चार थे वे। आइसक्रीम ले कर काउण्टर से ज्यादा दूर चल कर सीट तलाशने का आत्मविश्वास नहीं था उनमें। सबसे नजदीक की खाली दो की सीट पर चारों बैठे सहमी दृष्टि से आस-पास देखते आइस्क्रीम खा रहे थे। मैं आशा करता हूं कि अगली बार भी वे वहां जायेंगे, बेहतर आत्मविश्वास के साथ। मैकदोनाल्द का वातावरण उन्हें इन्टीमिडेट (आतंकित) नहीं करेगा।
माइक्रोपोस्ट? बिल्कुल! इससे ज्यादा माइक्रो मेरे बस की नहीं!
ज्यादा पढ़ने की श्रद्धा हो तो यह वाली पुरानी पोस्ट - "बॉस, जरा ऑथर और पब्लिशर का नाम बताना?" देखें!
सुना है सिंगूर से साणद सादर ढो ले गये टाटा मोटर्स को गुजराती भाई।
|| MERI MAANSIK HALCHAL ||
|| मेरी (ज्ञानदत्त पाण्डेय की) मानसिक हलचल ||
|| मन में बहुत कुछ चलता है ||
|| मन है तो मैं हूं ||
|| मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग ||
Wednesday, October 8, 2008
मैकदोनाल्द में देसी बच्चे
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बहुत गजब लिखा है. मुझे याद आया वो दिन, जब बम्बई में पहली बार फाईव स्टार में गया था एक दोस्त के साथ बीयर पीने. ऐसा ही तो दिख रहा था मैं-शायद थोड़ा और मोटा. :)
ReplyDeleteआप एक अति संवेदनशील हृदय के मालिक है...ईश्वर करे इस धड़कन की धुन यूँ ही बजती रहे...कभी सुर से अलग न हो!!
साधुवाद!!!
घटनाओं पर माईक्रो नजर.....और उस पर एक माईक्रोपोस्ट..वाह।
ReplyDeleteभारत के भविष्य को मेरी शुभकामनाएं!
ReplyDeleteमाईक्रोपोस्ट..वाह!
ReplyDeleteक्या नजर है ?
सहमत है भइया!
अरे हमारी भी हिम्मत कभी कभी नहीं पड़ती है
बड़ी शीशे वाली दुकानों में , .....
चार थे वे
ReplyDeleteआइसक्रीम ले
काउण्टर से ज्यादा दूर
सीट तलाशने का आत्मविश्वास नहीं था उनमें।
सबसे नजदीक की खाली दो की सीट पर
बैठे चारों
सहमी दृष्टि से आस-पास देखते
खा आइस्क्रीम रहे थे।
अगली बार भी वे आयेंगे वहां
बेहतर आत्मविश्वास के साथ
आतंकित नहीं करेगा
मैकदोनाल्द का वातावरण
उन्हें तब।
माइक्रो पोस्ट?
आप कविता करने लगे हैं।
मुझे याद आता जब हम लोगों का ग्रुप पहली बार भोपाल में खाना खाने होटल में गया था | खाना खाने के बाद होटल में कटोरी में गर्म पानी तथा एक साबुन पानी में भीगा नेपकिन दिया | मेरे मित्र ने उस पानी को पी लिया :) बाद में हमने उसे बताया अबे वो पानी हाथ धोने के लिए था | हमने अपने मित्र का काफी दिन तक मज़ा लिया | ग्रुप में कुछ कन्याएं भी थी अच्छा हुआ उन्होंने थोड़ा इंतजार किया | अन्यथा मुझे पता था की कुछ ऐसी यादें और जुड़ती |
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील और पैनी नजर है आपकी ! आपकी ये माइक्रो पोस्ट नही आज इसको कविता-पोस्ट कहना पडेगा ! शुभकामनाएं !
ReplyDeleteआईस्क्रीम खा रहे थे, और वह भी मैक्डॉनल्ड जैसी जगह पर?
ReplyDeleteयह देखकर प्रसन्न होता हूँ।
कम से कम बाल श्रमिक तो नहीं थे?
यहाँ ऐसे लडकों को रास्ते के होटलों में मेज़ साफ़ करते देखे जा सकते हैं।
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पुराना पोस्ट भी पढा।
बॉस, जरा नौटियाल का असली नाम बताना!
उसी पोस्ट पर प्रियंकरजी ने टिप्पणी में लिखा था:
"भैंस के आगे बीन बजाना"
बहुत दिनों से "Casting pearls before swine" का सही हिन्दी अनुवाद ढूँढ रहा था। आज मिल गया।
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सानन्द से नैनो निकलेगी: आनन्द महसूस होता है।
सही निर्णय लिया टाटाने।
कर्नाटक सरकार ने भी उन्हें आमण्त्रित किया था।
येदियूरप्पा तो भले आदमी हैं लेकिन विधान सभा में सीटों की कमीं है।
बंगाल में ममताने जो किया, वही यहाँ देवेगौड़ा कर सकते थे और येदियूरप्पा का वही हाल हो सकता था जो बुद्धदेवजी का बंगाल में हुआ।
अच्छा हुआ टाटा यहाँ नहीं आए।
भई, फोटू ने ही सारी बात कह दी। आप तो फोटोग्राफर बन लीजिये। एलजी का क्विटी नामक मोबाइल ले लीजिये, इसमें भौत अच्छी क्वालिटी का कैमरा बताते हैं। दिये जाइये दनादन। सिटी बैंक, या किसी अमेरिकन बैंक, या अब तो भारतीय निजी बैंकों में जाते हुए भी कभी कभार घबराहट होती है, विकट आतंककारी माहौल होता है, फूं फां टाइप। हालांकि अमेरिका के बैठने के बाद यह आतंक खत्म हो गया है जी।
ReplyDeleteअभी उस दिन का किस्सा बयां करता हूँ -बनारस के माल में मक्दोनाल्ड का बर्गर खा रहा था -अभिजातों वाली क्षद्म वाली मुखमुद्रा में ! एक सी अर्चिन न जाने कहाँ से नमूदार हुआ -नए कपडों में बन ठन कर -पर दांत और मिची मिची आँखें पोल खोल दे रही थी -उसने एक बर्गर की फरमाईश की -अब क्या किया जाय -लगा सारा रेस्तरां मेरी और ही देख रहा है -अभिजात्य होने की कीमत चुकाई उसके लिए भी २० रूपये का बर्गर मगा कर -बैरा शायद मुस्कराया भी था -पर बड़ी कोफ्त हुयी बाद में फिर उसे किसी और से वैसे ही पेश आते हुए -वह प्रोफेसनल था .....
ReplyDeleteबच के रहना रे बाबा !
मेरी ओर से माइक्रो बधाई,झन्नाटेदार पोस्ट्।
ReplyDeleteकमेट पढने में भी मजा आया और पोस्ट पढने में भी..
ReplyDeleteदिनेश सर ने तो आपकी पोस्ट को कविता का ही रूप दे डाला.. बढ़िया रहा..
विश्वनाथ सर ने भी सही कहा की कम से कम बाल-श्रमिक तो नहीं थे..
आलोक जी ने भी सही पह्रामाया.. आप फोटोग्राफर बन ही जाइए.. एस एक आर कैमरा खरीद लीजिये.. बस 500$ से शुरू होती है.. १२ मेगा पिक्सेल की.. :)
कई लोग अपने-अपने अनुभव साथ लेते आये..
अब मैं भी बताता चलता हूँ.. मैं किसी बड़े मॉल में जाता हूँ तो सबसे ज्यादा इसी तरह की चीजों पर ध्यान देता हूँ.. कुल मिला कर बहुत अच्छा माईक्रो पोस्ट थी..
bahut accha lekh
ReplyDeleteagar wqat ho to humare dustbin me thuk ke janye
regards
सस्ता है ज्यादा महंगा नही ,ऐ सी में बैठना ओर नाम भी बड़ा ....इसलिए आलू की टिक्की वहां खाइये .. पर उन्हें कितनी खुशी मिली होगी ओर कई दिनों तक ये हम ओर आप सोच नही सकते
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना.अब जो मैक्डॉनल्ड मै जाये गे वो तो नौटियाल साहब जेसै ही होगे, साहब लोग :)
ReplyDeleteधन्यवाद
bahut acha pakda hai sir... sach mujhe to koi bhi naya kaam karte waqt yu hi lagta hai ki are kahi sabse galat mujhse hi na ho jaye..
ReplyDeleteमैकदोनाल्द में देसी बच्चे- ज्ञानजी के कैमरे चढ़े!
ReplyDeleteकुछ दिन पहले मैं रेलवे स्टेशन पर फ्रूटी खरीद रहा था ,दो बच्चे बड़ी हसरत से फ्रूटी की और देख रहे थे . उन्हें देने का मन किया लेकिन झिझक ने रोक दिया . नई आर्थिक परिस्थितियां इन मासूमों तक इन चीजों की पहुँच बना रही हैं ,ये एक अच्छी बात है .
ReplyDeleteअसल में इन बच्चों को आप समझ नहीं सके, ताज्जुब है कि कोई टिप्पणी देने वालों ने भी नोटिस न किया ।
ReplyDeleteअसल में ये बच्चे घर से ट्यूशन पढने के पहले या बाद में थोडी मौज मस्ती करने के प्लान से मैक डी आये होंगे । लगता है बच्चों के ऐन पीछे कोई जानकार अंकल/भईया/आंटी खडे होंगे । जिनसे बचने के लिये सारे बच्चे एक ही सीट पर बैठ गये, सामने वाली सीट पर बैठते तो साफ़ दिख जाते । अब जल्दी से आईसक्रीम खत्म करके घर पे तेजी से साईकल चलाकर बिना शक हुये पहुंचने की प्लानिंग हो रही होगी ।
हमने अपने टाईम में ऐसे काम बहुत किये हैं । पता नहीं पिताजी के दोस्त कहाँ कहाँ मिल जाते थे और हमारी खबर पिताजी को मिल जाती थी । हम जब ठेले पर खडे होकर मौज लेते हुये समोसे खाते थे तो लगता था बस कोई आस पडौसी न देख ले और हमारी पढाकू छवि न खराब हो जाये :-)
फ़िर स्कूल बंक करके क्रिकेट खेलते समय भी बडी समस्या रहती थी कि खबर लीक न हो जाये :-)
सौ बातों की एक बात, बच्चों का आत्मविश्वास आजकल देखते ही बनता है । वो नहीं डरने वाले मैक डी से, हम और आप ही भले असहज रहें ।
माइक्रो पोस्ट पर मैक्रो टिप्पणियां :)
ReplyDeletetouching
ReplyDeleteबचपन ऐसा ही होता है ..
ReplyDeleteहाँ भारत तेजी से बदल रहा है :)
गुरुजी, कहते हैं कि एक तस्वीर कई बड़े समाचार से बड़ी होती है।
ReplyDeleteआपकी यह माइक्रो पोस्ट नही है, बहुत ही बड़ी पोस्ट है।
बस जरुरत है इसे समझने की।
कम शब्दों में बहुत बढ़ी बात कर गये आप, अनुभव से कहूँ तो ये आत्मविश्वास दूसरी बार में इससे कहीं ज्यादा होगा।
ReplyDeleteबड़ी बात। बड़ी पोस्ट । वैसे नीरज जी की बात में भी दम है....
ReplyDeleteविजयादशमी की शुभकामनाएं
ब्लाग अपने आप में एके विधा है । आपने इस पर 'माइक्रो विधा' शुरु कर दी है । उम्मीद करें कि जल्दी ही 'हाइकू विधा' सामने आएगी ।
ReplyDeleteजब इन बच्चों की आर्थिक स्तिथि बदलेगी तब आत्मविश्वास भी आ जायेगा....काश ये स्तिथि जल्द बदले!
ReplyDeleteकई अमीर ऐसे होंगे जो मैक्डी से वापस लौटने लगेंगे कि यहॉं का माहौल भी खराब होने लगा है। गाजियाबाद के एक मॉल में एक व्यक्ति को अंदर जाने नहीं दिया गया था क्यूँकि वह चप्पल पहने हुए था। वर्ग भेद इतनी जल्दी मिटनेवाला नहीं है,बस आत्मविश्वास की दरकार है।
ReplyDeleteपहली बार हवाई जहाज में या, फाइव स्टार होटल में या फिर मैकडोनाल्ड में अवस्था ऐसी ही होती है. हाँ शायद देसी न होते तो बचपन से ही कुछ अलग होते.
ReplyDeleteहम (मैं) भी शायद इन देसी की श्रेणी में ही आते हैं... यही सच्चाई है.