Thursday, October 25, 2007

'जय हिन्द, जय भारत, जय लालू'


कल हमारे यहां उत्तर-मध्य रेलवे में क्षेत्रीय रेल उपभोक्ता सलाहकार समिति की बैठक थी। बैठक होटल कान्हा-श्याम में थी। बैठक में 39 सदस्य आने थे। सारे तो नहीं  आये पर आधे से ज्यादा आ गये। दस सांसद आने थे - केवल एक दिखे। बाकी सरकारी उपक्रमों, व्यापार मण्डलों और यात्री संघों के लोग थे। कुछ सदस्य माननीय रेल मंत्री द्वारा विशेष रूप से नामित थे।

मैं एक ऐसे नामित सदस्य महोदय के बारे में लिख रहा हूं। देखने में ठेठ गंवई। कुर्ता-पाजामा पहने। सन जैसे सफेद छोटे-छोटे बाल। एक खुली शिखा। अपने भाषण में उन्होने स्वयम ही अपनी उम्र 77 वर्ष बतायी और उम्र के हिसाबसे हम सब को (महाप्रबन्धक सहित) आशीर्वाद दिया। अपनी बिहारी टोन में पूरी दबंगई से भाषण दिया। लिखित नहीं, एक्स्टेम्पोर-धाराप्रवाह। जहरखुरानी, साफ-सफाई, गाड़ियों का समयपालन - सभी मुद्दों पर बेलाग और मस्त अन्दाज में बोला उन्होने।

सॉफिस्टिकेशन की वर्जना न हो तो आप श्रोता से अपनी ट्यूनिंग का तार बड़ी सरलता से जोड़ सकते हैं। यह मैने अपने मंत्री लालूजी में बहुत सूक्ष्मता से देखा है और यही मैने इन सज्जन में देखा। उन्हें सुन कर लोग हंसे-खिलखिलाये, पर जो वे सज्जन कहना चाहते थे वह बड़ी दक्षता से सम्प्रेषित कर गये। बुद्धिजीवी की बजाय रस्टिक व्यवहार में भी जबरदस्त ताकत है - यह मैने जाना।

अपना भाषण खत्म करते समय वे सज्जन बोले - 'जय हिन्द, जय भारत, जय लालू!' और कुछ नहीं तो उनके भाषण के इस समापन सम्पुट से ही लोग उन्हें याद रखेंगे। 

मीटिंग के बाद दोपहर का भोजन था। अच्छे होटल (कन्हा-श्याम) में अच्छा बफे लंच। लंच में पर्याप्त विविधता थी। लोग हिल-मिल कर बोलते-बतियाते भोजन कर रहे थे। पर मुझे चूंकि खड़े-खड़े भोजन करने में सर्वाइकल स्पॉण्डिलाइटिस का दर्द होता है; मैं अपना भोजन ले कर एक कक्ष में बैठ कर खाने चला गया।

वापस आ कर जो दृष्य देखा, वह मैं भूल नहीं सकता। सतहत्तर वर्ष की उम्र वाले वे माननीय सदस्य अपने एक साथी के साथ जमीन पर पंजे के बल उकड़ूं बैठे भोजन कर रहे थे! शेष सभी लोग साहबी अन्दाज में खड़े भोजन रत थे। मैने आव देखा न ताव - दन्न से कुछ फोटो अपने मोबाइल से ले लिये। आप जरा उनका अवलोकन करें।   

Gyan(124)A

जोनल रेलवे उपभोक्ता सलाहकार समिति के सदस्य हम लोगों के सामने बैठे हुये। हमारे 77 वर्षीय सदस्य गेरुआ चौखट में दिख रहे हैं।

Gyan(134)A

भोजन कक्ष में हमारे 77 वर्षीय सदस्य और उनके साथी बैठ कर जमीन पर भोजन करते हुये। अन्य लोग खड़े हो भोजन कर रहे हैं। आप देख रहे हैं तीन सितारा संस्कृति को दिखाया जा रहा ठेंगा। हम तो चाह कर भी ऐसा ठेंगा न दिखा पायें!

Gyan(137)

हमारे प्रिय सदस्य का भोजन करते क्लोज-अप (जैसा मेरे मोबाइल कैमरे से आ सकता था)।

मित्रों, माननीय लालू प्रसाद जी एक फिनॉमिनॉ हैं। मैने तो उन्हे बहुत करीब से ऑब्जर्व किया है। वैसा ही एक फिनॉमिनॉ ये सतहत्तर साला सज्जन लगे। बेझिझक-बेलाग! और सॉफिस्टिकेशन की चकाचौंध से तनिक भी असहज नहीं।

आपने ऐसे चरित्र के दर्शन किये हैं?  


मेरे पिताजी का कथन है कि ये लोग मेवेरिक (maverick) हैं। भदेस तरीके से भी भरी सभा का ध्यानाकर्षण करना जानते हैं। वी.के. कृष्ण मेनन भी इस तरह की ध्यानाकर्षण-तकनीक प्रयोग करने में माहिर थे। मुझे कृष्ण मेनन के विषय में जानकरी नहीं है, पर ऊपर वाले यह सज्जन मेवरिक नहीं लगते। वे बस अपने आप में सहज लगते हैं।  

19 comments:

  1. बहुत मस्त अवलोकन. मगर मैं इन्हें मेवेरिक ही मानूँगा वरना इतने सहज व्यक्ति का ऐसे पद तक उठना क्या इतनी सहजता से संभव है...आज के जमाने में. :)

    ReplyDelete
  2. सोलह आना सच्चा बात बोले हैं आप.सारा चीज ई बात पर डिपेण्ड करता है कि मनई अपना बात सामने वाला तक पहुंचा पाता है कि नाही...ई सज्जन का एही गुन का खातिर मंत्री जी एनके भेजे होंगे...आ जहाँ तक भोजन का बात है, बैठ कर खाएं, आ चाहे खड़े होकर, मतलब तो भोजन करने से है.

    दुसरा लोगन का देखकर अपना संस्कृत बदल दें, त ऊ इंसान का...ई सज्जन का सहजता ने हमको भी बहुते परभावित किया है...(हमरा बात को मजाक न समझा जाय...देखिये ई लिखते समय हम असहज हूँ जो सोच रहा हूँ कि हमरा बात को लोग मजाक समझेंगे...मतलब ई कि हम अपना बात लोगन तक पहुचाने में सक्षम नाही हूँ..)

    जय हिंद. जय भारत. जय सज्जन.

    ReplyDelete
  3. यह गंवई नहीं ठेठ सहजता है. इस तरह के लोग हम जैसे सो-कॉल्ड सॉफस्टिकेटेड लोगों को ठैंगा ही दिखाते हैं. मजा आया जानकर.

    ReplyDelete
  4. काकेश की बात से सहमत हूँ.. जीवन के प्रति सहज रहना अपने प्रति सहज बने रहने से शुरु होता है.. ऐसे लोग जो करते हैं उसके पीछे एक सोच होती है.. जिसे वे किसी की देखादेखी या किसी चकाचौंध में आ कर नहीं बदलते.. इसे दूसरे शब्दों में आत्मबल कहा जायेगा..

    ReplyDelete
  5. यह सहजता और आदत की बात है। जैसे बाप ने बोर्डिंग स्कूल में पढ़ाया कि लड़का सभ्य हो जाएगा, अंग्रेजी बोलेगा। लेकिन हम जब भी कुर्सी पर बैठते, हमारे दोनों पांव खुद-ब-खुद ऊपर चले आते। घर पर कोई भी आया, खड़ी बोली छोड़ अवधी में ही बात करते थे। बाप ने कहा, इसको इतना पढ़ाने-लिखाने से क्या फायदा हुआ?

    ReplyDelete
  6. अधिकतर लोग असहज तरीके से सहज होते हैं, ये सज्जन तो सहज तरीके से सहज हैं। ऐसी सहजता या तो विकट चालू पा सकते हैं या लालू पा सकते हैं या लालूवत पा सकते हैं।
    लालू जी बेहतरीन कम्युनिकेटर हैं, ये सज्जन भी। लालू स्कूल आफ कम्युनिकेशन शुरु करना मांगता। उसके डाइरेक्टर आप हों, गेस्ट फेकल्टी में ये सज्जन। हम सब आकर क्लास लेंगे।

    ReplyDelete
  7. बहुत बढिया पोस्ट थी ये.. मैं बिहार का रहने वाला हूं और पिताजी के कारण बिहार की राजनीति और लालू को बहुत करीब से देखने का मौका भी मिला था और आज-कल नीतिश को जान रहा हूं.. कुछ अपने पिताजी के कारण और कुछ उनके पुत्र के कारण जो विद्यालय में मेरे सहपाठी भी रह चुके हैं..
    दोनों ही रेल मंत्री भी रह चुके हैं सो आप भी उन्हें अच्छे से जानते होंगे.. दोनों में ही अपनी खूबियाँ और खामियां हैं, पर लालू की गंवई अंदाज की तो बात ही निराली है..

    ReplyDelete
  8. भाई यह बिना दिखावे का जीवन है जो एक हद के बाद दिखावे का लगने लगता है....लालू की इस पसंद की जय हो । एक सच्चे सहज इंसान का बहुत दिनों बाद दर्शन मिला नाम तो छाप दिए होते दद्दा का।

    ReplyDelete
  9. भारतीय रेल की केन्द्रीय यात्री सेवा समिति के अध्यक्ष परमेश्वरी प्रसाद निराला भी कुछ उसी गँवई अंदाज वाले सहज आदमी हैं। हालांकि वह बिहार में राजद के विधायक भी रह चुके हैं। लेकिन जब भी उनसे मिलता हूं, उनका सीधापन और भोलापन मुझे बहुत भला लगता है। पहले तो मुझे लगा कि शायद वही आये हों आपकी उस बैठक में।

    इस नई समिति और उसके इस अध्यक्ष के बारे में एक बार लिखने का सोचा था। उनसे अगली मुलाकात के बाद मैं इस पर एक पोस्ट लिखूंगा।

    ReplyDelete
  10. ज्ञान जी ये आप की पोस्ट देख मुझे याद आ रहा है( तब मैं चिठ्ठाकारी नही करती थी) पिछ्ले साल हमारे कॉलेज में डिब्बा वालों को बुलाया गया था(जो प्रिंस चार्लस की शादी में आंमत्रित थे)मैनेजमेंट के छात्रों को लॉजिस्टिकस का ज्ञान बाटंने के लिए। वो लोग भी ऐसे ही कुर्ता पाजामा और गांधी टोपी में आये और मराठी में बोले ये बोल कर कि हमें कोई और भाषा आती नहीं। क्या खूब बोले मय पॉवरपोंइट प्रसेंटेशन के साथ, हम देख कर दंग, बिल्कुल लालु जी वाला दंबगपन और रौचकता। एक बात जो इन सब में कॉमन है वो है आत्म विश्वास। अगर आप ने लालु जी को सच में करीब से देखा है तो उनके किस्से सुनाइए न प्रेरणादायी रहेगें। वैसे प्रेरणादायी आप भी कुछ कम नहीं । आप के चिठ्ठे पढ़ कर तो जी हमारी सरकारी अफ़सरों के बारे में धारणा ही बदलती जा रही है।(जा रही है मतलब पूरी तरह से बदली नहीं?…॥कान पकड़ रही हूं जी सब आप जैसे अफ़सर नहीं न जी)

    ReplyDelete
  11. बहुत विनोदपूर्ण अभिव्यक्ति,वैसे आप अपने अनुभवों का वेहतर इस्तेमाल करते हुए रोचक जानकारी प्रदान की है, आपका यह पोस्ट, नि:संदेह प्रसन्श्नीय है.समीर भाई की बात से सोलह आना सहमत हूँ,कि''इतने सहज व्यक्ति का ऐसे पद तक उठना क्या इतनी सहजता से संभव है...आज के जमाने में''

    ReplyDelete
  12. पूरी पोस्ट पढते समय एक ही बात पर ध्यान रहा कि आप अपनी समस्या के कारण खडे होकर खाना खा नही सके। आपको तो मालूम ही है कि मै पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान का दस्तावेजीकरण कर रहा हूँ। आप कभी रायपुर आये तो पास ही एक वैद्य से मिलने चलेंगे। मुझे आशा है कि वे आपको ठीक कर देंगे।

    ReplyDelete
  13. ज्ञान जी!
    इन सज्जन के बारे में जान कर अच्छा लगा. वैसे मैं स्वयं भी आपके आदरणीय पिताजी और समीर जी की बात से सहमत हूँ.
    हम सब को (विशेषकर सभी भारतीयों को) यदि आगे बढ़ना है तो दूसरों की खासियतों की नकल के बजाय अपनी स्वाभाविक विशेषताओं को बढ़ाना ही हमारे लिये बेहतर होगा.

    ReplyDelete
  14. बनावटीपन या मुखौटा लगा कर ये शख्स शयद कभी भी स्मृतिपटल पर नहीं रह सकतें थे। स्वाभाविकता ही इनकी विशेषता है। हमें और हमारी आने वाली पीढियों को भी इसे सबक की तरह से लेना चाहिये।

    ReplyDelete
  15. कल् पढ़ा था इसे।आज् फिर पढ़ा। लेख और टिप्पणियां मजेदार हैं। आलोक् पुराणिक् की बात् पर् अमल् होना मांगना। अनीताकुमार् जी की बात् तब् मानियेगा जब् वो जैसा कर् रही हैं(कान पकड़ रही हूं) उसका फोटो लगायें। :)

    ReplyDelete
  16. मेवेरिक हों या सहज, यदि वे देशवासियों का भला कर रहे हों तो वे एक महान जननायक जरूर हैं -- शास्त्री

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है

    ReplyDelete
  17. भई हम तो इन सज्जन को सरल ही मानेंगे।

    मेरे पिताजी भी इसी प्रकार के हैं, उनका कहना है कि दिखावे से क्या फायदा है। संस्कृत के रिटायर्ड लैक्चरार हैं। जहाँ दूसरे लोगों को इसमें शर्म आती है वे हमेशा स्कूल धोती-कुर्ता पहन कर जाते रहे। लोग विद्वता से प्रभावित हो जाते हैं तो दिखावे की जरुरत ही नहीं रहती।

    ReplyDelete
  18. भई हम तो इन सज्जन को सरल ही मानेंगे।

    मेरे पिताजी भी इसी प्रकार के हैं, उनका कहना है कि दिखावे से क्या फायदा है। संस्कृत के रिटायर्ड लैक्चरार हैं। जहाँ दूसरे लोगों को इसमें शर्म आती है वे हमेशा स्कूल धोती-कुर्ता पहन कर जाते रहे। लोग विद्वता से प्रभावित हो जाते हैं तो दिखावे की जरुरत ही नहीं रहती।

    ReplyDelete
  19. पूरी पोस्ट पढते समय एक ही बात पर ध्यान रहा कि आप अपनी समस्या के कारण खडे होकर खाना खा नही सके। आपको तो मालूम ही है कि मै पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान का दस्तावेजीकरण कर रहा हूँ। आप कभी रायपुर आये तो पास ही एक वैद्य से मिलने चलेंगे। मुझे आशा है कि वे आपको ठीक कर देंगे।

    ReplyDelete

आपको टिप्पणी करने के लिये अग्रिम धन्यवाद|

हिन्दी या अंग्रेजी में टिप्पणियों का स्वागत है|
--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय