बन्दरों के उत्पात से परेशान कुछ बड़े किसानों ने बिजली के हल्के झटके वाली बाड लगाने की योजना बनायी। तब वे खुश थे कि जब बन्दर इस पर से कूदेंगे तो उनकी पूँछ बाड़ से टकरायेगी और उन्हे झटका लगेगा। बाड़ लगा दी गयी। कुछ दिनों तक बन्दर झटके खाते रहे पर जल्दी उन्होने नया तरीका निकाला। अब कूदते समय वे हाथ से अपनी पूँछ पकड़ लेते हैं और फिर बिना दिक्कत के बाड़ पार!
यह पोस्ट श्री पंकज अवधिया की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है। आप उनके पिछले लेख पंकज अवधिया पर लेबल सर्च कर देख सकते हैं। |
पिछले दस से भी अधिक वर्षों से मै बन्दरों पर नजर जमाये हुये हूँ और आम लोगों विशेषकर किसानों को उनसे होने वाले नुकसानों का दस्तावेजीकरण कर रहा हूँ। मैने आम लोगों द्वारा बन्दरों को बिना नुकसान पहुँचाये उन्हे दूर रखने के देसी उपायों पर भी काम किया है। पिछले दिनो उत्तर भारत के एक वैज्ञानिक संगठन ने मुझसे एक रपट बनाने के लिये कहा ताकि वे देसी उपायों से इन पर अंकुश लगा सकें।
देश के मध्य भाग के किसान लंगूरो से बहुत परेशान हैं। जंगलो के खत्म होने से अब ये बड़ी संख्या मे गाँवो के आस-पास बस गये हैं। उन्होने सभी तरह की वनस्पतियों को आजमाना शुरु कर दिया है। अलसी की फसल आमतौर पर जहरीली मानी जाती है। पशु इसे नही खाते पर किसान बताते हैं कि बन्दर ने इसे खाना आरम्भ कर दिया है। गाँवों मे खपरैल की जगह अब टिन लगवाना पड़ रहा है। धार्मिक आस्था के कारण इन्हे नुकसान नही पहुँचाया जाता पर आम लोग इनसे छुटकारा भी चाहते हैं। रायपुर मे तो कई वर्षों पहले आदमी की गल्ती से मारे गये बन्दर को विधिपूर्वक न केवल दफनाया गया बल्कि एक स्मारक भी बनाया गया है।
देसी उपायो मे तो जितने किसानो से आप बात करेंगे उतने ही उपायो के बारे मे वे बतायेंगे। अपनी यात्रा के दौरान मैने एक किसान को एयरगन लेकर दौडते देखकर गाडी रुकवायी। उसका कहना था कि बिना छर्रे डाले केवल बन्दूक दिखाने से लंगूर डर जाते है। भले ही वह किसान छर्रे न चला रहा हो पर लंगूरो का डर यह बताता है कि उनपर कभी बन्दूक का प्रयोग हुआ है, इसीलिये वे डरते है। भारतीय कानून के अनुसार बन्दर पर बन्दूक चलाना अपराध है।
बहुत से किसानो से मशाल को अपनाया। शुरु में तो बन्दर डरते हैं; पर फिर मशाल के जलने का इंतजार करते हैं। जलती हुयी मशाल लेकर जब उनकी ओर दौडो तब जाकर थोडा बहुत भागते हैं। मुझे जंगली हाथियो की याद आ रही है। न्यू जलपाईगुडी के पास के क्षेत्र मे जंगली हाथी आ जाते हैं तो ग्रामीण फटाके फोड़ते है। हाथी शांति से शो देखते रहते हैं और फिर फटाके खत्म होने के बाद इत्मिनान से खेतों मे घुसते हैं।
बहुत से किसान गुलेल का प्रयोग कर रहे हैं। यह बडा ही कारगर है। सस्ता है और बन्दरो के लिये जानलेवा भी नही है। पर इसके लिये दक्ष गुलेलबाज होने चाहियें। नौसीखीये गुलेल चलाते हैं तो बन्दर धीरे से सिर घुमा लेते हैं या झुक जाते हैं।
एक बार औषधीय फसलो की खेती कर रहे किसान के पास दक्ष गुलेलबाज मैने देखे थे। उन्होने बन्दरो की नाक मे दम कर रखा था। पर वे मेरे साथ जब फार्म का भ्रमण करते थे तो उन पेडो से दूर रहते थे जिन पर बन्दरो का डेरा था। यदि गल्ती से वे उसके नीचे चले जाते थे तो बिना किसी देरी के उन पर मल आ गिरता था। बन्दर बदला लेने का कोई मौका नही गँवाना चाहते थे।
हमारे यहाँ लंगूरों ने बबूल को अपना ठिकाना बनाया पहले-पहल। फिर जब किसानों ने उन्हे रात मे घेरना आरम्भ किया तो वे अर्जुन जैसे ऊँचे पेड़ों मे रहने लगे। हाल ही मे किसानों से मुझसे पता चला कि काँटे वाले सेमल के पेड़ से बन्दर दूर रहते हैं। आप यह चित्र देखें तो समझ जायेंगे कि कैसे इसके काँटे बन्दरो को बैठने तक नही देते हैं।
कई किसानों ने आस-पास के दूसरे पेड़ों को काटकर सेमल लगाया पर ज्यादा सफलता नही मिली। किसानो के साथ मिलकर मैने खुजली वाली केवाँच की बाड़ भी लगायी। बन्दर जानते है इस खुजली के बारे मे। पर केवाँच के साथ मुश्किल यह है कि यह साल भर नहीं फलता-फूलता।
मैने अपनी रपट मे अनुशंसा की है कि बन्दरो को भगाने की असफल कोशिश पर समय और धन खर्चने की बजाय मुम्बई के ‘भाई’ जैसे इन्हे हिस्सा दिया जाये। आखिर मनुष्यों ने ही तो उनका घर छीना है। बहुत से प्रभावित गाँव मिलकर पंचायत की जमीन पर फलदार पेड लगायें जो साल भर भरपूर फल दें। ऐसे फल जो बन्दरों को बेहद पसन्द हों। मनुष्यो से इन पेड़ों की रक्षा की जाये। फिर देखिये बन्दरों को अपना हिस्सा मिलेगा तो क्यो वे मनुष्यो द्वारा उगायी जा रही रसायन युक्त फसलो की ओर रुख करेंगे? इतने समझदार तो वे हैं ही।
(बन्दरो और दूसरे वन्य प्राणियो के जन्मजात और अनुभवो से विकसित हुये इंटेलिजेंस पर और रोचक संस्मरण सुनना चाहें तो बताइयेगा।)
पंकज अवधिया
© सर्वाधिकार पंकज अवधिया
बंदर नहीं बनाते घर बंदर नहीं बनाते घर घूमा करते इधर उधर आ कर कहते - खों, खों, खों रोटी हमे न देते क्यों? छीन-झपट ले जायेंगे बैठ पेंड़ पर खायेंगे। (मेरे बच्चों की नर्सरी की कविता) |
एयर गन के छर्रे बन्दर के शरीर में घुसकर स्थायी घाव बना देते हैं जो बहुत पीड़ादायक है। इसका प्रयोग कत्तई नहीं होना चाहिए। मैने अपने गाँव में आम के पेड़ों से बंदरों को भगाने के लिए लम्बे बाँस का प्रयोग देखा है। इससे उन्हें कोई चोट नहीं पहुँचती है। ये केवल तंग आकर कहीं और चले जाते हैं। करीब दो मीटर पतली रस्सी से तैयार किया हुआ ‘ढेलवांस’ नामक एक जुगाड़ बन्दरों के ऊपर १०० मी. तक की दूरी से मिट्टी के ढेले फेंकने मे कारगर होता है। इससे भी चोट नहीं के बराबर लगती है और भय अधिक होता है। इधर कुछ लोग एक जाल पर खाद्य सामग्री डालकर चतुराई से बन्दरों की पूरी सेना को ही पिजरे में डाल जंगलों में या दूसरे इलाकों में छोड़ आते हैं। यह काम भी क्रूर हुए बगैर किया जा सकता है।
ReplyDeleteबंदरों की संख्या नियंत्रित करने के लिए उनकी नसबन्दी करना कितना कारगर हो सकता है इसपर अवधिया जी का कोई अध्ययन हो तो पाठकों को अवश्य बताएं।
बंदर को जान से मारना तो बहुत बड़ा पाप समझा जाता है। यदि गलती से भी किसी के हाथों बंदर की जान चली जाय तो उसे भीषण कलंक का भागी माना जाता है और कहते हैं कि इसका दुष्परिणाम पूरे समाज को भोगना ही पड़ता है। गाँव में घरों का आग से जल जाना या कोई अन्य प्राकृतिक आपदा इसी कलंक का प्रतिफल मानी जाती है। बंदर को हनुमान जी का प्रकट रूप मानने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। इसलिए अवधिया जी चाहें तो थोड़ा आश्वस्त हो लें। हमारे देश मे बजरंग बली के प्रति जो भक्ति भावना लोगों में है उसका लाभ इस पूर्वज जीव को अवश्य मिलता है।
छीनेंगे जिन के घर
ReplyDeleteआएँगे जबरन पाहुन
भगाए-भगाए न जाएँगे
वापस लौटा दो घर उन के
लौट के फिर न आएँगे
रोचक और उपयोगी लेख।
ReplyDeleteआज शाम तक अपनी टिप्प्णी लिख भेजूँगा।
बढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteये भी सुन रखा था बहुत पहले
ReplyDelete" सीख न दीजो बाँदरा ( बँदर )
के घर बया को जाये "
रोचक जानकारी रही !
- लावण्या
काफी रोचक जानकारी प्राप्त हुई।
ReplyDeleteजागरुक पोस्ट. बंदर क्या, यहाँ जंगली जानवरों के लिए इलेक्ट्रिक फेंस लगाये जाते हैं और वो उसे बी पार कर लेते हैं...इन्सानों वाली फितरत है..हर कानून का तोड़ निकाल लेते हैं.
ReplyDeleteबंदरों ने बिजली के झटके से बचने की युक्ति खोज ली .यह उनकी तर्क शक्ति का कमाल है -उनकी सामूहिक नसबंदी [क्योंकि बधियाकरण पर पशुप्रेमियों को आपत्ति हो सकती है ]एक अछा सुझाव है .
ReplyDeleteवन्य पशुओं से जुड़े रोचक वृत्तांतों को भला कौन नही सुनना चाहेगा ?
अरुणाचल के सीमावर्ती इलाके मियाऊँ के छोटे से प्राणी संग्राहलय में एक होलु बंदर बच्चों सी हूबहू आवाज़ आज भी निकालते देखा था पता चला
ReplyDeleteइसकी आवाज़ निकालने की फितरत ही जान लेवा सिद्ध होती है .वहां के ईटानगर इलाके के एक साथी एन.सी.सी आफीसर ने बताया कि कि हमारे यहां बंदरों के शिकार के लिए गांवो में आपसी जंग छिड़जाती है पहले कौन शिकार करे.
मैं अपने गुजरात के एन.सी.सी.केडेटस के साथ था.लेखापानी से मियाऊँ तक के जंगली
रास्तें में बंदर महाशय कहीं नज़र नहीं आये.क्यों ? कोई रहने दे जब ना.
परसाईजी ने लिखा है गाय विदेशों में दूध के काम आती है हमारे यहाँ दंगों के काम आती है.
श्राद्ध के दिनों में हमारे पूर्वजों की आत्मा कौओं में आती है और खीर पुरी खाती है और बिचारे गरीब सूखे निवाले को तरस जाते हैं.
आजकल बंदर,कौवे,गधे ही तो जलेबी खा रहे हैं साहब. जीना मुहाल तो मनुष्यों का है.
बोल बजरंग बली की जय...
ReplyDeleteबंदर भी बड़े सूझ बूझ वाले हो गये है.. जंगल ख़त्म हो गये तो उनको पार्लियामेंट में लाना पड़ेगा.. शायद कुछ भला हो जाए देश का...
बंदरों को पकड़ो और संसद के बाहर रखवाईये
ReplyDeleteअईसे ही समस्या का हल निकलवाइये
समस्या का मनोरम हल निकलेगा यों यों
क्योंकि अंदर तो हमेशा होती है खौं खौं
और फिर बाहर भी होगी खौं खौं-
कवि जालीदास की बंदर पुराण से साभार ली गयी कविता
बन्दर क्या हम तो समग्र जीव सृष्टि के अपराधी है.
ReplyDeleteचाहे पेड़ लगा लो, बन्दरों को भोजन मिलेगा तो उनकी आबादी भी तेजी से बढ़ेगी, यानी उत्पात तो होगा ही :)
बंदर के उपर रिपोर्ट पढना अच्छा लगा.. फिलहाल तो इस बंदर का कमेंट लिजीये.. कुछ ब्लौग जगत के बंदरों के उपर भी लिखिये जो कभी-कभी उत्पात मचा जाते हैं.. :)
ReplyDeleteYour Blog deserves a lot of praise,
ReplyDeleteLots to learn from here..
पंकजजी,
ReplyDeleteकाश आप का यह लेख तीन महिने पहले पढ़ने को मिलता।
बेंगळूरु में, उत्तरहळ्ळी में, एक १२ मंजिला इमारत में, छठी मंजिल पर मेरा एक अपार्टमेन्ट है। करीब २०० परिवार इस apartment complex में रहते हैं और हर साल, नियमित रूप से, फ़ेब्रुवरी और अप्रैल के बीच, हमें बन्दरों से निपटना पढ़ता था।
कहा जाता है कि यह migratory season है, और हर साल इस समय बन्दरों की यह टोली इस रास्ते से गुजरती है और कुछ हफ़्तों के लिए बन्दर यहाँ अपना camping का अड्डा बना लेते हैं। कुछ साल पहले यह वन इलाका माना जाता था (लेकिन आजकल तो concrete jungle बन गया है).
इस साल भी सभी बन्दर चले गये एक या दो दिन के बाद.
लेकिन एक नर और मादा की जोड़ी जाने का नाम भी नहीं लेते थी।
अपार्टमेन्ट के निवासी बहुत परेशान होते थे इस जोड़ी से। Complex के security कर्मचारियों से कुछ नहीं हो सका। अपार्टमेन्ट के बराम्दे में बैठकर यह नटखट जोड़ी, निवासियों को परेशान करती थी। कभी धर की रसोई के अन्देर घुसकर, उत्पात मचाती थी। झाडू या डंडा दिखाकर उन्हें भगाना पढ़ता था लिकेन लपककर अगले फ़्लैट के बाल्कनी में पहुँच जाती थी और उत्पात जारी रहता। कभी कभी तो यह बारहवी मंजिल तक भी पहुँच जाती थी। मामला अधिक पेचीदा हुआ जब कुछ निवासी (खास कर मर्द और बच्चे, जो सुबह सुबह दफ़्तर या स्कूल के लिए निकल जाते थे और इनसे झूझना नहीं पढ़ता था) इनको केले खिलाने लगे।
Association के office bearers ने इसकी भर्तसना की और आदेश भी दिये गए कि कोई भी इन बन्दरों को केले खिलाकर प्रोत्साहन नहीं देगा। लेकिन कुछ लोग छुप छुपकर खिलाते रहे। समस्या और भी गंभीर होती गयी। Association के meetings में हल्ला होने लगा।
बाहर से एक ठेकेदार को बुलवाया गया जो इस काम में विशेषज्ञ माना जाता था (बन्दर पकड़ने में)। उसने पन्द्रह हजार रुपए (प्रति बन्दर) मुआवज़ा माँगा जो Association वाले देने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हुए। सुना था यह बेंगळूरु में latest racket बन गया है. यह लोग एक इलाके के बन्दर को पकड़कर शहर में किसी दूसरी जगह छोड़कर आते थे और फ़िर वहाँ से पकड़कर फ़िर उसी जगह वापस लाते थे। (ग्यानदत्तजी, एक और तरीका हैं पैसे कमाने का, जब कभी आप रेलवे की नौकरी त्यागने के लिए तैयार हो जाते हैं, नोट कर लीजिए)
आखिर हम लोगों ने वन अधिकारियों से सहायता माँगी।
केवल दो हज़ार रुपयों में समस्या का हल मिल गया।
वन अधिकारीयों से किराये पर sliding door वाले एक विशेष पिंजड़े का प्रबन्ध किया । उसमे केले और कुछ अन्य खाने की चीजें लटकाई गयी। तीन चार दिन बाद दोनों बन्दर फ़ंसे और इनको पास में ३० किलोमीटर दूर एक वन में छोड़ दिया गया।
देखते हैं अगले साल क्या होता है।
इस बार हम लोग तैयार हैं। हमारा अपना पिंजडा बनवा लिया है और basement में एक कोने में पड़ा है, अगले साल बन्दरों की अगली batch की प्रतीक्षा में।
आज बस इतना ही।
जाते जाते:
बन्दरों के लिए तो मेरे दिल में विशेष स्थान है।
याद है, रवि रतलामी की भांजी की शादी के सन्दर्भ में पिछली बार मैंने ३५ साल पहले, मेरी अपनी शादी तय होने में एक बन्दर का योगदान का किस्सा सुनाने के लिए तैयार था? सोचा था आप लोग उत्सुक होंगे, सुनने के लिए। अनिताजी ही एक हैं जो इसमें दिलचस्पी जताई। कोई बात नहीं, यह किस्सा उनके कानों में फ़ुसफ़ुसाकर बस उन्हीं को सोनाऊँगा, एक private email द्वारा।
अगली टिप्पणी की प्रतीक्षा कीजिए।
सही कहा आपने। अगर कोई हमारा हक छीन ले, तो फिर हम कहाँ जाएँ? आखिर हमें भी तो अपना पापी पेट भरना है।
ReplyDeleteविश्वनाथ जी
ReplyDeleteसुनना तो ये सब भी चाह्ते हैं, कहते नहीं, बड़ी उम्र में लोग जरा सीरियस टाइप हो जाते हैं , हमें तो बड़ी बेसब्री से इंतजार है उस किस्से का, सुनाइए सुनाइए।
पंकज जी हमेशा की तरह आप की ये पोस्ट भी बेहद रोचक है। हम तो कभी गांवों में रहे नहीं इस लिए हमारे लिए तो ये सब रोमांचक है, हां किसानों को जरूर परेशानी झेलनी पड़ती होगी और उनके लिए ये आफ़त होगी। हम तो उस सीन की कल्पना कर कि हाथी आतिशबाजी देखते हैं और फ़िर खेतों में घुसते है सोच कर ही हाथियों को शाबासी देने का मन हो रहा है कि लो बेटा ये केले मेरी तरफ़ से। इंसान का अपनी अक्ल पर गरुर चकनाचूर हो जाता होगा।
वैसे बंदरों की बात की तो दो यादें मेरे दिमाग में कौंध रही हैं - एक बचपन की जब हम अलीगढ़ में थे और गर्मियों के दिन थे। हम कुछ रहे होगें उस समय दस साल के। मम्मी खाना बना के छोटे भाइयों की जिम्मेदारी सौंप बाहर गयी थी। रात का समय था, हमने आगंन में चारपाई बिछाई उसके आस पास दो चारपाई खड़ी कर ओट बनाई और खाना लगाया। पहला निवाला तोड़ने ही वाले थे कि ट्पाक से एक चांटा हमारे मुंह पर रसीद हुआ और रोटियों का डिब्बा ले एक मोटा सा बंदर छ्त्त पर चढ़ चुका था। हमारी जो चीख निकली। उस दिन वापस लौटने पर हमारी पड़ौसन अम्मा जी ने मम्मी की खूब खबर ली…:)।
दूसरी याद है कि हम कटरा से जम्मू जा रहे थे कार से, रास्ते में सड़क किनारे बंदरों को देख पुल्लकित हो रहे थे( उस चांटे के बावजूद) लेकिन बंदर किसी भी राही को परेशान नहीं कर रहे थे। पूछ्ने पर पता चला कि चाहे कैसा भी मौसम हो गुलशन कुमार (टी सीरीज कैसेट वाला) की गाड़ी आती है दिन में दो बार खाने पीने के सामान से भरपूर और क्या आप विश्वास करेगें कि बंदर लाइन लगा कर अपने अपने हिस्से का खाना लेते हैं । काश हम वो नजारा देख पाते।
आप प्लीज ऐसी ही और पोस्ट्स लिखिए, हम पढ़ रहे हैं
ये समस्या मानवजनित है पेड़ और जंगल रहेंगे ही नहीं तो बन्दर कहाँ जाएँ भला. विश्वनाथजी की तरह ये समस्या हमारे होस्टल में हुआ करती थी... लाल बन्दर थे सैकडो की संख्या में... चिडियाघर वालों की मदद ली गई... एक लंगूर लाया गया. लंगूर की उपस्थिति ने समस्या काफ़ी हद तक सुलझा दी जो बचे थे उन्हें चिडियाघर वाले ले गए.
ReplyDeleteजानकारी रोचक है और विश्वनाथ जी कि टिप्पणी मे बताया गया उपाय भी।
ReplyDeleteब्रेकिंग न्यूज और सनसनीखेज न होने के बावजूद आप सभी का किसानी से जुडे विषय पर विचार व्यक्त करना आपकी भलमनसाहत और हिन्दी ब्लागिंग की सार्थकता को दर्शाता है।
ReplyDeleteमै उन उपायो का पक्षधर हूँ जिनसे बन्दरो और मनुष्यो दोनो ही को नुकसान न हो। नसबन्दी का उपाय सही लग सकता है पर बन्दरो की बजाय मनुष्यो के लिये इसे पहले अपनाया जाये व्यापक स्तर पर तो धरती के ज्यादातर जीवो पर से संकट समाप्त हो जायेगा।
बन्दर को पकडकर दूसरी जगह छोडना सही लगता है पर दूसरी जगह कहाँ? आपने डिस्कवरी मे देखा होगा कि प्राणियो के अपने इलाके होते है और वहाँ वर्चस्व की लडाई होती है। सैकडो बन्दरो को नयी जगह पर छोडना अचानक ही नयी जगह मे असंतुलन पैदा कर देता है। फिर बन्दरो को बिल्ली की तरह लौटते भी देखा गया है।
माँ प्रकृति के पास उपाय है बन्दरो की आबादी पर नियंत्रण रखने के पर ये उपाय उनके प्राकृतिक आवास मे है, खेतो मे नही। इसलिये गाँवो के पास वन लगाने से और उसे मानव से बचा कर रखने से बंदर की आबादी प्राकृतिक शत्रुओ द्वारा नियंत्रित रहेगी- ऐसा मेरा मानना है।
जिस बहस की शुरुआत ज्ञान जी के ब्लाग से हुयी है वह दूर तलक जायेगी। हम किसानो और बन्दरो के दर्द को समझकर कोई ठोस उपाय निकाल पायेंगे तो किसान भी हानि से बच पायेंगे और बन्दरो को भी राहत मिल पायेगी। एक बार फिर आप सभी का आभार।
jay Bajarang Bali
ReplyDeleteमैं यही लिख सकता हूँ कि आपने अच्छा लिखा है....और बंदर कविता के रचनाकार का नाम नहीं दिखा
ReplyDeleteबन्दर की दी सीख तो हम भी नही भूल पाते... पाँचवी क्लास में पढ़ते थे...नानी के घर गए थे... छत पर बैठे नानी से कहानी सुन रहे थे...नानी ने नीचे से पानी
ReplyDeleteलाने को कहा तो हमने इनकार कर दिया... ''बडों का कहा न मानने वाले को ईश्वर सज़ा देते हैं..." कहती हुई नानी पानी लेने नीचे चली गयीं और हम चारपाई पर चुप बैठे रहे लेकिन अन्दर से दिल पता नही क्यों ख़राब हो गया. अचानक कहीं से मोटा बन्दर प्रगत हुआ और हमारा फ्रोक पकड़ कर झटके देने लगा...शायद ऊपर से नीचे गिराने की कोशिश ....हमें कुछ याद नही बस इतना याद है की नीचे से आती नानी माँ ने हमे आधे में ही नीचे गिरने से बचा कर पकड़ लिया... तब से निश्चय कर लिया की बडों का कहना कभी नही टालना... सालों से यह घटना बच्चों को सुनाते थे आज अपने मित्रों से भी बाँट ली ...
ई-मेल से मिली अविनाश वाचस्पति जी की टिप्पणी -
ReplyDeleteबंदर नहीं बनाते घर
रहते हैं वे सदा निडर
उनसे लगता सबको डर
वे निडर हैं वे निडर
बंदर नहीं बनाते घर
घुस आते घर के अंदर
बाहर बंदर अंदर बंदर
बंदर बन बैठे सिकंदर
अविनाश वाचस्पति
बन्दर घर नहीं बनाते
ReplyDeleteआजकअल कुत्तों को छेड़ने लगे हैं।
समीरलालजी का बन्दर वाला विडियो अभी अभी देखा।
जब ऐसे विडियो पेश करते हैं तो कौन पढ़ेगा उनका ब्लॉग?
सब विडियो ही देखते रहेंगे। हम तो सपरिवार इसे देखते ही रह गये।
विडियो नकली तो नहीं? मुझे शक हो रहा है।
क्या किसी छोटे नटखट और साहसी लड़के को बन्दर का खाल पहनाकर लिया गया विडियो तो नहीं?
आजकल सब कुछ हो सकता है।
"Seeing is not necessarily believing"