घोस्ट बस्टर बड़े शार्प इण्टेलिजेंस वाले हैं। गूगल साड़ी वाली पोस्ट पर सटीक कमेण्ट करते हैं -
मुझे समझ में आता है। गरीब की किडनी निकाली जा सकती है, उसका लेबर एक्स्प्लॉइट किया जा सकता है, पर उसमें अगर इनहेरेण्ट अट्रेक्शन/रिपल्शन वैल्यू (inherent attraction/repulsion value) नहीं है तो उसका विज्ञापनीय प्रयोग नहीं हो सकता।

गरीबी का एक्प्लॉइटेशन चाहे बांगलादेशी-नेपाली लड़कियों का कमाठीपुरा में हो या (भविष्य में) विज्ञापनों में हो, मुझे परम्परावादी या दकियानूसी के टैग लगने के खतरे के बावजूद मुखर बनायेगा उनके खिलाफ। और उसके लिये चाहे धुर दक्षिणपंथी खेमे की जय-जयकार करनी पड़े।

गरीब और गरीबी का विज्ञापनीय शोषण न हो - जैसा घोस्ट बस्टर जी कह रहे हैं; तो अति उत्तम। पर अगर होता है; तो उसकी घोर निंदा होनी चाहिये।
मैं फ्री मार्केट के पक्ष में हूं। पर मार्केट अगर सेनिटी की बजाय सेनसेशन की ओर झुक जाता है तो उससे बड़ा अश्लील दानव भी कोई नहीं!
(जब फ्री हैण्ड लिखा जाता है तो अंग्रेजी के शब्द कुछ ज्यादा ठुंस जाते हैं। आशा है घोस्ट बस्टर जी अंग्रेजी परसेण्टेज की गणना नहीं निकालेंगे; अन्यथा मैं कहूंगा कि उनका नाम १००% अंग्रेजी है!)
उसी पोस्ट पर महामन्त्री-तस्लीम का कमेण्ट - हालत यहाँ तक जरूर पहुंचेंगे, क्योंकि जब इन्सान नीचे गिरता है, तो वह गहराई नहीं देखता है।
निश्चिंत रहिये, गरीबों की पीठ पर विज्ञापन कभी नहीं आयेंगे....मैं यूँ भी निश्चिंत हूँ इस ओर से. घोस्ट बस्टर जी ने मेरी अनाव्यक्त सोच पर हस्ताक्षर ही किये हैं. मैं उनकी भावना का सम्मान करता हूँ और समर्थन तो है ही.
ReplyDeleteअमरीका/कनाडा समृद्ध देश हैं. यहाँ लड़कियाँ अपने विश्वविद्यालय के नाम खुदी पेन्टों को पहन कर गर्व महसूस करती हैं जो कि उनके हिप्स को पूरी तरह ढकें रहता है. क्या सोच आप समझते हैं इसके पीछॆ विश्वविद्यालय की कि सबकी नजर वहाँ तो जायेगी ही?? यह पैन्टस नार्मल पैन्टस से बहुत मँहगी हैं और गरीब इन्हें पहने, वो तो सवाल ही नहीं. अफोर्ड करना संभव ही नहीं.
अगर क्रेज है, विज्ञापन ध्यान खींचते हैं..वो लोग मार्क करते हैं जो टीवी पर विज्ञापन देखते ही नहीं..तो उस दृश्टिकोण से तो सफल ही कहलाया. सब वही बेच रहे हैं जो बिकता है...गरीब क्या खरीदेगा..इसकी कौन चिन्ता करता है.
मेरे नज़रिये से गुगल सफल का विज्ञापन सफल रहा. आप का आलेख शायद मेरी ही तरह कईयों को जगाये कुछ कहने को. आभार इस प्रस्तुति का.
आप की बात से सहमत हूँ, ख़ास तौर पे "हिन्दू मानस की कमजोरी को ठेंगा" दिखाने की बात से. हम में से ही बहुत से लोग न जाने किन बातों का हवाला दे कर ऐसी हरकतों को बर्दाश्त करते हैं ...... और हाँ, ग़रीबों की पीठ नहीं आयेंगे, पता नहीं .......... कम से कम photography exhibitions में तो धड़ल्ले से, और बड़े फख्र से, ग़रीबों को, और उन की ग़रीबी को (इस में उन की पीठ भी शामिल है) art के नाम पर प्रर्दशित किया जाता है.
ReplyDeleteगरीब की पीठ पर विज्ञापन के लिए स्थान कहाँ है? वह तो खुदै ही पूंजी,बाजार,मुनाफे की अर्थव्यवस्था की महानता और इंन्सान की वास्तविक कीमत का विज्ञापन बनी हुई है।
ReplyDeleteज्ञान जी, ग़लती से
ReplyDelete"और हाँ, ग़रीबों की पीठ नहीं आयेंगे, पता नहीं .......... "
लिख गया, इसे यूं पढ़ा जाए :
"और हाँ, ग़रीबों की पीठ पर विज्ञापन नहीं आयेंगे, पता नहीं .......... "
एक बात और ... पूंजी, बाजार, उत्पादन में तो गरीब की पीठ का इस्तेमाल नहीं हो सकता। उसे कम से कम कला के लिए तो रहने दें अन्यथा उसे कहाँ स्थान प्राप्त होगा? वह दृश्य से ही गायब हो जाएगी। और एक बात ..... पहली बार पता लगा कि पूंजी, बाजार और उत्पादन गरीबों को भी हिन्दू और मुसलमान के नजरिए से देखता है। मैं तो समझता था कि वह केवल उसे अपने लिए धन बनाने के सस्ते औजार के रूप में ही देखता है।
ReplyDeleteआज भी जब गांव जाता हूं तो ऐक दूकान के आगे लिखे विज्ञापन ध्यान खींचते हैं - जाने वाले ध्यान किधर है, मधुशाला ईधर है- तो सोचता हूं कि क्या वाहियात पंचलाईन है, अब वो लाईने आजकल के बंदर और अंडर वियर वाले विज्ञापन से ज्यादा अच्छी लगती हैं।
ReplyDeleteसही फरमाया आपने .....गरीबों की पीठ पर अभी वैसे भी नरेगा का बोझ है .
ReplyDeleteजगजीत सिंह का एक पुराना गजल याद आ रहा है..
ReplyDeleteकैसे कैसे हादसे सहते रहे
..फ़िर भी हम जीते रहे हँसते रहे
गरीबो के लिए कुछ ऐसी ही स्थिति है...
ग़रीबो की कमर तो वैसे ही टूटी हुई होती है.. अब टूटे हुए साइन बोर्ड पे कोई भी कंपनी विज्ञापन नही लगाती
ReplyDeleteबाजार जब अश्लील होता है, उससे ज्यादा अश्लील कुछ भी नहीं होता है। बाजार जब अच्छे रिजल्ट देता है, तो उनसे बेहतर रिजल्ट हो ही नहीं सकते। बाजार अपने आप में कुछ नहीं है, कुछेक मानवीय प्रवृत्तियों का निचोड़ है। कुछ निम्न मानवीय वृत्ति जैसे लालच, और डर बाजार को चलाते हैं। जीतने की इच्छा, महत्वाकांक्षाएं भी बाजार को चलाती हैं। गड़बड़ तब है, जब हर बात को बाजार के नजरिये से देखा जाये। बाजार के बारे में एक और कही जाती है कि बाजार कीमत हर चीज की लगा सकता है, पर वैल्यू किसी चीज की नहीं जानता। संतुलन बहुत जरुरी है। पर संतुलन साधना आसान काम नहीं है। आस्ट्रेलिया में कुछ साल पहले एक कंपनी शेयर जारी करके , पब्लिक से पैसा लेकर, घोषित तौर पर वेश्वालय चलाया करती थी। यह धंदा मंदीप्रूफ था। यह बाजार की अति है। पर दूसरी और समाजवादी अतियां भी कम नहीं हैं। फुलमफुल सेलरी लेना काम धेले का नहीं करना। यह दूसरी अति है। अतियों के बीच झूलती प्रवृत्तियों में कभी कभार संतुलन दिख जाता है। वरना तो ज्यादातर हम अतियों के ही आदी है।
ReplyDeleteआलोकजी से सहमत.
ReplyDeleteदारू के पैसे के लिए खून बेचने वाले अपनी पीठ नहीं बेचेंगे?
गरीब की पीठ पर विज्ञापन नही आयेंगे...भला गरीब किसी को क्या दे सकते हैं...
ReplyDeleteमज़ाक में यूँ ही कुछ लिख दिया था।
ReplyDeleteयह तो बहुत गंभीर मामला साबित हो रहा है!
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आज मैंने अपनी पत्नि से उसका Handbag छीन लिया।
नहीं लौटाऊँगा। कभी नहीं।
क्यों?
ज्ञानजी के ब्लॉग पर इसके बारे में लिखूँगा।
आप सही कह रहे हैं। आदमी कोई भी काम अपने फायदे के लिए ही करता है। और भला गरीब किसी का क्या भला कर सकते हैं।
ReplyDeleteजी हाँ आपके विचारोँ मेँ कयी बातेँ ऐसी हैँ जिनपर ध्यान जाता है - सवाल बाजारवाद का है, क्या उपभोक्ता को आकृष्ट करने के लिये बाजार मेँ क्रय करनेवाले भी ऐसी सेन्सीटीवीटी रखेँगेँ या नहीँ ? we notice that, the trend is decadent!
ReplyDeleteट्रेन्ड तो पाताल की तरफ आमुख है -
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जैसे मीत जी ने कहा, आर्ट फिल्मोँ के जरीये सत्यजीत रे की फिल्मेँ भी बँगाल का अकाल दीखला कर कान्स मेँ स्वर्ण पदक पाती है -शेली तो उनकी उत्तम थी ही परँतु, वेस्टर्न कन्ट्रीज़ भारत का वही रुप देखते और दीखाते हैँ -
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और दिनेश भाई जी ने कहा - उस बात पर ये भी , अमरीका मेँ और अन्य सभी राष्ट्रोँ मेँ , टार्गेटेड ओडीयन्स का ख्याल रखते हैँ - when they advertise a product they do survey the age group, ethnicity, class & so the caste in India is considered as well .
-लावण्या
जी हाँ आपके विचारोँ मेँ कयी बातेँ ऐसी हैँ जिनपर ध्यान जाता है - सवाल बाजारवाद का है, क्या उपभोक्ताओँ को आकृष्ट करने के लिये बाजार मेँ क्रय करनेवाले भी ऐसी सेन्सीटीवीटी रखेँगेँ या नहीँ ? ट्रेन्ड तो पाताल की तरफ आमुख है -
ReplyDeleteजैसे मीत जी ने कहा, आर्ट फिल्मोँ के जरीये सत्यजीत रे की फिल्मेँ भी बँगाल का अकाल दीखला कर कान्स मेँ स्वर्ण पदक पाती है -शेली तो उनकी उत्तम थी ही परँतु, वेस्टर्न कन्ट्रीज़ भारत का वही रुप देखते और दीखाते हैँ
और दिनेश भाई जी ने कहा - उस बात पर ये भी , अमरीका मेँ और अन्य सभी राष्ट्रोँ मेँ , टार्गेटेड ओडीयन्स का ख्याल रखते हैँ -
-लावण्या
कुछ तो गरीब के पास रहने दो यारों, पहले ही सेज और वायदा उसके कपड़े उतार चुके हैं, अब क्या महंगाई की चाबुक खाई हुई पीठ भी ले लोगे?
ReplyDeleteज्ञानजी कल वाले पोस्ट पर टिपण्णी नहीं कर पाया दोनों के लिए यहीं टिपण्णी कर रहा हूँ... पहली बात ये कि ये साड़ी भले ही पूर्णतया गूगल का विज्ञापन लगती हो पर ये डिजाइनर सत्य पाल कि डिजाईन है. और उन्होंने गूगल कि जगह उगल लिखा था. ध्यान से देखिये g कि जगह o है. ऐसा उन्होंने ट्रेडमार्क की झंझट से बचने के लिए किया था. गूगल का इस साड़ी से कोई लेना देना नहीं था... और ये पूरी तरह से डिजाइनर का आईडिया था. यह गूगल से प्रेरित होकर जरूर बनाई गई थी. और भी कई डिजाईन आप उनकी वेबसाइट पर देख सकते हैं. [http://satyapaul.com/]
ReplyDeleteवैसे मैं विश्वनाथ जी की बात से सहमत तो हूँ ही, ये जानकारी देना उचित समझा.
और जहाँ तक गरीबो की पीठ पर आने तक का सवाल है तो ... मेरे पास कम से १० कंपनियों की टी-शर्ट है.... टी-शर्ट ही क्यों कैप, डायरी, पेन, और यहाँ तक की पेन ड्राइव और घड़ी तक है. माइक्रोसॉफ्ट की घड़ी जिसकी कीमत कम से कम १००० रुपये होगी तो गूगल की पेन ड्राइव जिसकी कीमत अब तो कम हो गई है पर जब मिली थी उस समय २००० की तो होगी ही.
उनमे हमारी प्रतिभा का हाथ हो न हो उनका प्रचार तो खूब होता है :-)
पर मैं गरीब तो शायद नहीं रहा !
अभिषेक जी नहीं बताते तो हम सभी उगल को गूगल ही समझते रह जाते।
ReplyDeleteवैसे इससे यह भी ज्ञात हुआ कि इस प्रकरण के पीछे भी एक कलाकार (डिजाइनर) का ही खुराफात है। प्रगतिशीलता की इस अंधी दौड़ में जो न हो जाये कम है। आज की कला कला न रहकर खुराफात हो गयी है। तथाकथित कलाकार खुराफात पर खुराफात किये जाता है और भाई लोग उसे महान मानववादी बुद्धिजीवी कह महिमामंडित करते रहते हैं। इसमें दोनों का फायदा है, महिमामंडित होनेवाले का भी, महिमामंडन करनेवाले का भी।
चलिये, बह्स के लिये ही सही...
ReplyDeleteबेचारे गरीब की पीठ हमारे कुछ काम तो आ रही है !
दुनिया उसकी पीठ पर सवार होकर ऎश कर रही है, तो हम क्या बहस भी नहीं कर सकते ?
अब एक अलग दृष्टिकोण. हर माह कम से कम दो - तीन एड एजेंसीज के सेल्स एक्सिक्यूटिव्स आकर खोपडी खाते हैं कि उनके साथ अपना विज्ञापन करें. लोकल टी वी चेनल वाले भी चक्कर लगाते रहते हैं. सब के सब अपने स्पेस या स्लॉट बेचने में लगे हैं. अख़बारों और न्यूज चेनलों की तो आमदनी का मुख्या जरिया ही विज्ञापन हैं (माने कुछ अनुल्लेखनीय सोर्सेस के अलावा). अब ऐसे में अगर कोई गरीब भी अपनी बॉडी को एसेट बनाकर कुछ कमा ले तो क्या ग़लत है? :-)
ReplyDeleteचित्रकार साहब जितना बाहर घूमें अच्छा है. कम से कम तब तक तो उनके नंगत्व से बचे रहेंगे हम लोग.
और भाषा को लेकर कोई दुराग्रह नहीं है जब तक कि डिक्शनरी खोलने (या क्लिकियाने) की नौबत ना आन पड़े. :-)
इस पोस्ट के लिखे जाने से मेरे पढे जाने तक गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है। हिन्दू मानस की कमजोरी को ठेंगा दिखाता वही सड़ियल भाव वाला पेण्टर-टर्न्ड-चित्रकार भारत की नागरिकता रिजेक्ट करके उस देश का निवासी बन चुका है जहाँ चित्रकारी धर्म-विरुद्ध मानी जाती है।
ReplyDeleteवैसे आपकी और भूतमारकर जी दोनों ही की बात सही है। किसी कानून-रहित समाज में अपराधी/आसुरी मानसिकता वाले लोगों लिये गरीब की मार्केट/शोषण वल्यू भले ही काफी हो मगर एक विज्ञापन माध्यम के रूप में उसकी कोई कीमत नहीं है। मतलब यह कि एक बेघर की किडनी चुराई जा सकती है क्योंकि किडनी की कीमत धारक की गरीबी से स्वतंत्र है।