|| MERI MAANSIK HALCHAL ||
|| मेरी (ज्ञानदत्त पाण्डेय की) मानसिक हलचल ||
|| मन में बहुत कुछ चलता है ||
|| मन है तो मैं हूं ||
|| मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग ||
Friday, October 3, 2008
ब्लॉगरीय अर्थव्यवस्था की दुकानें
मेरे घर के आस-पास – शिवकुटी से गोविन्दपुर तक, छोटी-छोटी दुकानें बड़े जोश से खुलती हैं। किराने की दुकान, सब्जी की गुमटी, चाय समोसे की दुकान… खोलने वाले अपना फर्नीचर, शो-केस और उपकरण/सामान लगाते हैं। कटिया मार कर बिजली ले कर शाम को अपनी दुकान जगमग भी करते हैं।
कुछ दिन सन्नध हो कर बैठते हैं वे दुकानदार। ग्राहक की इन्तजार में ताकते हैं और ग्राहक को लुभाने का पूरा यत्न करते हैं। पर धीरे धीरे उनका फेटीग दिखाई देने लगता है। जितना समय वे दे रहे हैं, जितना पैसा उन्होंने लगाया है, जितनी आमदनी की अपेक्षा है – उसमें पटरी बैठती नजर नहीं आती। दुकान वीरान रहती है। फिर सामान कम होने लगता है। कुछ दिनों या कुछ महीनों में दुकान बन्द हो जाती है।
यह लगभग हर दुकान के साथ होता है। इक्का-दुक्का हैं जो खुली हैं और चल रही हैं। चलती जा रही हैं।
असल में पूरा परिवेश निम्न और निम्न मध्यवर्गीय है। हर आदमी जो यहां रह रहा है, अपने आर्थिक साधन कुछ न कुछ बढ़ाने की सोच रहा है। उसके लिये यह छोटी दुकान लगाना ही उपाय नजर आता है। थोड़ी बहुत पूंजी लगा कर दुकान प्रारम्भ की जाती है। पर जद्दोजहद ऐसी है कि दुकानें बहुत सी हो जाती हैं। और फिर, कुल मिला कर पूरे परिवेश में इस तरह के दुकान वाले, या उन जैसे ही उपभोक्ता हैं। इसलिये जितनी ग्राहकी की अपेक्षा होती है, वह पूरी होना सम्भव नहीं होता।
मुझे यह दुकानों का प्रॉलीफरेशन हिन्दी ब्लॉगरी जैसा लगता है। ज्यादातर एक प्रकार की दुकानें। पर, जब दुकानदार ही उपभोक्ता हों, तो वांछित ग्राहकी कहां से आये?
कटिया मार कर बिजली ले सजाई दुकानें। जल्दी खुलने और जल्दी बैठ जाने वाली दुकानें। हिन्दी ब्लॉगरीय अर्थव्यवस्था वाली दुकानें!
यह लिखने का ट्रिगर एक महिला की नयी दुकान से है। माथे पर टिकुली और मांग में बड़ी सी सिन्दूर की पट्टी है। विशुद्ध घर से बाहर न निकलने वाली की इमेज। महिला के चेहरे से नहीं लगता कि उसे कोई दुकान चलाने का पूर्व अनुभव है। वह अपना छोटा बच्चा अपनी गोद में लिये है। निश्चय ही बच्चा संभालने के लिये और कोई नहीं है। दुकान में विविधता के लिये उसने किराना के सामान के साथ थोडी सब्जी भी रख ली है। पर सब सामान जितना है, उतना ही है।
कितना दिन चलेगी उसकी दुकान? मैं मन ही मन उसका कुशल मनाता हूं; पर आश्वस्त नहीं हूं।
श्री नीरज रोहिल्ला के ताजा ई-मेल की बॉटम-लाइन:
एक धावक के लिये सबसे इम्पॉर्टेण्ट है; राइट जूता खरीदना।
जी हां; और उसके बाद लेफ्ट जूता खरीदना!
नोट: यहां "लेफ्ट" शब्द में कोई पन (pun - श्लेषोक्ति) ढ़ूंढ़ने का कृपया यत्न न करें।
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इन दुकानों से रेहड़ी अधिक कामयाब है। घर घर पहुंचती है।
ReplyDeleteअच्छा विश्लेषण किया। उस महिला के लिये शुभकामनाएं जो घर से न निकलने वाली एक सामन्य महिला होते हुए भी दुकान चलाने के गुर सीख रही है।
ReplyDeleteजब टिप्पणी के अग्रिम धन्यवाद है तो भाई यह लो टिप्पणी |और साथ में एड पर एक क्लिक भी
ReplyDeleteसावधान करने के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteअब हम न ब्लॉग्गरी करेंगे, न दुकानदारी।
टिप्पणी करेंगे और ग्राह्क बनकर ही रहेंगे।
दखिए न, किस उत्साह से हमारा स्वागत किया जाता है!
ब्लॉग्गर को टिप्पणि और दुकानदार को ग्राहक चाहिए।
एक धावक के लिये सबसे इम्पॉर्टेण्ट है; राइट जूता खरीदना।
ReplyDeleteजी हां; और उसके बाद लेफ्ट जूता खरीदना!
नोट: यहां "लेफ्ट" शब्द में कोई पन (pun - श्लेषोक्ति) ढ़ूंढ़ने का कृपया यत्न न करें।
आपने यह लिख कर ख़ुद ही श्लेष की और इशारा कर दिया ! बहरहाल ! नयी दुकानों पर मैं सायास नजर नही डाल रहा ..कुछ भाई ,अपने कुश भाई नहीं लग गएँ हैं उधर ,मैं डर रहा ,पता नहीं कौन भा जाय -दुविधा में दोनों जायं -ज्ञान जैसे अब धीरे धीरे पुराने हो चले मित्र भी और वह नए ब्लॉग वाली भी ....आपकी भविष्यवाणी सच हुयी तो वह तो वह फिर ढूंढें भी ना मिलेगी -हम और आप तो रहेंगे बाकी लोगों का क्या ठिकाना !
धीरे-धीरे मरते गरीब या छोटे कारोबारियों का हाल बयां कर दिया आपने ।
ReplyDeleteदूकान दो कारणों से चलती है एक तो इस पर की आप ने क्या समान रखा है और दूसरे ये की आप की किस्मत कितनी बुलंद है...इन दोनों के अभाव में उसका बंद होना निश्चित है...दूसरा कारण सब से महत्त्व पूर्ण है...
ReplyDeleteनीरज
बड़े भाई,
ReplyDeleteकभी कभी दूसरों की दुकान बचाने की कोशिश भी किया करो ..
मान गए पाण्डेय जी, क्या साम्य ढूंढा है आपने. दुकानदारी में (और ब्लॉग्गिंग में भी) अगर कुछ और न मिलेगा तो थोडा अनुभव ही मिलेगा. वैसे भी सूना है - "खाली से बेगार भली."
ReplyDeleteबहुत सही मुद्दे पर नज़र डाली है आपने।
ReplyDeleteतकरीबन सभी शहरों में यही हो रहा है।
कल रात में प्रेस से घर लौटते वक्त एक दीवाल से सटे एक ठेले पर रुका, एक बच्ची और उसका भाई बैठे थे। ठेले में पान को छोड़कर गुटखा से लेकर, साबुन, सब्जियां, टूथपेस्ट आदि बहुत कुछ था। रात करीब 11:30 बजे ये दुकान बंद होती है, खुलती कब है पता नही।
अरे मेरी दुखती रग पर हाथ धर दिया आपने। वक़्त की कमी से ब्लोगिंग नहीं हो पा रही। जितने पोस्ट पढ़ता हूँ टिप्पणियां उससे कम ही देता हूँ और अब तो पढ़ने का ही वक़्त नहीं तो टिपियाने का कहां से आयेगा सो नतीजा सामने आ रहा है। मेरे तीन ब्लोग्स पर तीन विविध पोस्ट्स पर एक-एक दो-दो टिप्पणियां आईं बस।
ReplyDeleteभाई दुकान अच्छी होगी, माल बेहतरीन होगा और दुकानदार एक खास "टारगेट ऑडियंस" को लेकर माल रखे तो दुकान ज़रूर चलेगी… साथ ही दुकानदार का पास-पड़ोस के दुकानदारों से अच्छा सम्बन्ध भी होना चाहिये… :) :)
ReplyDeleteबहुत सही विश्लेषण। ब्लागरी से तुलना तो ठीक है मगर वहां तो लोगों के जीने मरने के सवाल की ओर इशारा भी कर रहे हैं। ब्लागिंग की दुकान चले न चले, घर तो चल रहा है। फुटपाथियों का तो जीवन ही निर्भर है उस पर ...
ReplyDeleteआपकी दुकान एक बड़े मॉल की तरह है जहाँ सामान में विविधता की प्रचुरता है. लेकिन ब्लॉग जगत में कई बड़ी दुकानों पर अक्सर एकरसता के दर्शन होते हैं. माल अच्छा है पर प्रेडिक्टेबल है. नयी दुकानों से आशा रहती है कि शायद कुछ अलग, कुछ नए विचार भी सामने आयेंगे. इसलिए उन्हें शुभकामनाएं देते हैं.
ReplyDeleteउस महिला में जज़्बा है जो उसकी दुकान चले या ना चले उसे निराश नही करेगा.. ये जज़्बा हर एक में होना चाहिए.. गिरने वालो का असफल होना निश्चित है मगर गिर कर उठने वाले हमेशा सफल होते है..
ReplyDelete"कटिया मार कर बिजली ले सजाई दुकानें। जल्दी खुलने और जल्दी बैठ जाने वाली दुकानें। हिन्दी ब्लॉगरीय अर्थव्यवस्था वाली दुकानें! "
ReplyDeleteयह आपने बहुत सही बात कही है ! और आपने इनमे गजब की साम्यता ढुन्ढी है ! बहुत शुभकामनाएं !
दुरुस्त फरमाया आपने। ब्लागिंग की दुकान साइड बिजनेस के लिये ठीक है। इस दुकान मे ग्राहको का टोटा है। आते भी है तो खरीददारी नही करते। उल्टे दुकान मे लगी सजावट ले जाते है, अपनी दुकान मे लगाने। बहुत से ग्राहक तो सामान भी ले जाते है और अपना बताकर अपनी दुकान मे बेचते है। शुक्र है यह हम सबका साइड बिजनेस है। पर हमे इसकी हकीकत बताते रहना चाहिये ताकि नये दुकानदार इसी मे आजीविका समझ न चले आये। एक बात और है। जिस शापिंग माल मे हमने और आपने दुकान सजायी है उसकी तो चान्दी है। इसलिये दुकान की बजाय शापिंग माल की सोचना ज्यादा जरुरी है। :)
ReplyDeleteपंडित जी
ReplyDeleteअच्छा लगा ुल मिला कर पूरे परिवेश में इस तरह के दुकान वाले, या उन जैसे ही उपभोक्ता हैं। इसलिये जितनी ग्राहकी की अपेक्षा होती है, वह पूरी होना सम्भव नहीं होता।
ब्लॉग केवल इस बात को छोड़ कर की आपने मेरी पूर्व टिप्पणियों
का ज़बाब नहीं दिया
सादर
बात तो सही है,पर जो झक्की लोग जो अपने सामान की साजो सज्जा में रमे एकदम मशगूल रहेंगे बिना ग्राहकों के परवाह के,वे टिके ही रहेंगे.वरना अपना दूकान सजाना छोड़ ग्राहक की राह तकते रहने वाले हतोत्साहित हो दूकान बंद न करेंगे तो और क्या करेंगे.
ReplyDeleteखैर बड़े और गुनी लोगों का काम है कि इमानदारी से दुकान चलाने वाले लोगों का अपने भर प्रोत्साहन करते रहें.
भाई एक बात तो पक्की है ग्राहकों का ख्याल करना पड़ेगा
ReplyDeleteऔर आस पास के दुकानदारों के यहाँ भी खरीदारी करके अपनी ग्राहक संख्या बढाई जा सकती है
अब पहले से जमे लोग सहारा दें न दें दूकान चलानी ही है
हाँ उस महिला को भी
जूते वाले प्रसंग में साफ़ साफ़ कहें कि बाद में लिखे नोट को सीधा समझना है या उल्टा क्योंकि नोट के पहले तो भले ध्यान न जाता पर नोट के बाद तो फ़िर......
बहुत खूब। अब तो मैं भी जूते की दुकान खोजने निकल पडता हूं। अरे भई ब्लॉगिंग की दुनिया का मजबूत धावक बनने की अभिलाषा जो पाल रखी है।
ReplyDeleteहमारी दुकान शायद कोने मैं है
ReplyDeleteदुकान का तजुरवा तो नही लेकिन मेने देखा हे कि दुकान वाले बहुत ही मिठ्ठा बोलते हे, ओर अगर यह महिला मिठ्ठा बोलेगी तो , आप की दुया से उस की कटिया मार कर बिजली ले सजाई दुकान खुब चलेगी, बस बोल मिठ्ठे हो....
ReplyDeleteकईओ ने तो वक्त बीताने के लिये भी दुकान खोली होती हे, बस इसी बहाने चार यार आये ओर बात हो जाये.
धन्यवाद
सच में कई बार सोचता हूँ रोज अपनी ख्वाहिशे मारते होगे ये लोग ? क्यों शहर में बलवा होने पर एक परिवार भूखा सो जाता होगा ?कैसे एक बंद .एक बारिश एक पूरे परिवार को बैचेन कर देती होगी ?ओर रही जूते ओर धावक पर बात ...अगर याद रहा तो किसी पोस्ट में इसका जिक्र करूँगा ...जूते पर एक फ़िल्म देखी थी ...
ReplyDeleteक्रय -विक्रय समाज का एक सशक्त पहलू है ..
ReplyDeleteमनुष्य की हर गतिविधि के साथ जुडा हुआ -
दुकानदारी और जीवन दोनोँ कला हैँ !
- लावण्या
मैं भी सोच रहा हूं कि कुछ दिन ग्राहक बन कर ही रहूं :)
ReplyDeleteपिछली पोस्ट में आपने बिजनेस स्टैंडर्ड की चर्चा की है..यकीनन वह हिन्दी में इन दिनों सबसे अच्छा कारोबारी अखबार है। हमारे यहां वह अखबार एक दिन लेट आता है.. इसलिए उसे नेट पर ही पढ लेता हूं।
अजी अपने लिए तो लानती बात है, दुकान वगैरह चलाने की कोई समझ नहीं है अपने में, शायद इसलिए ब्लॉगिंग की दुकान भी अपनी नहीं चलती, बस ऐसे ही ठेले जा रहे हैं, ही ही ही!!
ReplyDeleteज्ञानजी,
ReplyDeleteमथुरा में जहाँ मेरा घर है वहाँ आज से १५-१६ साल पहले केवल घर हुआ करते थे लेकिन धीरे धीरे सभी लोगों ने अपने मकानों के अगले हिस्से को दुकानों में परिवर्तित कर दिया । अब १ किमी लम्बी सडक पर (दोनो तरफ़) केवल २-३ घर ऐसे हैं जिनमें दुकाने नहीं बनी हैं । उनमें से एक घर हमारा भी है । रोज सुबह पिताजी के पास लोग आते हैं कि खाली जमीन पडी है दुकाने बनवा दीजिये बहुत फ़ायदा रहेगा । और हमारे पिताजी अपनी समस्या हमारे सिर कर देते हैं कि बेटे की अभी नौकरी का कोई भरोसा नहीं है क्या पता परचूने की दुकान खोलनी पडे इसलिये जमीन बचा के रखी है ।
उस एक किमी की सडक के आस पास आबादी मध्यमवर्गीय है, और वो सडक आस पास के इलाकों को मुख्य सडक से जोडती भी है इसके चलते बाजार ठीक ठाक चल जाता है । कुछ प्रकार की दुकानें अच्छी चलती हैं जैसे परचूने + पैकेज्ड फ़ूड की दुकानें । बाकी काम चला रहे हैं । अभी लगभग इंडिया शाइनिंग और टी.वी. चैनलों के विस्फ़ोट के दौर में "गिफ़्ट शाप" की दुकाने बहुत खुली थीं और खूब चली लेकिन अब उस प्रकार की ज्यादा दुकाने खुलने से बाजार मन्दा हो गया है । इस प्रकार की दुकानों के अधिकतर दुकानदार दिल्ली से सामान लाते हैं और मुनाफ़े का मार्जिन काफ़ी ज्यादा है ।
कुछ लोगों की ठसक भी है, जो अभी गयी नहीं है । एक पडौसी अंकल हैं जिन्होने भी दुकान खोली है और अपने छोटे बेटे के साथ दुकान पर बैठते हैं । गिफ़्ट शाप/जनरल स्टोर/एस. टी. डी. की दुकान है और कुछ खास नहीं चल रही है । किसी ने सलाह दी होगी कि सुबह ब्रेड/बटर/जैम और दूध के पैकेट्स रखे जायें तो अच्छी रहेगा । लेकिन वो मुझसे मिले तो ठसक कर बोले कि लोग कैसी कैसी सलाह देते हैं कि दूध ब्रेड बेचना शुरू कर दो ।
मेरा मानना है कि आज दुकान/बिजनेस चलाने में भी दिमाग लगाना पडेगा । कुछ लोग हैं जिन्होने प्रयोग किये हैं और सफ़ल भी हुये हैं ।
बाकी हम तो लेफ़्ट जूता पहले पहनते हैं, उसके बाद राईट जूते में घर की चाबी बांध के रखते हैं कि कहीं खो न जाये :-)
इसमें श्लेष खोजते रहिये :-)
सही दुकानदारी है-हम तो जूता खरीदने जा रहे हैं-लेफ्ट वाला!!
ReplyDeleteतुलना तो ठीक पर बाजारी दुकान वालों के लिये दुकान रोजी-रोटी का सवाल है, ब्लॉगिंग की दुकान लगभग ९०% दुकानदारों के लिये समय काटने का साधन।
ReplyDeleteनीरज की बदौलत जूते की दुकान वालों की चांदी होने वाली है।
क्या है ज्ञानजी कि लोग न जाने आपको क्यों बदनाम किये हैं कि आप विविधता वाली पोस्ट लिखते हैं। हम तो ये देखते हैं कि जैसे लोग देश की सारी गड़बड़ी का ठीकरा फ़ोड़ने के लिये नेता का सर तलाशते हैं वैसे ही आजकल आप इधर-उधर न जाने किधर-किधर से तार जोड़कर ब्लागिंग के मेन स्विच में घुसा दे रहे हैं।
ReplyDeleteसुना है की बड़े-बड़े सुपर मार्केट और मल्टीनेशनल कंपनियाँ इस क्षेत्र में उतर रही हैं. अब तो जो रही सही चल रही है, उनको भी खतरा है :-)
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