Tuesday, July 17, 2007

आलोक पुराणिक और बोरियत

दो शब्द ले लें जिनमे कुछ भी कॉमन न हो और शीर्षक बना दें. कितना ध्यानाकर्षक शीर्षक बनेगा! वही मैने किया है. आलोक और बोरियत में कोई कॉमनालिटी नहीं है. आलोक पुराणिक को मरघट के दृष्य पर लिखने को दे दें – मेरा पूरा विश्वास है कि वे जो भी अगड़म-बगड़म लिखेंगे उससे आप अपनी हंसी या मुस्कान दबा नहीं पायेंगे. दृष्य वही, दृष्टि अलग. यह कमाल कैसे हो जाता है? एक सिचयुयेशन आप में वैराज्ञ/अवसाद पैदा करे और उसी सिचयुयेशन को आलोक इस तरह से मोल्ड कर लें कि वह सबसे हिलेरियस हो जाये!

आप समझ रहे हैं मैं क्या कह रहा हूं. रवि रतलामी से ब्लॉगरी के गुर मांग कर मैं लहट गया हूं. अब मैं महा बोरियत की सिचयुयेशन से हास्य के पावरपैक्ड कैप्स्यूल बनाने का फार्मूला पूछ रहा हूं. वह अगर आलोक मुफ्त में बता गये तो विक्रम चौधरी की तर्ज पर पेटेण्ट कराने का इरादा है!

खैर, मजाक एक तरफ. असल में आस-पास नजर डालता हूं तो बोरियत का साम्राज्य दीखता है. कोई अंतर नहीं कल और आज में. मेरी ट्रेन-रनिंग की रोज की 20 पन्ने की पोजीशन आती है. पहले कण्ट्रोल वाला घर में फैक्स करता है, फिर दफ्तर में हार्ड कॉपी देता है. बोरियत का आलम यह है कि अगर सामान्य सा दिन हो और पोजीशन खो जाये तो किसी भी दिन की पोजीशन निकाल कर पढ़ लें – कमोबेश वैसी ही होगी. यह तो रेलवे की बात है; आप अखबार ले लें – किसी भी दिन का; कोई फर्क पड़ता है! आसपास देख लें – पड़ोस के बुढ़ऊ उसी तरह तख्ते पर बैठे खांसते मिलेंगे, धन्नो की गाय रोज की तरह दूध निकालने पर गली में छुट्टा छोड़ी मिलेगी....

सण्डे या मण्डे – रोज वही सेम डे!

भैया पुराणिक जी आप कैसे इस रोजमर्रा की गदहपचीसी में सटायर खोज लेते हैं. वह भी रोज-रोज, बिला-नागा?

वैसे बोरियत अपने आप में कोई बेकार चीज नहीं है. इकसार जीने वाले शायद ज्यादा सरलता से जी लेते हैं. हीरो होण्डा पर छोरी पीछे बिठाये सर्र-सर्र भागते लड़कों के जीवन में अगर कुछ दिनों/घण्टों की एकरसता आ जाये तो उनका सिर फटने लगता है. उस लड़के और लड़की को बोरियत सहने/झेलने और उसमें रहने की ट्रेनिंग ही नहीं मिलती. आप देख लें – जिन्दगी की मोनोटोनी जो जितनी अच्छी तरह निभा सकता है वह उतना ही क्रियेटिव इंसान होता है. असल में रचनात्मकता बहुत एकाग्रता मांगती है. और एकाग्रता में बहुत बोरियत है.

देखा, मौका लगते ही हर ब्लॉगर अपनी थ्योरी झाड़ने लगता है. मैं भी वही करने लगा! पर असल में पोस्ट का ध्येय तो आलोक पुराणिक महोदय से बोरियत की सेटिंग में भीषण सटायर ढ़ूढ़ने का फार्मूला पूछना था.

हां तो पुराणिक जी, दस्सेंगे या केवल – “सत्य वचन महाराज”* छाप टिप्पणी कर सटक लेंगे!

* - मेरी पिछली पोस्ट पर कतरा कर निकलने वाली उनकी टिप्पणी.

11 comments:

  1. "असल में रचनात्मकता बहुत एकाग्रता मांगती है. और एकाग्रता में बहुत बोरियत है." मेरे ख्याल से जब आदमी काम भर का बोर हो जाता है तो अचानक रचनात्मक हो जाता है।

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  2. दादाभाई आप मान लें और आलोकभाई जान लें कि किसी भी तरह का लेखन हो वह स्फ़ूर्त ही उपजता है स्स्स्स्स्सर्र सा.वैसे ही जैसे बिना शेड्यूल के कोई ट्रेन प्लेटफ़ार्म पर आ जाए.बाजार,इश्तिहार और कारोबार पर साधिकार लिखने वाले आलोक भाई हिन्दी के माक्सिम गोर्की बनने के पथ पर हैं.हमारी ज़िन्दगी में हँसी भरने का पुण्य बटोर रहे हैं (प्रभु!इस टिप्पणी को ज़रा गंभीरता से ही लें)हो सकता आलोक विरोधियों को मेरी बात ज़्यादा भावुकता भरी लगे लेकिन इस सच्चाई को तो वे भी स्वीकारेंगे की आलोक लगातार शब्द-रन बटोर रहे हैं...हुज़ूर नाँट-आउट भी रहें आप.

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  3. हमारे सह ब्लॉगर आलोक जी की लेखनी की जितनी तारीफ करें उतनी कम है.बहुत से लोग व्यंग्य को छोटे दर्जे की चीज समझते हैं लेकिन मेरा मानना है कि एक सधा हुआ व्यंग्य लिखने के लिये अधिक मेहनत और ज्ञान की आवश्यकता होती है.किसी भी सामान्य से लगने वाले विषय़ को अपनी कलम की धार से मारक हथियार में बदल देना वो भी ऎसा की झेलने वाले मन ही मन गुदगुदी का अनुभव भी करें,ये कोई आसान काम नहीं है.आलोक जी को इस बोरियत भरी ब्लॉगरी में 1000 वाट का बल्ब जलाने के लिये साधुवाद.

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  4. सही कहा, परसाई जी की परंपरा को आगे बढ़ाने का जिम्‍मा है आलोक जी पर । हां कल ये जानकर अच्‍छा लगा कि आप रेडियो में बैटरी वैटरी लगाकर चाक चौबंद कर रहे हैं ।

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  5. वाह क्या शीर्षक चुना मारा है ग्यानदत्त जी हम तो भागे चले आए -ये कर डाली न विरुद्धों का सामंजस्य की थ्योरी को प्रूव करने वाली बात ! आपके खयालातों से हम भी वाकफियत रखते हुए आलोक जी से यह पूछना चाहते हैं कि इतना सारा स्पांटेनियस ओवरफ्लो ऑफ पावरफुल फीलिंग्स (मेरा नहीं किसी पाश्चात्य काव्य चिंतक का सिद्धांत है )कैसे इस महानगर की आपाधापी में भई?

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  6. आलोक जी का लेखन तो आलौकिक आनन्दमयी है ही पर आपका भी जवाब नहीं । आपकी ज्ञान की गाड़ी यूहीं दौड़ती रही तो जल्दी ही उन तक पहुंच जाएगी।

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  7. जी मैं तो डर गया जी, मुझे लगा कि मैं तो मर गया जी।
    इत्ती अच्छी बातें तो श्रद्धांजलि में कही जाती हैं।
    पर मैं तो अभी बहुत चलूंगा।
    कायदे से मुझे परम हें हें वाली मुद्रा में कहना चाहिए था –जी बस क्या मैं तो यूं ही लिख रहा हूं।
    पर इस बात को मैं फुल सीरियसता से कह रहा हूं कि जी बस मैं तो यूं ही लिख रहा हूं।
    व्यंग्य तो हर जगह बिखरा पड़ा है। शमशान से लेकर ट्रांसफार्मर तक। भारत भूमि व्यंग्य की खान है। भारत के नेतागण, पूरी ब्यूरोक्रेसी किसके लिए काम करती है-व्यंग्यकारों और कार्टूनिस्टों के लिए। इतने सब लोग जब व्यंग्यकार के लिए काम करें, तो जी लिखने में क्या दिक्कत हो सकती है।
    वैसे, आप सब पढ़ने वालों का प्यार है, परवाज साहब ने कहा है –
    कहां मैं, कहां शायरी का सलीका
    मुझे एहले महफिल भी क्या मान बैठे

    शायरी की जगह व्यंग्य को रख दें।
    बहुत सीखने को बाकी है।
    बस आप सब पढ़ते रहिये, और हौसला अफजाई करते रहिये।
    सादर
    आलोक पुराणिक

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  8. आलोक जी तो तयशुदा परसाई जी की परम्परा को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी पूरी ताकत से निभा रहे हैं. आपकी बोरियत का यह अंदाज भी कम लुभावन नहीं है. :)

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  9. आलोकजी के तो हम भी पंखे हैं...

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  10. जैसे आलोक जी हर एक स्थिति में व्यंग्य खोज ही लेते हैं, वैसे ही आपकी भी पारखी दृष्टि अनेक स्थितियों व दैनिक दिनचर्या में भी चिंतनीय बिन्दु।

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय