घर में है छोटा सा स्थान जहां हम वनस्पति लगा सकते हैं। उसी जगह में बीचों बीच इस बरसात के शुरू में हमने एक कटहल का बिरवा रोपा था। ईश्वर की कृपा से वह जड़ पकड़ गया। तीन महीने में अच्छी लम्बाई खींची है उसने। अब मैं देखता हूं कि वह मेरी ऊंचाई की बराबरी कर रहा है। कुछ ही समय में वह मुझसे अधिक ऊंचा हो जायेगा।
इस साल वर्षा बहुत अच्छी हुई है। मुझे बताया गया है कि अच्छी वर्षा के कारण सर्दी भी अच्छी पड़ेगी। अभी दो महीने हैं पाला आने को। इस साल कोहरा जल्दी पड़ने लगेगा और लम्बा चलेगा। कटहल के पौधे का स्वास्थ्य देख कर मैं आश्वस्त हो रहा हूं। दो महीनों में वह इतना पनप जायेगा कि कड़ाके की सर्दी को झेलने में सक्षम होगा।
इतनी चिन्ता है उस पौधे की। हर रोज उसके एक-दो चक्कर लगा आता हूं। उसे सम्बोधन करने का, बात करने का भी मन होता है। पर उसका कोई नाम नहीं रखा है। कोई नाम तो होना चाहिये।
इस पौधे को लगाने के बाद ऐसा नहीं है कि हमने वृक्षारोपण में कोई क्रान्ति कर दी है। बतौर रेल अधिकारी बहुत से पौधे वृक्षारोपण समारोहों में लगा कर फोटो खिंचवाये और तालियां बजवाई हुई हैं। उन पौधों की कभी याद भी नहीं आती। यह भी नहीं पता कि उनमें से कितने जी पाये।
इस पौधे के लगाने में वैसा कुछ नहीं हुआ। माली ने ला कर लगा दिया था। शाम के समय मुझे सूचना भर मिली थी कि मेरी इच्छानुसार पौधा लगा दिया गया है। उसके बाद तो उस पौधे के पनपने के साथ-साथ ममता पनपी। आज वह प्रगाढ़ हो गयी है।
वैराज्ञ लेना हो तो जो जो बाधायें होंगी, उनमें एक बाधा होगा यह कटहल का पौधा भी। भगवान करें वह दीर्घायु हो!
"वैराज्ञ? हुंह!"। मेरी पत्नीजी पोस्ट देख कर त्वरित टिप्पणी करती हैं - "जो मन आये सो लिख दो अपनी पोस्ट में।"
मैं डिप्रेसिया जाता हूं। पूरे चबीस घण्टे यह कटहल पोस्ट नहीं करता। उनसे पूछता भी हूं - क्या इसे डिलीट कर दूं? पर स्पष्ट उत्तर नहीं देतीं वे।
लिहाजा पोस्ट पब्लिश कर दे रहा हूं। पर सवाल है - क्या
अब वैराग्य की बात सोचना भी नहीँ ..मशाल्ल्लाह आपके घर का कटहल का पौधा सदा खिला रहे और इत्ते कटहल दे कि
ReplyDeleteअडौस पडौस , रीश्तेदार, सगे सँबँधी सभी को उसका उपहार सद्रश फल मिले ~~
पँतजी दादाजी की कविता याद आ गई, " ये धरती कितना देती है अपने प्यारे पुत्रोँ को "
अत: वृक्ष के लिये,सद्`आशा ..
-लावण्या
असली वैराग तो उस कटहल के पौधे मे है, बिना इस चिंता के कि मुझे किसने रोपा, किसने मेरी सेवा सुश्रुषा की....वह एक ओर निचेष्ट खडा है, किसी से कोई शिकवा-शिकायत नहीं, शिकायत है तो सिर्फ उसे रोपने वालों को, शिकायत है तो आपको कि मेरे वैराग्य मे तुम बाधा बन रहे हो....और शायद यही वह गलतफहमी है जो सभी समस्याओं का मूल है और इस समस्या
ReplyDeleteका हल है तो वो भी उस कटहल के नाम मे छुपा है -
कट हल यानि अपने सभी चिंताओ को कट कर दो कि मेरे बाद इस पोधे का क्या होगा, कौन देख-भाल करेंगा - जहाँ इस चिंता की काट आपको मिल गई, वैराग्य का हल मिल जायेगा। यानि चिंता कट....समस्या हल :)
उम्दा कटहली पोस्ट।
ज्ञान चचा! चाची की बात पर ध्यान ज्यादा लगाया किजिये.. :)
ReplyDeleteबैराग-वैराग की बात छोड़िये.. कम से कम सरकारी रिटायर्मेंट तक तो मत ही सोचिये..
एक कटहल का पेड़ ये भी तो लगा रखा है आपने इस ब्लाग जगत में! यह भी तो रोकता है आपको वैराग्य लेने से!
ReplyDeleteकटहल मेरा एक प्रिय फ़ल है।
ReplyDeleteकेरळ में खूब फ़लते फ़ूलते हैं।
मेरी प्रार्थना है कि आपका यह बिरवा जल्द ही एक विशाल पेड़ में बदल जाए।
Quote
वैराज्ञ में पत्नी सहभागिता नहीं कर सकती?
जब पत्नी पूरी अंतरंगता का हिस्सा हैं तो मैं और वह का क्या अंतर? उत्तर शायद राजा जनक के पास हो।
Unquote
राजा जनक के पास क्यों?
अपने मन में ढूँढिए।
जब पत्नि सक्रिय रह सकती है और रहना चाहती है तो आप सहभागिता क्यों नहीं कर सकते?
आप उम्र में मुझसे छोटे हैं। वैराज्ञ का समय अभी नहीं आया। आप सरकारी कर्मचारी हैं । जब तक मैं वैराज्ञ के बारे में सोचने नहीं लगता, वरिष्ठता के आधार पर आपको वैराज्ञ के बारे में सोचना नहीं चाहिए।
जिंदगी कटहल से लेकर मैकडौनाल्ड तक सबसे बनती है। वैराग्य लेकर भी क्या करना। वहां भी यही सब है। जहां हैं, वहीं मस्त हो लें। वैराग्य यही है। बड़े लेखक के विषय छोटे होते हैं, लेखन बड़ा हो जाता है। वईसे ही बड़का बड़का विषयों पर ठेलने पेलने वाले ब्लाग जगत में कम नहीं है। आप तो कटहल, टमाटर जमाइये रहिये, जिंदगी में यही काम आता है।
ReplyDeleteकटहल ठीक है, मैं ने इस के वृक्ष ही देखे हैं। पौधे का चित्र आप के सोजन्य से आज देखा। लगाए रखिए कभी फल देगा।
ReplyDeleteवैराग्य में वस्तुएँ और व्यक्ति बाधा नहीं होते। आप का राग ही बाधा बनता है। वैराग्य में भी वह जाता नहीं, केवल काबू में आता है। बाकी पर से ध्यान हटाएँ अपने राग/रागों पर केन्द्रित करें।
वैराग की बात छोड़िए, मैं आपको कटहल को संबोधित करने के लिए कुछ नाम सुझाता हूँ- गुलगुले, बीगना, कटहला..
ReplyDelete(नाम तो कामचलाऊ भी नहीं है, पर आप नाम जरुर सोचिएगा, यह आपको वैराग नहीं लेने देगा।)
Kaash Main bhi Canada mein katehal ka paudha laga sakta.. lekin yahan par itni thand padti hai ki lagta nahin ki lag payega..
ReplyDelete" मेरे वैराज्ञ में मैं का क्या अर्थ है? जब पत्नी पूरी अंतरंगता का हिस्सा हैं तो मैं और वह का क्या अंतर? उत्तर शायद राजा जनक के पास हो।"
ReplyDeleteसबसे पहले तो मैं माननीया भाभी जी से मुखातिब हूँ , -- आप की चिंता जायज है ! इनके लक्षण मुझे भी अच्छे नही दिखाई दे रहे हैं ! पर आप आश्वस्त रहे , ये जिस तरह के संन्यास / वैराग्य की बातें आज कल कर रहे हैं , उसमे आप इन्हे अपना और ज्यादा सहयोगी ही पाएँगी ! इसलिए आप चिंतित ना हों बल्कि इन्हे प्रोत्साहित करे , यह संन्यास आपका और इनका साझा होगा, बल्कि उस संन्यास में हम सब भी साझे होंगे !
आदरणीय ज्ञानजी , आपने आज सुबह सुबह उस परम चेतना जनक की बात कर दी , जिस चेतना का व्यक्ति मेरी जानकारी में
अभी तक दूसरा कोई हुवा ही नही ! जनक ज्ञान के परम शिखर पर थे ! वो विदेह कहलाते थे ! लेकिन उनका प्रेम मानवता के प्रती हमसे कम नही था ! राम- सीता विवाह में सीता की विदाई पर कैसे शोकाकुल होते हैं ! ये एक उदाहरण मात्र है ! अस्तु !
जनक वैराग्य के परम शिखर पर थे , देखने में कुछ भी नही छूटा, या कहले कुछ भी छोड़ने की आवश्यकता ही नही पड़ती ! ठाठ से राज काज करते थे और लोग उनसे ज्ञान प्राप्त करने आते थे ! जनक को समझने वाली आँख चाहिए ! जो जनक को देख सकता है , उसे ही जनक का ज्ञान मिल सकता है , और एक बार जनक मिल गए तो फ़िर अष्टावक्र तो मिल ही जायेंगे ! यानी एक ग्यानी शिष्य को ग्यानी गुरु तो मिल ही जाते हैं ! दोनों को एक दुसरे की जरुरत है ! बहुत अच्छा लगा , की आप जनक को याद कर रहे हैं ! आप अपने मिशन में कामयाब हो और जनक आपको शीघ्र मिले , यही शुभकामना हैं !
आपने हम पाठको से " मेरे वैराज्ञ में मैं का क्या अर्थ है ?" पूछा है ! सवाल अति गूढ़ है , शायद इसे जानने के लिए जनक भी आपको अष्टावक्र के पास भेजेंगे ! पर फ़िर भी मेरी ताऊ बुद्धि बिना कुछ कहे मान नही रही है ! और ये ही हरयानावियो की खोटी आदत है की चुप नही रह सकते वरना तो हरयाणवी बहुत अच्छा इंसान होता है ! :)
मेरी समझ अनुसार तो मुख्य बात यही मालुम होती है की ये भी द्वंद है, किसी तरह हम द्वंद के पार हो जाए यानी द्वन्दातीत हो जाए तो बात परमानंद में तब्दील हो जाए !
आपने हम सब को अपने बारे में सोचने के लिए ये मौका दिया , उसके लिए आपको धन्यवाद !
भैय्या जी कटहल के पौधे का नामकरण नही किया कहते हो,मगर नामकरण तो आप कर चुके।ज़रा देखिये पोस्ट पर दी गई दूसरी तस्वीर। आया ना समझ मे गनिमत समझिये भाभी जी की नज़र नही पडी है उस पर्। अपने लगाये पौधों से प्यार होना स्वाभाविक है।
ReplyDeleteअब अगर अनुराग ने बैराग के बारे में कुछ कहा तो "छोटे मुंह बड़ी बात" हो जायेगी, इसलिए हम तो बस इतना ही कहेंगे - "no comments"
ReplyDeleteवैराज्ञ को मारो गोली। अजी आज हरियाली सबसे ज़रूरी चीज़ है। दो चार और लगवा लो, ममता बंट जाएगी तो वैराज्ञ खुदबखुद आसान हो जाएगा।
ReplyDeleteवैराग्य?
ReplyDeleteजाने दे यह सब और कटहली पोस्ट जारी रखें. पौधे को हमारा भी प्यार. खूब फले फूले.
वैराग्य का मूल भी अपनी-अपनी तरह से समझा और समझाया जाता है. स्मरण करिए न आजकल के संतो को माया से स्वयं सराबोर, अनुसरण कर रहे अनुयायियों को वैराग्य का उपदेश देते हैं ...और कुछ तो गृहस्थ संत भी हैं...?? इसलिए आप हम वैराग्य की चिंता न कर वैराग्य भावः से अपने मूल उद्येश्यों के लिए पथ-गमन करते रहें. कटहल और आदरणीय भाभीजी तो आपके वैराग्य और सोच का अभिन्न हिस्सा और प्रतीक हैं. अनवरत रहें.
ReplyDeleteकाहे इतना सोचते है ठेलने से पहले ?देखा नही अब लोग कितनी माइक्रो पोस्ट ठेल रहे है आपकी देखा देखी !
ReplyDeleteआप ने सही कहा , प्यार तो हो ही जाता है, जब घर नै कोई भी नया जीव आये, या पोधा,चलिये अब इस पोधे से बाते भी करे, ओर इस की सेवा भी, फ़िर यह आप को फ़ल भी देगा ओर ठण्डी छाया भी,फ़िर इसी के नीचे बेठ कर इस की ठण्डी छाया मै बेठ कर वैराग्य की बात सोचना.
ReplyDeleteधन्यवाद
"उत्तर शायद राजा जनक के पास हो।"
ReplyDeleteभैया,
राजा जनक 'वैराग्यगति' को प्राप्त नहीं हुए थे. इसलिए आपके सवाल का जवाब उनके पास नहीं मिलने वाला. उनका वैराग्य, अगर था भी, तो एक छलावा था.
राजा जनक के बारे में परसाई जी ने अपने एक लेख में लिखा था;
"कहते हैं जनक विदेह थे. मतलब उन्हें देह की सुध-बुध नहीं थी. ये किसी तपस्या का परिणाम नहीं था. जिसकी चार-चार बेटियाँ बिन व्याही बैठी हों, वो विदेह हो ही जायेगा."
मेरा मानना है कि वैराग्य-औयाग्य से कुछ नहीं मिलना. अब परसाई जी को कोट कर दिया तो दिनकर जी को भी कर ही देता हूँ. (ये अलग बात है कि पहले कई बार आपके सामने ही दिनकर जी की ये पंक्तियाँ कोट कर चुका हूँ...)
ज्वलित देख पंचाग्नि जगत से निकल भागता योगी
धुनी बनाकर उसे तापता अनाशक्त रसभोगी
भाई जी !
ReplyDeleteआपके कटहल से वैराग्य चर्चा तक बहुत बढ़िया है , आपका कटहल भी बिकता है ;-) ! कुछ गुर नवागुन्तकों को भी सिखाइए ! हाँ आपका ईमेल चाहिए, कुछ मार्गदर्शन चाहिए !
बहुत सुंदर लग रहा है कटहल का बिरवा..पपीता और जिमीकन्द भी लगाइए..पंकज अवधिया जी की जिमीकंद कविता आप सुन ही आए हैं :)
ReplyDeleteकितनी सही बात है....एक पौधा लगाने के बाद उसे बढ़ते देखना बहुत सुखद होता है!मेरा गुलमोहर भी दो महीने में तीन फीट बढ़ गया!वैसे कटहल का कोई नाम जैसे " कट्टू " रख दीजिये!मज़ा आएगा!
ReplyDeleteवैराज्ञ की बात न ही करें । आखिरी उम्र में अब मुसलमान नहीं हो पाएंगे । दाम्पत्य की उम्र जैसे-जैसे बढती है वैसे-वैसे बात करने के विषय कम होते जाते हैं । इस दृष्टि से बतरस के लिए वैराज्ञ बुरा नहीं है ।
ReplyDeleteऔर हां, कटहल को और कोई भी नाम दे दीजिएगा, 'माइक्रो कटहल' नाम तो न दीजिएगा ।
यह पोस्ट पढ़कर तो मेरी स्थिति ऐसी हो गयी है मानों पुलक शरीर पनस भये जैसा !
ReplyDeleteअभी यह कटहल का मोह है कालांतर मे यह स्वयमेव वैराग्य हो जायेगा ! मोह के अनुभव की निष्पत्ती ही वैराग्य है!!आभार
ReplyDeleteजिसे देखो भागने की बात करता है आजकल :-)
ReplyDeleteGood, Lekin yhahan Harsingar aur Amrood ka jo darakht tha vo kya hua! Jo nazriya kathal ke prati hai vo un darkhton ke prati kyu nahin panpa? Kahin yeh programmed Moh-Maaya aur vairagya to nahin?
ReplyDelete@ राजीव -
ReplyDeleteसही कह रहे हैं आप राजीव! हारसिंगार तो पहले दम तोड़ गया था। भरतलाल वाला कमरा बनाते समय अमरूद मेरे सामने कटा। यह जरूर है कि एक मयूरपंखी का वृक्ष काटने की बात चल रही थी रास्ता बनाने को पर मैने अपना विरोध रखा। मैने कहा कि जैसे जापानी बाग होता है - पहले से उपलब्ध परिवेश को समाहित करते हुये; वैसा होना चाहिये। मयूरपंखी बच गया है।
सही है - मोह माया और वैराज्ञ दोनो में छद्म है।
टिप्पणी के लिये बहुत धन्यवाद। बहुत खुशी है यह पा कर।
अवाल तो इस बात का है कि उसमे कटहल किस प्रकार का लगेगा. मतलब चिप चिपा या सूखा सूखा. वैराज्ञ कहाँ से आ गया. हमारी मति भ्रष्ट हो गयी.
ReplyDeleteकवि- मना की नाजुक खयाली पुलकित करनेवाली है.
ReplyDeleteजैसे "सलिल को लहर बनने में क्लेश होता है " वैसे ही कटहल की स्मृति , ममता [थोड़ा भारी भरकम और स्त्रीलिंगी शब्द है ] के कारण , वैरागी किस्म की दुविधा को जन्म दे सकती है.
बहरहाल पानी देते या दिलाते रहें
ख्याल रखियेगा, घर गया तो पता चला कि आम का एक अच्छा खासा पौधा इस साल के ज्यादा पानी से सुख गया :(
ReplyDeleteसबको बहुत दुःख हुआ.
अवाल तो इस बात का है कि उसमे कटहल किस प्रकार का लगेगा. मतलब चिप चिपा या सूखा सूखा. वैराज्ञ कहाँ से आ गया. हमारी मति भ्रष्ट हो गयी.
ReplyDeleteवैराज्ञ की बात न ही करें । आखिरी उम्र में अब मुसलमान नहीं हो पाएंगे । दाम्पत्य की उम्र जैसे-जैसे बढती है वैसे-वैसे बात करने के विषय कम होते जाते हैं । इस दृष्टि से बतरस के लिए वैराज्ञ बुरा नहीं है ।
ReplyDeleteऔर हां, कटहल को और कोई भी नाम दे दीजिएगा, 'माइक्रो कटहल' नाम तो न दीजिएगा ।
"उत्तर शायद राजा जनक के पास हो।"
ReplyDeleteभैया,
राजा जनक 'वैराग्यगति' को प्राप्त नहीं हुए थे. इसलिए आपके सवाल का जवाब उनके पास नहीं मिलने वाला. उनका वैराग्य, अगर था भी, तो एक छलावा था.
राजा जनक के बारे में परसाई जी ने अपने एक लेख में लिखा था;
"कहते हैं जनक विदेह थे. मतलब उन्हें देह की सुध-बुध नहीं थी. ये किसी तपस्या का परिणाम नहीं था. जिसकी चार-चार बेटियाँ बिन व्याही बैठी हों, वो विदेह हो ही जायेगा."
मेरा मानना है कि वैराग्य-औयाग्य से कुछ नहीं मिलना. अब परसाई जी को कोट कर दिया तो दिनकर जी को भी कर ही देता हूँ. (ये अलग बात है कि पहले कई बार आपके सामने ही दिनकर जी की ये पंक्तियाँ कोट कर चुका हूँ...)
ज्वलित देख पंचाग्नि जगत से निकल भागता योगी
धुनी बनाकर उसे तापता अनाशक्त रसभोगी
वैराग्य का मूल भी अपनी-अपनी तरह से समझा और समझाया जाता है. स्मरण करिए न आजकल के संतो को माया से स्वयं सराबोर, अनुसरण कर रहे अनुयायियों को वैराग्य का उपदेश देते हैं ...और कुछ तो गृहस्थ संत भी हैं...?? इसलिए आप हम वैराग्य की चिंता न कर वैराग्य भावः से अपने मूल उद्येश्यों के लिए पथ-गमन करते रहें. कटहल और आदरणीय भाभीजी तो आपके वैराग्य और सोच का अभिन्न हिस्सा और प्रतीक हैं. अनवरत रहें.
ReplyDeleteअब अगर अनुराग ने बैराग के बारे में कुछ कहा तो "छोटे मुंह बड़ी बात" हो जायेगी, इसलिए हम तो बस इतना ही कहेंगे - "no comments"
ReplyDelete" मेरे वैराज्ञ में मैं का क्या अर्थ है? जब पत्नी पूरी अंतरंगता का हिस्सा हैं तो मैं और वह का क्या अंतर? उत्तर शायद राजा जनक के पास हो।"
ReplyDeleteसबसे पहले तो मैं माननीया भाभी जी से मुखातिब हूँ , -- आप की चिंता जायज है ! इनके लक्षण मुझे भी अच्छे नही दिखाई दे रहे हैं ! पर आप आश्वस्त रहे , ये जिस तरह के संन्यास / वैराग्य की बातें आज कल कर रहे हैं , उसमे आप इन्हे अपना और ज्यादा सहयोगी ही पाएँगी ! इसलिए आप चिंतित ना हों बल्कि इन्हे प्रोत्साहित करे , यह संन्यास आपका और इनका साझा होगा, बल्कि उस संन्यास में हम सब भी साझे होंगे !
आदरणीय ज्ञानजी , आपने आज सुबह सुबह उस परम चेतना जनक की बात कर दी , जिस चेतना का व्यक्ति मेरी जानकारी में
अभी तक दूसरा कोई हुवा ही नही ! जनक ज्ञान के परम शिखर पर थे ! वो विदेह कहलाते थे ! लेकिन उनका प्रेम मानवता के प्रती हमसे कम नही था ! राम- सीता विवाह में सीता की विदाई पर कैसे शोकाकुल होते हैं ! ये एक उदाहरण मात्र है ! अस्तु !
जनक वैराग्य के परम शिखर पर थे , देखने में कुछ भी नही छूटा, या कहले कुछ भी छोड़ने की आवश्यकता ही नही पड़ती ! ठाठ से राज काज करते थे और लोग उनसे ज्ञान प्राप्त करने आते थे ! जनक को समझने वाली आँख चाहिए ! जो जनक को देख सकता है , उसे ही जनक का ज्ञान मिल सकता है , और एक बार जनक मिल गए तो फ़िर अष्टावक्र तो मिल ही जायेंगे ! यानी एक ग्यानी शिष्य को ग्यानी गुरु तो मिल ही जाते हैं ! दोनों को एक दुसरे की जरुरत है ! बहुत अच्छा लगा , की आप जनक को याद कर रहे हैं ! आप अपने मिशन में कामयाब हो और जनक आपको शीघ्र मिले , यही शुभकामना हैं !
आपने हम पाठको से " मेरे वैराज्ञ में मैं का क्या अर्थ है ?" पूछा है ! सवाल अति गूढ़ है , शायद इसे जानने के लिए जनक भी आपको अष्टावक्र के पास भेजेंगे ! पर फ़िर भी मेरी ताऊ बुद्धि बिना कुछ कहे मान नही रही है ! और ये ही हरयानावियो की खोटी आदत है की चुप नही रह सकते वरना तो हरयाणवी बहुत अच्छा इंसान होता है ! :)
मेरी समझ अनुसार तो मुख्य बात यही मालुम होती है की ये भी द्वंद है, किसी तरह हम द्वंद के पार हो जाए यानी द्वन्दातीत हो जाए तो बात परमानंद में तब्दील हो जाए !
आपने हम सब को अपने बारे में सोचने के लिए ये मौका दिया , उसके लिए आपको धन्यवाद !
जिंदगी कटहल से लेकर मैकडौनाल्ड तक सबसे बनती है। वैराग्य लेकर भी क्या करना। वहां भी यही सब है। जहां हैं, वहीं मस्त हो लें। वैराग्य यही है। बड़े लेखक के विषय छोटे होते हैं, लेखन बड़ा हो जाता है। वईसे ही बड़का बड़का विषयों पर ठेलने पेलने वाले ब्लाग जगत में कम नहीं है। आप तो कटहल, टमाटर जमाइये रहिये, जिंदगी में यही काम आता है।
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