मेरे मित्र उपेन्द्र कुमार सिंह का बालक पौने चार साल का है। नाम है अंश। सांवला है तो उसे देख मुझे कृष्ण की याद आती है। चपल भी है और बुद्धिमान भी। जो कहता है उसके दार्शनिक अर्थ भी निकाले जा सकते हैं।
उपेन्द्र जी का घर रेलवे लाइन के पास है सुबेदारगंज, इलाहाबाद में। वहां से गाड़ियां हर दस मिनट पर निकलती हैं। उन्हें देखना अंश का मुख्य कौतूहल है। एक दिन बहुत देर तक गाड़ियां नहीं आ रही थीं।
पापा, गाड़ियाँ क्यों नहीं आ रहीं?
बच्चे को उत्तर देना चाहिये। सो पापा ने कहा - बेटा, खाना खा रही होंगी।
अंश सोच कर बोला - नहीं, तेल लेने गयी होगी।
उससे पूछा गया तो बताया कि खाना तो आदमी खाते हैं। कार तेल ले कर चलती है। उसी की तरह रेल गाड़ी भी मशीन है। उसको भी चलने के लिये तेल चाहिये!
एक दिन गाड़ियां बहुत आ-जा रही थीं। अंश बोला - पापा गाड़ियां बहुत आ रही हैं। फिर कुछ रुक कर जोड़ा - बहुत आ रही हैं तो खतम हो जायेंगी।
पौने चार साल का बच्चा समझता है कि ट्रेनों की मात्रा असीमित नहीं है। अनंत काल तक तेज बहाव नहीं हो सकता गाड़ियों का। बस हम बड़े ही नहीं समझते कि सुख-दुख बहुत आ रहे हैं तो अंतत खतम होंगे ही।
एक दिन वह (शायद पढ़ाई से त्रस्त हो कर) बोला - पापा मैं तो पढ़ूंगा नहीं, घास छीलूंगा।
शायद कहीं सुना हो कि पढ़ोगे नहीं तो घास छीलोगे। घास छीलने में हेय भावना का निहितार्थ स्पष्ट नहीं है अंश को। उसके अनुसार पढ़ने का कोई विकल्प है घास छीलना। अंश को यह भी नहीं ज्ञात कि घास छीलना क्या होता है। उसके पिता ने घास छीलना क्या होता है, बताया। और यह भी बताया कि अगर कुशल घास-छीलक होना है तो पढ़ना पड़ेगा। पढ़ने से मुक्ति नहीं है, यह समझकर बड़ी सहजता से उसने स्वीकार कर लिया कि वह पढ़ेगा।
बाल मन। कितना सहज पर फिर भी किसी परिपक्व के मन से किसी भी तरह कमतर नहीं। शायद बेहतर ही हो - क्लीन स्लेट के साथ जो सोचता है। पूर्वाग्रहों से मुक्त। सूचनाओं को समेटने को आतुर।
मित्रों, हमारा अपने अन्दर का अंश कहां गया?
यूनुस को मैने दो बार फरमाइश कर कहा कि ढ़ेरों शिशु गीत ठेलें अपने रेडियोवाणी पर। आजकल शायद व्यस्त हैं। ज्ञान बीड़ी पीने-पिलाने भी नहीं आ रहे हैं। वैसे अंतरा चौधरी के गीत उन्होने सुनाये भी हैं। पर और सुनने का मन है।
अपना यह हाल है कि घर में बच्चे नहीं हैं। पर बच्चों के बारे में सुनना-पढ़ना-लिखना अच्छा लग रहा है।
इसी कड़ी में अभी रजनीश मंगला जी के ब्लॉग पर सरल सा शिशुगीत - 'धोबी आया' सुनने को मिला। हमने उस बहाने दस तक की गिनती भी सीख ली।
कहाँ हो भाई यूनुस!
धोबी आया तो हम सुन आये..हमें बहुत भाया. अंश को भी सुनवाने का प्रबंध करें काहे से की हमारी लाईन का बंदा है हम भी पढ़ लिख कर घांस ही छिल रहे हैं इस समय...और न छिलो तो बीबी की सुनो.
ReplyDeleteबालक की चिंता और चिंतन धांसू हैं। एक बार हमारा बच्चा बोला ये ले लो वो ले लो। हमने कहा पैसे नहीं हैं। वो बोला बैंक से निकालो। हमने कहा बैंक में हमारे पास नहीं हैं। बोला फिर बैंक से फ़ायदा क्या जिसमें पैसे न हों। :)
ReplyDeleteअंश को उसके पिताजी ने सही बताया कि पढ़-लिख कर भी घास छीलते हैं। हम यही तो कर रहे हैं।
ReplyDeleteट्यूशन वाली टीचर ने बच्चे को लिविंग बीइंग और नॉन लिविंग बीइंग के बारे में जमकर पढ़ाया। फिर पूछा - पंकज बेटे, अब लिविंग बीइंग का उदाहरण बताओ। पंकज बोला - बिल्ली। टीचर बोली - शाबास, अब नॉन लिविंग बीइंग का उदाहरण दो। पंकज बोला - मरी हुई बिल्ली।
ReplyDeleteवाकई बच्चों के जवाब मजेदार होते हैं। रेल गयी है तेल लेने। क्या बात है!!
अजी घास ढंग की जगह हो, घास की जमीन ढंग की जगह हो, तो मौजां ते बहारां ही है। दिल्ली में ग्रेटर नोएडा में दनकौर के पास, जहां अब दूसरा एयरपोर्ट प्रस्तावित है, मैं निकल रहा था। वहां मैंने देखा कि स्कोर्पियो, इन्नोवा और क्वालिस जैसी कारों में घास ढोयी जा रही थी। मैंने वहां के एक निवासी से यह माजरा पूछा, तो बताया कि धंधा तो घास छीलने का ही है, पर क्या कुछ जमीन अब एक्विजिशन में आ गयी है, सो हर बंदे को यहां पांच से लेकर पचास करोड़ तक मिल गये हैं। सो इन्नोवा से कम तो बात नहीं है,पर काम तो वही करना है, कैसे छोड़ देंगे।
ReplyDeleteहम तो ऐसे घसियारे बनने के चक्कर में है।
बाल मन का कोई मुकाबला क्या कर सकता है...भानी से पिटपिटा कर मैं रोज मस्त होता रहता है...मेरी तो भाषा ही नहीं जीवन शैली तक को भानी ने बदल दिया है....गाने तक गलत यानी भानी की तरह से गा रहा हूँ....
ReplyDeleteआपका सवाल जायज है कि हमारे अंदर का अंश कितना बचा है....
बालक के बहाने आपका चितन अच्छा लगा. ब्लॉग के जरिये हम भी अपने अंदर के अंश को ही टटोल रहे हैं.
ReplyDeleteज्ञानदत्तजी,
ReplyDeleteअंश में हमें एक शोधार्थी बनने के पूरे गुण नजर आते हैं, लगता है बडा होकर पी.एच.डी. करेगा क्योंकि असली राज तो उसे पहले से पता है कि शोध करने और घास छीलने में काफ़ी समानतायें हैं :-)
वैसे इत्तेफ़ाक की बात है कल अपनी छोटी बहन का कम्प्यूटर सही करवाने गया था और जब दुकानदार के उल्टी-सीधी पढाने पर मैने उसे टोका तो उसने पूछा आप करते क्या हैं । इस पर मेरा जबाव था कि घास छीलता हूँ और आज ही घास छीलने के ऊपर एक पोस्ट दिख गयी, कैसा संयोग है ?
बहुत बढ़िया!!!
ReplyDeleteलाख टके का सवाल है जी ये तो!!
जिस प्रकार मिट्टी पर पहली फूहार गिरने पर महकती है वैसी ही महल जिवन के पहले चरण में होती है.
ReplyDeleteबहुत खुब जवाब दिये है, बालक ने. तेल लेने जाय समझदार दुनिया.
अंश सचमुच होनहार बच्चा है.अंश एक सहज 'घास छीलक' बनेगा....:-)
ReplyDeleteअंश के तर्क सुनकर मजा आ गया ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
"बाल मन। कितना सहज पर फिर भी किसी परिपक्व के मन से किसी भी तरह कमतर नहीं। "
ReplyDeleteबेहतर ही नहीं बहुत अधिक बेहतर !
हमारे अपने अन्दर का अंश दिल और दिमाग के किसी कोने में कैद है. ऐसे ही किसी अंश से मिलें तो वह भी बाहर आने को मचलता है.
पूत के पाँव पालने मे ही दिख जाते है। अंश को सही दिशा मिलनी चाहिये। वैसे आपके आस-पास गुण्डी और अंश जैसे होनहार है कन्ही आपके संस्कार तो उन्हे ऐसा नही बना रहे है। जो भी हो, जो हो रहा है वह अच्छा है।
ReplyDeleteसामान्य सी दिखने वाली घटनाओं में गहन बात ढूढ्ना तो कोई आप से सीखे। मुझे पूरा यकीं है कि ऑफ़िस में भी आप से कोई डिटेल छूट्ती न होगी, आप के हाथ के नीचे काम करने वाले जरुर सतर्क रहते होगें। लेख बड़िया है।
ReplyDeleteज्ञान भाई
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है आपने. सच है अंश का एक अंश ही अगर हमारे भीतर बच जाए जो जीवन कभी नीरस न हो. मैंने ये बात मिष्टी (मेरी पोती) के हमारे घर आने पे महसूस की. जीवन मैं उसके कारण मिठास आ गई है ,इसलिए उसका नाम हमने मिष्टी रखा. मेरे साथ उसका ताल मेल इसलिए अच्छा है की उसको लगता है ये दिखने मैं बुड्डा सा इंसान हरकतों मैं उसके जैसा ही है. सच तो ये है की में उसके साथ अपना बचपन फ़िर से जी रहा हूँ.
नीरज
पापा मैं तो घास छीलूंगा.....शीर्षक।
ReplyDeleteइधर एक मेरे साहबजादे हैं जो कहते हैं कि मैं तो बड़ा होकर बिल्डिंग में पानी छोड़ने वाला बनूंगा :)
क्योंकि हमारी बिल्डिंग में जो बंदा टेरेस से पानी छोड़ता है वह कम पानी के चलते एक तरह से राशनिंग करता है और सबको समयानुसार बांट कर पानी छोड़ता है....ऐसे में मेरे साहबजादे आर्यन को पानी छोड़ने वाला बनना है :)
अभी जीवन की और उम्र लांघते न जाने किस किस की कमी और राशनिंग देखेंगे ये कि कभी फलां बनना चाहेंगे तो कभी अलां....लेकिन यह सच है कि बच्चों का मन बहुत सरल होता है और वह परिस्थितियों को अपने हिसाब से समझ और तदनुसार बातें कहने-करने लगते हैं ।
अच्छी पोस्ट।