Saturday, July 12, 2008

अनूप सुकुल से एक काल्पविक बातचीत


मैने पाया कि धीरे धीरे मेरे पास ब्लॉग जगत के लोगों के कुछ सज्जनों के फोन नम्बर संग्रहित हो गये हैं। कुछ से यदा-कदा बातचीत हो जाती है। जिनसे नहीं मिले हैं, उनके व्यक्तित्व का अनुमान उनकी आवाज से लगाने का यत्न करते हैं। उस दिन एक सज्जन का फोन था, जिनकी मैं चाह कर भी सहायता न कर पाया। फोन पर ये सभी व्यक्ति अत्यन्त प्रिय और सुसंस्कृत हैं। और मैं समझता हूं कि वास्तविक जिन्दगी में भी होंगे। आखिर ब्लॉग जगत में समाज का वैशिष्ठ्य ही रिप्रजेण्ट होता है।

एक सज्जन हैं - श्री अनूप फुरसतिया शुक्ल, जिनसे फोन पर बातचीत होती रहती है। वे हिन्दी ब्लॉगजगत के अत्यन्त जगमगाते सितारे हैं। जहां काम करते हैं, वहां तोप - तमंचे बनते होंगे, पर उनकी वाणी में निहायत आत्मीयता का पुट रहता है। और चूंकि विचारों की वेवलेंथ में कोई असमानता नहीं, मुझे उनसे बातचीत की प्रतीक्षा रहती है। मैं यहां सुकुल से बातचीत का नमूना प्रस्तुत कर रहा हूं।

अब, यह शीर्षक में दिया शब्द "काल्पविक" शब्दकोष में नहीं है। यह दो शब्दों का वर्णसंकर है - काल्पनिक+वास्तविक। मैने ताजा-ताजा ईजाद किया है। इसका प्रयोग मैं केवल ध्यानाकर्षण के लिये कर रहा हूं। वह भी दिनेशराय द्विवेदी जी से डर कर। अन्यथा लिखता - अनूप शुक्ल से एक वर्चुअल टॉक। अर्थात इस पोस्ट में ठोकमठाक बातचीत विवरण है - जो कहां कल्पना है और कहां सच, यह मैं नहीं बताऊंगा।

और द्विवेदी जी के बारे में क्या कहें? इनडिस्पेंसिबिलिटी वाली पोस्ट पर दिनेश जी ने जो टिप्पणी दी, उस पर उनके रेगुलर टिपेरा होने का लिहाज कर गया। वर्ना दुबेजी से अंग्रेजी के पक्ष में कस कर पंगा लेता। अब देखिये न, वकील साहब कहते हैं कि इस शब्द का प्रयोग कर हमने गुनाह किया! हिन्दी पीनल कोड (?) की धारा ४.२०(१) के तहद यह संज्ञेय अपराध कर दिया हमने! --- हमने फुरसतिया से फोन पर रोना रोया। यूं, जैसे ब्लॉगजगत में कोई जख्म लगा हो तो सुकुल से मरहम मांगा जाये; ये परम्परा हो!

सुकुल भी हमारे भाव से गदगद! पर वे भी दुबेजी से कोई पंगा नहीं लेना चाहते। समीरलाल जी की बातचीत नेट पर कोट कर वैसे ही सिटपिटाये हुये हैं! नॉन कमिटल से उन्होंने "वही-वही" जैसा कुछ कहा। उसे आप अपने पक्ष में में भी समझ सकते हैं और दिनेश जी के भी! SKY Clear
हमने हां में हां मिलाई। यद्यपि हमें खुद नहीं मालुम था कि हां किसमें मिला रहे हैं!

मैने सुकुल से उनके कम लिखने की शिकायत की। उन्होंने श्रावण मास बीतने पर सक्रिय होने का उस प्रकार का वायदा किया, जैसा उधार लेने वाला सूदखोर महाजन से पिण्ड छुड़ाने को करता है।

मैं उनके कम लेखन पर ज्यादा न छीलूं, यह सुनिश्चित करने को उन्होंने बात पलटी और बोले - आपकी गाड़ियां ठीक नहीं चल रहीं। तभी आपकी तबियत खराब है। (कुछ वैसे ही कि आज आपकी पोस्ट पर टिप्पणियां नहीं आयीं। कोई बेनाम भी झांक कर नहीं गया, सो तबियत खराब होनी ही है!) मैने स्वीकारोक्ति की - बारिश में माल गाड़ियों की चाल को ब्रेक लग गया है। सवारी गाड़ी कल की आज आ रही है तो माल गाड़ी का बेहाल होना तय है। पर ट्रेन परिचालन के बारे में ज्यादा बात करना खतरे से खाली नहीं। क्या पता कब रेल का ट्रेड सीक्रेट उगल दें हम। सरकारी अफसरी में विभागीय बातचीत के बारे में जरा कतरा के ही रहना चाहिये। अत: मैने जोर से हलो-हलो किया। जैसे कि मोबाइल की बैटरी बैठ रही हो और उनकी आवाज डूब रही हो।

बातचीत ज्यादा चली नहीं। पर सुकुल की यह बात पसंद नहीं आयी। खुद तो चार महीने से ढ़ंग से लहकदार पोस्ट लिख नहीं रहे। चिठेरा-चिठेरी पता नहीं कहां बिला गये - तलाक न हो गया हो उनमें! और ये मौज लेने वाले हमें चने के झाड़ पर चढ़ाने को उतावले रहते हैं, कि बीमारी का बहाना ले कर लिखने से कतरा रहा हूं मैं। लिहाजा हम तो भैया, फुरसतिया का मुरीदत्व ताक पर रख कर ई-स्वामी का गुणगान करने का उपक्रम प्रारम्भ कर दिये हैं।

बस फर्क यह है कि ई-स्वामी से कोई बातचीत नहीं है, सुकुल से हफ्ता-दस दिन पर हो जाती है। रेलवई के खटराग से इतर मन लग जाता है। पता नहीं और ब्लॉगर लोग कितना बतियाते/चैटियाते हैं?


(नोट - यह बातचीत सही में काल्पविक है! कल शिवकुमार मिश्र कह रहे थे कि फुरसतिया हर दशा में मौज ढूंढने के फिराक में रहते हैं; तो हमने सोचा हम भी अपने इस्टाइल से मौज ले लें। वर्ना सुकुल का तो कथन है कि हमें मौज लेना नहीं आता!)
एक बढ़िया चीज जो मैने अनूप शुक्ल के बारे में नोटिस की है, वह है कि इस सज्जन की ब्रिलियेन्स (आप उसे जितना भी आंकें) आपको इण्टीमिडेट (intimidate - आतंकित) नहीं करती। अन्यथा अनेक हैं जो अपने में ही अपनी क्रियेटीविटी का सिक्का खुद ही माने हुये हैं और यह मान कर चलते हैं कि वे भविष्य के लिये एक प्रतिमान रच रहे हैं।
दूसरे, व्यक्तिगत और छोटे समूहों में जो बढ़िया काम/तालमेल देखने को मिलता था, वह अब उतना नहीं मिलता। अनूप जैसे लोग उस कलेक्टिव सपोर्ट सिस्टम के न्यूक्लियस (नाभिक) हुआ करते हैं। उन जैसे लोगों की कमी जरूर है; इस बात के मद्देनजर कि ब्लॉगर्स की संख्या का मिनी-विस्फोट सा हो रहा है। और कई नये ब्लॉगर्स अपने को समुन्दर में डूबता-उतराता पाते हैं! 


23 comments:

  1. उत्तल दर्पणों में जो अक्सर वाहनों में पीछे का दृष्य देखने को लगे होते हैं, केवल आभासी बिंब बनते हैं, वास्तविक नहीं। आप की यह आभासी बातचीत पसंद आयी। वैसे आप को नए शब्द का हिन्दी को योगदान पर बधाई। बस ऐसे ही नए शब्द बनाते जाइए। आप अंग्रेजी शब्दों का अड़गम-बड़गम की भांति शास्त्रीय प्रयोग भी कर सकते हैं। जैसे टिपियाना खास तौर से हिन्दी चिट्ठाकारी की देन है। खिंचवाने से गर्दन शीघ्र ही मुकाम पर आ गई लगती है। पर बार-बार यह उपाय ठीक नहीं। आप बस कम्प्यूटर पर बैठे बैठे दाएँ-बाएँ घुमा कर, ऊपर कर के सिर को पीठ से व नीचे कर के छाती से ठुड्डी को छाती से और दाएँ बाएँ कानों को कन्धे से छुआने की कसरतें दस-दस बार कर लें, दिन में कम से कम दो बार ऐसा करते रहें। गरदन सही ऱखने का सब से उत्तम और फोकट इलाज है। वैसे हम भी खिंचवा चुके हैं कोई पाँच बरस पहले। पर अब इस कसरत ने बचा रखा है।

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  2. एक बढ़िया चीज जो मैने अनूप शुक्ल के बारे में नोटिस की है, वह है कि इस सज्जन की ब्रिलियेन्स (आप उसे जितना भी आंकें) आपको इण्टीमिडेट (intimidate - आतंकित) नहीं करती। अन्यथा अनेक हैं जो अपने में ही अपनी क्रियेटीविटी का सिक्का खुद ही माने हुये हैं और यह मान कर चलते हैं कि वे भविष्य के लिये एक प्रतिमान रच रहे हैं।

    बहुत बढ़िया पोस्ट ज्ञानदा। अनूपजी के बारे में आपके उद्गार दो सौ फीसद सही हैं।

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  3. हमें तो जीवन का पहला मौका लगा और हम झपट लिए और वो सिटपिटाये हुये हैं! लिजिये, ऐसा कोई उद्देश्य ही नहीं था-हम अपने झपटने पर उनका रियेक्शन चाहते थे और वो तुरंत साधु हो लिये..सब मेट मिटा दिये. :)

    शब्द "काल्पविक" आज ही कमेटी ने आपकी पोस्ट पढ़कर मेरे सामने एप्रूवल के लिए रखा है. आप भी कुछ वजन रखें तो विचारुँ.

    द्विवेदी जी और दुबे जी- एक ही करेक्टर हैं आपकी पोस्ट में-ऐसा मेरा विश्वास है.

    आज द्विवेदी जी ने हमें भी हड़काया कि आराम करिये-ज्ञान जी मान गये हैं आप भी मान जायें तभी तबियत संभलेगी. अब आपकी मान लेने के बाद अगले दिन ही पोस्ट ठेल देने की बात, पहले से बता देता हूँ, उनको नागवार गुजरना चाहिये. यह तय माना जा रहा है मेरे द्वारा.

    बाकि तो सब बेहतरीन-मगर सुकुल जी को हड़काने के पीछे मकसद कुछ और था और हो गया कुछ और. वैसे वो बहुत जबरु हैं, वह समझ ही गये होंगे. तबीयत जल्द हरी करें.

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  4. अरे वाह -
    नया शब्द मिला हिन्दी भाषा को -
    इसी तरह भाषा समृध्ध होती है !
    आशा है, आप जल्द ही स्वस्थ हो जायेँगे ..
    और अनूप शुक्ल जी की शैली
    और उनके लेखन के हम भी ,
    पँखे = "FAN" हैँ :)
    - लावण्या

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  5. सही मायने में,
    एक मौज़ियाती पोस्ट, और अगर बौरियाये निग़ाहों से पढ़ो.. तो गैंज़ियाती पोस्ट !
    लेकिन..कुछ और भी बोलूँ ?
    तो, पोस्ट ठेलने का समय 05.00.00 AM देख कर मेरे पापी मन में यह उठ रहा है, कि..कि..
    जब सुबहः का आलम यह है, तो रात कैसी मतवाली रही होगी, गुरुवर ?

    अब छोड़िये, यहाँ अभी नहीं, लेकिन अगली किसी पोस्ट में इसका ख़ुलासा जनता अवश्य चाहेगी ।

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  6. काल्पविक कठिन काव्य के प्रेत सा लगता है .

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  7. @ श्री अरविन्द मिश्र -
    मैं तो पहले काल्पली (काल्पनिक+असली) सोच रहा था। उस हिसाब से अनूप तो कपाली-अघोरी से लगते! :-)

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  8. गुरुदेव, “काल्पसली” कैसा रहेगा।
    आजकी पोस्ट पढ़कर मजा आ गया। अनूप जी ने मेरी एक पोस्ट पर टिप्पणी में लिखा था कि गुटबाजी के चक्कर में वे मुझे पढ़ नहीं पाये थे. अब पढेंगे तो मै चकरा गया था… इस मिज़ाज के क्या कहने?

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  9. आप अस्वस्थ है जान आज इस पोस्ट की उम्मीद नहीं थी. फिर लगा आपका हालचाल पुछने शुक्लजी ने फोन घूमाया होगा उसी का विवरण होगा.

    आपकी तबीयत जल्द हरी भरी हो, समीरजी के अनुसार.

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  10. अनूपजी खालिस कनपुरिये हैं। मस्ती की पाठशाला हैं। पर कनपुरियों के बारे में एक बात आप नहीं जानते, कनपुरिये काम लगा देते हैं। काम लगाने का आशय क्या है, यह अनूपजी बतायेंगे।

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  11. ''एक बढ़िया चीज जो मैने अनूप शुक्ल के बारे में नोटिस की है, वह है कि इस सज्जन की ब्रिलियेन्स (आप उसे जितना भी आंकें) आपको इण्टीमिडेट (intimidate - आतंकित) नहीं करती। अन्यथा अनेक हैं जो अपने में ही अपनी क्रियेटीविटी का सिक्का खुद ही माने हुये हैं और यह मान कर चलते हैं कि वे भविष्य के लिये एक प्रतिमान रच रहे हैं।''

    एकदम सही बात है। इतनी प्रतिभा और इतने सद्कार्य के बावजूद यह सहजता विरले ही देखने को मिलती है। मेरे कंप्‍यूटर पर अनूप शुक्‍ल जी का ब्‍लॉग खुल नहीं पाता, HTTP Error 406 आने लगता है। इसका मुझे अफसोस रहता है। कभी-कभी मोबाइल पर खुल जाता है तो कुछ पोस्‍टें पढ़ लेता हूं।

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  12. अभी पढ़ी तो सारी ऊपर से गुजर गयी है ,दुबारा slow motion में पढ़कर टिपियाता हूँ.....

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  13. "एक बढ़िया चीज जो मैने अनूप शुक्ल के बारे में नोटिस की है, वह है कि इस सज्जन की ब्रिलियेन्स (आप उसे जितना भी आंकें) आपको इण्टीमिडेट (intimidate - आतंकित) नहीं करती। अन्यथा अनेक हैं जो अपने में ही अपनी क्रियेटीविटी का सिक्का खुद ही माने हुये हैं और यह मान कर चलते हैं कि वे भविष्य के लिये एक प्रतिमान रच रहे हैं।"

    बहुत सही बात है. अनूप जी के साथ जब भी बात होती है, तो ऐसा ही लगता है.

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  14. हम अनुराग जी का अंतिम टिपियाना देख कर टिपियायेगे जी :)

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  15. गुरुजनों प्रणाम ! आप लोगो का टिपियाना पढते पढते ही तबियत हरी हो गई है !
    आगे भगवान मालिक है !

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  16. यह बातचीत सही में काल्पविक है
    "काल्पविक" - बढ़िया शब्द खोजा है

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  17. अनूप शुक्ल की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी-
    -------------------------------------
    ये है हमारी टिप्पणी आपकी आजकी पोस्ट पर
    -------------------------------------
    आपने स्वयं ही लिखा कि यह बातचीत कल्पना और वास्तविकता का वर्णशंकर है।
    इसमें वास्तविकता सिर्फ़ इत्ती ही है कि यह अनूप शुक्ल के बारे में है जो
    फ़ुरसतिया
    नाम से चिट्ठा लिखते हैं। बाकी सारी बातें काल्पनिक हैं लेकिन आपके
    बड़प्पन का लिहाज करके लोग हां में हां मिला गये। द्विवेदीजी वाली
    टिप्पणी गजनट है उससे
    असहमत होने का सवालिच नहीं उठता। आपको हां-हां, ना-ना इसलिये लगा क्योंकि
    जब हम इस बारे में अपना मत बता रहे थे तभी आपकी सारी बैटरियां
    डाउन हो गयीं थीं और आप हेलो-हेलो करने लगे थे। द्विवेदीजी का लिहाज करके
    आपने अपना ही भला किया । उई वकील साहब हैं न जाने कब काम आ जायें ,कहां
    फ़ंसा दें।
    आपने उनका लिहाज करके अपना हित ही साधा। उनकी पर कोई भलाई नहीं की। :)

    समीरलालजी की टिप्पणी से हम सिटपिटाये कत्तई नहीं हैं। समीरलाल जी भले
    ही "ऐसा कोई उद्देश्य ही नहीं था", "रियेक्शन चाहते थे","मकसद कुछ और
    था"
    लिखें लेकिन सच जो है वह उनकी
    href="http://hindini.com/fursatiya/?p=454">टिप्पणी
    में साफ़ दिखता
    है।
    हमने अपनी समझ के हिसाब से उस पोस्ट हल्का कर दिया और खुद हल्के हो लिये।
    समीरजी बेचारे अभी तक असहज हैं। टिप्पणी की शुरुआत में अपना मतलब बता रहे
    हैं आखिरी में बता रहे हैं। इससे आलोक पुराणिक की बात "कनपुरिये काम लगा
    देते हैं"की
    पुष्टि होती है।

    बाकी ज्ञानजी आप बहुत गुरू चीज हैं। लोग समझ रहे हैं कि आप हमारी तारीफ़
    कर रहे हैं लेकिन सच यह है कि आप हमको ब्लागर बना रहे हैं। आपने लिखा-
    "इस सज्जन की ब्रिलियेन्स (आप उसे जितना भी आंकें)" मतलब कोई पक्का नहीं
    है अगला कित्ते किलो या कित्ते मीटर ब्रिलियेंट है। ई वैसे ही हुआ
    ज्ञानजी जैसे हम अपनी कई भाभियों
    से कहते हैं -"भाभीजी आपने खाना बहुत बनाया।" इससे भाभी और जनता समझती
    हैं कि हम खाने की तारीफ़ कर रहे हैं और कह रहे हैं -"भाभीजी आपने
    खाना बहुत अच्छा बनाया "लेकिन हमने तो सिर्फ़ यही कहा "खाना बहुत बनाया।"

    और ज्ञानजी जब 'ब्रिलियेन्सी' अपने आप में संदिग्ध है तो उसका आतंक किस
    पर डाला जाये। क्या पड़ेगा भी? बताइये, समझाइये। इसी बात को एक डायलागी
    मोड़
    देते हुये गरदन ऐंठते हुये कहा जा सकता है कि आतंकित वही करता है जो खुद
    किसी से आतंकित होता है। हम न किसी से आतंकित होते है न किसी को
    आतंकित करते हैं। बोल बजरंगबली की जय।

    बाकी चिठेरी-चिठरा मजे में हैं। मौका मिलते ही बमचक मचायेंगे। स्वामीजी
    का लिखना कुछ कम हो गया है लेकिन आप उनकी कुछ पुरानी पोस्ट पढ़ें तो उनका
    अंदाज समझ में आयेगा। ई-स्वामी से मिले हम भी नहीं हैं लेकिन अपने प्रति
    गुंडई की हद तक अधिकार भाव के हम मुरीद हैं। मजबूरी है जी। गुंडों से
    दुनिया डरती है।

    सिद्धार्थजी आप एक बेहतरीन ब्लागर हैं। हमने जित्ती पोस्टें आपकी पढ़ीं
    उससे यही लगा कि बाकी काहे नहीं पढीं अब तक। गुटबाजी वाली बात मैंने
    इसलिये लिखी थी कि उसी
    दिन किसी ने कहीं टिप्पणी करी थी -ये तो अपने गुट के लोगों की चर्चा करते
    हैं। आरोप सच भी है। सब ब्लागर हमारे गुट के हैं।

    जिन ब्लागरों ने ज्ञानजी के झांसे में आकर हमारी तारीफ़ करी हम उनका आभार
    व्यक्त करते हैं। यह सच है कि हम मुये समय के अभाव में अपने तमाम दोस्तों
    के ब्लागरों
    के पर टिप्पणी भी नहीं कर पाते। चिट्ठाचर्चा में जिक्र करने को लोग
    टिप्पणी के रूप में लेते ही नहीं जैसे आप कहीं भी जाओ सुनने को मिलेगा
    -आप भाभी जी को साथ में
    नहीं लाये आपका ये आना माना नहीं जायेगा। :)

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  18. ठहरिये जी, टिप्पणी पार्ट-2 तो छूटी जा रही है..
    आज सुबह-सबेरे का आलम देख कर ही बीती रातों के मतवालेपन का आभास हो रहा था, शायद छठी इन्द्रिय की सुगबुगाहट याकि असामान्य मनोविज्ञान में अभिरुचि.., जो भी रहा हो !
    आपकी "http://halchal.gyandutt.com/2008/07/blog-post_03.html" क्या है मित्र से ही कुछ पकने की-कुछ जलने की गंध आ रही थी । खेद है..कि अभी भी क्लाइमेक्स की प्रतीक्षा में लोग आराम फ़रमा रहे हैं ।

    फ़ौरन से पेश्तर अपना-अपना मेन स्विच आफ करिये, आप लोग... ! फिर शार्ट सर्किट वगैरह बाद में देखेंगे, कि यह आत्ममुग्धता से उपजी टिप्पणी लिप्सा की वज़ह से तो नहीं ?
    विस्तार में जाने के लिये मेरी ' आज मैंने मारगो साबुन ख़रीदा ' वाली पो्स्ट देखें । हाय हाय रे कृष्ण.. जय जय हो कृष्ण, तूने तो सदियों पहले ही चेता दिया था कि फलप्राप्ति की चिंता बड़ी कुत्ती चीज है ।
    है ना, गुरुवर ?

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  19. फुरसतियाजी के लेखन का क्रेडिट उनका है और उनके लेखन का १ नं फ़ैन होने का हक मेरा. एक शेर जो कई बार सुनाता हूं उन्हें -

    फूल जो बाग की ज़ीनत ठहरा
    मेरी आंखों में खिला था पहले

    फ़ैन होने से भी अपना गुणगान होता है तो भी मौका लपका जाना चाहिए - अवसरवाद का जमाना है, चूंकी ऐसी घटनाएं रोज़ रोज़ तो होती नहीं! :)

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  20. ऐ भाई! ब्लागवा पर ता हम रेगुलर रह नहीं पा रहे हैं, नाम्बरावा दे देते टी हमहूँ कबो-कबो बतिया लेते.

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  21. अनीता कुमार जी की टिप्पणी (ई-मेल से) -
    "आखिरकार ज्ञान जी को मौज लेना आ ही गया।
    एक बढ़िया चीज जो मैने अनूप शुक्ल के बारे में नोटिस की है, वह है कि इस सज्जन की ब्रिलियेन्स (आप उसे जितना भी आंकें) आपको इण्टीमिडेट (intimidate - आतंकित) नहीं करती। अन्यथा अनेक हैं जो अपने में ही अपनी क्रियेटीविटी का सिक्का खुद ही माने हुये हैं और यह मान कर चलते हैं कि वे भविष्य के लिये एक प्रतिमान रच रहे
    इस बात से तो हम भी 100% सहमत हैं"

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  22. अनूप जी के ब्लॉग पर नियमित जाना अभी ही शुरू किया है... आपकी बात से सहमत हूँ !

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  23. "एक बढ़िया चीज जो मैने अनूप शुक्ल के बारे में नोटिस की है, वह है कि इस सज्जन की ब्रिलियेन्स (आप उसे जितना भी आंकें) आपको इण्टीमिडेट (intimidate - आतंकित) नहीं करती। अन्यथा अनेक हैं जो अपने में ही अपनी क्रियेटीविटी का सिक्का खुद ही माने हुये हैं और यह मान कर चलते हैं कि वे भविष्य के लिये एक प्रतिमान रच रहे हैं।
    दूसरे, व्यक्तिगत और छोटे समूहों में जो बढ़िया काम/तालमेल देखने को मिलता था, वह अब उतना नहीं मिलता। अनूप जैसे लोग उस कलेक्टिव सपोर्ट सिस्टम के न्यूक्लियस (नाभिक) हुआ करते हैं। उन जैसे लोगों की कमी जरूर है; इस बात के मद्देनजर कि ब्लॉगर्स की संख्या का मिनी-विस्फोट सा हो रहा है। और कई नये ब्लॉगर्स अपने को समुन्दर में डूबता-उतराता पाते हैं!"

    आपने फुरसतिया के व्यक्तित्व के 'न्यूक्लियस (नाभिक)' को सही-सही पकड़ लिया है . फुरसतिया बिना किसी ऐक्सपायरी डेट के लंबे समय तक भले आदमी का अभिनय करते रह सकते हैं और उनकी फ़िल्म है कि न तो कभी दुखांत होती है और न कभी खतम होती दिखती है.हम उन्हें ब्लॉग जगत का सबसे प्रतिष्ठित वाग्गेयकार ऐसे ही थोड़े कहते-मानते हैं . फुरसतिया विरोध और विरोधी को ऐसे पचा ले जाते हैं जैसे बच्चे कैडबरीज़ को . समन्वय की कला का अज़ब-अनूपा रूप है फुरसतिया में .

    और हां! आप अपनी अंग्रेज़ी-विंग्रेज़ी बिंदास ठेलिए,कौनो आपत्ति नहीं है . पर अगर वह खिलंदड़ा भाषिक 'ऐलॉइ' नहीं ठेला जिसके लिए हम आपके पास खिंचे आते हैं तो खिलाफ़त मोर्चा निकलना तय है .

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय