे हैं इस व्यवहार को अपनाने के लिए, उनमें तो बस ऐवंई खामखा यह शगल के तौर पर होती है। तो क्या वे स्नॉब नहीं कहलाएँगे? यदि नहीं तो उनको क्या कहेंगे? :)
ReplyDelete@समीर जी
आप तो गलत कहते ही नहीं है, कुछ-२ समझ आ रहा है कि किस ओर आपका इशारा है। ;)
@महेन:
मेरा थोड़ा बहुत जो अभी तक अनुभव रहा है उससे यह दिखता है कि सिर्फ़ उत्तर भारतीयों में ही नहीं, वरन् अन्य इलाकों के लोगों में भी बहुत होती है यह चीज़, इसलिए एक क्षेत्र को या शहर को पिन-प्वायंट नहीं कर सकते। अब खास किसी इलाके का नाम नहीं लेते कहीं लोग बिदक न जाए और क्षेत्रीयवाद का आरोप लगा पीछे न पड़ जाएँ। ;) दिल्ली वालों की एक खास बात मैंने यह देखी है कि कोई भी दिल्ली वालों का नाम ले गलियाता रहे उनको कभी भड़क कर दूसरे की जान के पीछे नहीं पड़ते देखा, चिकना घड़ा कह लो उनको या कुछ और, हम लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई दूसरा हमे क्या भला बुरा कह रहा है! ;)
दूसरी बात यह कि स्नॉब लोग (ज्ञान जी की बताई आर्थिक/सामाजिक परिवर्तन वाली परिभाषा के मद्देनज़र) संपन्न इलाकों में ही बसेंगे, गाँव देहात में ऐसे लोग रहना नहीं चाहेंगे चाहे पिछली 10 पुश्तें उनकी वहीं रह रही हों, तो ऐसे संपन्न इलाके बहुत नहीं है, महानगर ही हैं। :)
हम तो जी समीर जी से एकदम सहमत हैं और नाम जानने को उत्सुक हैं, देखिए निराश मत किजिएगा, ये ज्ञान भी प्राप्त कर ही लें हम
ReplyDeleteएक दम सही तस्वीर पेश कर दी है, सर. ऐसी मौके हमें भी गाड़ी में बहुत मिलते रहते हैं.।
ReplyDeleteस्नोबरी सहजता की व्युत्क्रमानुपाती है.
ReplyDeleteज्ञान जी, मैं आपकी बताई गई स्नॉबरी की परिभाषा से सहमत नहीं हूँ क्योंकि ऐसा व्यवहार तो मैंने उन लोगों में भी देखा है जो इस परिभाषा पर खरे नहीं उतरते, यानि कि सामाजिक/आर्थिक परिवर्तन से नहीं गुज़रे हैं इस व्यवहार को अपनाने के लिए, उनमें तो बस ऐवंई खामखा यह शगल के तौर पर होती है। तो क्या वे स्नॉब नहीं कहलाएँगे? यदि नहीं तो उनको क्या कहेंगे? :)
ReplyDelete@समीर जी
आप तो गलत कहते ही नहीं है, कुछ-२ समझ आ रहा है कि किस ओर आपका इशारा है। ;)
@महेन:
मेरा थोड़ा बहुत जो अभी तक अनुभव रहा है उससे यह दिखता है कि सिर्फ़ उत्तर भारतीयों में ही नहीं, वरन् अन्य इलाकों के लोगों में भी बहुत होती है यह चीज़, इसलिए एक क्षेत्र को या शहर को पिन-प्वायंट नहीं कर सकते। अब खास किसी इलाके का नाम नहीं लेते कहीं लोग बिदक न जाए और क्षेत्रीयवाद का आरोप लगा पीछे न पड़ जाएँ। ;) दिल्ली वालों की एक खास बात मैंने यह देखी है कि कोई भी दिल्ली वालों का नाम ले गलियाता रहे उनको कभी भड़क कर दूसरे की जान के पीछे नहीं पड़ते देखा, चिकना घड़ा कह लो उनको या कुछ और, हम लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई दूसरा हमे क्या भला बुरा कह रहा है! ;)
दूसरी बात यह कि स्नॉब लोग (ज्ञान जी की बताई आर्थिक/सामाजिक परिवर्तन वाली परिभाषा के मद्देनज़र) संपन्न इलाकों में ही बसेंगे, गाँव देहात में ऐसे लोग रहना नहीं चाहेंगे चाहे पिछली 10 पुश्तें उनकी वहीं रह रही हों, तो ऐसे संपन्न इलाके बहुत नहीं है, महानगर ही हैं। :)
म्यूनिसिपालिटी और सरकारी स्कूलों का प्रॉडक्ट? गुरुदेव ये तो अंडरस्टेटमैंट है। सही स्टेटमेंट है म्यूनिसिपालिटी और सरकारी स्कूलों का बाईप्रॉडक्ट। अपन भी वहीं की खर-पतवार हैं जी हाँ ये बात और है कि खर-पतवार फसल से अच्छी उग आई है। देखा जी एक ही वाक्य में स्नोबरी और रिवर्स स्नोबरी दोनों का ही घालमेल कर दिया। रेल में जाने का अवसर तो आजतक मिला नहीं मगर स्नोबरी तो कदम-कदम पर मिलती है, खासकर दिल्ली जैसे शहर में। दक्षिण में यह अपेक्षाकृत कम है।
ReplyDeleteसर जी अगर आपको याद हो तो आज से दस पहले इंडिया टुडे ने भी एक विशेष संस्करण निकाला था खास तौर से दिल्ली में उगी स्नाबेरी पर......उन दिनों इंडिया टुडे अच्छी हुआ करती थी ओर महीने में एक बार आती थी ....हम भी रोजाना दो चार हो जाते है पर सच बताये हमें आज मालूम चला की इसे स्नोबेरी कहते है ..क्या कहे हमारा अंग्रेजी में हाथ तंग है ना !
ReplyDeleteस्नॉबरी मध्य वर्ग के गुब्बारे में हवा भरे रखती है,हालांकि उसके 'पंक्चर' और चेंपियां और थिगड़े दिखते रहते हैं . यूं होने को तो इस वर्ग का 'लेक्चराइजेशन' भी थोड़ी देर में 'थेथराइजेशन' में बदल जाता है . पर क्या किया जाए साहब तमाम दबावों के बीच वास्तविकता से नज़र चुराते इस 'इन्फ़्लेटेड ईगो' वाले भदेस मध्य/उच्च-मध्य वर्ग को 'स्नॉबरी' के तिनके का ही सहारा है .
ReplyDeleteतिस पर सींकिया इस्पेक्टर के सामने अफ़सर-पत्नी की 'स्नॉबरी' के तो कहने की क्या . अफ़सर-पत्नी,अंग्रेज़ी(?),कैश्यूनट्स और माइथोलोजी(?)का यह अनूठा संगम 'स्नॉबरी' के लिए अत्यंत उर्वर जमीन तैयार करता है .
आपने रिवर्स स्नॉबरी के खतरे की ओर भी सही इशारा किया है . पगडंडी संकरी है और खतरा दोनों ओर है .