सवेरे दफ्तर आया तो लगा कि कमरे की बिजली रात भर जलती रही थी। बहुत सारे भुनगे कमरे में थे जिन्हे सफाई वाला निकाल नहीं पाया था। एक कोने में एक टिड्डा - हरे रंग का ग्रासहॉपर बैठा हुआ था। दिन भर वह वहीं रहा। बिना हल्का सा भी हलचल किये। मरा नहीं था, अन्यथा दीवार से छूट कर जमीन पर गिर जाता। क्या कर रहा था वह!
शाम को दफ्तर से लौटते समय रास्ते में मुझे उसकी याद हो आयी। फिर मैं अपनी ग्रासहॉपरीयता की सोचने लगा। साल दर साल मैं कुछ विषयों में उस टिड्डे की तरह जड़ बना बैठा हूं। क्या कर रहा हूं मैं! उसी तरह यह प्रांत-देश विभिन्न शताब्दियों में जी रहा है और कुछ में तो टिड्डे की तरह जड़ है।
दफ्तर में कई दिन टिड्डे की तरह दिन निकल जाते हैं। भले ही चाय-पान, चख-चख और चहरक-महरक करने के दौर चलते हों; पर अंतत: काम उतना ही होता है - जितना उस दिन टिड्डे ने किया। पूर्णत: जड़ता!
चिंतारहित जीना हो तो डे-टाइट कम्पार्टमेण्ट में जीना चाहिये। कल की या आनेवाले दशकों की हाय-हाय मन में नहीं होनी चाहिये। डेल कार्नेगी की पुस्तक में उद्दृत कालिदास की कविता में यही कहा गया है। पर उसका अर्थ जड़ या निरर्थक जीवन तो नहीं ही है। मैं उस टिड्डे सा दिन नहीं गुजारना चाहूंगा। लेकिन शायद दिन के काम के परिणाम तो बहुधा टिड्डे के दिन सरीखे लगते हैं!
मैं टेलीविज़न क्यों नहीं देखता?» | |
«इसलिये कि उत्तरोत्तर रिमोट मेरे हाथ से जाता रहा है। | |
कम्प्यूटर में क्यों मुंह घुसाये रहता हूं?» | |
«क्या करूं, मेरे हाथ में, चूहा थमा दिया गया है। |
सुप्रभात पाण्डेय जी!
ReplyDeleteबड़ी बात याद दिलाई आपने। ग्रासहॉपरीयता की बात सोचना इंसानियत का तकाजा है। वरना बहुत से टिड्डों की तो ज़िंदगी गुज़र जाती है इंसानीयत के बारे में आरोप-प्रत्यारोप करते हुए।
“अटको मत। चलते चलो।” का सूक्तिवाक्य और प्रतिदर्श आपके पृष्ठ पर देखकर ऐसा नहीं लगता कि आप कभी टिड्डे जैसा दिन काट पाएंगे। यह जो मानसिक हलचल है, वह दूसरों को भी गतिशील करती जा रही है तो इसके उद्गम के बारे में क्या कहना...!
ReplyDeleteविचारणीय व प्रेरक पोस्ट।
मैं सोच रहा हूँ की टिड्डा आपके बारे में क्या सोचता रहा होगा -वह आपकी मानवी चोले की ग्रासहापरीयता पर मंद मंद मुस्काता रहा होगा .वह यह भी सोचता रहा होगा कि देखो इस मूढ़मते को अपने बारे में कितना गर्व है कि यह कुछ करते धरते रह कर रोटी खाता रहता है -यह भूल गया कि इसी के एक पूर्वज ने यह आश्वस्त कर दिया था कि सब के दाता राम ! वगैरह वगैरह ! क्या वह टिड्डा वहीं है ज्ञान जी या चला गया ?आपको उपदेश देकर . पर क्या वह इसी दुनिया का था ! मेरे मन में ये बातें उमड़ घुमड़ रही हैं !
ReplyDeleteक्या करूं, मेरे हाथ में, चूहा थमा दिया गया है। पीछे से कोई बिल्ली आती ही होगी। कहेगी हम भी बैठेंगे ब्लाग में।
ReplyDeleteइस पोस्ट को कुछ दिन पहले देखा था, शायद गलती से पोस्ट हो गया था.. मगर कुछ लिखता उससे पहले ही गायब..
ReplyDeleteखैर.. आपकी कही बात ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया है कि ग्रासहापरीयता मुझमें कितनी और किस विषय को लेकर है.. अब काफी दिनों का काम मिल गया है.. ग्रासहापरीयता खुद में ढूंढना और फिर उसे जड़ से मिटाने का प्रयास करना..
आज सारी रात मे भी आप के टिड्डे की तरह से सोया नही, ओर हां यह टिडडा सोता कब होगा? वेसे हमारे देश मे नेता भी इन टिडडो की तरह से पांच साल कुर्सी पर एक टिडडे की तरह से ही जड बन कर बेठ जाते हे, देश मे कुछ भी हो यह साले हिल्लते ही नही इस डर से कही कुर्सी ही ना हिल जाये, ओर इस सरकार मे तो लगता हे एक से बढ कर एक टिडडा हे, जड टिड्डा.
ReplyDeleteअभी यहा सुबह के चार बज चुके हे शायद नीद आ जाये,देखता हू
धन्यवाद
At least the Grasshopper - Tidda jee finds a place on a wall & thinks how he can go back on Green grass ...& so should we all ...from Time to time at intervals ..it is good to be among Nature's bounty.
ReplyDeleteThat is what i feel ...Nature always brings Peaceful reflections.
घणी टिड्डात्मक पोस्ट है जी। किसने कह दिया कि आप कुछ ना कर रहे हो। ब्लागिंग कोई कम काम है क्या, जो यह कर रहा है, समझ लीजिये, वह सब कुछ कर रहा है। ब्लागिंग में टिड्डात्मकता यह एक पोस्ट का विषय़ हो सकता है। ब्लागिंग में कई टिड्डे हैं, जो वईसी ही प्रेम कविता पर जमे हुए हैं, जैसे दो साल पहले थे।
ReplyDeleteटीवी देखने का जुगाड़ हम बताता हूं मेरे घर में में टीवी तक अपनी पहुंच नहीं होती है।
करीब एक हजार रुपये में इंटेक्स का टीवी ट्यूनर आता है, सो लगवा लीजिये। केबल का तार टीवी ट्यूनर में चला जायेगा. फिर देखिये कंप्यूटर पर टीवी दनादन।
टिड्डे के टिड्डेपन पर ऐसी रोचक पोस्ट.....वाह क्या खूब। आजकल आप भी लगता है कुछ परेशान चल रहे हैं बालिकावधू से तभी वह टीवी का दृश्य दिख रहा है। वैसे तो यह सीरियल ठीक-ठाक है लेकिन अक्सर आला दर्जे की बेवकूफियां दिखा जाता है, हर वक्त सजे धजे लोग मानों शादी मे जाने को तैयार बैठे हैं....उफ्फ ये एकता कपूर का हैंगओवर।
ReplyDeleteबचें सभी टिड्डाकरण से।
ReplyDeleteमक्खी, आलू, टिड्डा , what next?
ReplyDeleteज्ञानजी, you are unpredictable.
हमें टिड्डा तो अब तक नसीब नहीं हुआ, केवल छिपकली और तिलचट्टे!
TV हम भी बहुत कम देखते हैं,
कारण रिमोट नहीं।
घर में दो टीवी हैं, एक hall में और एक bedroom में।
लेकिन उनका यह बार बार "मिलते हैं एक छोटे से ब्रेक के बाद" मुझसे सहन नहीं होता।
बीस साल पहले जब एक ही channel था, हम दूरदर्शन ज्यादा देखते थे।
हम लोग, बुनियाद, रामायण, महाभारत, The world this week, सुरभी, यह जो है जिन्दगी, जैसे कार्यक्रम हमें बहुत अच्छे लगते थे। उस समय हमारे पास न रिमोट था न mouse.
याद है वो दिन?।
हां आज-कल हम भी चूहा पकड लिये हैं।
ReplyDeleteआप इतनी सहजता से जरासी बात को व्यक्त कर जाते हैं की सोचने पर मजबूर होना पङता है ! अब आपका ये टिड्डा भी आपकी सूक्ष्म अनुभूतियों का परिणाम है ! और मैं मजबूर हूँ इस पर सोचने के लिए की ये ग्रासहापरीयता मुझमे किस लेवल तक है ! और शायद बहुत ज्यादा है ! सच में आपका यही सोच अन्य दूसरो से आपको अलग करता है ! आपकी पोस्ट व्यंग के साथ साथ यथार्थ को लेकर चलती है ! बहुत धन्यवाद !
ReplyDeleteटिड्डे खेत के खेत साफ कर देते है...यही विचार आता है टिड्डे का नाम सुन. ये वाले तो संत लग रहे है :)
ReplyDeleteअंतिम फोटो फिचर मजेदार है.
कई शब्द सीखने को मिले-टिड्डापन, ग्रासहापरीयता...
ReplyDeleteइन्हें चला दिया जाए....अगले जन्म में जब शब्दों का सफर लिखेंगे तो इनकी व्युत्पत्ति का श्रेय टिड्डोल्लेख के साथ आपको दिया जाएगा ...
pandey ji
ReplyDeleteaap ki lakhni shasakta he
regards
आपकी लाईट जलती रही ओर हमारे मोबाइल का इन्टरनेट ओन रहा ......हम बिल के चिंता में टिड्डामय हो गये है ....पर जीवन में जड़ बने रहने से मुश्किलें आसान नही होती ...
ReplyDeleteहलचल होती रहे.. हम तो बस यही चाहते है..
ReplyDeleteयह सच है कि जड़वत बने रहने से किसी कार्य में प्रगति नही हो सकती है .
ReplyDeleteऔर स्वयं का वैक्तिक विकास या किसी का विकास भी नही होगा. टिड्डे जैसी जड़ता
जैसे कार्यालयों में और अन्य उदहारण अपने दिए है . इसे उदहारण देखना अपने देश में
आम बात है जो सुलभता से कही भी देखी जा सकती है . आलेख बहुत बढ़िया लगा.
जैसे गरम राख पर पानी फैकना . आज आपकी पोस्ट से शत प्रतिशत
सहमत हूँ .
जब तक मानसिकता टिड्डे जैसी जड़ नहीं हो जाती, तब तक चल जायेगा कि कम से कम कल के कुछ प्लान हैं..इसी थ्योरी पर कई जिन्दगियां जी जा रही हैं. डे टाईट कम्पार्टमेन्ट भी बीच बीच में टिड्डई मांगता है, टाईटनेस को जीने के लिए.
ReplyDeleteथामे रहिये माउस और जमाये रहिये!!
यह तत्व ज्ञान यदि हमारे आचरण में उतर आए तो सारे संकट ही दूर हो जाएं ।
ReplyDeleteटिड्डा मज़े में था, समाधिस्थ सरीखा, आराम फ़रमा रहा था। अगर आपको लगता है कि आप भी उसकी तरह हैं, तो वाक़ई आनन्द में हैं। टिड्डा मूवमेंट चलाया जाना चाहिए - बी लाइक टिड्डा। :)
ReplyDeleteWah
ReplyDeletesachai kah dee साल दर साल मैं कुछ विषयों में उस टिड्डे की तरह जड़ बना बैठा हूं। क्या कर रहा हूं मैं! उसी तरह यह प्रांत-देश विभिन्न शताब्दियों में जी रहा है और कुछ में तो टिड्डे की तरह जड़ है।
din me आराम फ़रमा रहा था टिड्डा -दिन भर वह sota hai kunki raat ko jaagta hai baaki bhungon ki tarah. un logon se to achcha hai jo raat ko bhi sote hain aur dinn me bhi
ReplyDeleteमैं टीवी नहीं देखता क्योंकि ऐड बहुत आते हैं.
ReplyDeleteकम्प्यूटर में क्यों मुंह घुसाये रहता हूं क्योंकि जो टीवी पर नहीं देख पाता वो डाउनलोड करके देखता हूँ :-)
ये कम्प्यूटर में मुंह घुसाए रहना भी कभी-कभी टिड्डामाय कर देता है !
Wah
ReplyDeletesachai kah dee साल दर साल मैं कुछ विषयों में उस टिड्डे की तरह जड़ बना बैठा हूं। क्या कर रहा हूं मैं! उसी तरह यह प्रांत-देश विभिन्न शताब्दियों में जी रहा है और कुछ में तो टिड्डे की तरह जड़ है।
यह सच है कि जड़वत बने रहने से किसी कार्य में प्रगति नही हो सकती है .
ReplyDeleteऔर स्वयं का वैक्तिक विकास या किसी का विकास भी नही होगा. टिड्डे जैसी जड़ता
जैसे कार्यालयों में और अन्य उदहारण अपने दिए है . इसे उदहारण देखना अपने देश में
आम बात है जो सुलभता से कही भी देखी जा सकती है . आलेख बहुत बढ़िया लगा.
जैसे गरम राख पर पानी फैकना . आज आपकी पोस्ट से शत प्रतिशत
सहमत हूँ .
कई शब्द सीखने को मिले-टिड्डापन, ग्रासहापरीयता...
ReplyDeleteइन्हें चला दिया जाए....अगले जन्म में जब शब्दों का सफर लिखेंगे तो इनकी व्युत्पत्ति का श्रेय टिड्डोल्लेख के साथ आपको दिया जाएगा ...
pandey ji
ReplyDeleteaap ki lakhni shasakta he
regards
मक्खी, आलू, टिड्डा , what next?
ReplyDeleteज्ञानजी, you are unpredictable.
हमें टिड्डा तो अब तक नसीब नहीं हुआ, केवल छिपकली और तिलचट्टे!
TV हम भी बहुत कम देखते हैं,
कारण रिमोट नहीं।
घर में दो टीवी हैं, एक hall में और एक bedroom में।
लेकिन उनका यह बार बार "मिलते हैं एक छोटे से ब्रेक के बाद" मुझसे सहन नहीं होता।
बीस साल पहले जब एक ही channel था, हम दूरदर्शन ज्यादा देखते थे।
हम लोग, बुनियाद, रामायण, महाभारत, The world this week, सुरभी, यह जो है जिन्दगी, जैसे कार्यक्रम हमें बहुत अच्छे लगते थे। उस समय हमारे पास न रिमोट था न mouse.
याद है वो दिन?।
बचें सभी टिड्डाकरण से।
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