|| MERI MAANSIK HALCHAL ||
|| मेरी (ज्ञानदत्त पाण्डेय की) मानसिक हलचल ||
|| मन में बहुत कुछ चलता है ||
|| मन है तो मैं हूं ||
|| मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग ||
Friday, July 25, 2008
हिट, फ्लाई स्वेटर, बूचर, शार्प शूटर
ऊपर शीर्षक के शब्द क्या हैं?
मेरी पत्नीजी मच्छरों की संख्या बढ़ने पर हिट का प्रयोग करती हैं। महीने में एक आध बार। यह केमिकल स्प्रे सैंकड़ों की संख्या में मच्छर मार डालता है। लीथल केमिकल के कारण यह बहुत प्रिय उपाय नहीं है, पर मच्छरों और तिलचट्टों के लिये हिट का प्रयोग होता है। हम बड़ी आसानी से इन कीड़ों का सफाया करते हैं।
मैरे दफ्तर में एयर कण्डीशनर कुछ दिन काम नहीं कर रहा था। नये बने दफ्तर में डीजल जेनरेटर का फर्श धसक गया था। सो मेन स्प्लाई जाने पर एयर कण्डीशनर नहीं चलता था। लिहाजा खिड़की-दरवाजे खोलने के कारण बाहर से मक्खियां आ जाती थीं। मैने अपनी पोजीशन के कागज का प्रयोग बतौर फ्लाई स्वेटर किया। एक दिन में दस-पंद्रह मक्खियां मारी होंगी। और हर मक्खी के मारने पर अपराध बोध नहीं होता था - एक सेंस ऑफ अचीवमेण्ट होता था कि एक न्यूसेंस खत्म कर डाला।
कसाई की दुकान पर मैने बकरे का शरीर टंगा लगा देखा है। आदतन उस दिशा से मुंह मोड़ लेता हूं। कसाई को कट्ट-कट्ट मेशेटे (machete - कसाई का चाकू) चला कर मांस काटने की आवाज सुनता हूं। पता नहीं इस प्रकार के मांस प्रदर्शित करने के खिलाफ कोई कानून नहीं है या है। पर टंगे बकरे की दुकानें आम हैं इलाहाबाद में।
मैं सोचता हूं कि यह कसाई जिस निस्पृहता से बकरे का वध करता है या मांस काटता है; उसी निस्पृहता से मानव वध भी कर सकता है क्या? मुझे उत्तर नहीं मिलता। पर सोचता हूं कि मेरी पत्नी के मच्छर और मेरे निस्पृहता से मक्खी मरने में भी वही भाव है। हम तो उसके ऊपर चूहा या और बड़े जीव मारने की नहीं सोच पाते। वैसा ही कसाई के साथ होगा।
एक कदम ऊपर - मुन्ना बजरंगी या किसी अन्य माफिया के शार्प शूटर की बात करें। वह निस्पृह भाव से अपनी रोजी या दबदबे के लिये किसी की हत्या कर सकता है। किसी की भी सुपारी ले सकता है। क्या उसके मन में भी मच्छर-मक्खी मारने वाला भाव रहता होगा? यदि हां; तो अपराध बोध न होने पर उसे रोका कैसे जा सकता है। और हत्या का अपराध किस स्तर से प्रारम्भ होता है। क्या बकरे/हिरण/चिंकारा का वध या शिकार नैतिकता में जायज है और शेर का नहीं? शार्प शूटर अगर देशद्रोही की हत्या करता है तो वह नैतिक है?
जैन मुनि अहिंसा को मुंह पर सफेद पट्टी बांध एक एक्स्ट्रीम पर ले जाते हैं। मुन्ना बजरंगी या अल केपोने जैसे शार्प शूटर उसे दूसरे एक्स्ट्रीम पर। सामान्य स्तर क्या है?
मेरे पास प्रश्न हैं उत्तर नहीं हैं।
मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि लोग टिप्पणी करते समय मेरी पोस्टों से वैचारिक सहमति-असहमति पूरे कन्विक्शन (conviction) के साथ दिखाते हैं। मैं विशेषत कल मिली अमित, घोस्ट-बस्टर और विश्वनाथ जी की टिप्पणियों पर इशारा करूंगा। ये टिप्पणियां विस्तार से हैं, मुझसे असहमत भी, शालीन भी और महत्वपूर्ण भी। सम्मान की बात मेरे लिये!
मैं यह भी कहना चाहूंगा कि कल की पिरिक वाली पोस्ट मेरे अपने विचार से खुराफाती पोस्ट थी। मुझे अपेक्षा थी कि लोग इकनॉमिक टाइम्स की खबर के संदर्भ में टिप्पणी करेंगे, मेरी ब्लॉगिंग सम्बन्धी कराह पर टिप्पणी करने के साथ साथ! और कई लोगों ने अपेक्षानुसार किया भी। धन्यवाद।
वर्ग:
Dharma,
Self Development,
Surroundings,
Varied,
आत्मविकास,
आस-पास,
धर्म,
विविध
ब्लॉग लेखन -
Gyan Dutt Pandey
समय (भारत)
5:00 AM
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I have thought about the same nonchalant attitude of
ReplyDeletethose who KILL ...Murder ..or witness & record such deeds
as a routine like,
a Forensic expert in police Dept or a Butcher in a meat shop.
& have made my own conclusion that a huan beings adatability to the life He or She chooses , makes them get used to what may appear heineous to others , is quite an ordinery life to those who get " used to " --
Al Capone , was the Chicago DON who hired many a HIT MEN & was instrumental in many deaths.
The WEST , especially USA , is very aggressive during WARS due to their characteristic acceptance of " Claateral damage " as they call such "Killings " --
Why a person gets used to such Deaths & why a person shudders at such a sight of Death is what sets us apart as human beings.
Well, this thread can go on & on ...but will refrain just here.
With regards,
_ Lavanya ( From Los Angeles, California )
Am traveling & away from my PC & hence this comment is in English.
बहुत अच्छा सवाल है और बहुत करीने से पूछा है आपने, मैं घनघोर माँसाहारी लेकिन अति संवेदनशील व्यक्ति हूं, जैसे कि आप शाकाहारी, संवेदनशील किंतु मक्खीहंता हैं...कितने सारे पहलू हैं इस एक बात के, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक, व्यक्तिगत, नैतिक...और सिर्फ़ एक पहलू ही सक्रिय नहीं होता बल्कि अलग-अलग मामलों में अलग-अलग पहलू अलग-अलग अनुपात में सक्रिय होते हैं...इससे स्थिति अत्यंत जटिल हो जाती है लेकिन किसी तरह का वैल्यू जजमेंट करना बहुत जोखिम का काम है...हिंसा जितनी कम हो उतना अच्छा, इसमें क्या शक है...लेकिन न मुझे चिकेन टिक्का मिलेगा न आपको मक्खियों से छुटकारा...आदमी आदमी को बख़्श दे इतना बहुत होगा फिलहाल...
ReplyDeleteआप तो बहुत दूर दूर एक्सट्रिम एन्डस की बात करने लगे.
ReplyDeleteआपने सभी तरफ तो बात कर ली..क्या अच्छा..क्या बुरा. अब हम क्या कहें, त निकल लेते हैं...फिर आयेंगे बाकियों को पढ़ने. :)
हिचक...
ReplyDeleteबस एक हिचक टूटने की देर है, गुरुवर !
फिर आदमी और मक्खी में कोई भेद नहीं रहता..इनके लिये ।
हाँ इस तरह छिली हुई टँगी लाशें इलाहाबाद में तेलियर गंज़ से
कटरा नीम सराय तक धाकड़ रूप से प्रदर्शित की जाती हैं । अब
तो ऎन दशाश्वमेध घाट पर भी एक दुकान देखने को मिल रही है,
तीर्थस्थलों के लिये तो कुछ मापदंड होने ही चाहिये, आपने याद
दिलाया...इस पर एक आलेख बन सकता है और बनना चाहिये !
Anamdas ji's comment -- prompts me to add this --
ReplyDeleteIs Cannabalism the exteme of human tendency in
rare cases & Cultures then ?
& please read " Collateral Damage " -- in my first comment.
Rgds,
L
यह इंसान कि अजीब फितरत है... सब चीजो के लिए एक मानक बनाता है... ये अच्छा ये बुरा... और ये निजी से होते हुए पारिवारिक फ़िर सामाजिक और समुदाय, क्षेत्र से निकल कर एक देश तक पहुँच जाता है. आप कुछ सोचते हैं फ़िर आपकी धर्मपत्नी कुछ और आपके मोहल्ले वाले, पाण्डेय बिरादरी होते हुए यह भारत देश तक आता है.... यहाँ के लोग बियर पिने को बुरा मानते हैं लेकिन पश्चिम के देशो में यह बुरा नही है....
ReplyDeleteमेरा अपना मानना है कि आप वह चीजे करे जिससे किसी दुसरे को सीधे सीधे परेशानी न हो... मक्खी मारने से आप अपराधबोध से घिरते हैं उसे छोड़ दे.... मैं ऐसे दो जैन परिवारों को जानता हू जो मांसहारी हैं... अब इसके आगे क्या कहू........
हर जीव जीना चाहता है, आराम और सुविधा से। उस के लिए कोई मच्छर मक्खी मारता है। कोई इस से आगे दूसरे जीव को खाद्य बना डालता है। बेचता-खरीदता केवल इंन्सान है।
ReplyDeleteदुनियाँ में केवल पौधे हैं जो अपना भोजन खुद बनाते हैं। सारे जीव भोजन के लिए दूसरे पर निर्भर करते हैं। जो मेरी शाकाहारी हैं वे भी जन्तु नहीं लेकिन पादपों पर निर्भर हैं। क्या फर्क है दोनों में। एक थोड़ा चलता फिरता जीव है, दूसरा निरीह, एक स्थान पर ठहरा हुआ। मुझे बीस साल की उमर में पता लगा कि अंडे शाकाहारी भी होते हैं। बाद में सोचने पर ज्ञान हुआ कि दूध भी शाकाहारी नहीं। मेरे घर में प्याज, लहसुन, दाल-मसूर का व्यवहार नहीं था। धीरे-धीरे प्याज घुसा, गर्मी में लू के जवाब में लहसुन भी उस के औषधीय गुणों का बखान करते हुए वर्षों से घुसने का प्रयास कर रहा है। हम सोचते थे बच्चे तो किसी दिन घुसा ही देंगे। लेकिन वे हम से भी अधिक छाँटू हैं, सो उस से बचे हैं। मसूर और मूंग की दालें बेचारी वैसे ही अपना स्तर खो बैठी है। एक गरीब, दूसरी बीमार के पल्ले बंधी है। अरहर ने पैठ बना ली है। पर वह हमें गड़बड़ करती है तो उड़द से उलझे हैं।
सब परिस्थितियों, जिजिविषा और जीभ का मामला है। उसी के आसपास नैतिकता के जाल बुने पड़े हैं। जो खाने वाले हैं उन की नैतिकताएँ भिन्न हैं, घंटों हलाल और हराम पर बहस चला सकते हैं।
अब जैन धर्म अपनाने का विचार है क्या ?याद है कभी यह उद्घोष भी था -वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति !
ReplyDeleteमनुष्य घोर तार्किक प्राणी हैं -अपने बचाव में वह तर्क ढूंढ ही लेता है .
हिंसा तो हिंसा ही है चाहे वह कसाई की बकरे के खाल उधेड़ने की हो या मखी या मछर मारने की -जीव ह्त्या दोनों ही हैं -कोई छोटा बड़ा जीव अगर होता हो तो बात और है .जीव का परिमाप तो अभी कहीं पढा देखा नही .
मैं तो जीवः जीवश्य भक्षणम् सिद्धांत में काफी बल देखता हूँ -मगर मनुष्य दयार्द्र भी है -यह भी प्रामाणित है -सब सन्दर्भों का फेर है .
bhai rajesh roshan ji ki teep se sahamat hun .yadi apko kisi kary me apradhabodh ka abhash hota hai ti wah kary katai n kare. vaise hamare desh me cheeti marana bhi pap samajha jata hai .
ReplyDeleteaap to makhi marne se vichalit ho gaye bhai saab,log to ab insaano ko nahi chhod rahe hain. aap railway se hain main railway ka hi kissa batata hun,yahan ke wetan karyalaya ke samne wetan wale din soodkhoron ki fauj khadi rahti hai,jo har karzdaar ki jeb men haath daal kar sood chhin leti hai,chhahe wo apni bete ki padhai ka wasta de,apni maa ki bimaari ka wasta de ya apni beti ki shaadi ka,unhe koi fark nahi padta.karzdaar na unse chhup kar nikal sakta hai,na unke haathon se bachh kar pura wetan ghar jaa paata hai,unhe kabhi fark nahi pada,iska matlab ye katai nahi hai ki sab waise ho jayen ya hinsa jayaj hai.wo ta humara saubhagya hai ki abhi tak aadmi ko aadmi ke maans ka swaad nahi pata warna kutton se bhi jyada ladte jhagdte, ek dusre ko indirect nahi direct nochte nazar aata aadmi
ReplyDeleteमैं मांसाहारी हूं.. मगर ऐसा की मिले तो खा लो और ना मिले तो ना खाओ.. और नहीं मिलने के कारण 2-3 महीने से नहीं खाया हूं.. :)
ReplyDeleteवैसे व्यवहार में पाया जाये तो समय समय का फेर हो जाता है.. कभी चूहे को मारने में भी दिल ना कांपे(मुझे याद है एक बार मैंने एक ही दिन में लगभग 15 चूहे मारे थे) और कभी-कभी टेलचट्टे को भी मारने में दस बार सोचूं कि इसे मारूं या नहीं..
मक्खियों ने निपटना वाकई बहुत मुश्किल काम है। भारतीय स्टेशन तो मक्खियों के अभयारण्य हैं क्योंकि वे सड़े समोसों और भुसी मिठाईयों के भी विकट संग्रहालय हैं। मैंने इलाहाबाद स्टेशन पर ही बैठकर एक बार रिसर्च की थी कि मक्खियों की जितनी वैरायटी स्टेशनों पर पायी जाती हैं, उतनी कहीं नहीं पायी जाती। बड़ी, छोटी, लंबी, रंगीन, बेरंग, काली, लाल। पर नाराज क्या हों, मक्खियों पर, मगरमच्छ, सियार मुल्क को खा रहे हैं, उनका ही कुछ ना हो पा रहा है, इन बिचारी मक्खियों पर काहे नाराज हों जी।
ReplyDeleteजमाये रहियेजी। मक्खियों को पोजीशन पेपर से काहे मार रहे हैं, देश का पोजीशन तो असल मे मगरमच्छ, सियार बिगाड़ रहे हैं, दिल्ली वाले। उनका कुछ ना हो पा रहा है, इन मक्खियों पर क्यों नाराज हों। वैसे भारतीय स्टेशन मक्खियों के विकट अभयारण्य हैं. कल ही दिल्ली स्टेशन पर शोध की जितनी वैरायटी की मक्खियां स्टेशनों पर पायी जाती हैं, उतनी कहीं नहीं पायी जातीं.
ReplyDeleteकसाई क्या करे भी एक तो जात से कसाई है फिर रोजी रोटी का सवाल है ,वाल्मिकी इसके उदाहरण है हा नारद से भेट -वार्तालाप के बाद उनकी आँख खुली और उन्होनें यह काम छोड़ा और आज हम उन्हें महर्षी कहते हैं पर जहाँ तक मक्खी का सवाल है बिमारी फैलाने वाली -वाले को मारने में अपराध बोध कैसा ,या अरविन्द भाई जो कह रहे हैं उस दिशा मे सोच है....
ReplyDeletemera apna vichar hai ki naitik anaitik kuch nahi hota hai....we cant say that this is universally maoral or immoral. sabki naiyikta ,sahi,galat ki apni paribhaashayen hain...only crimes defined by our constitution are universally wrong. makkhi maarna apraadh ki shreni mein nahi aata hai..aadmi maarna aata hai. isliye aap sahi hain aur wo shooter galat.
ReplyDeleteकितनी मारी ? लगे रहे कम से कम तीस मारने तक ,ताकी हम भी लोगो को धमका कर कह सके कि हम भी बडे बडे तीसमार खा से रोज मिलते है , तुम फ़ौरन निकल लो :)
ReplyDeleteयह सवाल सालों से कुरेद रहा है। आपने बखूबी सामने रखा है। मैं मांस खाता हूँ। कटते हुए बकरे को कई बार गाँव में देखा है। पहाड़ों में देवताओं को चढ़ाए जाते हैं। हत्या का विरोधी तो हूँ मगर मांस खाना नहीं छूटता और जब खाता ही हूँ तो उन सबसे विरोध रखता हूँ जो हफ़्ते के कुछ दिन धार्मिक पूर्वाग्रहों के चलते नहीं खाते और उनका भी जो एक जीव तो खा लेते हैं मगर दूसरे को वही धार्मिक पूर्वाग्रहों के चलते नहीं खाते। आप धर्म के खिलाफ़ जाकर खाना भी चाहते हैं और धर्म भी निभाना चाहते हैं कुछ समझ नहीं आता मुझे।
ReplyDeleteदूसरी ओर है अपराधबोध। जितना बड़ा जीव उतना ही तकलीफ़देह है उसकी हत्या देखते हुए ऐसा मुझे लगता है। मगर जो लोग रोज़ ऐसे बड़े जीव मारते हैं उनके लिये यह काम बड़ा ही मशीनी हो जाता होगा और इस कारण वे निस्पृह भाव से हत्याएँ करते होंगे। प्रोफ़ेशनल शूटर्स के साथ भी यही लौजिक काम करता होगा। तब सवाल नैतिकता का नहीं रह जाता। मुझे तो कई बार लगता है कि किसी की हत्या न कर पाने के पीछे अक्सर नैतिकता काम करती ही नहीं है। ज़्यादातर लोग हत्या इसलिये नहीं कर पाते होंगे क्योंकि प्राकृतिक रूप से ही यह मनुष्य के लिये आसान नहीं है। मृत्यु का डर, फ़िर चाहे वह किसी और की ही मृत्यु का डर ही क्यों न हो, इसका मुख्य कारण रहता होगा। जहाँ यह डर मर जाता है वहाँ किसी को रोकना असंभव हो जाता है। वैसे मेरा सोचना ग़लत भी हो सकता है।
बड़ी ही गंभीर पर निरर्थक सी बहस जान पड़ती है ये मुझे.
ReplyDeleteसब अपना-अपना काम आपनी आपनी जरुरत के हिसाब से कर रहे हैं.
आप मच्छर मार रहे है कसाई बकरा काट रहा है और अल केपोने शूटर है.
अपन ना मक्खी-मच्छर मारते है ना बकरा खाते हैं और शूटिंग की बात तो बहुत दूर है.
इसलिए नो कमेंट्स.
सारी दुनिया को पता है कि ज्ञानदत्त जी रेलवे में अधिकारी हैं। सैलून से ब्लाग लिखते हैं। लेकिन इत्ते से पता नहीं चलता था कि वाकई वे करते क्या हैं। आज उन्होंने अपने काम का विस्तार से हवाला दिया। उन्होंने बताया कि उन्होंने एक दिन में दफ़्तर में दस-पन्द्रह मक्खियां मारी और उपलब्धि के एहसास से लबालब भर गये। उनको इस काम के लिये रेलवे से तन्ख्वाह के अलावा एयरकंडीशनर, डीजल जनरेटर और एक आफ़िस की सुविधा मुहैया करायी गयी है। ज्ञानजी की प्रगति को देखते हुये आशा की जाती है कि अगर वे मन से लगे रहे तो दो दिन में तीसमार खां बन जायेंगे। चिट्ठाचर्चा से
ReplyDeleteसामान्य स्तर का तो पता नहीं हम अपनी ही बता सकते हैं.
ReplyDeleteमक्खी-मच्छर: जी हम नहीं मारते, कभी-कभार हाथ चल गया तो अलग बात है... हाँ मेरे और मेरे रूम पार्टनर के बीच बहुत बहस होती थी की ऐसे जीवों को मारना चाहिए या नहीं. वो कहता की नहीं मारोगे तो खून पीएगा... खैर अंत में यही होता की मारो अच्छी बात है, पर मैं नहीं मार सकता. ये मेरी कमजोरी है !
कसाई: दूकान देख के ही डर लगता है. बस इतना अनुकूल हो गया हूँ की उल्टी नहीं होती.
शूटर: कभी मिला नहीं, और कभी की भी नहीं :-) लेकिन क्राइम मूवीस (स्फेगेटी वेस्टर्न खासकर) खूब देखता हूँ, Clint Eastwood की सारी देखी है... और ७५% हॉलीवुड की क्राइम तो देखी ही होगी !
Gyaanjee,
ReplyDeleteI am extremely busy and in a desperate hurry today. Inspite of that I could not resist squeezing some time to quickly read your post and the interesting reactions.Though I would like to do so, I regret my inability to post a long comment in Hindi outlining my views on this vexatious issue.
You know me. When something in a blog post catches my attention, I must comment or else I wlll feel restless for the rest of the day.
So inspite of paucity of time, I will quickly post an impromptu comment in brief:
It's a question of drawing the line somewhere.
Where do you draw it?
I draw it here.
You draw it there.
Others draw it elsewhere.
None of us is competent to pass judgement on this issue. So, for me this subject is a non-issue.
So long as the law permits it go ahead.
You won't go to jail if you swot flies but be careful. If your boss notices it, he will give you some work to do!
So long as your society or community permits it, go ahead. You won't be ostracized. The butcher is safe. He is doing his job.
So long as the country permits it, go ahead.
The soldier must kill enemy soldiers for the sake of the nation.
This debate on the merits and demerits or morality or immorality of killing and meat eating has always been inconclusive and may never be settled at any point in time.
One point to note is that our religion, Hinduism, is silent on this issue of meat eating. It is our birth and upbringing that decides the issue for each of us. Later our environment either reinforces and confirms our eating habits or forces us to change.
I am by birth and upbringing a vegetarian. I will continue to be one for ever not because of any lofty principles on this issue but simply because I am unable to overcome my revulsion for flesh and blood. But I have no problems eating with non vegetarians sitting at the same table as long as my menu does not include non vegetarian items.
I will never kill unless I am attacked.
I don't swot flies, (merely flick them off) but I have killed mosquitoes that stung me and were in the act of sucking my blood.
I have never killed a rat but have been party to the decision to buy and keep rat poison to save my office from these rodents.
If I think too much about this I will only confuse myself.
So let me stop at this stage and post this hurried comment. Sorry for writing in English but I need much more time for writing this correctly in Hindi.
Besides your blog permits comments in English too.
Regards
G Vishwanath
मेरी राय में अहिंसा व्यावहारिक दर्शन है। जीव हिंसा आम तौर पर गलत है, लेकिन समय व परिस्थिति के अनुसार यह बहुधा जायज लगने लगती है और लोग इसे पसंद कर रहे होते हैं। अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति भी अपनी जान बचाने के लिए दूसरे प्राणी की जान लेने में नहीं हिचकिचाएगा। आम तौर पर मांसाहारी लोग भी जीव हिंसा पसंद नहीं करते लेकिन उनकी थाली में स्वादिष्ट मांसाहार परोसा जाता है तो उनकी संवेदनशीलता व्यावहारिकता का रूप ले लेती है। इसी तरह हिंसक प्राणी की हिंसा आम तौर पर हमें सुकून देती है। मच्छर मार कर हमें खुशी होती है क्योंकि वह हमारा खून चूसता है। कोई अपराधी मारा जाता है तो हम राहत की सांस लेते हैं, क्योंकि उससे हमें भी कभी खतरा हो सकता था। कहने का मतलब है कि अहिंसा की नैतिकता संदर्भ सापेक्ष है। किस संदर्भ में इसकी बात की जा रही है, उस पर इसका जायज या नाजायज होना निर्भर करता है।
ReplyDeleteअभी इतना सब कुछ पढने के बाद सोच रहा हूँ की अगली पोस्ट किस पर डालेंगे सर जी ?एक मक्खी पर आपने ढेरो लोगो को भिडा दिया ओर ख़ुद मजे ले रहे है ?धन्य हो सर जी धन्य हो?
ReplyDeleteतीनों स्थितियों की तुलना नहीं की जा सकती. मक्खी-मच्छर-तिलचट्टे गन्दगी और बीमारी फैलाते हैं. यदि सवाल मनुष्य या कीडे-मकोडों के बीच जीवन संघर्ष का हो तो चुनाव में कहीं कोई संशय नहीं. कीटों का विनाश ठीक है.
ReplyDeleteदूसरी ओर गाय, बकरे, भेड़ आदि निरीह पशुओं को लीजिये. क्या इनका जीना किसी तरह से मानव जीवन के लिए दुश्वारियत की वजह है? कहीं से नहीं. तो केवल स्वाद के लिए इनका वध करना मानवीय स्वभाव में कहीं गहराई में संरक्षित पशुता का ही प्रदर्शन है.
तीसरी केटेगरी के बारे में तो क्या कहा जाए? ये तो पाशविकता की पराकाष्ठा है.
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यहाँ मैं अनामदास जी की बात से असहमत हूँ. मेरा अपना विचार है की मांसाहारी लोग वास्तव में संवेदनशील हो ही नहीं सकते.
Quote:
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यहाँ मैं अनामदास जी की बात से असहमत हूँ. मेरा अपना विचार है की मांसाहारी लोग वास्तव में संवेदनशील हो ही नहीं सकते.
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Unquote
यहाँ मैं Ghost Buster जी की बात से असहमत हूँ।
केवल शाकाहारी होने से इन्सान संवेदनशील नहीं बनता।
सुना है कि हिट्लर शाकाहारी था।
कभी कभी तो पालतू माँसाहारी कुत्ते भी आदमी से अधिक संवेदनशील होते हैं।
बंगाल में सभी मछली खाते हैं।
क्या बंगाली लोग संवेदनशील नहीं होते?
इस विषय पर हम ज्यादा सोचते हैं तो कई contradictions सामने आते हैं।
हम हिन्दु लोग गोहत्या को पाप मानते हैं।
मछली, बकरी और मुर्गी ने कौनसे पाप किये?
भैंस भी दूध देती है, तो हम केवल गाय को माँ का स्थान क्यों देते है?
क्या रंग भेद का मामला है?
अगर भैंस काला न होकर सफ़ेद होता तो क्या उसे भी हम गाय का दर्ज़ा देते?
कोरिया में लोग कुत्ते और बिल्ली को खाते हैं।
अंग्रेज़ों को इसपर आपत्ति है।
कोरिया के लोग पूछते हैं कि अंग्रेज़ सूअर, गाय, बकरी वगैरह खा सकते हैं तो वे कुत्तों और बिल्लियों को क्यों नहीं खा सकते?
यह बहस कभी खत्म नहीं होगी।
मैं मूलतः बात हिंसा पर टिकाता हूं। अगर मच्छर भी न मारा जाए , इन्सान की हत्या भी न की जाए और मांसाहार के लिए जीव जिबह भी न किये जाए तो भी हिंसा मनुश्य के स्वभाव का हिस्सा है। क्रोध , अपशब्द, दोषारोपण, प्रताड़ना, अपशब्द के जरिये वह हिंसा प्रकट करता ही है। यही सामान्य स्तर है.
ReplyDeleteमैं ज्ञानजी से सिर्फ़ एक बार मिला हूँ। उनके दफ़्तर में ही। सिर आधे घण्टे की मुलाकात में हमने ढेरों बातें कीं, चाय पी गयी, कम्प्यूटर पर मैने कुछ ब्लॉगरी का तकनीकी पक्ष भी सीखा और इन्होनें एकाध फोन काल्स का जवाब भी दिया। इस सब के बीच एक बड़ी सी मक्खी जो हमारे लिए मंगायी गयी नमकीन और बिस्किट पर मंडरा रही थी उसे एक अखबार से ज्ञानजी ने एक झटके में ही शांत कर दिया। बड़ी सहजता से। वह मक्खी जब तक जीवित थी हमारी बात-चीत को असहज बना रही थी।
ReplyDeleteइस गर्मागरम बहस को पढ़कर मुझे ये लगता है कि हम कभी-कभी बेज़ा बहस-नवीस होते जा रहे हैं।
अच्छा विषय, अच्छा आलेख और अच्छी टिप्पणियाँ. बात को आगे बढाने के बजाय मेरे निम्न आलेख को ही मेरी टिप्पणी समझा जाए:
ReplyDeleteअहिंसा परमो धर्मः
@ सुना है कि हिट्लर शाकाहारी था।
ReplyDeleteगलत सुना है जी, अफवाहों पर ध्यान मत दीजिये।
मैं ज्ञानजी से सिर्फ़ एक बार मिला हूँ। उनके दफ़्तर में ही। सिर आधे घण्टे की मुलाकात में हमने ढेरों बातें कीं, चाय पी गयी, कम्प्यूटर पर मैने कुछ ब्लॉगरी का तकनीकी पक्ष भी सीखा और इन्होनें एकाध फोन काल्स का जवाब भी दिया। इस सब के बीच एक बड़ी सी मक्खी जो हमारे लिए मंगायी गयी नमकीन और बिस्किट पर मंडरा रही थी उसे एक अखबार से ज्ञानजी ने एक झटके में ही शांत कर दिया। बड़ी सहजता से। वह मक्खी जब तक जीवित थी हमारी बात-चीत को असहज बना रही थी।
ReplyDeleteइस गर्मागरम बहस को पढ़कर मुझे ये लगता है कि हम कभी-कभी बेज़ा बहस-नवीस होते जा रहे हैं।
सामान्य स्तर का तो पता नहीं हम अपनी ही बता सकते हैं.
ReplyDeleteमक्खी-मच्छर: जी हम नहीं मारते, कभी-कभार हाथ चल गया तो अलग बात है... हाँ मेरे और मेरे रूम पार्टनर के बीच बहुत बहस होती थी की ऐसे जीवों को मारना चाहिए या नहीं. वो कहता की नहीं मारोगे तो खून पीएगा... खैर अंत में यही होता की मारो अच्छी बात है, पर मैं नहीं मार सकता. ये मेरी कमजोरी है !
कसाई: दूकान देख के ही डर लगता है. बस इतना अनुकूल हो गया हूँ की उल्टी नहीं होती.
शूटर: कभी मिला नहीं, और कभी की भी नहीं :-) लेकिन क्राइम मूवीस (स्फेगेटी वेस्टर्न खासकर) खूब देखता हूँ, Clint Eastwood की सारी देखी है... और ७५% हॉलीवुड की क्राइम तो देखी ही होगी !
सारी दुनिया को पता है कि ज्ञानदत्त जी रेलवे में अधिकारी हैं। सैलून से ब्लाग लिखते हैं। लेकिन इत्ते से पता नहीं चलता था कि वाकई वे करते क्या हैं। आज उन्होंने अपने काम का विस्तार से हवाला दिया। उन्होंने बताया कि उन्होंने एक दिन में दफ़्तर में दस-पन्द्रह मक्खियां मारी और उपलब्धि के एहसास से लबालब भर गये। उनको इस काम के लिये रेलवे से तन्ख्वाह के अलावा एयरकंडीशनर, डीजल जनरेटर और एक आफ़िस की सुविधा मुहैया करायी गयी है। ज्ञानजी की प्रगति को देखते हुये आशा की जाती है कि अगर वे मन से लगे रहे तो दो दिन में तीसमार खां बन जायेंगे। चिट्ठाचर्चा से
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