Saturday, June 14, 2008

अशोक पाण्डेय, उत्कृष्टता, खेतीबाड़ी और दोषदर्शन


मैं सामान्यत: एक पत्रकार के विषय में नहीं लिखना/टिप्पणी करना चाहूंगा। किसी जमाने में बी.जी. वर्गीश, प्रभाष जोशी और अरुण शौरी का प्रशंसक था। अब पत्रकारिता पर उस स्तर की श्रद्धा नहीं रही। पर आज मैं एक पत्रकार के बारे में लिख रहा हूं।
Ashokअशोक पाण्डेय (इस लिये नहीं कि यह सज्जन पाण्डेय हैं) के बारे में मुझे कुछ लगता है जो लिखने को प्रेरित कर रहा है। उन्होने जेफ्री आर्चर वाली मेरी पोस्ट पर टिप्पणी दी है कि “(मैं) यह मा‍थापच्‍ची जरूर कर रहा हूं कि (फर्स्‍ट) बेस्‍ट मेरे लिये क्‍या है- खेती, ब्‍लॉगिंग या पत्रकारिता”।
अशोक का ब्लॉग है “खेती-बाड़ी”। यह हमारे हिन्दी ब्लॉगजगत में एक स्लॉट भरता है। आज किसान इण्टरनेट वाला नहीं है, पर भविष्य में इस ब्लॉग की सामग्री संदर्भ का महत्वपूर्ण स्रोत बन सकती है उसके लिये। अशोक को हिन्दी में खेती पर वैल्यू ऐडेड पोस्टें जोडते रहना चाहिये। मुझे नहीं मालुम कि वे किसी प्लान के तहद ब्लॉग लिख रहे हैं या नहीं, पर वे उत्कृष्ट लेखन में सक्षम हैं, अत: उन्हे एक प्लान के तहद लिखना चाहिये। अभी तो उनके ब्लॉग पर सात-आठ पोस्टें हैं, यह सात-आठ सौ बननी हैं।
यह तो “अहो ध्वनि” वाला अंश हो गया। अब शेष की बात कर लूं। अशोक के प्रोफाइल में है कि वे कैमूर के हैं। कैमूर बिहार का नक्सल प्रभावित जिला है। मंडुआडीह, वाराणसी में मेरे एक स्टेशन मैनेजर कैमूर के थे, वहां लम्बी चौड़ी खेती की जमीन होने पर भी वहां नहीं जाना/रहना चाहते थे। बहुत कुछ वैसा ही जैसे रेलवे में अफसर बिहार के होने पर भी बिहार में पोस्टिंग होने पर (सामान्यत) मायूस हो जाते हैं।

कैमूर में होने पर एक प्रकार का दोषदर्शन व्यक्तित्व में आना लाजमी है। व्यवस्था के नाम पर अव्यवस्था, प्रशासन के नाम अक्षम तन्त्र और आपकी सारी क्रियेटिविटी पर सर्पकुण्डली मारे नक्सली! तब आप दोष के लिये खम्बा चुनते हैं। और सबसे अच्छा खम्बा होती है – सरकार; जिसे आसानी से नोचा जा सकता है।
पर सरकार को दोष देने से आप समस्या का हल नहीं पा सकते। किसान अगर अपनी समस्याओं के लिये मन्त्री और सन्त्री को गरियाता ही रहेगा और मार्केट इकॉनमी के गुर नहीं सीखेगा तो बैठ कर चूसता रहे अपना अंगूठा! उसकी समस्यायें यूं हल होने वाली नहीं। मुझे अशोक के विचारों में यह व्यवस्था का सतत दोषदर्शन अखरता है। मेरे हिसाब से यह विशुद्ध कैमूरियत है – आसपास की स्थिति की जड़ता से सोच पर प्रभाव। और कैमूर को आगे बढ़ाने के लिये इस कैमूरियत को त्यागना आवश्यक है।
मैं तो कैमूरियत की बजाय विक्तोर फ्रेंकल के आशावाद पर बल दूंगा। बाकी अशोक जानें। ब्लॉग पोस्ट में व्यवस्था के प्रति हताशा उंड़ेलना तात्कालिक खीझ रिलीज करने का माध्यम दे सकता है – पर दूरगामी ब्लॉग वैल्यू नहीं। उसके लिये तो उन्हें ब्लॉग पर खेती-किसानी के साथ-साथ अनाज मण्डी के गुर भी बताने वाली पोस्टें बनानी चाहियें।
शायद अशोक इस पर विचार करें।

क्षमा कीजियेगा, आज की पोस्ट में लठ्ठमार बेबाकी कल की दोपहर की पोस्ट का बचा प्रभाव है। हो सकता है मैं गलत लिख रहा होऊं। कल रविवार को नहीं लिखूंगा कुछ। अगले सप्ताह वैसे भी कम लिखने का मन बनाना है।

17 comments:

  1. आशावाद, और नए रास्ते खोजना ज़रूरी है। पर जो व्यक्ति चलमान नहीं है, अर्थात् अपना इलाका छोड़ के दूसरी जगह नहीं जा सकता है - किसान इसका ज्वलन्त उदाहरण है - वह क्या आशावाद रखे, यह मेरे जैसे इलाकाई समस्या आते ही दूसरे शहर को निकल जाने वाले व्यक्ति के लिए सोचना कठिन है।

    लेकिन जैसा कि अतनु डे दर्शाते हैं, अक्सर समस्याओं का समाधान नज़र आ जाता है, बस नज़रिया बदलने की ज़रूरत है!

    कृषि के नए विषय पर लिखे चिट्ठे पर प्रकाश डालने का धन्यवाद। निश्चय ही आपके उल्लेख से पाठक बढ़ेंगे और लेखक प्रोत्साहित होंगे।

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  2. दिनेशराय द्विवेदी जी की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी:

    मार्केटिंग इस पूंजी-युग का महानतम सत्य है। इस के अभाव में सर्वोत्तम माल लिए आप मक्खियाँ उड़ाते रहते हैं और सड़ियल माल धड़ाधड़ बिकता रहता है।

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  3. सत्य वचन महाराज
    कैमूरियत का एक ही इलाज है-डू मोरियत।
    करने के कोई विकल्प नहीं है, पर वह मुश्किल है।
    वैसे राय साहब ठीक कह रहे हैं मार्केटिग के बगैर तो कुछ भी ना बिक रहा है।
    क्वालिटी का सवाल नहीं है, सवाल है कि कैसे बेचा जा रहा है। किसी का अटैंशन हासिल करना भी एक तरह से मार्केटिंग ही है। ब्लागिंग पर वह सिद्धांत लागू होता है।
    जमाये रहिये।

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  4. अनाज मंडी, विपणन संस्थाओं, बीज वितरण आदि के बारे में एवं खेती में आ रही परेशानियों के समाधान एवं कृषि की बारीकियों के बारे में लिखने का सुझाव निश्चित ही चार चाँद लगायेगा अशॊक भाई के ब्लॉग पर एवं आलेखों की उपयोगिता को दीर्घजीवी बनायेगा.

    बाकी तो उनकी क्षेत्रिय समस्याओं को वो ही बेहतर समझ सकते हैं क्योंकि वह फ्रंट लाईन में हैं और सीधे झेल रहे हैं, समस्याओं का जब उचित निवारण नहीं मिलता तो तंत्र के प्रति गुस्सा एवं दोषारोपण को मैं एक अति सामान्य प्रक्रिया मानता हूँ और यह हर नागरिक का अधिकार है कि वह तंत्र की अपनी समस्याओं के प्रति उदासीनता के खिलाफ आवाज उठाये. कुछ हो न हो, कम से कम मन तो हल्का हो ही जाता है और शायद कभी बात सुन भी ली जाये.

    सभी तो यह कर रहे हैं: कोई मात्र सोचता है, कोई बोल देता है और कोई लिख देता है.

    बेवजह जेल में बंद कैदी, जो न्याय का इन्तजार कर रहा हो, वह न्याय प्रणाली की सुस्ती और वर्षों का समय लेती न्याय व्यवस्था के प्रति आवाज न उठाये तो करे क्या? कैसा समझौता करे? जेल के हालात ठीक करने की प्रक्रिया में तो वो जुटने से रहा कि उसका जेलकाल आराम से कटे.

    अशोक जी से नियमित लेखन का निवेदन है. मेरी शुभकामनाऐं.

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  5. abhii kuch dino pehley hamarey ek mitr parivaar ka jo railway me kaam kartey hai-- allhabad se mujaffarpur tabaadlaa hua--puura parivaar kaalaapaani jaaney jaisi shakal banaye huaa thaa....

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  6. My Good wishes are also here for Ashok ji .
    May he write & inspire others too.
    As NIKE says,
    " Just Do It "

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  7. बिल्कुल ठीक फरमा रहे है आप! अशोक जी को मेरी और से शुभकामनाए..

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  8. कहना भूल गया था कि आपका प्रोफाईल में नया फोटो धांसू है. :)

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  9. अशोक जी का स्वागत ! उनके हौसला अफजाई मे निकले आपके बेवाक राय ब्लॉगजगत मे मार्गदर्शक की उपस्थिति का एहसास दिलाता है . आभार !
    जहाँ शब्दों की मिटटी लगाए लोग अपने माटी से जुड़े होने का दंभ भरते हैं वहीं पांडे अशोक जी मिटटी मे सने लगते है . बहुत सारी शुभकामनाये . अब तो डबल पाण्डेय की बैटिंग देखनी है .

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  10. प्रभाष जोशी जी ओर अरुण शौरी जी का मैं भी बहुत बड़ा प्रशंसक रहा हूँ...जनसत्ता खूब घोट घोट कर एक जमाने मे पड़ता था ...आउटलुक वाले विनोद मेहता जी भी कभी कभी कभी जमते है.......अशोक जी परिचय करवाने के लिए शुक्रिया ..मेरा मानना है की प्रिंट मीडिया हो या खबरिया चैनल पत्रकारों को अच्छा पढ़ा लिखा होना(केवल डिग्री ओर अपने कोर्स नही )बेहद जरूरी है ..क्यूंकि वही एक संवाद सेतु है या कहे जनता की आंखो का चश्मा (ध्यान दे मैंने आँख नही कहा है ) आजकल कुछ गिने चुने लोग ही है.

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  11. पत्रकार कम किसान (ज्यादा) के विषय मे पोस्ट के लिये धन्यवाद। कल ही उनके ब्लाग पर बधाईयाँ देकर आ रहा हूँ। अशोक जी से पूरे ब्लाग परिवार को उम्मीदे है।

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  12. बचपन में जब कोई मेरी तारीफ करता, मैं ही नहीं फुलता, मेरे हाथ-पांव भी फूलने लगते। बस नजरें जमीन पर गड़ाये रहता और वहां से निकल भागने की फिराक में पड़ जाता। यह झिझक आज तक नहीं गयी। बड़ी मुश्किल से इस तारीफ का सामना करने की हिम्‍मत जुटा पाया हूं। आप सभी का धन्‍यवाद व आभार।

    ज्ञान दा का प्रोत्‍साहन तो बहुत से अन्‍य लोगों की तरह मुझे भी पहली पोस्‍ट से ही मिलता रहा है। लेकिन समीर भाई और पंकज अवधिया जी के आशीर्वाद का इंतजार था। अपनी उड़नतश्‍तरी से एक ही झटके में यहां-वहां पहुंच जानेवाले समीर भाई के कीबोर्ड से बिखरे मोती जब अन्‍य मित्रों के ब्‍लॉग पर देखता तो सोचता कि मेरी लॉटरी कब निकलेगी।
    इस इंतजार का फल तो मीठा रहा ही, संजय शर्मा जी की पढ़ने-पढ़ाने की जिद तथा आलोक जी, कुश जी, लावण्‍या जी व डॉ. अनुराग आर्य जी का स्‍नेह मेरे पांवों को जमीन पर नहीं रहने दे रहा। यदि कैमूरियत वाली चर्चा नहीं छिड़ती तो शायद मैं गिर ही पड़ता।

    बड़े भाई की समालोचना सिर आंखों पर। कोरी प्रशंसा इंसान को भ्रमित कर देती है। आपके सुझावों पर अमल की कोशिश करूंगा। हालांकि अभी तो कुछ दोषदर्शन आपलोगों को झेलना पड़ेगा।

    विक्‍तोर फ्रेंकल का आशावाद अच्‍छा है। जीवन के स्‍वस्‍थ व सकारात्‍मक मूल्‍यों के प्रति मेरी खुद की भी मजबूत आस्‍था है। लेकिन देश और समाज के लिए यदि हम किसी चीज को गलत मान रहे हैं, तो उसका विरोध करना हमारा फर्ज है।

    मैं व्‍यवस्‍था विरोधी नहीं हूं। इसके विपरीत मैंने अपने एक पोस्‍ट में अराजक चर्वाक दर्शन का पुरजोर विरोध किया है। मेरा विरोध सरकार की पूंजीवाद समर्थक नीतियों से है। और यह किसी तात्‍कालिक खीझ का नतीजा नहीं है। स्‍वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्‍या के बाद जो सरकारें बनीं, उन्‍होंने गांवों के विकास व समाजवाद से पूरी तरह से किनारा कर लिया और पूंजीपतियों का हितपोषण कर तरक्‍की का मार्ग ढूंढने में लगी रहीं। चूंकि इन नीतियों के सूत्रधार मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी और वित्‍तमंत्री पी चिदंबरम जी रहे हैं, इसलिए इनकी सोच से मेरा विशेष रूप से विरोध है। यदि इनकी नीतियां सही होतीं तो मनमोहन सिंह जी स्‍वर्गीय पीवी नरसिम्‍हा राव के प्रधानमंत्रित्‍व काल में ही देश की अर्थव्‍यवस्‍था को सुधार देते।

    जहां तक कैमूरियत और आस-पास की स्थिति की जड़ता से सोच पर प्रभाव की बात है, यदि कैमूर के किसान जड़ होते तो वे भी आत्‍महत्‍या कर रहे होते। किसानों व गांवों का जो दर्द है, वह सिर्फ कैमूर का नहीं।

    आलोक जी ने संभवत: अतनु डे के नजरिये से समस्‍याओं के समाधान की बात कही है। लेकिन मेरा मानना है कि रिलांयस या कोई अन्‍य निजी कंपनी सिर्फ अपने मुनाफे की बात ही सोचेगी। हमारे देश में शिक्षा व मानव विकास का स्‍तर वैसा नहीं है कि जनता को निजी कंपनियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया जाए। निजी कंपनियां क्‍या गुल खिला रही है़, यह गांवों में आने पर दिखाई देगा।

    अंत में, आप मित्रों ने मुझसे उम्‍मीद पाल कर मेरी जिम्‍मेवारी बढ़ा दी है। मैं पूरी कोशिश करूंगा कि आपकी आस्‍था को ठेस न पहुचाउं। आप सभी को एक बार फिर धन्‍यवाद देते हुए आशा करूंगा कि हौसलाआफजाई के साथ मेरी कमियों की ओर भी संकेत करते रहेंगे। सादर।

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  13. स्वागत श्री अशोक जी का,
    धन्यवाद गुरुवर पाँडेय जी का


    जिन्होंने अशोकः दियो मिलाय !

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  14. shukriya...aapne ashok ji ke blog ke baare mein bataya..shaayad kheti badi se juda ye apne tarah ka pahla blog hai.

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  15. आप कि बातों से लगता है कि आप तो किसानों और किसान हित कि एक मामूली से प्रयास से तिलमिला गए और ज्ञान बघारने लगे कभी आपको पोस्ट क्म लगती है या कभी "कैमुरियत" अखरती है बड़ी मुश्किल से कोई किसान पत्रकार एक प्रयास कर रहे है उनको हौसला दे मेरे जैसे किसानों कि समस्याओं के निवारण कि पोस्ट भेजे ताकि किसानों का कुछ भला हो सके.
    आपने ये कहा कि "आज किसान इण्टरनेट वाला नहीं है" ग़लत है मै ख़ुद किसान हूँ आज काफी किसान इन्टरनेट बारे में जानते या प्रयोग करते है आप तो किसान हित कि पोस्ट या हो सके तो एक पूरा ब्लॉग ही लिख मारें.

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  16. आप कि बातों से लगता है कि आप तो किसानों और किसान हित कि एक मामूली से प्रयास से तिलमिला गए और ज्ञान बघारने लगे कभी आपको पोस्ट क्म लगती है या कभी "कैमुरियत" अखरती है बड़ी मुश्किल से कोई किसान पत्रकार एक प्रयास कर रहे है उनको हौसला दे मेरे जैसे किसानों कि समस्याओं के निवारण कि पोस्ट भेजे ताकि किसानों का कुछ भला हो सके.
    आपने ये कहा कि "आज किसान इण्टरनेट वाला नहीं है" ग़लत है मै ख़ुद किसान हूँ आज काफी किसान इन्टरनेट बारे में जानते या प्रयोग करते है आप तो किसान हित कि पोस्ट या हो सके तो एक पूरा ब्लॉग ही लिख मारें.

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  17. बचपन में जब कोई मेरी तारीफ करता, मैं ही नहीं फुलता, मेरे हाथ-पांव भी फूलने लगते। बस नजरें जमीन पर गड़ाये रहता और वहां से निकल भागने की फिराक में पड़ जाता। यह झिझक आज तक नहीं गयी। बड़ी मुश्किल से इस तारीफ का सामना करने की हिम्‍मत जुटा पाया हूं। आप सभी का धन्‍यवाद व आभार।

    ज्ञान दा का प्रोत्‍साहन तो बहुत से अन्‍य लोगों की तरह मुझे भी पहली पोस्‍ट से ही मिलता रहा है। लेकिन समीर भाई और पंकज अवधिया जी के आशीर्वाद का इंतजार था। अपनी उड़नतश्‍तरी से एक ही झटके में यहां-वहां पहुंच जानेवाले समीर भाई के कीबोर्ड से बिखरे मोती जब अन्‍य मित्रों के ब्‍लॉग पर देखता तो सोचता कि मेरी लॉटरी कब निकलेगी।
    इस इंतजार का फल तो मीठा रहा ही, संजय शर्मा जी की पढ़ने-पढ़ाने की जिद तथा आलोक जी, कुश जी, लावण्‍या जी व डॉ. अनुराग आर्य जी का स्‍नेह मेरे पांवों को जमीन पर नहीं रहने दे रहा। यदि कैमूरियत वाली चर्चा नहीं छिड़ती तो शायद मैं गिर ही पड़ता।

    बड़े भाई की समालोचना सिर आंखों पर। कोरी प्रशंसा इंसान को भ्रमित कर देती है। आपके सुझावों पर अमल की कोशिश करूंगा। हालांकि अभी तो कुछ दोषदर्शन आपलोगों को झेलना पड़ेगा।

    विक्‍तोर फ्रेंकल का आशावाद अच्‍छा है। जीवन के स्‍वस्‍थ व सकारात्‍मक मूल्‍यों के प्रति मेरी खुद की भी मजबूत आस्‍था है। लेकिन देश और समाज के लिए यदि हम किसी चीज को गलत मान रहे हैं, तो उसका विरोध करना हमारा फर्ज है।

    मैं व्‍यवस्‍था विरोधी नहीं हूं। इसके विपरीत मैंने अपने एक पोस्‍ट में अराजक चर्वाक दर्शन का पुरजोर विरोध किया है। मेरा विरोध सरकार की पूंजीवाद समर्थक नीतियों से है। और यह किसी तात्‍कालिक खीझ का नतीजा नहीं है। स्‍वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्‍या के बाद जो सरकारें बनीं, उन्‍होंने गांवों के विकास व समाजवाद से पूरी तरह से किनारा कर लिया और पूंजीपतियों का हितपोषण कर तरक्‍की का मार्ग ढूंढने में लगी रहीं। चूंकि इन नीतियों के सूत्रधार मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी और वित्‍तमंत्री पी चिदंबरम जी रहे हैं, इसलिए इनकी सोच से मेरा विशेष रूप से विरोध है। यदि इनकी नीतियां सही होतीं तो मनमोहन सिंह जी स्‍वर्गीय पीवी नरसिम्‍हा राव के प्रधानमंत्रित्‍व काल में ही देश की अर्थव्‍यवस्‍था को सुधार देते।

    जहां तक कैमूरियत और आस-पास की स्थिति की जड़ता से सोच पर प्रभाव की बात है, यदि कैमूर के किसान जड़ होते तो वे भी आत्‍महत्‍या कर रहे होते। किसानों व गांवों का जो दर्द है, वह सिर्फ कैमूर का नहीं।

    आलोक जी ने संभवत: अतनु डे के नजरिये से समस्‍याओं के समाधान की बात कही है। लेकिन मेरा मानना है कि रिलांयस या कोई अन्‍य निजी कंपनी सिर्फ अपने मुनाफे की बात ही सोचेगी। हमारे देश में शिक्षा व मानव विकास का स्‍तर वैसा नहीं है कि जनता को निजी कंपनियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया जाए। निजी कंपनियां क्‍या गुल खिला रही है़, यह गांवों में आने पर दिखाई देगा।

    अंत में, आप मित्रों ने मुझसे उम्‍मीद पाल कर मेरी जिम्‍मेवारी बढ़ा दी है। मैं पूरी कोशिश करूंगा कि आपकी आस्‍था को ठेस न पहुचाउं। आप सभी को एक बार फिर धन्‍यवाद देते हुए आशा करूंगा कि हौसलाआफजाई के साथ मेरी कमियों की ओर भी संकेत करते रहेंगे। सादर।

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय