जितेन्द्र मेरे अन्यतम कर्मचारियों में से है। कार्य करने को सदैव तत्पर। चेहरे पर सदैव हल्की सी मुस्कान। कोई भी काम देने पर आपको तकाजा करने की जरूरत नहीं। आपकी अपेक्षा से कम समय में आपकी संतुष्टि वाला कार्य सम्पन्न कर आपको दिखाना जितेन्द्र को बखूबी आता है। और उस व्यक्ति में, आप क्या चाहते हैं, यह भांपना इनेट (innate - नैसर्गिक) गुण की तरह भरा है।
और जितेन्द्र का दांया पैर पोलियो ग्रस्त है। दूसरे पैर की बजाय लगभग आधी थिकनेस (मोटाई) वाला। कूल्हे से लेकर पैर के तलवों तक पर वह ज्यादा जोर नहीं डाल सकता।
मैं जितेन्द्र की ऊर्जा और व्यक्तित्व में व्यापक धनात्मकता का मूक प्रशंसक हूं। जितेन्द्र की मैने मुंह पर प्रशंसा नहीं की होगी; पर यह पोस्ट उसे उजागर करेगी। जितेन्द्र के जिम्मे हमारे कार्य का स्टैस्टिटिकल लेखा-जोखा रखना और मासिक रिपोर्ट तैयार करना है। काम की प्रगति किस प्रकार प्रोजेक्ट करनी है, अगर कुछ कमी रह गई है तो उसके पीछे वाजिब कारण क्या थे, उनका यथोचित प्रकटन - यह सब जितेन्द्र को बखूबी आता है। सतत यह काम करने से सीखा होगा। पर बहुत से ऐसे हैं जो सीखते नहीं। मक्षिका स्थाने मक्षिका रख कर बोर होते हुये अपना काम सम्पन्न कर सेलरी उठाने में सिद्धहस्त होते हैं। जितेन्द्र उस ब्रीड का नहीं है। और इस लिये वह अत्यन्त प्रिय है।
कवितायें लिखी हैं जितेन्द्र ने। रेलवे की मैगजीन्स में छपी भी हैं। एक कविता मुझे भी दी है, पर यहां मैं पोस्ट के आकार में उसे समेट नहीं पा रहा हूं।
मैने आज पूछ ही लिया - ऐसे चलने में अटपटा नहीं लगता? जितेन्द्र ने बताया कि अब नहीं लगता। पहले ब्रेसेज, लाठी आदि सब का अनुभव ले कर देख लिया। अन्तत: अपने तरीके से चलना ही ठीक लगता है। इस प्रकार उसे लम्बी दूरी एक साथ कवर करने में थकान महसूस होती है और लगभग छ महीने में उसके बांये पैर का जूता घिस जाता है। लिहाजा जूते बदलने पड़ते हैं।
जितेन्द्र यह पूछने पर बताने लगा - पहले अजीब लगता था। कुछ बच्चे हंसते थे; और कुछ के अभिभावक भी उपहास करते थे। वह समय के साथ उपहास को नजर अन्दाज करना सीख गया। एक बार विकलांग कोटा में भर्ती के लिये दानापुर में परीक्षा देने गया था। वहां अन्य विकलंगों की दशा देख कर अपनी दशा कहीं बेहतर लगी। उनमें से कई तो धड़ के नीचे पूर्णत: विकलांग थे। उनके माता पिता उन्हे ले कर आये थे परीक्षा देने के लिये।
जितेन्द्र को देख कर लगता है कि वह अपनी विकलांगता को सहज भाव से लेना और चेकमेट (checkmate - मात देना) करना बखूबी सीख गया है - अपने कार्य की दक्षता और अपने व्यवहार की उत्कृष्टता की बदौलत!
सही कहा आपने | कई बार विकलांग मनुष्य सामान्य मनुष्य से अच्छी एकाग्रता रखता है | मनुष्य में कमी शक्ति की नहीं बल्कि संकल्प की होती है |
ReplyDelete"अपनी समस्याओं को हम कितना बड़ा मान कर दुखी रहते हैं, जबकि औरों के दुख के कारक तो बहुत बड़े हैं हमारी तुलना में। "
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने। मेरे आफिस में भी एक सज्जन है वे दोनों हाथों और पैरों से विकलांग है लेकिन खुद अपनी कार चला कर आते हैं और हर काम खुद करते हैं। उनके संकल्प और आत्म निर्भर रहने को बांरबार नमन!
जीतेन्द्र जी को शुभकामनायें।
अच्छा लिखा। जीतेन्द्र को शुभकामनायें। उनकी कवितायें पढ़वायें।
ReplyDeleteअंग्रेज़ी में एक पुराना quotation याद आ रहा है।
ReplyDeleteI had no shoes and I complained till I saw a man with no feet.
जीतेन्द्र को हमारी शुभकामनाएं। उनके बारे पढ़कर अच्छा लगा
मेरे एक मित्र को दुर्घटना में पैर गंवाना पड़ा। वे जीवन भर लगातार उस विकलांगता से लड़ते रहे। सामान्य व्यक्ति का जीवन जीने का प्रयत्न किया। लेकिन उस में लगभग दुगनी ऊर्जा व्यय करनी पड़ी।
ReplyDeleteविकलांगों से काम लिए जाने की मानसिकता को जब तक बदला नहीं जाएगा। उन के प्रति न्याय नहीं किया जा सकता।
जीतेन्द्र जी से मिल कर अच्छा लगा।
ReplyDeleteज्ञानदत्तजी,
ReplyDeleteआपने एक ही पोस्ट में कई काम की बातें उठायीं । काम को शिद्दत से करना अपने आप में एक संतोष है । मेरी छोटी बहन (उसने अभी १ महीना पहले नौकरी शुरू की है) से बात हो रही थी और उसने कहा कि ये काम कल करके देना था और मैने आज ही करके वापिस भेज दिया । सच में बडी खुशी हुयी और अपनी बहन पर गर्व भी, उसके बारे में एक पोस्ट फ़िर कभी ।
विकलांगता भारत में एक अभिशाप है । आस पडौस में लूला, लंगडा, अंधा, बहरा सुन सुनकर हमेशा अजीब सा लगता था ।
उससे भी दुखद है कि रेलवे स्टेशन, प्लेटफ़ार्म, शापिंग माल और अन्य स्थानों पर विकलांगो के हिसाब से सुविधायें उपलब्ध नहीं करायी जाती । कितनी कम इमारतें (सरकारी और गैर सरकारी) होती हैं जो व्हील चेयर ऐससबिल होती हैं ।
तकनीक कहाँ से कहाँ पंहुच गयी है और आज भी वही हाथ से धकेलने वाली व्हील चेयर और तीन पहियों का हाथ से पैडल चलाने वाला रिक्शा । बीस सालों से मैने को कोई बदलाव नहीं देखा । क्या ये इतना मुश्किल है ?
सच ही कहा जाता है कि जो कुछ हमारे पास है हम उनकी कभी कद्र नहीं करते और शरीर में कभी जरा सी चुभन हो जाय तो सी सी करने लगते हैं,कभी जरा उनके बारे मे सोचें जो इतने बडे शारीरिक चुनौतीयों का सामना करते हैं तो समझ आता है कि दुख या चुनौती क्या होती हैं। जितेन्द्रजी के लिये शुभकामनाएं। काफी संवेदनात्मक पोस्ट
ReplyDeleteजीतेंद्र के जिजीविषा की जय ! उन्हें शुभकामनाएं और आपको भी धन्यवाद विकलांगता पर अपने तरीके से ध्यान खींचने के लिए !! स्टीफेन हाकिंग भीषण विकलांगता के बाद भी नक्षत्र भौतिकी के सिरमौर बने हुए हैं !
ReplyDeleteजीतेंद्रजी को शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत हिम्मत बंधाती है ऐसी पोस्ट, हिम्मत नहीं हारने की प्रेरणा ऐसी ही पोस्ट से मिलती है।
सच्ची में क्या केने केने,आपके भी और जीतेंद्रंजी के भी।
जीतेन्द्र जी को प्रणाम उनकी इस बहादुरी के लिए ! अगर उनमे ख़ुद में कोई जज्बा नही होता तो मुश्किल था ! और उनके पीछे उनके पेरेंट्स ने जो मेहनत और लगन से उनको सेटल करने में मेहनत की होगी उसको भी प्रणाम ! मेरे पड़ोस में एक शर्माजी हैं ! अध्यापक थे अब रिटायर हो गए ! उनका बालक भी दोनों पैरों से लकवाग्रस्त था ! शर्मा दम्पति ने इस बालक के पीछे इतनी मेहनत की है की आज यह कृषि विभाग में बड़ा अफसर है और जिसे मोह्हल्ले के लोग चंदू चंदू कह कर बुलाया करते थे , आज शर्मा साहब कह कर पुकारते हैं ! आपने बहुत सुंदर और मानवीय मुद्दा आज की पोस्ट में उठाया ! धन्यवाद !
ReplyDeleteजितेन्द्र के दो मतलब होते है:
ReplyDeleteजितेन्द्रीय : जिसने इंद्रियो पर विजय प्राप्त की हो।
जीतेन्द्र : जिसने इंद्र (जग) को जीत लिया हो।
आपके सहकर्म जितेन्द्र जी, इन दोनो पर्यायवाची शब्दों के अर्थो के सचमुच के हकदार है। शारीरिक चुनौतियों के बाद भी इतनी लगन और एकाग्रता के कार्य को अंजाम देना, आसान नही। मेरे नामाराशी की सच्ची लगन को सलाम।
ज़िंदगी वाकई ज़िंदा दिल ही जी सकते हैं! जीतेन्द्र जी को शुभकामनाएँ। :)
ReplyDeletebehtareen post !!!
ReplyDeleteजितेन्द्रभाई जिन्दाबाद. संकल्प की लाठी का सहारा कमाल का होता है.
ReplyDeleteजितेन्द्र जी से मिलवाने का शुक्रिया । उनकी कविताओं का इंतजार रहेगा ।
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट ने आपकी बहुत शुरू की एक पोस्ट की याद दिला दी ।
और हाँ यहाँ गोवा मे ज्यादातर दफ्तरों और जगहों पर रैंप बने हुए है ।
२ साल पहले इस रेस्टोरेंट में जाना हुआ था...
ReplyDeletehttp://www.jacquelineharmonbutler.com/BLTB_Switzerland.cfm
वो अनुभव अब भूलता नहीं... फिर भी हमें लगता है कि हम सबसे ज्यादा दुखी है.
जिंदगी जिंदादिली का नाम है
ReplyDeleteमुर्दादिल क्या खाक जीया करते है!!
एक शानदार पोस्ट है यह मेरी नजरो मे !!
ऐसे लोग प्रेरणा स्रोत हैं समाज के लिए !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका जो आपने यह प्रसंग हमारे साथ बांटा.ये बहुत प्रेरणा देते हैं.जीतेन्द्र जी कि कवितायें हमारे साथ बांटे.
ReplyDeleteसत्य है शरीर के बल से बहुत अधिक महत्वपूर्ण मन का बल होता है.सरे अंग दुरुस्त होते हुए भी कई मन से हारे लोग एकदम बलहीन होते हैं.
यह भी सही है कि ईश्वर यदि किसी से शारीरिक रूप में कुछ ले लेते हैं तो बदले में बहुत बड़ा कुछ दे देते हैं.
जितेन्द्र भाई के बारे आप ने बहुत ही अच्छा लिखा, लेकिन हमे कभी भी इन लोगो का मजाक नही करना चाहिये, बल्कि इन से शिक्षा लेनी चाहिये !लेकिन यह लोग आम आदमी से ज्यादा सयाने ओर मेहनती होते है.
ReplyDeleteधन्यवाद
जितेन्द्र भाई ने देखी क्या आपकी पोस्ट ?
ReplyDeleteउन्हेँ सस्नेह नमस्ते कहियेगा -
- लावण्या
सत्य है कि इनसे कितने लोगों को प्रेरणा मिलती है.
ReplyDeleteअपनी समस्याओं को हम कितना बड़ा मान कर दुखी रहते हैं, जबकि औरों के दुख के कारक तो बहुत बड़े हैं हमारी तुलना में.
बहुत बढ़िया आलेख. कभी अलग से कविता पोस्ट करियेगा.
जीतेन्द्र जी से मिल कर अच्छा लगा...बढ़िया आलेख.
ReplyDeleteजितेन्द्र के हौसल को सलाम। अच्छी पोस्ट ...
ReplyDeleteजब तक जिन्दगी में कोई चुनौती न आये आदमी को खुद को साबित करने की इच्छा इतनी बलवती नहीं होती। जितेंद्र के केस में भी यही हुआ, हमारे कॉलेज में भी हमारी लाइब्रेरिअन( जो विकलांग है) कॉलेज की स्टार कर्मियों में से एक है जिसके न सिर्फ़ स्वभाव के गुण गाये जाते हैं बल्कि कार्य कुशलता के भी उदाहरण दिये जाते हैं। जितेंद्र जी को हमारी ढेर सारी शुभकामनाएं । आप ने कहा कि आप ने जितेंद्र को कभी मुंह पर नही कहा कि वो अच्छा काम करता है। मुझे लगता है कहना चाहिए।
ReplyDeleteऐसा कहा और देखा गया है कि किसी इन्द्रिय विशेष की अक्षमता को ऐसे लोग अपनी जिजीविषा से दूसरे इन्द्रियों की सक्षमता में परिवर्तित कर समग्र रूप में सामान्य मानव से कहीं अधिक क्षमतावान हो जाते हैं. ऐसे लोगों को प्रेरणा स्वरूप समाज की मुख्यधारा से जोड़कर सबके बीच लाने की आवश्यकता हमेशा से रहती आई है, जो आप बखूबी निभा रहे हैं.
ReplyDeleteद्रवीभूत कर दिया आपनें।जितेन्द्र की जिजीविषा जहाँ श्लाघनीय है वहीं आपका संवेदनशील हृदय मनुजता को कीर्तित करता है।आपा धापी के इस युग में मनुष्य के नैसर्गिक गुण ही जैसे समाप्त से हो गये हैं।मनुस्मृति में कभी पढ़ा था कि गर्भवती स्त्री,बोझा ले जा रहे व्यक्ति,वृद्ध,रोगी,अपंग और पशु को पहिले रास्ता देंना चाहिये।धक्का मुक्की के इस काल में कोई सोंचता भी है?
ReplyDeleteअदभुत जीवट वाले ऐसे आत्मलियों का उपहास कर हम अपनी मानसिक विकलांगता जाहिर करते हैं । प्रत्युत्तर में वे बुरा नहीं मानते, यह उनका बडप्पन है । ऐसे समस्त जीतेन्द्रों को सलाम ।
ReplyDeleteज्ञान जी
ReplyDeleteसादर अभिवादन
सच में अच्छा और प्रेरक आलेख
आप का आभार किन शब्दों में बयाँ हो
आपने अनमोल सत्य हासिल कर लिया, और यह हम सबके लिए प्रेरक भी है-
ReplyDeleteअपनी समस्याओं को हम कितना बड़ा मान कर दुखी रहते हैं, जबकि औरों के दुख के कारक तो बहुत बड़े हैं हमारी तुलना में।
आपने अनमोल सत्य हासिल कर लिया, और यह हम सबके लिए प्रेरक भी है-
ReplyDeleteअपनी समस्याओं को हम कितना बड़ा मान कर दुखी रहते हैं, जबकि औरों के दुख के कारक तो बहुत बड़े हैं हमारी तुलना में।
ऐसा कहा और देखा गया है कि किसी इन्द्रिय विशेष की अक्षमता को ऐसे लोग अपनी जिजीविषा से दूसरे इन्द्रियों की सक्षमता में परिवर्तित कर समग्र रूप में सामान्य मानव से कहीं अधिक क्षमतावान हो जाते हैं. ऐसे लोगों को प्रेरणा स्वरूप समाज की मुख्यधारा से जोड़कर सबके बीच लाने की आवश्यकता हमेशा से रहती आई है, जो आप बखूबी निभा रहे हैं.
ReplyDeleteजब तक जिन्दगी में कोई चुनौती न आये आदमी को खुद को साबित करने की इच्छा इतनी बलवती नहीं होती। जितेंद्र के केस में भी यही हुआ, हमारे कॉलेज में भी हमारी लाइब्रेरिअन( जो विकलांग है) कॉलेज की स्टार कर्मियों में से एक है जिसके न सिर्फ़ स्वभाव के गुण गाये जाते हैं बल्कि कार्य कुशलता के भी उदाहरण दिये जाते हैं। जितेंद्र जी को हमारी ढेर सारी शुभकामनाएं । आप ने कहा कि आप ने जितेंद्र को कभी मुंह पर नही कहा कि वो अच्छा काम करता है। मुझे लगता है कहना चाहिए।
ReplyDeleteजितेन्द्र भाई ने देखी क्या आपकी पोस्ट ?
ReplyDeleteउन्हेँ सस्नेह नमस्ते कहियेगा -
- लावण्या
बहुत बहुत आभार आपका जो आपने यह प्रसंग हमारे साथ बांटा.ये बहुत प्रेरणा देते हैं.जीतेन्द्र जी कि कवितायें हमारे साथ बांटे.
ReplyDeleteसत्य है शरीर के बल से बहुत अधिक महत्वपूर्ण मन का बल होता है.सरे अंग दुरुस्त होते हुए भी कई मन से हारे लोग एकदम बलहीन होते हैं.
यह भी सही है कि ईश्वर यदि किसी से शारीरिक रूप में कुछ ले लेते हैं तो बदले में बहुत बड़ा कुछ दे देते हैं.
जिंदगी जिंदादिली का नाम है
ReplyDeleteमुर्दादिल क्या खाक जीया करते है!!
एक शानदार पोस्ट है यह मेरी नजरो मे !!