अपने पड़ोस के भैंसों के तबेले को देखता हूं। और मुझे अनुभूति होती है कि मैं एक गांव में हूं। फिर मैं बजबजाती नालियों, प्लास्टिक के कचरे, संकरी गलियों और लोटते सूअरों को देखता हूं तो लगता है कि एक धारावी जैसे स्लम में रहता हूं।
जब गंगा के कछार से शिवकुटी मन्दिर पर नजर जाती है तो लगता है मैं प्राचीन प्रयागराज का अंग हूं – जहां राम ने गंगा पार कर शिवपूजन किया था। यहां के नाव पर इधर उधर जाते मछेरों में मुझे पौराणिक केवट नजर आते हैं।
जनसंख्या में पासी-अहीर-मल्लाह-सवर्ण का एक असहज बैलेंस है, जो प्रदेश की सडल्ली राजनीति और अर्थव्यवस्था का नाभिकीय रूप है। यूपोरियन जीवन जिस तरह से अपने सभी अंतर्विरोधों में जी रहा है वैसे ही शिवकुटी भी अजीबोगरीब प्रकार से जी रहा है!
मैं यहां रहना चाहता हूं। मैं यहां नहीं रहना चाहता। पर यह जगह क्या है?! यह अर्बन नहीं है; यह सबर्बन नहीं है; यह गांव नहीं है; यह स्लम नहीं है। यह क्या है – यह शिवकुटी है!
यह स्थान पन्द्रह साल में ही अपना टोपोग्राफी बहुत बदल चुका है। जमीन का व्यापक अतिक्रमण और उत्तरोत्तर सरकारों की अतिक्रमण के प्रति उदासीनता, वृक्षों की कटाई और छोटे प्लॉट बना कर जमीन का हस्तांतरण। नव होमो अर्बैनिस (Homo Urbanis) का यहां माइग्रेशन और छुटपुट लोकल अर्थव्यवस्था का फैलाव और अपराधीकरण - यह सब देखने को मिलता है। कमोबेश यही दशा अन्य स्थानों पर भी होगी। मैं इस जगह के मूलभूत लाभ और भविष्य में जीवित रहने और विकसित होने के बारे में सोचता हूं - वह मुझे गंगा माई के जीवित रहने से जुड़ा नजर आता है। कैसा होगा वह भविष्य?
मैं शहरी सभ्यता के जन्म और विकास पर ज्यादा दूर तक नहीं सोच पाता। पर यह समझता हूं कि यह स्थान अभी थॉमस फ्रीडमान का फ्लैट (The World is Flat) नहीं हो सका है। प्रयाग की नगरपालिक व्यवस्था चिरकुट है और शिवकुटी में वह “चरमराया हुआ सुपर चिरकुट” हो जाती है। कोई उद्योग या वाणिज्यिक व्यवसाय इसे गति नहीं दे रहा। पर यह शिलिर शिलिर जीने वाला शिवपालगंज भी नहीं है! समझना पड़ेगा इस क्वासी-अर्बन फिनॉमिना को।
हर सवेरे दफ्तर का वाहन यहां से १५ मिनट लेता है मुझे अर्बन वातावरण में ट्रांसप्लाण्ट करने में। अन्यथा मैं इस टापू में रहता हूं। जिसमें एक सीमा गंगाजी बनाती हैं और दूसरी सीमा चंद्रमा की सतह सी पगडण्डी नुमा सड़कें।
लिहाजा मेरे पास या तो जबरदस्त एकांत है, जिसमें मैं निपट अकेला रहता हूं या फिर विविधता युक्त पात्र हैं, जिनको सामान्यत: लोग ओवरलुक कर देते हैं। वे मेरे कैमरे में रोज के पन्द्रह-बीस मिनट के भ्रमण में उतर आते हैं।
पता नहीं मैं कुछ बता पाया कि नहीं कि मैं कहां रहता हूं!
(आप अपने परिवेश को देखें – आपमें से कई तो सुस्पष्ट गांव या शहर में रहते होंगे। पर कई इस तरह की गड्ड-मड्ड इकाई में भी रहते होंगे! आप गड्ड-मड्ड इकाई में रहना चाहेंगे/चाहते हैं?!)
बड़ा गड़बड़ झाला है, आप आखिर रहते कहाँ है? जहाँ भी रहें, खुश रहें. :)
ReplyDeleteसंक्रमण है जी. न शुद्ध गाँव मिलेगा, न शहर.
चाहने से क्या होता है? हमें जहाँ जाने को कहा जाता है सामान बाँध कर चल देते हैं। अभी जहाँ हैं उसे कोई नाम देना कठिन है। 100 या 120 मकान , पड़ोस में खेत, परन्तु बहुत साफ़ सुथरी जगह्। कस्बा नहीं, गाँव नहीं अंग्रेजी में कालोनी कहते हैं।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
का पांडे जी...ई पूरा ऐदरेस्वा पोस्ट कर दिए..मुदा हमको नहीं लगता है की ..ई से आपके घर कभी पहुँच पायेंगे..आप चाबे नहीं करते हैं कौनो आपके घर पहुंचे ..बताइये तो ई तबेला..ई नाली सब से कौनो बचेगा ता न पहुंचेगा ..बहुते विकत निवास स्थान है प्रभु..तभी इतना bhaaree bharkam पोस्ट laad देते हैं....
ReplyDeleteआप कहाँ रहते है ये हमें नहीं पता पर जगह बहुत पसंद आई..
ReplyDeleteआदरणीय ज्ञानदत्त जी,
ReplyDeleteबिल्कुल सहमत हूँ आपकी हलचल से कि इस नारकीय जीवन की कल्पना भी रोंगटे उठा देती हो वहाँ इलीट या कतिपय बड़े घर वाले कैसे रह सकते हैं।
यह जीवट तो बचपन से ही आता है जब दिशा-मैदान / जंगल जाने के लिये ही नही बल्कि कहीं भी जाने के लिये अधनंगा ( टाँगों/टखनों से उपर तक किया हुआ पैजामा / पेटीकोट ) और कीचड़ से बचते हुये गुजरने की कला सीखी जाती है या ट्यूबों के सहारे या भैंस वही तबेले वालियों की पूछ पकड़ कर मोहल्ले की वैतरणी पार की जा थी।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
हमें तो जहाँ प्रभु रखेंगे वहीं रहना होगा ! अभी प्रभु ने इण्डियन ऑइल की टाउनशिप में रखा हुआ है !
ReplyDeleteहम लोग कई दुनियाओं,आयामों और धरातलों पर एक साथ रहते हैं. वैसे ये हमारे विकास के मॉडल पर एक सशक्त टिपण्णी है.
ReplyDeleteशिवकुटी के शिव मन्दिर के पास जाना हुआ है, वास्तव में मनोरम स्थान है। सिटी का क्या है प्रदूषण और गाडि़यो की हल्ला के सिवाय
ReplyDeleteसर: अतिक्रमण की समास्या
ReplyDeleteसे पूरा देश जुलस रहा है . तबेला देखा
लालू जी की याद आ गई .
आपने लोगो का ध्यान इस और
खीचा इसलिए आपका आभार जी
गंगा नदी के किनारे स्थित शिवकुटी भगवान शिव को समर्पित है, पर शिवकुटी मंदिर में शिव विराजमान है बहार तो उनके गण लोग ही विराजमान है जो मस्त है (कुछ करके कुछ बिना किये ) उन्हें अब आदत सी हो गयी है सब देखने और सहने की .
ReplyDeleteधन्य हुए जानकर आपका पता!
ReplyDeleteवैसे बजबजाती नालियों, प्लास्टिक के कचरे, संकरी गलियों और लोटते सूअरों को देखा करिये, शायद मिलिनायर होने का जुगाड़ बैठ जाये.
यम का गैरज आपके बाजू में, गंगा जी दूसरे बाजू में-उस पर से निपट अकेले होने का भाव - वैराग्य भाव आना स्वभाविक सा है इस सेट अप में. पढ़्कर जितना खांका खींच पाया, उस आधार पर.
गंगा जी को निहार पा रहे है, तब भी स्याहि फैला रहे हैं जी आप?
"पता नहीं मैं कुछ बता पाया कि नहीं कि मैं कहां रहता हूं!"
ReplyDeleteहम समझ गए जी, आप एक साथ इतनी जगहों का आनंद लेते हैं:)
Jo bhi jahan rahta hai, wahi uska swarg hota hai.
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आस पास की बढती गगनभेदी बिल्डिंगो को देखकर तो लगता है कि मैं शहर में हु.. पर आस पास के लोगो का व्यवहार और उनकी मानसिकता कभी कभी मुझे आदिम युग की याद दिला देती है.. ऐसा लगता है अभी मानव सभ्यता का विकास ही नहीं हुआ है.. अभी भी मैं जंगल में हूँ.. शिकार की तलाश में..
ReplyDeleteहम सब समझ गए आप कहाँ रहते हैं। आप रहते हैं भारत में गंगा किनारे। सारी नकारात्मकताओं के बावजूद इस से अच्छा स्थान कोई हो ही नहीं सकता।
ReplyDelete:) जब आप ठीक से जान जाएं कि कहां रहते हैं तो पता बता दिजीएगा हम पहुंच जायेगे, तब तक आप का दिया होमवर्क कर लेते है और देखें कि हम कहां रहते हैं, घर से निकलते वक्त सारा ध्यान तो घड़ी कि सुइयों पर रहता है इस लिए पता नहीं हम कहां रहते हैं…॥:)
ReplyDeleteवो क्या कहते है जी .दो कल्चरो का मिलन !!
ReplyDeleteजिस हिसाब से आपने वर्णन किया है वह कुल मिलाकर 'काशी की अस्सी' और 'बारहमासी' के बीच की जगह लग रही है ।
ReplyDeleteमैं तो जानता ही हूँ कि आप कहाँ रहते हैं, इसलिए इस पोस्ट से अपने आस-पास के वातावरण का चित्र खींचने का शऊर सीख रहा हूँ।
ReplyDeleteबाकी लोगों को बता दूँ कि गुरुदेव के घर पहली बार जाएंगे तो इन गलियों का सिलसिला शुरू होने के ऐन पहले भरतलाल जी के दर्शन होंगे, फिर वो आपकी गाड़ी में बैठ जाएंगे। बाँये मुड़ने को कहेंगे लेकिन हाथ से दाहिनी ओर इशारा करते पाये जाएंगे। बाँये के बाद फिर दांये मुड़िए और अगली गली बायीं ओर... फिर दायीं ओर.. और ये रहा वह सुन्दर सा घर जहाँ सबकुछ अपना सा लगता है। ये तबेला और कछार तो दूर टहलने जाकर फोटो में लिए गये हैं।
अलबत्ता शिवकुटी मुहल्ले में बाहर से आकर किराये के कमरे में रहने वाले विद्यार्थियों का चित्र और उनके लिए विशेष रूप से बनवाये गये मुर्गीखाना नुमा सस्ते कमरों की कतारें नहीं दिखायी गयीं यहाँ।
फ्यूज़न पता लागे है हमें :-)
ReplyDeleteदीनेश भाई जी से सहमत हूँ - "छोरा गंगा किनारेवाला " ही सही है जी
ReplyDeleteबाकी हम कौन हैं ?
अलग अलग रिश्तों में बँटे
एक/ 1 इंसान ही तो !
- लावण्या
अद्भुत है यह । सिद्धार्थ जी से सहमत हूँ - यह प्रविष्टि सिखाती है, कैसे चित्रित हो अपना वातावरण, अपना परिवेश !
ReplyDeleteआप तो फिर भी 'कहीं' रहते हैं ! हम तो कभी इधर कभी उधर :)
ReplyDeleteआपकी जगह हाइब्रिड है. हर तरह की जिंदगी... आस पास मॉल/.मल्टीप्लेक्स नहीं बने क्या?
सूअर, बजबजाती नालियाँ, अतिक्रमण वगैरह भारत भूमि के अभिन्न अंग हैं।
ReplyDeleteमहादेव 'शंकर' से अपने देश की संगति बैठती है। वैसे भी 'शिवकुटी' नाम बहुत कुछ स्पष्ट कर देता है।
कन्फ्यूजन में लगते हैं आप, जब तय कर लें कि कहाँ रहते हैं तो ब्लॉग पर अवश्य छापिएगा! :D
ReplyDeleteवैसे कैसा भी हो, अपना घर, अपना मोहल्ला आखिर अपना होता है, उसके साथ एक लगाव होता है, यादें जुड़ी होती हैं! :)
आदमी भौतिक रूप से कहीं भी रहे उसे मानसिक रूप से मनुष्यों के बीच में मनुष्य बन कर रहना चाहिए.आप इंगित कर ही चुके हैं कि एक ही स्थान को मनुष्य अपनी मानसिक स्थिति के अनुसार भिन्न रूपों में देखता है -
ReplyDelete' अपने पड़ोस के भैंसों के तबेले को देखता हूं। और मुझे अनुभूति होती है कि मैं एक गांव में हूं। फिर मैं बजबजाती नालियों, प्लास्टिक के कचरे, संकरी गलियों और लोटते सूअरों को देखता हूं तो लगता है कि एक धारावी जैसे स्लम में रहता हूं।
जब गंगा के कछार से शिवकुटी मन्दिर पर नजर जाती है तो लगता है मैं प्राचीन प्रयागराज का अंग हूं – जहां राम ने गंगा पार कर शिवपूजन किया था। यहां के नाव पर इधर उधर जाते मछेरों में मुझे पौराणिक केवट नजर आते हैं।'
हम जिस काल में रह रहे हैं उसकी गति ज़्यादा है...नहीं, बहुत ज़्यादा है. हमारे बच्चों की जीवनशैली उनके दादा-नाना के लिए विस्मयकारी है. हमारा कल हमारे बच्चों के लिए पहेली है...लेकिन यह जीवन है, व हम यहीं रहते हैं ।
ReplyDeleteऐसी जगह रहने का अपना मजा है...आप तो संत मुनियों की जगह रह रहे हैं क्यूँ की संत वो होता है जो:
ReplyDeleteसंत वो है की जो रहा करता
भीड़ के संग भीड़ से कटके
नीरज
बहुत धुआंधार लिखा है आपने। कांग्रेस ने जातिवादी और वोटवादी परंपरा को हवा दी थी, जो अब चरम पर है। यह विनाशकारी बदलाव देखने की फुर्सत कहां है नीतिनिर्माताओं के पास।
ReplyDeleteये समस्या हर जगह अमोबेश एक सी है. स्थानों के नाम और पात्र बदल जाते हैं.
ReplyDeleteसजीव चित्र...
Har city ka yahi haal hai UP men, but wht is solution.
ReplyDeleteपाखी की दुनिया में देखें-मेरी बोटिंग-ट्रिप !!
"जनसंख्या में पासी-अहीर-मल्लाह-सवर्ण का एक असहज बैलेंस है, जो प्रदेश की सडल्ली राजनीति और अर्थव्यवस्था का नाभिकीय रूप है।"
ReplyDeleteजनसंख्या की आर्थिक और भौतिक व्याख्या ।
"पर यह शिलिर शिलिर जीने वाला शिवपालगंज भी नहीं है!"
लगता है आजकल रागदरबारी दुबारा पढ़ रहें हैं ।