Tuesday, July 10, 2007

इधर के और उधर के लोग

इधर के बारे में मुझे दशकों से मालूम है. इधर माने रेलवे - मेरा कार्य क्षेत्र. रेलवे को मिनी भारत कहते हैं. उस मे बड़े मजे से काम चल रहा था/है. यह महज एक संयोग था कि हिन्दी ब्लॉगरी के लोगों का पता चला. अब चार महीने से उधर यानि हिन्दी ब्लॉगरी के विषय में भी काफी अन्दाज हो गया है.

इधर का व्यवहार कोड़/मैनुअल/नियम/कंवेंशन और रोजमर्रा के काम में आदान-प्रदान से ठीक-ठाक चल जाता है. इधर भी डिस्कॉर्डेण्ट नोट्स हैं पर बेसुरापन कम है. उधर तो गजब की केकोफोनी है! मेरा यह कहना रेलवे को बाहर से देखने वालों को शायद अटपटा लगे- क्योंकि बतौर उपभोक्ता लोगों की नजर दूसरे प्रकार की होती है. मैं यहां व्यवस्था के अन्दर से सभी समस्यायें और सीमायें जानते हुये यथा सम्भव निष्पक्ष लिखने का यत्न कर रहा हूं.

अनूप (मैं जानबूझ कर जी का प्रयोग हटा रहा हूं. आखिर अब तक स्पष्ट हो गया है कि कितनी आत्मीयता और सम्मान है तो जी का पुछल्ला बार-बार लिखने की जहमत क्यों उठाई जाये) ने अपने ब्लॉग पर चन्द्रशेखर (सिवान के शहीद) के विषय मे लिखते लिखते अचानक विषयांतर किया छ इंच छोटा करने की अलंकारिक धमकी के कुछ लोगों के प्रयोग पर. अजीब लगा यह विषयांतर. ऐसा विषयांतर तभी होता है जब कोई विचार किसी को हॉण्ट कर रहा (मथ रहा) हो. तब मुझे अपनी ब्लॉगरी और हिन्दी ब्लॉगरों के व्यवहार पर विचार करने और इधर (रेलवे) और उधर (हिन्दी ब्लॉगरी) के लोगों के तुलनात्मक विवेचन की सूझी.

मैं निम्न बिन्दु पाता हूं जो कहे जा सकें:
  • उत्कृष्टता के द्वीप रेलवे में भी हैं और ब्लॉगरी में भी. रेलवे कमतर नहीं है और यहां हमारे निर्णयों की आर्थिक वैल्यू भी है. हर शाम को अपने निर्णयों पर मनन करते हुये लोग यह संतोष कर सकते हैं कि अपनी तनख्वाह के बदले उन्होने अपने निर्णयों से रेलवे का इतना फायदा किया. जैसा मैने कहा यह संतोष सभी नहीं कर सकते. पर उत्कृष्टता के द्वीप तो कर ही सकते हैं. उसी प्रकार ब्लॉगरी में भी कुछ लोग अपने दिन भर के कृतित्व पर संतोष कर सकते हैं.
  • उदण्डता और उछृंखलता इधर कम है. लोग नियम/मैनुअल/कानून/आचरण के कंवेंशन से बन्धे हैं. लिहाज और सहनशीलता यहां ज्यादा है. संस्थान होने का लाभ है यह. उधर ब्लॉगरी में विश्व को कुछ भी परोस देने की अचानक मिली स्वतंत्रता जहां एक ओर उत्कृष्टता की प्रेरणा देती है वहीं उदण्डता और उछृंखलता की दमित वासनाओं को उत्प्रेरित भी करती है. इन वासनाओं के शमन में कुछ समय तो लगेगा ही. कुछ सीमा तक ये वासनायें मुझे भी नचाती रही हैं - नचा रही हैं.
  • सामाजिकता उधर ज्यादा है. इधर पद का लिहाज है, उधर यह काम सामाजिकता और संस्कार करते हैं. कई लोगों में मैने यह संस्कार पाये या समय के साथ उद्घाटित हुये.
  • अपने आप को, जो नहीं हैं वह प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति उधर ज्यादा है. ऐसा नहीं है कि वह नजर न आ जाता हो. हर एक व्यक्ति इण्टरनेट पर इतने चिन्ह छोड़ देता है कि पहचाना जा सके कि वह क्या है. देर-सबेर पता चल ही जाता है. इसलिये एग्जीबीशनिस्ट होना कोई फायदे का सौदा नहीं. पर हर एक व्यक्ति इससे इत्तिफाक नहीं रखता. रेलवे में भी यह शो-ऑफ करने की आदत कुछ लोगों में है यद्यपि अपेक्षाकृत कम है. इस मामले में रेलवे ज्यादा सरल समाज है. पर यह कोई बहुत बड़ा प्लस फैक्टर मैं नहीं मानूंगा इधर के पक्ष में.
  • श्रीश का कहना है कि ब्लॉगरी में भाई चारा ज्यादा है. असल में ब्लॉगरी का मूल तत्व ही सामाजिकता और लिंकेज पर आर्धारित है. वहां पर्याप्त वैचारिक आदान-प्रदान और दूसरों का पर्याप्त लिहाज सफलता के मूल तत्व हैं. पर शायद यह संक्रमण काल है. जिन लोगों ने पहले बहुत श्रम से बुनियाद रखी है वे अपनी वरिष्ठता खोना नहीं चाहते और नये लोग बिना श्रम के तकनीकी सहारे से रातोंरात प्रसिद्धि पा लेना चाहते हैं. इसका इलाज मात्र समय के पास है. रेलवे में विभागीय द्वन्द्व के बावजूद इंट्रा-रेलवे भाई-चारा ज्यादा है. जो बात मुझे ब्लॉगरी से विमुख करती है - वह इस मामले में इधर और उधर का अंतर है. अगर मेरे पास समय की कमी होगी तो मैं न केवल अपनी नौकरी के कर्तव्य के कारण, वरन इस फैक्टर के कारण भी उधर से अपने को असंपृक्त कर लूंगा.
  • उधर लोगों में एकाग्रता की कमी बहुत नजर आती है. छोटी-छोटी बातें लोगों को गहन सोच की बजाय ज्यादा रुचती हैं. किसी विषय पर आर-पार गहनता से सोचने की वृत्ति कम है. इधर रेलवे में हम समस्या को समझने, विश्लेषण करने और युक्तियुक्त समाधान ढ़ूंढ़ने में ज्यादा ईमानदारी दिखाते हैं.
  • यद्यपि उत्कृष्टता के द्वीप इधर भी हैं और उधर भी हैं पर अगर व्यक्ति के स्तर पर (संस्थान के पिरामिड का उपयोग न करना हो, तो) उत्कृष्टता के जितने अवसर ब्लॉगरी उपलब्ध कराती है, उतने शायद रेलवे न दे पाये. आपकी पुस्तकें, आपका कैमरा, आपकी सोच और आपका कम्प्यूटर - बस, इसके सहारे आप बड़े जादुई प्रयोग कर सकते हैं. कम से कम उत्कृष्टता की सम्भावनाओं को व्यक्ति के स्तर पर तलाशने में कोई विशेष सीमायें नहीं हैं. पहले के कागज-कलम के लेखन की बजाय वह ब्लॉगरी कहीं अधिक स्वतंत्रता और विविध आयाम प्रदान करती है.
कुल मिला कर अभी ब्लॉगरी के प्रयोग चलेंगे!

10 comments:

  1. अच्छा विश्लेषण किया आपने.वैसे कभी कभी इधर (जो आपका उधर है हमारा इधर)की विवादप्रियता बैचैन करती तो है भाग जाने का मन भी करता है फिर कुछ दिनों शांत हो जायें तो सब कुछ ठीक ठीक लगने लगता है.वैसे हिन्दी ब्लॉगिंग की कहानी भी कमोबेश जनरेशन गैप की ही कहानी है..जिन्होने मैहनत की वो उन्हे बिना मैहनत या कम मैहनत किये प्रसिद्धी पाते लोग अच्छे नहीं लगते..जैसे हम अपने छोटों से कहते है अरे हम तो जब बारवीं में थे तब हमने टी वी देखा ..कंप्यूटर का पता तो और भी बाद में चला..तुम तो बचपन में ही सब पा गये... अब पा गये तो क्या ..हर नयी जनरेशन पुरानी में पुराने ऎब और हर पुरानी नये में नये ऎब ढुंढ ही लेती है ..यही कहानी यहां भी है..

    वैसे आजकल हिन्दी ब्ळॉगिंग में रिसर्चात्मक लेख लिखने वाले बहुत हो गये हैं ..कल ही मोटों पर लेख था और आलोक जी तो खैर हैं ही ..बेताज बादशाह .. :-) आप भी ..!!

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  2. हा हा!! धीरज धरिये न!! इधर उधर की न देखें...बस धीरज धरे रहें और कोई भेदभाव न करें, सब सही दिखेगा, वादा है. जब तक वर्गीकरण मे विश्वास करोगे ऐसी स्थितियाँ बनती रहेंगी. मगर आप तो ऐसे न थे!!! :)

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  3. यह तुलनात्मक अध्ययन मौजूं और मजेदार है। मेरे लेख में विषयांतर हुआ। सही है। यह भी सही है कि वो सब मुझे लगातार हांट कर रहा है क्योंकि बिना बात के लोग अपना समय नष्ट कर रहे हैं। लेकिन मैं यह सही में चाहता हूं कि लोग अपना लिखने पढ़ने के साथ-साथ जो कुछ भी उतकृष्ट है उसे नेट पर लायें। हिंदी में। हिंदी का अपना कोई भंडार नेट पर नहीं है। बेहतरीन किताबें, तकनीकी लेख आदि सब विकिपीडिया पर होने चाहिये। जितना समय एक-दूसरे की खिचाई/धमकी में जाया होता उसका आधा भी अच्छी चीजें नेट पर लाने में करें तो हिंदी का बहुत कल्याण हो जाये। कल जो आपने विकिपीडिया से किताब के बारे में लिखा वह हिंदी विकिपीडिया में होना चाहिये। यह हम आप नहीं करेंगे तो कौन करेगा। करने को न जाने कितना है। लेकिन ये वासनायें नचाती हैं आपको ,हमको, सबको। :) विकिपीडिया से संबंधित मेरा लेख देखिये

    http://hindini.com/fursatiya/?p=195

    आपने जिस विषयांतर का जिक्र किया उसे मैंने अपने लेख से काट दिया है। अब केवल आपकी टिप्पणी इसकी गवाही देगी कि मैंने ऐसा कुछ लिखा था। अच्छा लगा कि आपने इस बारे में टोंका। पहले टिप्पणी करके फिर यहां लेख लिखकर।

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  4. मुझे तो आपके तुलनात्‍मक अध्‍ययन से निदा फ़ाज़ली की ग़ज़ल याद आ गयी जिसका उन्‍वान था इधर भी और उधर भी । एक ही शेर याद आ रहा है उसका –बाकी याद आये तो बाद में बताऊंगा---इंसान में हैवान इधर भी है उधर भी, दुनिया परेशान इधर भी है उधर भी । स्‍मृति पर आधारित, त्रुटियों की गुंजाईश ।

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  5. अच्छा शोध है।
    बुनियादी फर्क यह है कि ब्लाग की दुनिया में किसी की वो वाली पोस्ट काम नहीं आती, सिर्फ ये वाली पोस्ट काम आती है। काकेशजी ने मुझे बेताज बादशाह टाइप कुछ बताया है। हुजूर कुल कुनबा हिंदी ब्लागर्स का छह सौ सात सौ का, उनमें में भी नियमित ब्लागर बमुश्किल सौ भी न होंगे। अब इस सौ के कुनबे में काहे के हिट, काहे के फिट। अभी हिंदी ब्लागिंग इतनी शैशवावस्था में है कि किसी को हिट -ऊट होने की गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए।

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  6. ज्ञानदत्तजी,
    चिट्ठा लिखने वाले भी आम/खास मानव ही हैं । हर व्यक्ति के चरित्र और व्यक्तित्व के कई पहलू होते हैं और इन भिन्न भिन्न पहलुओं का आपस में तारतम्य होना आवश्यक नहीं है । अनेको बार विचारों की इसी इन्कंसिस्टेंसी के चलते मन दुखी रहता है । व्यक्ति समाज के लिये कुछ और, अपने लिये कुछ और होता है । मैं इस छ्द्म व्यक्तित्व को गलत नहीं मानता और जहाँ पता है मनोवैज्ञानिक भी इसके अस्तित्व और महत्ता को स्वीकारते हैं ।

    कुल मिलाकर आपकी पोस्ट के केन्द्रीय भाव से सहमत हूँ । इस बात से पूर्णतया सहमत हूँ कि जाने अनजाने हम इंटरनेट पर अपने पहचान चिह्न छोड जाते हैं ।

    हिन्दी ब्लागजगत की आत्ममुग्धता धीरे धीरे स्वयं ही समाप्त होगी । अन्दर की बात कहूँ तो ब्लागों पर की जा रही टिप्पणियाँ भी कहीं न कहीं यही कहानी कहती हैं :-)

    साभार,
    नीरज

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  7. बडे ही संयत तरीके से आपने ये इधर भी और उधर भी की तुलना करके अपने मन की बात कही है।

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  8. यह इधर उधर की भी खूब रही
    वैसे लैसा काकेश ने किसी का उधर किसी और का इधर हो जाता है।
    मसलन आलोकजी या हम जैसे कॉलेज मास्‍टरों के लिए मैन्‍यूअल वाले उधर की कल्‍पना दमघोंटू लगेगी ऐसे ही चिट्ठाकारी के इधर की भी बहुत सी बातें भी।
    इस लेखन से 'अन्‍य' क दृष्टिकोण के प्रति एक समझ का सकारात्‍मक आग्रह उपजता है। शुक्रिया

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  9. नये लोग बिना श्रम के तकनीकी सहारे से रातोंरात प्रसिद्धि पा लेना चाहते हैं.
    अब अगर मै पढने जाने के लिये २०/३० किलोमीटर दूर साईकल से जाता था और मेरा बेटा ५ किलोमीटर बस से जाता है तो मै उसे कमतर आकना और हर समय सुनाना शुरु कर दू अपनी महानता लादने के लिये,तो ज्ञान भाइसा ये आपकी नजर मे ठीक होगा मेरी नही,उसकी अपनी मेहनत अपना कार्य करने का तरीका है मेरा अपना था,जोकाम मैने १० सालो मे किया अगर वो आज १ साल मे कर देता है तो क्या उसका कार्य छोटा और दंभ भरने के लिये मेरा बडा ,सोच बदलिये बदलते वक्त के साथ.अगर आज बयार आ रही है बाजार मे तो वह पिछले कुछ सालो की सोच का नतीजा है,हम उसे पिछले ४० सालो की अकृमण्यता से तुलना कर छोटा दिखाने की कोशिश करे तो ये हमारी छुद्र सोच को ही दरशायेगी,अन्यथा न ले ,मुझे भी कई जगह अपने से छोटो से बहुत कुछ सीखने को मिली है और मैने उन्हे गुरु माना है,ज्यादा दूर नही श्रीश जी को ही ले लॊजीये.मेरे से आधी उमर के है .अब मै उनकी ये कहू कि तुम जरा सी तक्नीक सीख ली तो(जिस चीज को सीखने मे मुझे घंटो लगते है वो एक मेल से ५ मिनिट मे करा देते है)ज्यादा उछल रहे हो,या उनकी तकनीकी जानकारी को इज्जत देकर सम्मान देकर सीखने की कोशिश करू ...? आप ही बताये..?मुझे जवाब का इंतजार रहेगा..

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  10. वाह क्या तुलनात्मक विश्लेषण किया है आपने!

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय