मेरी पत्नीजी ने कबाड़ से मेरी एक स्क्रैप बुक ढूंढ़ निकाली है। उसमें सन १९९७ की कुछ पंक्तियां भी हैं।
यूं देखें तो ब्लॉग भी स्क्रैप बुक ही है। लिहाजा स्क्रैप बुक की चीज स्क्रैप बुक में -
आज सवेरा न जागे तो मत कहना दीवारों के कानों से छन जाये अफवाह अगर रेत के टीलों पर ऊंचे महल बनाने वालों मेरा देश चल रहा कछुये की रफ्तार पकड़ मैं नहीं जानता – कितनी पी, कितनी बाकी है बेसुरे गले से चीख रहे हैं लोग मगर इस सड़क पर चलना हो तो चलो शौक से --- ज्ञान दत्त पाण्डेय, १३ अगस्त, १९९७, उदयपुर। |
और छन्द/मात्रायें/प्यूरिटी (purity – शुद्धता) की तलाश भी मत करना।
कोई प्रिटेंशन्स (pretensions – मुगालते) नहीं हैं उस दिशा में।
इस सड़क पर चलना हो तो चलो शौक से
ReplyDeleteइस सड़क पे कोई और न चले, मत कहना
बहुत खूब, जियो और जीने दो!
जो मित्र १९९७ में २००८ से बेहतर कवि था,
ReplyDeleteउसे आज अनजाने में वाह वाह मत कहना!!
--क्या बात है!!! सुभान अल्लाह!! भाभी को नमन...उनसे कहें कि और कबाड़ छानें..उसमें कुबेर छिपा है.
हमेँ आपका यह क़वि स्वरुप बहुत पसँद आया -समीर भाई से सहमत !
ReplyDeleteसौ.रीटा भाभी जी खोज जारी रहे :)
-लावण्या
आपकी बहुत पुरानी कविता पढ़ ली है, नींद आ रही है..सोने जा रहे हैं (रात के २ बज चुके हैं), कल मिलेन्गे।
ReplyDeleteनमस्कार!
कविता तो काफी अच्छी लगी.....पर अंतिम चार लाईनें अभी सोनी टीवी पर चल रहे इंडियन आईडल की एक घटना की याद दिला गये। हुआ यूँ कि कोई भानु नाम का लडका पिछले तीन साल से ईंडियन आईडल के चक्कर मे पडा हुआ है और वो लगभग हर बार नाकाम हो जाता है। अभी पिछले दिनों जब उसे गाने के लिये इंडियन आईडल मे बुलाया गया तो अन्नू मलिक ( पता नहीं क्यों मुझे ये शख्स कभी पसंद नहीं आया) ने उस भानु को कहा कि तुम संगीत छोड कर कुछ और करो, कोई बैक-अप रखो....ये नहीं कि सिर्फ इंडियन आईडल बनने के नाम पर अपने काम-धाम छोड कर यहाँ अपना समय वेस्ट करों। हाँलाकि अन्नू मलिक ने उस फफक कर रो पडे भानु के भले के लिये ही यह बात कही थी लेकिन मैं तब सोच मे पड गया था कि बात तो सच है - क्यों आखिर लोग इस मायावी दुनिया के पीछे बेतहाशा भाग रहे हैं। अन्नू मलिक को तो मैं वैसे भी पसंद नहीं करता....लेकिन कहीं एक बात थी जो उस अन्नू मलिक की जो लग गई । खैर आपकी ये अंतिम चार लाइनें - उसी वाकये की याद दिला गईं।
ReplyDeleteबेसुरे गले से चीख रहे हैं लोग मगर
संगीत सीखने का उनको अधिकार नहीं है, मत कहना
इस सड़क पर चलना हो तो चलो शौक से
इस सड़क पे कोई और न चले, मत कहना
अरे वाह क्या बात है भाई
ReplyDeleteछोड़ रखी है क्यों कविताई
कम लिख के जब ऐसी मार
ज्यादा की है क्या दरकार
बहुत खूब है ज्ञान जी. गंगा का पुल बहुत खींचता है अपनी तरफ़.
आते आते देर हो गई हो हमें भले पर
ReplyDeleteटिप्पणी नहीं की है यह मत कहना !
बढ़िया है ,
पर आज तो उल्टा -पुल्टा है सब
छन्द/मात्रायें/प्यूरिटी (purity – शुद्धता) की तलाश
ReplyDeleteइस चेतावनी की आवश्यकता नहीं थी। रचना बहुत सुंदर है। आकांक्षाओं को बहुत अच्छे से अभिव्यक्त करती है।
मानसिक हलचल के भीतर कवि भी छुपा है, अंतिम लाईन चकाचक। कबाड़खाने की सफाई जारी रखी जाय प्लीज
ReplyDeleteमैं इस प्रतीक्षा में हूँ कि मान्यवर अनूप शुक्ल जी इसे ग़जल कब घोषित करेंगे। मुझे तो कुछ-कुच वैसा ही लग रहा है। लेकिन जबतक उस्ताद न मान जाँय, तबतक तो अनुमान ही कर सकता हूँ।:)
ReplyDeleteवाह वाह ज्ञान जी आप तो छा गए -इतने गहन भाव और पुरजोर शिल्प की कविता काफी अरसे के बाद पढने को मिली है .यह एक हीकविता आपको प्रोफेसनल कवि ( यदि कवि प्रोफेसनल होता हो !) कतार में ला देती है .यह आपका कवि ही है जो ब्लॉग जगत में भी सिक्का जमाये हुए है .
ReplyDeleteनग्न यथार्थों /विरूपताओं से कवि का साबका और फिर सलीके से विरोध / प्रतिकार की मनाही का अर्थ गाम्भीर्य ने कविता को एक कालजयी कलेवर दे दिया है .
इस सड़क पर चलना हो तो चलो शौक से
ReplyDeleteइस सड़क पे कोई और न चले, मत कहना
बहुत बड़ी सोच के साथ यथार्थवादी रचना लिखी गई है ! और भी इसके साथ की रचनाएं उस स्क्रेप बुक में जरूर होंगी ! कृपया उन्हें भी जरुर हमें पढ़वाए ! वैसे मेरा एक सजेशन है की आप एक दिन कविता के लिए जरुर तय कर दे ! क्योंकि आप इस विधा में भी माहिर हैं ! बहुत शुभकामनाएं !
अरे फिर पढने पर इस कविता के नए रूप भी उद्घाटित हो रहे है -वह है मानवीय लालसाओं की अदम्य उछाल और उसके विरुद्ध कुछ भी न सुनने की मनुहार ! हर पंक्ति अलग अलग अर्थों को सजोये हुए है.
ReplyDeleteसमीर भाई यह आपके लिए खतरे की घंटी है ! देखना है अनूप शुल्क जी कैसे प्रतिवाद के साथ आते है -कहीं आज उनकी भी बोलती ना बंद हो जाय ! आज का दिन तो ज्ञान जी के नाम इस नए ज्ञानोदय के नाम !
बहुत सुंदर रचना.
ReplyDeleteराम चन्द्र भाई साहब की टिप्पणी ऐसी लग रही है कि ज्ञान जी ने उन्हे पकड़ कर टिप्पणी करवा रहे थे। :)
ReplyDeleteवाकई आपकी कविता बहुत अच्छी लगी।
वाह आप तो कवि भी हैं और हमें पता ही नहीं?
ReplyDeleteभाई ज्ञान दत्त जी,
ReplyDeleteपुराने चावल की महक ही कुछ विशेष होती है. धन्यवाद तो हमें भाभी जी को देना होगा जिन्हों ने पुराने चावल की पहचान कर उसे हम पाठकों तक परोसने के लिए आपको प्रेरित किया.
इतनी अच्छी रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें.
चन्द्र मोहन गुप्त
wah saheb, bahut utkrist rachna hai.
ReplyDeleteमान गये गुरु जी आपको।1997 मे पता चल गया था आपको कि देश कछुआ है,देश मे अफ़वाहों का दौर चलेगा,बेसुरे लोग गला फ़ाड-फ़ाड चिल्लायेंगे।वाह गुरु जी वाह,सब कुछ वैसा ही चल रहा है अपने देश में। आपको नमन करता हूं,आदरणीय भाभीजी से निवेदन(मुझे लगता है घर मे किये गये निवेदन को बाहर आदेश कहते होंगे)कर लिजीये कुछ और स्क्रैप निकाल दें तो देश के भविष्य पर कुछ और रौशनी डल जायेगी।किस कलम से लिखते थे गुरुजी,उसकी धार आज भी बाकी है।ताजे से तो बासी(छत्तीसगढ मे चावल को पानी मे भिगो कर बनाते है बासी)अच्छा लग रहा है।
ReplyDeleteलो जी अब कविता भी, वह भी अंतिम पंक्ति में दमदार पंच के साथ. कमाल है जी आपका कबाड़, क्या क्या छिपा रखा है! बहुत सुन्दर.
ReplyDeleteअरे वाह!
ReplyDeleteजब ब्लॉग कविता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो क्यों न टिप्पणी भी कविता में न हो?
जरा इस नीम हकीम कवि कि पेशकश देखिए।
पहली पंक्ति में १० शब्दांश हैं।
दूसरी में १३।
यदि मैं पास हो गया तो पाठकों पर एक और कवि थोंपने की जिम्मेदारी केवल आपके सर पर होगी। रीताजी से कहिए खोज जारी रखें। क्या पता कबाड़ भंडार में और कितने खज़ाने छुपे हैं। आज हम दोनों केवल कवि बन गए हैं। अब आगे और क्या बनना है यह रीताजी को ही निश्चय करने दो। यह रही मेरी पहली कोशिश। Read at your own risk.
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आपके विचार आपको मुबारक हो।
हम अपने विचार व्यक्त न करें यह मत कहना।
आपका भगवान आपको सद्बुद्धी दें।
हमारा भगवान, भगवान नहीं यह मत कहना।
आप अणुशक्ति का प्रयोग करें।
अपितु हम कभी न करें यह मत कहना।
ओ ज्ञानी, आप कविता लिखते हैं।
हम भी कभी कोशिश न करें यह मत कहना।
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इस सड़क पर चलना हो तो चलो शौक से
ReplyDeleteइस सड़क पे कोई और न चले, मत कहना
bahut sunder sarans
पीते थे, जमकर, ये इस कविता से क्लियर है
ReplyDeleteकहें सब अब पियक्कड़ तो फिर हम से ना कहना
हम तो समझे थे कि इंसान भले चंगे हैं
अब मान लें सभी कविं, तो फिर हम से ना कहना
कूड़े में ही हीरे भी हैं, बात ये फिर से साफ हुई
पहले ना बतलायी थी ये, ये फिर हम से ना कहना
सर, कविता बहुत बढ़िया लगी। एक भाई ने टिप्पणी दी है कि कबाड़ की सफाई जारी रखी जाये--मेरा भी यही विचार है, पता नहीं उस में ऐसे ही कितने अनमोल मोती छुपे पड़े हैं.
ReplyDeleteशुभकामनाएं।
इस सड़क पर चलना हो तो चलो शौक से
ReplyDeleteइस सड़क पे कोई और न चले, मत कहना
क्या जानदार बात कही आपने !! आपकी धांसु टिप्पणी तो अकसर देखा करता हुँ अब आपके धांसु पोस्ट की भी आदत हो रही है!!
बहुत बढ़िया है...कबाड़ में खोजबीन जारी रहे.....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कविता है़
ReplyDeleteबढ़िया है
ReplyDeleteऔर किसी को सड़क पर चलने से मत रोकना /कविता शुरू कहाँ से की और खत्म कहाँ की /पांडेयजी -मध्य प्रदेश घुमाकर मुम्बई ले जाकर पटका
ReplyDeleteबढ़िया है यह .
ReplyDeleteरेत के टीलों पर ऊंचे महल बनाने वालों
तूफानों के न चलने के मन्तर मत कहना
कोयले में हीरा मिलता है आपके कबाड़ में मोती निकलने लगे हैं !
ReplyDeleteभाई जी !
ReplyDeleteइस कविता में बेहतरीन उद्गार हैं, इस स्क्रेप बुक को सबके सम्मुख लाने का शुक्रिया !
reeta di,aur padhvaaiye....:)
ReplyDeleteये जो स्क्रैप है उसको पता नहीं लोग कविता-कविता कर रहे हैं। यह तो कविमना व्यक्तित्व की पोल है। इससे साफ़ पता चलता है कि कवि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का घणा विरोधी है। हर चीज के लिये मना करता है। यह मत कहना वो मत कहना। ऐसे कहीं होता है क्या? स्क्रैप बुक के उद्गार भारतीय संविधान के खिलाफ़ है जी।
ReplyDeleteमेरे ख्याल से मैं सबसे अंत में आयी हूँ और अचंभित हूँ कि ज्ञान जी कवि?…… और वो भी ऐसे प्रभावी कवि कि विश्वनाथ जी समेत कई ब्लोगर कवि हो गये और सच में अनूप जी की बोलती बंद हो गयी( कहीं हैरानी से आखें चौड़ी तो नहीं हो गयीं) रीटा जी मानसिक हलचल की लाइट हाउस बन गयी हैं , अभिनंदन, थ्री चीयरस फ़ोर हर
ReplyDeleteहा हा , तो अनूप जी कि टिप्पणी प्रकाशित नहीं हुई थी लेकिन हो चुकी थी हमारे आने से पहले। ज्ञान जी आप एक कविता और ठोक दीजिए, ये कहते हुए ब्लोगर बनने के पहले, ब्लोगर बनने के बाद्…।:)
ReplyDeleteबेसुरे गले से चीख रहे हैं लोग मगर
ReplyDeleteसंगीत सीखने का उनको अधिकार नहीं है, मत कहना
बहुत अच्छी कविता और क्या कहूँ ..सुंदर ज्ञान जी,बहुत सुंदर.
हमेशा की तरह से सब से बाद मै... आज की कविता बहुत अच्छी लगी... यह कविता लगती तो आजकल के हालात पर ही है, लेकिन आओ कह रहै है पुरानी है....
ReplyDeleteरेत के टीलों पर ऊंचे महल बनाने वालों
तूफानों के न चलने के मन्तर मत कहना
बहुत ही सुन्दर...
धन्यवाद
अरे वाह, पढकर और यह जानकर कि आपने चित्रों के साथ कविता लिखी थी अच्छा लगा ।
ReplyDeleteजे का है दद्दा! कविता और आप, रिश्ता किधर से निकल आया?
ReplyDeleteमैं नहीं जानता – कितनी पी, कितनी बाकी है
बोतल पर मेरा हक नाजायज है, मत कहना
बस-बस, आगे नई पूछूंगा, समझ में आ गया ;)
बेसुरे गले से चीख रहे हैं लोग मगर
ReplyDeleteसंगीत सीखने का उनको अधिकार नहीं है, मत कहना
hame to ye baat sabse jyada jami....aaj ke reality shows par fit baithti hai.
1997 में कविता यात्रा को विराम क्यों दे दिया ज्ञानजी । इसे भी अपनी नौकरी का हिस्सा बना लेते तो अब तक तो कविता की कई एक्सप्रेस रेलें लोगों को मिल चुकी होतीं ।
ReplyDeleteअब भी देर नहीं हुई है । हम आपकी ऐसी एक्सप्रेस के यात्री बनने को तैयार हैं ।
इस सड़क पर चलना हो तो चलो शौक से
ReplyDeleteइस सड़क पे कोई और न चले, मत कहना
आपके कवि स्वरुप की ये रचनाएँ आह्लादित करती हैं. अब विडम्बना देखिये कि आपने सड़क पर शौक से चलने की इजाज़त क्या दिया, इस देश के सभी "आदरणीय सड़क उपभोक्ता नागरिक गण" सड़कों पर "शौक" से ही चलते हैं और दूसरों से उम्मीद भी आपकी दूसरी पंक्ति की तरह ही करते हैं. सच में 1947----1997 से अब 2008 तक कुछ भी नहीं बदला. स्क्रैप बुक पढ़वाते रहें, कई काम की बात निकलेगी.
आज सवेरा न जागे तो मत कहना
ReplyDeleteघुप्प कोहरा न भागे तो मत कहना
मेरा देश चल रहा कछुये की रफ्तार पकड़
खरगोश सभी अब सो जायें यह मत कहना
बेसुरे गले से चीख रहे हैं लोग मगर
संगीत सीखने का उनको अधिकार नहीं है, मत कहना
इन शेरों में जिंदगी की गमक देखने को मिली। बधाई।
ज्ञानजी,
ReplyDeleteकभी सोचा भी था आपने कि इस पोस्ट पर ४४ टिप्पणियाँ मिलेंगी?
यह लीजिए पैंतालीस्वी टिप्पणी।
इस भंडार से निकालिए अपनी अगली कविता/पोस्ट।
क्या अब भी आप को चुक जाने का डर है?
क्या अब भी आप वैराग्य के बारे में सोच रहे है?
एक बात पूछना चाहता था।
क्या आप अपने ब्लॉग पर छोटे छोटे streaming sound clips सम्मिलित कर सकते हैं। यदि हाँ तो कितने मेगाबाईट की सीमा तय करेंगे?
सोच रहा हूँ मित्रों की आवाज सुनना कितना अच्छा लगेगा।
यदि कोई अच्छा गा लेता है तो हम सुनने के लिए उत्सुक हैं।
इस पर भी विचार कीजिए।
शुभकामनाएं
वाह ! क्या बात है. लाजवाब कविता है. पर शिकायत है कि आज कल यह कवि क्यों अपने काव्य कला को वनवास दिए हुए है.चलिए इसी बहने उसका उद्धार कीजिये और यह काव्यात्मक प्रयोग जरी रखिये.आभार और शुभकामना.
ReplyDeleteभैय्या सोच रहा हूँ की जिसकी स्क्रेप बुक में इतनी शानदार रचनाएँ भरी पड़ी हैं उसकी वर्क-बुक में क्या होगा..??? भाभी जी से कहना पड़ेगा कभी आप की बुक शेल्फ की भी सफाई करें...ताकि हम जैसे काव्य प्रेमियों का भला हो.
ReplyDeleteनीरज
Why are you wasting the time of your own as wellas of others, it will be better to go to nearby sabzee mandi and try to sell some egg plants I hope that will be better. Is this Kavita! as you people are telling. Shameful.
ReplyDeleteAkp
Dear Arun Kumar,
ReplyDeleteThank you for provoking me to waste some more of my time, your time and the time of others.
How much time did you waste on writing this comment?
Please do us the favour of wasting some more time in reading this reply and if we are fortunate, we should see you wasting even more time in penning a fitting rebuttal to this comment too.
We would love to read your reaction to this in the same poetic style that Gyanji has adopted and which I am emulating.
अरुणजी आप चाहे इसे कविता न समझें।
हम भी इसे कविता न समझें यह मत कहना।
आपका अमूल्य समय आपको मुबारक हो।
हम अपना समय बरबाद न करें यह मत कहना।
आप जैसे गुनी लेखक को ब्लॉग पर पढ़ना बहुत सुखद अनुभव है मेरी भी कुछ मानसिक उथल पुथल मेरे ब्लॉग पर एकत्रित है आपकी नज़र और मार्गदर्शन की अपेक्षा है
ReplyDeleteप्रदीप मानोरिया
हाज़िरी लगाने में क्या जाता है,
ReplyDeleteनिट्ठल्ले ने हाज़िरी न लगाई, ये ना कहना
अरुणजी आप चाहे इसे कविता न समझें।
ReplyDeleteहम भी इसे कविता न समझें यह मत कहना।
आपका अमूल्य समय आपको मुबारक हो।
हम अपना समय बरबाद न करें यह मत कहना।
वाह विश्वनाथ जी, आप भी कविता करने लग गये
अब तो कहना पड़ेगा
खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है
ज्ञान की संगत ने हमें कवि नहीं बनाया ये मत कहना