मेरी जिन्दगी रेलगाड़ियों के प्रबन्धन में लगी है। ओढ़ना-बिछौना रेल मय है। ऐसे में गुजरती ट्रेन से स्वाभाविक ऊब होनी चाहिये। पर वैसा है नहीं। कोई भी गाड़ी गुजरे – बरबस उसकी ओर नजर जाती है। डिब्बों की संख्या गिनने लगते हैं। ट्रेन सभी के आकर्षण का केन्द्र है – जब से बनी, तब से। स्टीम इंजन के जमाने में बहुत मेस्मराइज करती थी। डीजल और बिजली के इंजन के युग में भी आकर्षण कम नहीं है। जाने क्यों है यह। मनोवैज्ञानिक प्रकाश डाल सकते हैं।
सवेरे ट्रेन की आवाज आ रही थी। यह लग रहा था कि कुछ समय बाद फाफामऊ के पुल से गुजरेगी। मैं कयास लगा रहा था कि यह दस डिब्बे वाली पसीजर (पैसेंजर)होगी या बड़ी वाली बुन्देलवा (बुन्देलखण्ड एक्स्प्रेस)। अपना कैमरा वीडियो रिकार्डिंग मोड में सेट कर गंगा की रेती में खड़ा हो गया। तेलियरगंज की तरफ से आने वाली रेलगाड़ी जब पेड़ों के झुरमुट को पार कर दीखने लगेगी, तब का वीडियो लेने के लिये। पर अनुमान से ज्यादा समय ले रही थी वह आने में।
रेल की सीटी, पटरी की खटर पटर सुनते सुनते पत्नीजी बोलीं – तुम भी अजब खब्ती हो और तुम्हारे साथ साथ मुझे भी खड़ा रहना पड़ रहा है। आने जाने वाले क्या सोचते होंगे!
अन्तत: ट्रेन आयी। वही दस डिब्बे वाली पसीजर। दसों डिब्बे गिनने के बाद वही अनुभूति हुई जो नर्सरी स्कूल के बच्चे को होमवर्क पूरा करने पर होती होगी!
यह हाल नित्य 400-500 मालगाड़ियों और दो सौ इन्जनों के प्रबन्धन करने वाले का है, जो सवेरे पांच बजे से रात दस बजे तक मालगाड़ियों का आदानप्रदान गिनता रहता है तो रेलवे से न जुड़े लोगों को तो और भी आकर्षित करती होगी रेल!
अपडेट साढ़े छ बजे -
आज श्रावण का अन्तिम सोमवार है। आज भी चेंचामेची मची है शिवकुटी के कोटेश्वर महादेव मन्दिर पर। संपेरा भी आया है दो नाग ले कर। यह रहा उसका वीडियो:
अरे वाह,
ReplyDeleteआपके फोन से तो बोले तो चकाचक क्वालिटी का वीडियो बनता है, आज हम भी अपने फोन में देखेंगे कि आप्शन है कि नहीं |
दूसरी बात, की वीडियो से पहले और बाद में टेक्स्ट किस सॉफ्टवेर से डाला जाता है?
यहाँ पर ट्रेन कम दिखती हैं, दिखती हैं तो वो भी मालगाडी, खिड़कियों पर कोहनी टिकाये और दरवाजों पर हवा खाते लोग नहीं दिखते|
नीरज
बुरा न मानना जी,
ReplyDeleteहमें ट्रेन में लम्बी लम्बी यात्रायें करने का बिल्कुल भी शौक नहीं है .
बल्कि यह कहें कि हमें ट्रेन में छोटी छोटी यात्रा करने का भी शौक नहीं है,
या फ़िर यह भी कह सकते हैं कि हमें यात्रा करने का ही शौक नहीं है,
पहले था !
क्लासवर्क, होमवर्क -दोनों बढ़िया
ReplyDeleteलगता है आप रेल को जीते हो . ऐसा लगाव हर आदमी को अपने काम से हो जाए तो क्या बात हो
ReplyDeleteतेजी से गुजरती हुए रेल के सामने खड़े होकर खुद को चलायमान समझना ...बच्चों का प्रिय शगल है...आप भी करते हैं ऐसा ही ...!!
ReplyDeleteयह बाल सुलभ उत्कंठा आप के अपने व्यवसाय से गहरे जुड़ाव को भी दर्शाती है। रेल तो सम्मोहक होती ही है।
ReplyDeleteबचपन में स्कूल जाते समय 2-3 किमी. का रेलवे ट्रैक पड़ता था। हमलोग लकड़ी के स्लीपरों पर कूदते फाँदते और गिनते जाते थे। स्लीपरों पर जिस साल लगे थे उन वर्षों के नम्बर खुदे होते थे। हम लोगों में होड़ लगी रहती कि कौन सबसे नई और पुरानी स्लीपर खोजता है? क्या दिन थे !
लेकिन एक बात तब भी कष्ट देती थी और आज भी। मांनव मल । तकनीकी इतनी उन्नत हो चुकी है, क्या कोई राह नहीं कि ट्रेन के टॉयलेट का मल पटरियों पर न गिरे?
ट्रेन का आकर्षण अपनी जगह और गंगाजी के किनारे खड़े होकर उसकी फोटो उताराना..भाभी सही कह रही हैं, खब्तिनेस!! प्यूर!!
ReplyDeleteवैसे उस समय हमारे परिचित वहीं से निकले थे , फोन आया कि कोई हिन्दी का ब्लॉगर लगता है कि गंगा तट पर खड़ा है, तुम्हारे टाईप हरकत कर रहा है.
:)
वाह आप तो श्रावण सोमवार को शिवकुटी के कोटेश्वर महादेव मन्दिर पर दर्श्न भी कर आये, और ट्रेन भी देख आये, वैसे हम तो रोज फ़्लायओवर से लोकल ट्रेन देखकर ही संतुष्ट हो जाते हैं।
ReplyDeleteलगभग तीन घंटे के इंतज़ार के बाद प्रयाग -बरेली एक्सप्रेस में बैठते ही लैपटॉप खोला तो आपका ट्रेंन का इंतज़ार पढने को मिला
ReplyDeleteअजीब है इंतज़ार आपने भी किया हमने भी पर हम इस इंतज़ार से चिढे हुए हैं और आप को तसल्ली मिली है.
विवेक जी की बात का समर्थन करने को जी चाहता है और क्या कहें
कल्याणकारी शिव के गले में पहुँचकर नाग किस तरह वंदनीय हो जाता है और अपने पालकों का पालक बन जाता है। वीडियो पसंद आए।
ReplyDeleteहम जब पढ़ते थे तो मोटर वाहनों की हेड लाइट और हॉर्न की आवाज से बताने लगे थे कि कौन सा है। कोशिश करने पर इंद्रियाँ बहुत संवेदनशील हो जाती हैं।
"पर अनुमान से ज्यादा समय ले रही थी वह आने में" । सच है यदि इतने लोग चाल, ढाल और आकार देखने के पीछे पड़े हों तो कोई भी मनौना लेगा आने में ।
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ReplyDeleteआपको इतना ही इँतज़ार अखर गया.. जो लोग प्लेटफ़ार्म पर अपने परिजनों को छोड़ने आयें होंगे.. और ट्रेन आने का नाम नहीं ?
उनके ऊब की लिखिये कहानी
जरा याद उन्हें भी कर लो
जोरदार...यही तो ब्लॉगिंग है...मजा आता है पढ़ कर और अब तो देख कर भी :)
ReplyDeleteज्ञान जी,रेल देखने का शोक तो हमे भी बचपन से है.....जब भी कभी धड़ड़ाती भागती रेल को देखता हूँ मन को सुखानुभूति महसूस होती है।बढिया वीडियो हैं।बधाई।
ReplyDeleteडिब्बे गिनने में तो हमें भी मजा आता है.. मालगाड़ी हो तो क्या कहने.. ३०-४०....
ReplyDeleteगाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है....आज भी दिन-रात सीटी की आवाज़ कानों में पड़ती रहती है- स्टेशन जो पास है:)
ReplyDeleteना जाने कब से रेलगाड़ी को देख रहे हैं और ना जाने कब तक देखते रहे हैं। रेल तो जीवन का अंग है जी। आपके तो क्या कहने, आपका तो जीवन ही रेल का अंग है जी।
ReplyDeleteआप इस पैसंजर गाडी का इन्तज़ार करते हैं।
ReplyDeleteहम, बेंगळूरु में, मेट्रो रेल का इन्तज़ार कर रहे हैं।
हाँ, देश में पहले बुल्लेट ट्रेन का भी इन्तज़ार है।
रेल तो सभी को अपनी ओर आकर्षित करती है . रोचक अभिव्यक्ति आभार.
ReplyDeleteश्री अरविन्द मिश्र जी की टिप्पणी -
ReplyDeleteपूरा पेज ही नहीं खुल रहा मानसिक हलचल का -कृपया यह टिप्पणी स्वीकारें
वाह ज्ञान जी छोटे छोटे गदेलों को भी मात करते हैं आप -गाडी बुला रही है को बढियां दिखाया है आपने
और हाँ नाग नागिन भी बेजोड़ हैं -मगर वन्य जीव अधिनियम १९७२ में नाग का पकड़ना और (फोटो खीचना -मजाक ) इस के प्रदर्शन पर रोक है !
सादर
अरविन्द मिश्र
आशा है आपने कैमरे को ज़ूम करने के बाद नाग-नागिन का विडियो बनाया होगा:)
ReplyDeleteबहुत दिनों के बाद बीन की धुन सुनी, अच्छा लगा।
( एक-दो बार से टिप्पणी करने में असुविधा हो रही है, बॉक्स नजर नहीं आता)
फोटू अउर विचार दोनों ही मस्त हैं.
ReplyDeleteKya Baat hai Kaka.
ReplyDeleteEk post mein do do filmon
ka premier kar diya. "Pul par Rail" Aur "Nag, Nagin ka Dance". Khenchak aap aur Darshak Hum. Mugdh Ho gaye Train aur Naag dekh kar . Mere to dono hi favourite hein.
अच्छी फोटो ,विवरण भी ।बचपन में माँ से कहती थी कि माँ ट्रेन को ही घर बना कर रहा जाए तो कितना अच्छा होता... .
ReplyDeleteसबसे ऊपर लगी पुल की फोटू बहुत बढ़िया लग रही है। ट्रेन का मज़ा पूरा तभी आता है जब उसकी आवाज़ भी साथ हो, तभी एहसास होता है कि यह रेलगाड़ी है। :)
ReplyDeleteबाकी यह बताएँ कि यह "फाफामाऊ" पुल क्या है? नाम कुछ अजीब सा लग रहा है, यदि इसके संदर्भ में बता सकें कि इसका क्या अर्थ है या कैसे पड़ा तो ज्ञानवर्धन होगा, अग्रिम आभार ले लें उसके लिए। :)
@ अमित जी - फाफामऊ; इलाहाबाद-लखनऊ लाइन पर पहला स्टेशन है गंगा पार करते। भारतीय नाम तो बस यूं ही बन जाते हैं! :)
ReplyDeleteगाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है। पांच बजे से दस बजे रात तक गाड़ी गिनने की बात से कौनौ सरकारी अफ़सर का इमेज चमक जायेगा का जी?
ReplyDeleteगाडी के डब्बे गिनने और हवाई जहाज की आवाज सुनकर नजर उठ जाना तो बचपन की आदत है. पर आप रोज गिनकर भी बोर नहीं हुए ये अलग है :)
ReplyDeleteपह्के विडियो में टिटहरी की बोली सुने दी, बाकी थोडी कमेंटरी होती तो और मजा आता. सपेरे वाले में थी एकदम झन्नाटेदार आवाज.
आदरणीय ज्ञानदत्त जी,
ReplyDeleteकाबिल-ए-तारीफ है आपका वीडियो शूटिंग करना बिल्कुल सधा हुआ हाथ जो भी थोड़ी हलचल हुई है वह तो स्वाभाविक है कि पास में आदरणीया भाभी साहब हों और हाथ ना कांपे?
फाफामऊ के पुल से गुजरते हुये यही कहा है, जय गंगा मईया!!!
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
शुक्र है अरविन्द मिश्र जी कही तो दो शब्दों से ज्यादा टिपियाते है वरना तो अक्सर दो शब्द कह कर निबटा देते है...वैसे भी हमने सबसे संशिप्त टिपण्णी का अवार्ड में उनके नाम की प्रस्तावना भेज दी है .....रेल गाडियों पे आपसे आलेख में कुछ ओर उम्मीद है सर जी...वैसे वाकई उब से बचे रहना कठिन कार्य है
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteनाग भी देख लिया और बीन्वाला भी और फाफामऊ का पुल भी :-)
ReplyDeleteये ब्लोगींग के मज़े हैं
- लावण्या