यह कार्यक्रम है क्या? पॉलिटेक्निक यूनिवर्सिटी, ब्रुकलेन, न्यूयॉर्क में प्रोफेसर डा. रिचर्ड ग्रास मोबाइल इण्टीग्रेटेड सस्टेनेबल इनर्जी रिकवरी (MISER) प्रोग्राम के नाम से एक शोध कार्य कर रहे हैं. वे बॉयो-तेल (जैसे सोया तेल) से प्लास्टिक बना रहे हैं. यह प्लास्टिक आज के खनिज तेलों से बने प्लास्टिक जैसा ही है. इसके प्रयोग से जो कचरा बनेगा, वह आज के प्लास्टिक के कचरे की तरह कालजयी दैत्य नहीं होगा! उसे अगले 500 वर्षों तक सभ्यता को ढ़ोना नहीं पड़ेगा. वरन उस कचरे की चिन्दियां कर, उसके खमीरीकरण से उत्पन्न होगा डीजल – जो ऊर्जा भी प्रदान करेगा.
पेण्टागन को इसमें रुचि इसलिये है कि उसे विषम स्थलों पर प्लास्टिक युक्त रसद भेजनी पड़ती है और उन जगहों पर उसकी इन्धन की भी जरूरतें होती हैं. उस रसद का कचरा अगर इन्धन भी उपलब्ध करा दे तो क्या कहने!
आप यह समझने के लिये निम्न 2 स्थितियों की तुलना करें:
- स्थिति 1. खनिज तेल -> प्लास्टिक -> प्लास्टिक के उत्पाद -> उपयोग के बाद नष्ट न होने वाला धरती और समुद्र को नर्क बनाने वाला कचरा.
- स्थिति 2. बायो-तेल -> बायो-प्लास्टिक (प्लास्टिक के सभी गुणों से युक्त) -> प्लास्टिक के उत्पाद -> उपयोग के बाद कचरा -> कचरे की श्रेडिंग -> गुनगुने पानी में चिन्दी के रूप में कचरे का खमीरीकरण -> 3-5 दिन चली प्रक्रिया के बाद घोल पर उत्पन्न डीजल ऊपर तैरने लगता है.
स्थिति 2 में ‘यूरेका’ की अनुभूति होती है. और यह स्थिति प्रयोगशाला स्तर पर कारगर हो चुकी है.खमीरीकरण की प्रक्रिया में कुछ ऊर्जा व्यय होती है पर उससे उत्पन्न डीजल कहीं अधिक ऊर्जा युक्त होता है. कुल मिला कर बायो-प्लास्टिक कचरा रूपांतरित हो कर ऊर्जा स्रोत बनेगा. डा. ग्रास का शोध अभी वाणिज्यिक तौर पर लांच करने की अवस्था में नहीं आया है. पर जब पेण्टागन इसमें अपनी रुचि जता रहा है, तो मामला यूं ही नहीं है.
आप याद कर सकते हैं कि बहुत सी जीवनोपयोगी खोजें विश्व युद्ध और अंतरिक्ष विज्ञान के अनुसन्धान से ही हमें मिली हैं. क्या पता यह पर्यावरणीय विकट समस्या का समाधान हमें पेण्टागन के माध्यम से मिले.
आप पूरी खबर के लिये न्यूयार्क टाइम्स के इस पन्ने का अवलोकन करें.
सरजी विकट वैरायटी है। कल आप बियाणी पर बता रहे थे आज न्यूयार्क कूद लिये। इतनी वैराइटी के चैनल आप खोले बैठे हैं, दिमाग में सिगनल क्लैश नहीं करते क्या।
ReplyDeleteज्ञानदत्तजी,
ReplyDeleteइतनी बढिया जानकारी उपलब्ध कराने के लिये धन्यवाद । वैसे प्लास्टिक कचरे को निपटाने के कुछ उपायों पर शोधकार्य चल रहा है । अपने भारत के ही यू.डी.सी.टी. (University dept. of Chemical Technology, Mumbai) के कुछ शोधार्थियों ने एक विधि निकाली थी । उसके बाद क्या हुआ ठीक से पता नहीं, अच्छा है ऐसे ही भिन्न भिन्न विषयों पर लिखते रहें ।
साभार,
नीरज
धन्यवाद!!
ReplyDeleteज्ञान जी, सार्थक जानकारी के लिये धन्यवाद!
ReplyDeleteइस संदर्भे में नागपुर की श्रीमती अलका एवं श्री उमेश ज़दगाँवकर ने कुछेक वर्ष पहले अपने प्रयोगों में सफलता भी प्राप्त की थी और लघु-वाणिज्यिक स्तर पर एक संयंत्र भी चलाया है। इसके पूर्ण विवरण के लिये संदर्भे लें
http://www.plastic2petrol.com/
http://www.rexresearch.com/zadgnkar/zadgnkar.htm
हम टैक्नीकल कामो मे दिमांग नही लगाते खामखा खर्च होने का खतरा रहता है,(फ़िर पंगे कैसे ले लेगे :))
ReplyDeleteहम तो बस इस के इंतजार मे है कब आयेगा ये जुगाड भारत मे ताकी हम घर मे ही डीजल बना कर जनरेटर चला कर कम से कम बिजली तो दिन भर ले पाये. :)
राजीव उवाच>...इस संदर्भे में नागपुर की श्रीमती अलका एवं श्री उमेश ज़दगाँवकर ने कुछेक वर्ष पहले अपने प्रयोगों में सफलता भी प्राप्त की थी और लघु-वाणिज्यिक स्तर पर एक संयंत्र भी चलाया है।
ReplyDeleteबिल्कुल, राजीवजी, मैने अलका/उमेश ज़दगांवकर के विषय में यहां पढ़ा था:
http://www.goodnewsindia.com/index.php/Magazine/story/alkaZ/
किन्तु जब यह बायो प्लास्टिक वर्तमान प्लास्टिक से सस्ता उपलब्ध होगा, आम जनता को तभी लोग इसका उपयोग करेंगे।
ReplyDeleteफिलहाल अभी उपयोग किए जा रहे सामान्य प्लास्टिक कचरे के पुनःउपयोग (recycle) के सरल तथा कारगर उपायों की तलाश नितान्त आवश्यक है। बेंगळूरु में प्लास्टिक कचरे को गर्म कोलतार में घोलकर सड़क बनाने के काम में उपयोग करने का प्रयोग किया जा चुका है।
बहुत ही सार्थक जानकारी उपलब्ध करवाई. आभार. कुछ आशा की किरण जागी है वरना तो खनिज तेल वाला प्लास्टिक तो दुनिया को प्रलय की कागार पर लाकर छोडेगा-बम्बई का बार बार बरसात में डूब जाना उसी का उदाहरण है कि किस तरह प्लास्टिक ने पूरा सिस्टम ब्लाक कर दिया है. अपने अनूप शुक्ला जी ने फैक्टरी स्टेट को पूर्णतः प्लास्टिक थैलियों से मुक्त कराने का अभियान छेडा था, और शायद मुक्त करा भी लिया है.उनको इसी मंच से साधुवाद दिये देता हूँ.
ReplyDelete-अच्छी खबर.
बढ़िया है। हमने साधुवाद ले लिया लेकिन बता दें कि हम अब स्टेट का काम नहीं देखते। प्लास्टिक फिर बदस्तूर चालू आहे। हां हम बाजार जाते हैं तो थैला लेकर जाते हैं। :)
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