Friday, October 26, 2007

फीड एग्रेगेटर - पेप्सी या कोक?


प्रसिद्ध मजाक चलता है - कोकाकोला के कर्मचारी को नौकरी से निकाल दिया गया। उसके रक्त सैम्पल में पेप्सी की ट्रेसर क्वांटिटी पायी गयी। गजब की प्रतिद्वन्दिता है दोनो में। गला काट। वही शायद देर सबेर हिन्दी ब्लॉगों के बढ़ते फीड एग्रेगेटरों में होगी।

मैने तीन महीने पहले एक पॉवरप्वॉइण्ट प्रेजेण्टेशन फाइल ठेली थी अपनी पोस्ट 'कछुआ और खरगोश की कथा - नये प्रसंग' के माध्यम से। उस पीपीस फाइल में यह था कि सन 1980 में रोबर्टो गोइजुयेटा ने कोका कोला की कमान सम्भाली थी तब पेप्सी की ओर से जबरदस्त प्रतिद्वन्दिता थी। cokeरोबर्टो ने कोक को पेप्सी की प्रतिद्वन्दिता की मानसिकता से निकाल कर किसी भी पेय - पानी सहित की प्रतिद्वन्दिता में डाला और नतीजे आश्चर्यजनक थे। आप यह पावरप्वॉइण्ट फाइल कोकाकोला के चित्र पर क्लिक कर डाउनलोड कर सकते हैं।»»

कुछ वैसी ही बात हिन्दी ब्लॉगरी के फीड एग्रीगेटरों में दिख रही है। एक के शीर्ष लोगों की फीड दूसरा नहीं दिखा रहा। चक्कर यह है कि फीड एग्रेगेटर को सर्व-धर्म-समभाव छाप समझने की सोच से लिया जा रहा है। उसे बिजनेस प्रतिस्पर्धा - गूगल बनाम याहू या रिलायंस बनाम टाटा जैसा नहीं लिया जा रहा। पता नहीं अंतत: कैसा चले। सब राम धुन गायें या अपनी अपनी तुरही अलग-अलग बजायें। पर ज्यादा परेशान नहीं होना चाहिये।

मेरे ख्याल से प्रतिस्पर्धा - और गलाकाट प्रतिस्पर्धा हो कर रहेगी। लोग अपनी स्ट्रेटेजी बन्द कमरे में बनायें। वह ज्यादा इफेक्टिव रहेगी। और प्रतिद्वन्दी कौन है - वह अवश्य तय करें।

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आप विचारें: फील्ड ब्लॉगवाणी बनाम नारद बनाम चिठ्ठाजगत की सेवा लेते वही 1000 ब्लॉगर नहीं है। फील्ड हिन्दी जानने वाले (केवल हिन्दी के विद्वान नहीं) वे सभी लोग हैं जो अपने को अभिव्यक्त करने की तलब रखते हैं। फील्ड में शायद वे भी हैं जो हिन्दी समझ लेते हैं पर देवनागरी पढ़ नहीं सकते। यह संख्या बहुउउउउउउत बड़ी है। रोबर्टो गोइजुयेटा की तरह पैराडाइम (paradigm - नजरिया) बदलने की जरूरत है।


बी.बी.सी. हिन्दी पर मैथिली गुप्त का एग्रेगेटर के खर्च पर कथन:
इतने खर्चे के पीछे कोई व्यवसायिक उद्देश्य? यह पूछे जाने पर सरकारी नौकरी में भाषायी सॉफ्टवेयर निर्माण के काम से रिटायर मैथिली गुप्त कहते हैं, "ज़िंदगी भर बहुत कमाया है, ब्लॉगवाणी तो अब बुढ़ापे में खुद को व्यस्त रखने का एक साधन भर है. पर भविष्य में एग्रीगेटरों के व्यावसायिक महत्व से इनकार भी नहीं किया जा सकता."


और एग्रेगेटरी के खेल में भी बिलो-द-बेल्ट (below the belt) हिट करने की या हिट खाने की गुंजाइश ले कर चलनी चाहिये। उसे मैं बिजनेस एथिक्स के बहुत खिलाफ नहीं मानता। और जो समझते हैं कि एग्रेगेटरी समाज सेवा है - सीरियस बिजनेस नहीं, उन्हें शायद माइण्ड सेट बदल लेना चाहिये। जब प्रोब्लॉगर का ब्लॉग मात्र ब्लॉग होते हुये $54,000 के ईनाम बांट सकता है तो ब्लॉग एग्रेगेटरी को भविष्य के लिये सीरियस बिजनेस1 मानना ही चाहिये। न मानें तो आप अपने रिस्क पर न मानें! आज की तारीख में एक समाज सेवी एनजीओ चलाना भी सीरियस बिजनेस है। जब यह माइण्ड सेट बदलेगा तो सेवा में वैल्यू-एडीशन चमत्कारिक तरीके से होगा।

चलिये साहब - आज की पोस्ट प्रति-आस्था (Anti-Astha Channel) चैनल छाप ही सही! एक दिन हिट कम भी मिलें तो चलेगा! बस, यही मनाता हूं कि जिन्हे पढ़ना चाहिये, वे पढ़ लें!


1. कोई साइट अगर कुछ हजार से ज्यादा विजिट रोज पा रही है तो मेरे अन्दाज से मात्र विजिट की संख्या के कारण वह बिजनेस में है!

18 comments:

  1. हमको पढ़ना था कि नहीं पता नहीं पर पढ़ लिया जी.

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  2. मुझे लगा कि यह अति आवश्यक है सो पढ़ लिया और आत्मसात भी किया. क्या बतायें..आप सोचते हैं और बाकि खिलवाड़ मे ही सही मगर..सोचते हैं...बात एक ही है...हिन्दी का विकास हो..यही कामना है. :) आप भी तो यही चाहते हैं.

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  3. किसी भी क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा अच्छी होती हैं, अच्छे नतीजे लेकर आती है। सोचिए पहले नारद से कैसे दिक्कत होती है, अब चिट्ठाजगत और ब्लॉगवाणी की सेवाएं बड़ी परिष्कृत और फास्ट हो गई हैं। प्रतिस्पर्धा में कुछ लोग डूबते भी हैं, जैसे नारद डूबता जा रहा है। मुश्किल है कि कोई उसे बचाने के लिए आगे नहीं आ रहा। बड़ा निर्मम नियम है जमाने का।

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  4. बाजार में सरवाइवल फार दि फिटेस्ट चलता है जी।
    बाजार किसी का सगा नहीं, बड़े-बड़े खलीफा ढेर हो लेते हैं।
    फराज ख्वाब नजर आती है दुनिया हमको
    जो लोग जाने जहां थे,हुए फसाना वो

    यह शेर यूं तो बाजार पर नहीं है, पर यूं यह बाजार पर ही है।
    और ग्राहकों के ईमान के बारे में तो आपके ही शहर के अकबर इलाहाबादी यूं कह गये हैं
    ईमान की तुम मेरे क्या पूछती हो मुन्नी
    शिया के साथ शिया, सुन्नी के साथ सुन्नी

    अरे ये तो सुबह सुबह मुशायरा सा हो लिया।
    मुशायरा हो या कि शायरा, सबको बाजार में या तो हिटना है, या पिटना है। रोइये जार जार क्या , कीजिये हाय हाय क्यूं।

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  5. समय के अनुकूल होगा वह टिकेगा.

    आशा है आपका सन्देश ग्रहण किया जायेगा.

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  6. "और एग्रेगेटरी के खेल में भी बिलो-द-बेल्ट (below the belt) हिट करने की या हिट खाने की गुंजाइश ले कर चलनी चाहिये। उसे मैं बिजनेस एथिक्स के बहुत खिलाफ नहीं मानता। और जो समझते हैं कि एग्रेगेटरी समाज सेवा है - सीरियस बिजनेस नहीं, उन्हें शायद माइण्ड सेट बदल लेना चाहिये। जब प्रोब्लॉगर का ब्लॉग मात्र ब्लॉग होते हुये $54,000 के ईनाम बांट सकता है तो ब्लॉग एग्रेगेटरी को भविष्य के लिये सीरियस बिजनेस1 मानना ही चाहिये। न मानें तो आप अपने रिस्क पर न मानें! आज की तारीख में एक समाज सेवी एनजीओ चलाना भी सीरियस बिजनेस है। जब यह माइण्ड सेट बदलेगा तो सेवा में वैल्यू-एडीशन चमत्कारिक तरीके से होगा।"

    कुछ इसी तरह की बात मैंने कोई दो साल पहले कही थी जब नारद के लिए चंदा जुटाया जा रहा था. तब मेरे इस विचार का मजाक उड़ाया गथा :)

    व्यावसायिक प्रतिबद्धता के बगैर सफलता मुश्किल है. और, व्यावसायिकता का अर्थ सिर्फ आर्थिकता भी नहीं है.

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  7. पढ़ लिया जी!!

    ब्लॉग जगत के साथ साथ "एग्रीगेटर जगत" में भी पीछे बहुत कुछ चल रेला है, धीरे धीरे बहुत कुछ सामने आएगा ऐसी आशा की जा सकती है!

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  8. pratispardha to hai, age aur badegi. Aur shayad sabke liye faydemand hi hogi.

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  9. ये पोस्ट एन्टी आस्था न् है जी। हम् पढ़ लिया। अपने लिये मतलब भी ग्रहण् कर लिया। माइन्ड-सेट बदल रहा है।

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  10. लुकाछिपी कुछ दिन (महीने) और चलेगी लेकिन जैसे ही हिन्दी चिट्ठों कि संख्या 10,000 पर क्र जायगी तब वे ही एग्रीगेटर टिकेंगे जो "ग्राहक" को हर तरह की सुविधा देता है -- शास्त्री

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है

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  11. मैंने भी पढ़ लिया है और फुरसतिया जी से सहमत हूँ.....और कोई चारा नहीं है मेरे पास....

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  12. अच्छा चिन्तन किया आज, हम भी सोच में डूब गए।

    नारद से आज भी प्यार है लेकिन चिट्ठाजगत और ब्लॉगवाणी भी अपने ही लगते हैं।

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  13. मैं आपसे सहमत होते हुए भी असमंजस में हूं , किंतु 'अश्वथामा हतो वा, नरो वा...' वाले भाव से नहीं !
    आलोक जी की चुटकी भी ज़ायज़ लगती है तो रघुराज भी वाज़िब बोले हैं . फुरसतिया गुरु को अलग ही रखूंगा, उनका तो ढिंढोरा ही है,"हमार कोई का करिहे"
    हमको किसी किसिम की कुंठा न पाल कर ईमानदारी से अपने आप से पूछना चाहिये 'आख़िर हम यहां क्यों हैं और क्या कर रहे हैं ?' यदि हम ' छ्पास या भड़ास ' की खाज़ से पीड़ित नहीं हैं,तो ज़ाहिर है, महज़ अपने को अभिव्यक्त करने के लिये ही तो !
    हिंदी में ही क्यों लिखते हैं, हममें से अधिकांश अंग्रेज़ी में भी लिख सकते हैं, तो फिर एक सीमित पाठकवर्ग का ज़ोख़िम क्यों लिया जाय . तो हमारा यहां होना स्वतः सिद्ध करता है कि मन में कहीं अपनी ' मादरी ज़ुबान 'को ऊपर उठाने का ज़ज़्बा ज़रूर रखते हैं.
    तो हमारी प्रतिर्स्पधा इसको बेहतर तरीके से संवारने में होनी चाहिये . भाषा की पहचान पुख़्ता हो जाये तभी हम भी पहचाने जायेंगे . तमिल और कन्नड़ भाषा के ब्लाग जीताजागता उदाहरण हैं.
    कनाडा एवं कुवैत सरीखे देशों में बैठा व्यक्ति अपनी माटी से भाषा के माध्यम से जुड़ा रहना चाहता है ,यही एक सरल ज़रिया है उसके लिये . बहुत ही शुभ संकेत है यह तो . संदर्भ केवल समीर लाल या जीतू चौधरी का नहीं है यहां. बहुतेरे हैं, कतार में .
    आलोक सर यह शिया सुन्नी की नज़ीर बहुत सटीक , किंतु हम इनको यहां पनपने ही क्यों दें ? शास्त्री जी जरा स्पष्ट करेंगे कि किन ग्राहकों को संदर्भित किया जा रहा है ?
    रतलामी साहब तो परिपक्व हैं फिर भी प्रतिबद्धता के सवाल को कुछ कनफ़्युज़िया देने वाले तरीके से परिभाषित करते दिखते हैं.
    हिंदी ब्लागरी अभी शैशवावस्था में ही है, अपने शुरूआती दौर में हिंदी लेखन और पत्रकारिता दोनों ही घरफूंक दौर से गुज़री है . अभी वह वक़्त ब्लागिंग में तो नहीं ही दिख रहा है ,सिवाय नेट सेवाप्रदाता के शुल्क का निर्वाह करने के .
    जिन्होंने अपने दरवाज़े बंद कर रखे हैं , उनकी तरफ़ देखा ही क्यों जाय पांडेय जी !
    ' लंका में सोना तो अपने बाप का क्या ? ' स्वांतःसुखाय यदि कुछ लिखा जा रहा है तो हम अपनी हिंदी को भी तो आगे ला रहे हैं, यही कम है, क्या ?
    इंटरनेट ( अंतरजाल कहने का मोह नहीं है,मुझमें ! ) के ज़रिये विचारों का आदान-प्रदान करके हम कोई आचार संहिता न सही एक आम सहमति तो बना ही सकते हैं . वरना गुटबाजी व अहम ब्रह्मास्मि ने जो क्षति हिंदी के लिखित साहित्य को पहुंचायी है
    उसके लिये हम सब अपने को अभी से तैयार करलें . मेरा विश्वास है, ऎसा नहीं होने दिया जायेगा ! इति शुभम !

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  14. जो भी आप कह गये, बिल्कुल सही फरमा गये. पाठक समझे तो ठीक न समझे तो ठीक.
    भैया सबकी अपनी अपनी दुनिया है. कोई फोकट में बिना स्वारथ के तो कुछ करता नही.

    हरेक के काम का कुछ न कुछ लक्ष्य तो होगा ही,फिर चाहे वो नारद हो, ब्लोग्वाणी हो या चिट्ठा जगत. और इसमे बुराई क्या है ?
    कोई पैसा कमाना चाहता है ,तो कोई नाम कमाना चाहता है. हर काम के पीछे कुछ न कुछ चाहत तो है ही. साधू महाराज भी प्रवचन किसी चाहत से ही देते हैं ,वो चाहत अपना लोक सुधारने की हो या परलोक सुधारने की.
    जय व्यावसायिकता, जय स्वार्थ.

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  15. जो भी आप कह गये, बिल्कुल सही फरमा गये. पाठक समझे तो ठीक न समझे तो ठीक.
    भैया सबकी अपनी अपनी दुनिया है. कोई फोकट में बिना स्वारथ के तो कुछ करता नही.

    हरेक के काम का कुछ न कुछ लक्ष्य तो होगा ही,फिर चाहे वो नारद हो, ब्लोग्वाणी हो या चिट्ठा जगत. और इसमे बुराई क्या है ?
    कोई पैसा कमाना चाहता है ,तो कोई नाम कमाना चाहता है. हर काम के पीछे कुछ न कुछ चाहत तो है ही. साधू महाराज भी प्रवचन किसी चाहत से ही देते हैं ,वो चाहत अपना लोक सुधारने की हो या परलोक सुधारने की.
    जय व्यावसायिकता, जय स्वार्थ.

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  16. मैं आपसे सहमत होते हुए भी असमंजस में हूं , किंतु 'अश्वथामा हतो वा, नरो वा...' वाले भाव से नहीं !
    आलोक जी की चुटकी भी ज़ायज़ लगती है तो रघुराज भी वाज़िब बोले हैं . फुरसतिया गुरु को अलग ही रखूंगा, उनका तो ढिंढोरा ही है,"हमार कोई का करिहे"
    हमको किसी किसिम की कुंठा न पाल कर ईमानदारी से अपने आप से पूछना चाहिये 'आख़िर हम यहां क्यों हैं और क्या कर रहे हैं ?' यदि हम ' छ्पास या भड़ास ' की खाज़ से पीड़ित नहीं हैं,तो ज़ाहिर है, महज़ अपने को अभिव्यक्त करने के लिये ही तो !
    हिंदी में ही क्यों लिखते हैं, हममें से अधिकांश अंग्रेज़ी में भी लिख सकते हैं, तो फिर एक सीमित पाठकवर्ग का ज़ोख़िम क्यों लिया जाय . तो हमारा यहां होना स्वतः सिद्ध करता है कि मन में कहीं अपनी ' मादरी ज़ुबान 'को ऊपर उठाने का ज़ज़्बा ज़रूर रखते हैं.
    तो हमारी प्रतिर्स्पधा इसको बेहतर तरीके से संवारने में होनी चाहिये . भाषा की पहचान पुख़्ता हो जाये तभी हम भी पहचाने जायेंगे . तमिल और कन्नड़ भाषा के ब्लाग जीताजागता उदाहरण हैं.
    कनाडा एवं कुवैत सरीखे देशों में बैठा व्यक्ति अपनी माटी से भाषा के माध्यम से जुड़ा रहना चाहता है ,यही एक सरल ज़रिया है उसके लिये . बहुत ही शुभ संकेत है यह तो . संदर्भ केवल समीर लाल या जीतू चौधरी का नहीं है यहां. बहुतेरे हैं, कतार में .
    आलोक सर यह शिया सुन्नी की नज़ीर बहुत सटीक , किंतु हम इनको यहां पनपने ही क्यों दें ? शास्त्री जी जरा स्पष्ट करेंगे कि किन ग्राहकों को संदर्भित किया जा रहा है ?
    रतलामी साहब तो परिपक्व हैं फिर भी प्रतिबद्धता के सवाल को कुछ कनफ़्युज़िया देने वाले तरीके से परिभाषित करते दिखते हैं.
    हिंदी ब्लागरी अभी शैशवावस्था में ही है, अपने शुरूआती दौर में हिंदी लेखन और पत्रकारिता दोनों ही घरफूंक दौर से गुज़री है . अभी वह वक़्त ब्लागिंग में तो नहीं ही दिख रहा है ,सिवाय नेट सेवाप्रदाता के शुल्क का निर्वाह करने के .
    जिन्होंने अपने दरवाज़े बंद कर रखे हैं , उनकी तरफ़ देखा ही क्यों जाय पांडेय जी !
    ' लंका में सोना तो अपने बाप का क्या ? ' स्वांतःसुखाय यदि कुछ लिखा जा रहा है तो हम अपनी हिंदी को भी तो आगे ला रहे हैं, यही कम है, क्या ?
    इंटरनेट ( अंतरजाल कहने का मोह नहीं है,मुझमें ! ) के ज़रिये विचारों का आदान-प्रदान करके हम कोई आचार संहिता न सही एक आम सहमति तो बना ही सकते हैं . वरना गुटबाजी व अहम ब्रह्मास्मि ने जो क्षति हिंदी के लिखित साहित्य को पहुंचायी है
    उसके लिये हम सब अपने को अभी से तैयार करलें . मेरा विश्वास है, ऎसा नहीं होने दिया जायेगा ! इति शुभम !

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  17. "और एग्रेगेटरी के खेल में भी बिलो-द-बेल्ट (below the belt) हिट करने की या हिट खाने की गुंजाइश ले कर चलनी चाहिये। उसे मैं बिजनेस एथिक्स के बहुत खिलाफ नहीं मानता। और जो समझते हैं कि एग्रेगेटरी समाज सेवा है - सीरियस बिजनेस नहीं, उन्हें शायद माइण्ड सेट बदल लेना चाहिये। जब प्रोब्लॉगर का ब्लॉग मात्र ब्लॉग होते हुये $54,000 के ईनाम बांट सकता है तो ब्लॉग एग्रेगेटरी को भविष्य के लिये सीरियस बिजनेस1 मानना ही चाहिये। न मानें तो आप अपने रिस्क पर न मानें! आज की तारीख में एक समाज सेवी एनजीओ चलाना भी सीरियस बिजनेस है। जब यह माइण्ड सेट बदलेगा तो सेवा में वैल्यू-एडीशन चमत्कारिक तरीके से होगा।"

    कुछ इसी तरह की बात मैंने कोई दो साल पहले कही थी जब नारद के लिए चंदा जुटाया जा रहा था. तब मेरे इस विचार का मजाक उड़ाया गथा :)

    व्यावसायिक प्रतिबद्धता के बगैर सफलता मुश्किल है. और, व्यावसायिकता का अर्थ सिर्फ आर्थिकता भी नहीं है.

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  18. किसी भी क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा अच्छी होती हैं, अच्छे नतीजे लेकर आती है। सोचिए पहले नारद से कैसे दिक्कत होती है, अब चिट्ठाजगत और ब्लॉगवाणी की सेवाएं बड़ी परिष्कृत और फास्ट हो गई हैं। प्रतिस्पर्धा में कुछ लोग डूबते भी हैं, जैसे नारद डूबता जा रहा है। मुश्किल है कि कोई उसे बचाने के लिए आगे नहीं आ रहा। बड़ा निर्मम नियम है जमाने का।

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय