मित्रों; वह समय आ गया जिसका ६ महीने से इन्तजार था. गरमी की घमौरियां और फिर वर्षा ऋतु की चिपचिपाहट गयी. अब मौसम आ गया है सवेरे की सैर, विभिन्न प्रकार की सब्जियां-फल-पकवान सेवन का. लोई-कम्बल-रजाई में उत्तरोत्तर प्रोमोट होने का. मस्त पाचन क्षमता का प्रयोग करते हुये भी शारीरिक वजन कम करने के लक्ष्य को सार्थकता से चेज करने का. झिन्चक!
हम तो ये छ महीना जीते हैं और बाकी छ महीना इन छ महीनों का इन्तजार करते है. इन महीनों में भी कभी-कभी अस्थमा-सर्दी-जुकाम-बुखार दबेरते हैं. पर कुल मिला कर आनन्ददायक रहता है यह समय. पश्चिमी देशों की प्रोडक्टिविटी का राज ही शायद यह सर्द मौसम होता है.
राजा रामचंद्र ने भी ऑपरेशन लंका इसी मौसम में प्रारम्भ किया था. वानर भालू भी वर्षा में परेशान रहे होंगे. भोजन जुटाना ही टफ रहा होगा. मौसम बदलने पर जोश भी आया होगा और लॉजिस्टिक्स की समस्यायें भी कम हुई होंगी. जब भगवान भी बड़े एक्स्पीडीशन के लिये शिशिर-शरद का इन्तजार करते हैं तो हम जैसे मर्त्य मानवों के लिये तो वह बहुत उपयुक्त हो जाता है. स्वामी शिवानंद अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि सर्दियों का प्रयोग हमें स्वास्थ्य सुधारने और आत्मिक उन्नति के लिये करना चाहिये.
कल मैने महीनों बाद घर की छत पर चढ़ कर घर से सटी टण्डन बगिया (रमबगिया) का अवलोकन किया. मेरे घर की दीवार और गंगाजी के बीच यह हरी पट्टी है. यहीं पर महल(अशोक कुमार, मीना कुमारी) फिल्म की पचास के दशक में शूटिंग हुई थी. आजकल उसका रख रखाव बढ़िया नहीं है. पर पेड़ हरे पत्तों से लहलहा रहे है. मेरे घर के छोटे से बगीचे में भी गुलमेंहदी पूरे यौवन में फूली है. सभी पौधे मगन हैं. आने वाले नवरात्र पर्व की प्रतीक्षा में सज गये हैं. दफ्तर जाते हुये कहीं-कहीं कास फूली दीखती है. सफेद झक्क. वर्षा ऋतु के अवसान को घोषित करती हुई.
फूले कास सकल महि छाई, जनु वर्षा कृत प्रगट बुढ़ाई।
बानर सेना ने तो वर्षा के अवसान पर लंका विजय का अभियान सिद्ध कर लिया था. पता नहीं ब्लॉगर सेना क्या कर सकती है इस मौसम में. बानर हों या ब्लॉगर - असली अन्तर तो शायद राम के माध्यम से आता है. उनका तो अस्तित्व ही आजकल रीडिफाइन हो रहा है. अत: लगता नहीं कि इस साल कोई बहुत जबरदस्त काम होगा. पर जो भी हो, सामुहिक न सही, वैयक्तिक स्तर पर ब्लॉगर लोग उत्कृष्टता के दर्शन करा ही रहे हैं. शरद ऋतु में शायद वे और ऊंचाइयां छुयें.
ब्लॉगरी की उत्कृष्टता कालजयी बना सकती हो; यह मुगालता तो मन में नहीं है हमारे; पर अगले ६ महीनों मे उसे सर्वाधिक तो नहीं, प्राथमिकता अवश्य दी है. प्रयोग धर्मिता जीवित रहेगी - यह आशा है.
चलिये तो कुछ नया करते हैं हम भी.
ReplyDelete१५ दिनों में हम भी लगभग दो साल के बाद घर पहुंच रहे हैं. जम कर जलेबियां, समोसे, और घर के बने भोजन का आनंद लिया जायेगा | और साथ में अच्छे मौसम का भी लुत्फ़ उठाया जायेगा |
ReplyDeleteमुंबई में तो सारे मौसम लगभग एक जैसे होते हैं। हां, यहां भी बारिश खत्म हो जाने से अब काफी राहत है। रोज छाता लेकर दफ्तर नहीं जाना पड़ताय़
ReplyDeleteहम भी अनिल भाई की बात का समर्थन करते हुए आपसे मुंबई के मौसम के बारे में एक जुमला कहना चाहते हैं--मुंबई का मौसम यानी नौ महीने गर्मी और तीन महीने और ज्यादा गर्मी । अब आप समझ जाईये । आप गंगा किनारे से छत से बगिया देख देख के हमारा जी जला रहे हैं । हमारी छतों से क्या दिखता है । इमारतें इमारतें और इमारतें । सातवीं मंजिल पर टंगे हैं । जलेबियां इस शहर में बकवास मिलती हैं । रही बात हाज़मे को दुरूस्त करने की तो उसके लिए इलाहाबाद आना होगा ।
ReplyDeleteबरखा बिगत शरद रितु आई, लछमन देखहु परम सुहाई ।
ज्ञान दत्त जी ने बगिया चढ़ाई और हमारी जान जलाई ।
बरखा गयी या शरद रितु आई
हमको क्या फर्क पड़ता है भाई ।
'राजा रामचंद्र ने भी ऑपरेशन लंका इसी मौसम में प्रारम्भ किया था....'
ReplyDeleteएक दम सही बात है....'राधेसामी' रामायण की ये पंक्तियाँ जो हम रामलीला में सुनते थे, इसी बात को साबित करती हैं.....
हे भाई वर्षा बीत गई,अब शुद्ध शरद ऋतु आई है
मैं बड़ा अभागा हूँ लच्छ्मन,सीता की सुधि नहीं पाई है
सुग्रीव से आशा थी मुझको,वह धन पाकर मगरूर हुआ
माया की तरल तरंगों में, इकरार का बेड़ा चूर हुआ
राधेश्याम शर्मा जीं अगर आज लिखते तो राम के मुख से शायद कुछ ऐसा बुलवाते....
हे भाई वर्षा बीत गयी, अब शुद्ध शरद ऋतु आई है
जो सेतु बनाया था हमने, अब उसपर आफत आई है
नल-नील ने की थी जो मेहनत, सारी मेहनत बेकार गई
कल दुनिया शायद ये बोले, इसके पीछे सरकार गई
घणे छायावादी हो लिये जी।
ReplyDeleteवैसे मौसम कुछ ऐसा कातील टाइप का है।
जरा और छायावादी गद्य लिखिये, जैसे छत से जब आप निहार रहे थे तो आसपास कितनी वैराइटी की सुंदरियां कितने तरह की गतिविधियों में संलग्न थीं, जैसे कालिदास ने लिखा है कि केश निहारती सुंदरियां, खुद के सौदर्य पर ही रीझती सुंदरियां। वैसे मैं खुद कई सालों से इस तरह की सुंदरियों को तलाश रहा हूं पर मुझे तो सिर्फ साजन से शिकायतीचंद होती सुंदरियां, दफ्तर के मिले एरियर को सजन से दाबती सुंदरियां, पड़ोस के इक्यासी इंच के टीवी को दिखाकर साजन को अपमानित करती सुंदरियां ही मिली हैं।
ऐसी सुंदरियों का सीजन बारह महीने का है।ये छह महीने क्या कर लेंगे जी।
आलोक पुराणिक के दर्द को कुछ् शब्द् दीजिये। इनकी माने तो रामजी प्रियाहीन् होने पर तो केवल डरते थे प्रिया सहित् होते न् जाने क्या हाल् होता! :)
ReplyDeleteका मालूम हमका…
ReplyDeleteइहाँ दिल्ली में तो जो भी होवत है जरा जादा ही होवत है। चाहे गरमी होवे या फ़िर ई निगोड़ी सरदी। अब कैसन करें इन्तजार और करें तो काहे करें?
रामचरित मानस का यह शायद अकेला प्रसंग है जहाँ राम देख लूँगा टाइप की बात करते दिखते हैं। भाई पहले कोई जीटी रोड तो था नहीं। इसलिए सारे अभियान वरखा रानी के जाने के बाद ही शुरू होते थे। बुद्ध भी अपना हर अभियान इस पानी के मौसम में स्थगित रखते थे।
ReplyDeleteरुचिकर, 1बदलते मौसम का क्या सजीव चित्रण किया है आपने।
ReplyDelete@आलोक पुराणिक,
सुन्दरियों में आपके इण्टरैस्ट को नोट कर लिया गया है तथा भाभी जी को खबर भेजी जा रही है। :)
झिन्चक! बहुत बेहतरीन!!
ReplyDeleteयहाँ तो सर्दियों के आठ महिने बस गर्मी आने का इन्तजार करते हैम कि खुल कर बाहर घूम सकें. वरना तो बर्फ बारी से बचते ही समय निकल जाता है. क्या विडंबना है.
बचपन में कश्मीर की बरफ तस्वीरों में देखते थे. सपना था ऐसी किसी जगह रहा जाये-अब लगता है यह सब तस्वीर में ही बेहतर है. :)
अपने आस-पास घटती-बढती और बदलती वनस्पतियो पर भी कुछ लिख डालिये। बताइये कैसे बूढे बरगद और पीपल विकास की भेंट चढ रहे है। आपका अनुभव हमे अच्छा लगेगा, प्रेरणा देगा।
ReplyDeleteयहां गोवा मे तो मुम्बई वाला ही हाल है।
ReplyDeleteज्ञानद्त्त जी,
ReplyDeleteजितने आपके लेख मजेदार होते हैं उतने ही उन पर मिली टिप्पिण्याँ। आप का घर गंगा किनारे है और पिछ्वाड़े बगिया भी, क्या बात है, अब तो हमें इर्ष्या हो रही है। सच कह रहेए हैं जाड़ों का अपना ही मजा है॥यहाँ बम्बई में तो उन जाड़ों को सिर्फ़ याद भर किया जा सकता है…वो घी में डूबे गोभी के पराठें, मसालेदार भुट्टे, फ़ालसे और न जाने क्या क्या। देखिए सर इस तरह हमें जलाना ठीक नहीं , कभी आप हमें वो सैलून दिखा देते है, जो हम ने पहले कभी देखा ही न था और सोचते थे वो सिर्फ़ 'पेलैस ओन विहील्स" पर ही ऐसा मिलता है, अब आप ने हमारे बचपन की यादें कुरेद दीं , तो अब कुछ मूगफ़लियाँ हमारी तरफ़ भी खिस्काइए जी । :) और ये जाड़ों कि चर्चा चली तो हमारे अच्छे भले पुराणिक जी को क्या हो गया, सर्दियों में नारियों से अनमनापन, आलोक जी युनुस जी को देखिए, जाड़ों की बात आई तो कवि बन गये , वो भी पुराणिक स्टाइल के….…।