"जैसे-जैसे हमने नये शहरों और नये लोगों को सेवा देनी प्रारम्भ की, हमें यह अहसास हो गया कि हम अपने हर स्टोर को एक से नियम या तरीके से नहीं चला सकते. खरीददारी स्थानीय अनुभव और आदत है. नुक्कड़ की दुकान से बड़े शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, सेल्फ सर्विस, आधुनिक आउटलेट में अपने को रूपांतरित करना इस बेसिक आदत में बदलाव मांगता है. यह बदलाव अलग-अलग समुदायों में अलग-अलग प्रकार से होता है. इसलिये हमारे लिये न केवल यह अनिवार्य हो जाता है कि हम हर समुदाय को समझें वरन अपने स्टोर के स्तर पर उस समझ के अनुसार निर्णय लें और फेरबदल करें.
"उदाहरण के लिये हमने गुजरात में अपना स्टोर खोला भी न था कि हमें खुदरा व्यापार के स्थानीय मजाक से वाकिफ होना पड़ा. खुदरा व्यापारी वहां कहते हैं कि गुजराती ग्राहक यह सवाल पूछने का आदी है कि मेरे रुपये की पांचवीं चवन्नी कहां है? यही कारण है कि बहुत से खुदरा व्यापारी गुजरात को भारतीय रिटेल का ‘वाटरलू’ मानते हैं. यह कहा जाता है कि अगर कोई गुजरात में सफल हो गया तो भारत में कहीं भी सफल हो जायेगा.
“अपना स्टोर गुजरात में लॉंच करने पर हमने पाया कि गुजराती माणस न केवल जबरदस्त वैल्यू-कांशस है बल्कि उसकी खरीददारी की आदतें विलक्षण हैं जो भारत के और हिस्सों में नही मिलतीं. जहां अनाज खरीदने की बात हो, गुजराती आदमी/औरत साल भर की खरीद एक साथ करने में यकीन करते हैं. अनाज अट्टाल में संग्रह करने की प्रवृत्ति पूरे गुजरात में है. चूकि गुजराती महिला साल भर का अनाज एक साथ खरीदती है, वह चाहती है कि उसे पर्याप्त छूट मिले, सामान घर तक पंहुचाया जाये और बिक्री उधारी पर हो! जब वह साल भर का अनाज एक साथ खरीदने आती है तो चाहती है कि अनाज बिल्कुल वैसा ही हो या उसी खेत का हो जैसा पिछले साल उसने खरीदा था. यह सब रिटेल व्यापार के लिये काफी चुनौती भरा होता है. हमें सतत सृजनात्मकता का सहारा लेकर इस तरह की मांग को पूरा करना होता है. और जब हमने पाया कि हम इस चुनौती का सामना कर पाने में सफल हो रहे थे, तो हमें अपने सामने असीमित सम्भावनयें और विशाल बाजार नजर आने लगे.
“लेकिन जैसे जैसे हम गुजरात से हट कर अन्य प्रांतों की तरफ जाते हैं, हमें स्पष्ट होता है कि हर जगह हर समुदाय की अपनी अलग मौलिकता है. बंगाल का ग्राहक व्यक्तिगत सम्बन्धों की अंतर्धारा की तलाश करता है और चल रही ब्राण्डों के प्रति बहुत अधिक प्रतिबद्ध है. इस लिये वहां एक नयी ब्राण्ड को खपाना कठिन काम है.
"इसके उलट पंजाब में ग्राहक के पास खर्च करने को बहुत अधिक इनकम है. इसके अलावा पंजाब बहुत थोड़े से प्रांतों मे है जहां बड़े पैमाने पर खर्च करने की वृत्ति के साथ किसी तरह का अपराध बोध लिपटा हुआ नहीं है. पर ग्राहक वहां किसी ब्राण्ड, उत्पाद या स्टोर के साथ घनिष्टता से चिपके नही हैं और बड़े पैमाने पर ब्राण्ड बदलने के प्रयोग करते हैं.
"इसलिये दोनो समुदाय अलग-अलग प्रकार से बेजोड़ सम्भावनायें और चुनौतियां पेश करते हैं."
----------------------------------------
* It Happened In India by Kishore Biyani with Dipayan Baishya
Rupa & Co, Rs. 99.-
यह तो सही है कि हर जगह का खरीददार अलग मन:स्थिति का होता है। उसे पटाना मेहनत का काम होता है।
ReplyDeleteअच्छा शोध किया है और मैं सहमत हूँ.....बहुत सही. अब सोता हूँ.
ReplyDeleteअच्छा साहेब! लेकिन एक बात समझ नही आई आपने तीनो चित्र महिलाओ के ही क्यो लगाये है:)
ReplyDeleteपुरुष कि आदतो के बारे मे बियाणी जी क्या फरमाते है?
समीर उवाच > अच्छा शोध किया है और मैं सहमत हूँ.....बहुत सही. अब सोता हूँ.
ReplyDeleteअब इतना बुरा भी नहीं है कि पढ़ने से नींद आये!
रंजन उवाच > ...आपने तीनो चित्र महिलाओ के ही क्यो लगाये है:)
भैया मेरे घर में किराने की खरीद में केवल मेरी पत्नी की चलती है. मैने सोचा सब जगह वैसा ही होगा! आपके साथ मामला पुरुष प्रधानता का है क्या? :)
किताब के महत्वपूर्ण अंश हम तक पहुंचाने के लिए धन्यवाद। मैं आजकल बोगले की मुचुअल फंड पर लिखी किताब में फंसा हुआ हूं। उससे निकलते ही बियाणीजी को पकड़ूंगा। मेरा सुझाव यह है कि आप अपनी पढ़ी हुई सारी किताबों का सार -संक्षेप ऐसे ही प्रस्तुत करें। ज्ञान -वर्धन होगा।
ReplyDeleteऔर जी खरीदारी तो मल्लिका सहरावत, प्रीति जिंटा भी करती होंगी, उनके फोटू क्यों नहीं।
ये ज्यादती है,पूरे समाज के साथ,आपने केवल ५०% मालिको के बारे मे लिखा है,अब अगली पोस्ट मे थैला उठाने,और पैसा देने वाले की (कभी कभी गलती से) खरीदने और झाड खाने की पॄवत्ती के बारे मे लिखे लेख तबी पूरा और बैंलेंस माना जायेगा
ReplyDeleteजानकारी देने के लिए आभार!!
ReplyDeleteमै आलोक जी की इस मांग से सहमत हूं कि आप अपनी पढ़ी हुई किताबों का सार संक्षेप उपलब्ध कराते रहें इस से हमारा भी "ज्ञान"वर्धन होता रहेगा।
ज्ञान जी ये बहुत अच्छा हुआ, आप इसी तरह पुस्तकें खरीदते रहिये और उनके बारे में विवरण लिखते रहिए । हम ज्ञान बिड़ी पीते रहेंगे । हर फिक्र को धुंए में उड़ाते रहेंगे ।
ReplyDeleteवैसे मुझे ऐसा लगता है कि भारतीय ग्राहक की ख़रीदारी की बातें किशोर बियाणी ने बहुत स्थूल रूप में समझी हैं । राज्य के स्तर पर भी इतना जनरलाईज़ेशन नहीं चलता, नौकरीपेशा और व्यापारी वर्ग में भी काफी फ़र्क आ जाता है । ये कोई बहुत बड़ा अवलोकन लेकर नहीं आए बियाणी जी । ज़बर्दस्ती का बनाया पेंच है ।
इस मुक्त अनुवाद के लिये शुक्रिया. मैं ने किताब खरीदने का मन कर लिया है.
ReplyDelete