पत्रिका, पुस्तक या ब्लॉग की पठनीयता में भाषा की शुद्धता या कसावट एक एक पक्ष है। विचारों में दम होना दूसरी बात है। प्रस्तुतिकरण का एक तीसरा पक्ष भी है। इसके अलावा लिंक दे कर अन्य सन्दर्भ/सामग्री तक पाठक को पंहुचाने और अन्य तकनीकी उत्कृष्टता (ऑडियो/वीडियो/स्लाइडशो आदि) से पाठक को संतृप्त करने की क्षमता इण्टरनेट के माध्यम से ब्लॉग पर उपलब्ध है।
मेरी समझ में नहीं आता कि सिवाय अहो-रूपम-अहो-ध्वनि की परस्पर टिप्पणी की आशा के, कौन आपका ब्लॉग देखना चाहेगा, अगर उसमें उपलब्ध सामग्री वैसी ही है, जैसी प्रिण्ट में उपलब्ध होती है?
कुल मिला कर पाठक के सीमित समय का कितना भाग कितनी कुशलता से आप लपकने का माद्धा रखते हैं, वह महत्वपूर्ण है।
लेखक की बौद्धिकता का महिमामण्डल या भौकाल बहुत लम्बा नहीं चल पाता। उपलब्ध सामग्री में कुछ काम का मिलना चाहिये पाठक को। यह काम का कैसे मिले?
हिन्दी का पाठक आपसे हिन्दी सीखने नहीं आ रहा। पर वह आपसे वह हिन्दी – उच्छिष्ट हिन्दी जो बोलचाल में है, को जस का तस भी नहीं सुनना चाहता। भाषा में प्रयोगधर्मिता और भाषाई उच्छिष्टता दो अलग अलग बाते हैं। और इन्हें उदाहरण दे का समझाने की बहुत जरूरत नहीं है। “रागदरबारी” या “काशी का अस्सी” दमदार प्रयोगधर्मी कृतियां हैं। और जब लोग यह कहते हैं कि नेट पर ८०-९० प्रतिशत कूड़ा है तो या तो वे उस उच्छिष्ट सामग्री की बात करते हैं, जो पर्याप्त है और जिसमें रचनात्मकता/प्रयोगधर्मिता अंशमात्र भी नहीं है; या फिर वे शेष को कूड़ा बता कर (अपने को विशिष्ट जनाने के लिये) अपने व्यक्तित्व पर चैरीब्लॉसम पालिश लगा रहे होते हैं।
मेरी समझ में नहीं आता कि सिवाय अहो-रूपम-अहो-ध्वनि की परस्पर टिप्पणी की आशा के, कौन आपका ब्लॉग देखना चाहेगा, अगर उसमें उपलब्ध सामग्री वैसी ही है, जैसी प्रिण्ट में उपलब्ध होती है? अगर आप अपने “विचारों का अकाट्य सत्य” रूढ़ता के साथ बांट रहे हैं और चर्चा के लिये विषय प्रवर्तन कर बहुआयामी विचारों को आमन्त्रित नहीं कर रहे हैं, तो आप यहां क्या कर रहे हैं मित्र?! आप तो वैशम्पायन व्यास/मिल्टन/शेक्सपीयर या अज्ञेय हैं। आप तो सातवें आसमान पर अपनी गरिमामयी अट्टालिका में आनन्दमंगल मनायें बन्धुवर!
(सेल्फ प्रोक्लेम्ड नसीहताचार्यों से खुन्दक खा कर पोस्ट लिखना शायद मेरी खराब आदत का अंग हो गया है। और मुझे मालुम है कि इससे न कोई मूवमेण्ट प्रारम्भ होने जा रहा है और न मुझे कोई लोकप्रियता मिलने वाली है। पर पोस्ट लिखना और उसे पब्लिश होने के लिये ठोंकना तो विशुद्ध मनमौजियत का विषय है। और मैं वही कर रहा हूं।)
ब्लॉग की पठनीयता सतत प्रयोग करने की चीज है। कई मित्र कर रहे हैं और कई सलंग/सपाट/प्लेन-वनीला-आइस्कीम सरकाये जा रहे हैं – पोस्ट आफ्टर पोस्ट!
सरकाये जायें, आपसे प्रति-टिप्पणी की आस आपका वन्दन करती रहेगी। कुछ समय बाद आप स्वयं नहीं समझ पायेंगे कि आप बढ़िया लिख रहे हैं या जबरी लोग आपकी पोस्ट की पसन्द बढ़ाये जा रहे हैं!
भारतीय रेलवे यातायात सेवा में मेरे बैचमेट हैं श्री नरेश मल्हन। उत्तर-पश्चिम रेलवे के मुख्य माल यातायात प्रबन्धक हैं। उन्होने मेरा ब्लॉग देखा और फोन कर बताया कि पहली बार देखा है। उनका संवाद:
"यार हिंदी थोड़ी आसान नहीं लिख सकते? और ये हिन्दी में टाइप कौन करता है?"मेरे ब्लॉग लेखन की बजाय मेरी टाइपिंग की कीमत ज्यादा आंकी नरेश ने। धन्य महसूस करने के अलावा और मैं कर भी क्या सकता हूं! :-)
यह बताने पर कि खुद ही करता हूं, बड़े प्रशंसाभाव से बोले - "तुम तो यार हुनरमन्द आदमी हो! तुम्हें तो रिटायरमेण्ट के बाद हिन्दी टाइपिस्ट की नौकरी मिल ही जायेगी।"
सेल्फ प्रोक्लेम्ड नसीहताचार्यों से खुन्दक खा कर पोस्ट लिखना शायद मेरी खराब आदत का अंग हो गया है।
ReplyDelete-खराब या अच्छी-आदत तो हमारी भी इसी तरह की हुई जा रही है. संगत का असर होगा.
वैसे टाईपिंग तो आप अच्छी कर ही लेते हैं और इसलिये हुनरमंद सही कहा आपको!! बधाई.
एक बार कहीं नौकरी के लिए इण्टरव्यू चल रहा था,
ReplyDeleteएक उम्मीदवार दूसरे से बोला, "मेरा चयन होना तो पहले से ही तय है, आप क्यों अपना टाइम खोटी कर रहे हो ?"
दूसरा प्रेसर में आ गया, उसे नौकरी की सख्त जरूरत थी,
"चलिए आ ही गए हो तो कोई चुटकुला ही सुना दो" ,पहला बोला .
आप क्यों हम लोगों को डरा-डराकर दुकान ठप कराना चाहते हैं ? पड़े रहने दीजिए किसी कोने में :)
अपनी मौलिक विषयवस्तु और लेखन द्वारा आप जरुर हमारे सिमित समय को लपकने का भरपूर माद्दा रखते हैं ..
ReplyDeleteगणेश चतुर्थी की बहुत शुभकामनायें ..!!
बात तो आपकी सही है - कॉन्टेन्ट इज़ किंग अन्यथा कुड़ा तो बहुतेरा है इंटरनेट पर, उसमें थोड़ी और वृद्धि करने पर कोई तमगा नहीं मिलने वाला।
ReplyDeleteबाकी सोच रहा हूँ कि कहीं सेल्फ़ प्रोक्लेम्ड नसीहताचार्यों के रूप में आप मेरी ओर भी तो इशारा नहीं कर रहे! लेकिन फिर सोचता हूँ कि मैंने तो पिछले कुछ समय से कुछ लिखा ही नहीं है, ट्यूब खाली हो गई है तो उसके भरने की प्रतीक्षा की जा रही है, इसलिए मेरे लेखन की ओर कदाचित् आपका इशारा नहीं होगा, ही ही ही!! :D
आपके बैचमेट ने आपकी हिन्दी की प्रशंसा तो की, शुक्र मनाईये। यहाँ तो शुरुआती दिनों में मित्र आदि गालियाँ देते थे कि पता नहीं कौन से ज़माने की शुद्ध हिन्दी टाइप लिखता हूँ कि शब्दकोष की आवश्यकता पड़ जाए। उस समय मैंने हिन्दी में लिखन का पुनः आरंभ नया-२ ही किया था इसलिए हिन्दी के घोड़े पर ऊँचे ही सवार था! :) वैसे हो सकता है कि आपके मित्र ने आपके हिन्दी लेखन की ओर ही ध्यान दिया हो और सामग्री पर अधिक तवज्जो न दे पाए हों इसलिए ब्लॉग के मसौदे पर कोई टिप्पणी देने में असमर्थ रहे। :)
प्रश्न: पठनीयता क्या है?
ReplyDeleteउत्तर: पठनीयता एक झाम है। प,ठ,न, य, त में अमुचित मात्रा लगाकर लिखी जाती है तथा सेल्फ प्रोक्लेम्ड नसीहताचार्यों से खुन्दक खा कर पोस्ट लिखने से इसका जन्म होता है।
अब गुणवत्ता कौन देखता है .वैसे भी यह कहावत भी इसी देश की है -पढ़े फारसी बेचे तेल. कम से कम typist होने की आपकी अर्हता को स्वीकार कर लिया गया है -धन्य मनाईये ! मेरे सरीखे तो इसके लिए भी झंखते रह जायेगें ! आपका जुगाड़ तो सेवा निवृत्ति के बाद भी पक्का ही है !
ReplyDeleteहिन्दी का पाठक आपसे हिन्दी सीखने नहीं आ रहा। पर वह आपसे वह हिन्दी – उच्छिष्ट हिन्दी जो बोलचाल में है, को जस का तस भी नहीं सुनना चाहता। भाषा में प्रयोगधर्मिता और भाषाई उच्छिष्टता दो अलग अलग बाते हैं।
ReplyDeleteसहमत हूँ आपसे।
"भाषा में प्रयोगधर्मिता और भाषाई उच्छिष्टता दो अलग अलग बाते हैं।"
ReplyDeleteइससे पूर्ण सहमति । प्रविष्टि ने लुभाया । अनूप जी की टिप्पणी लाजवाब है ।
बढ़िया आलेख।
ReplyDeleteश्री गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभ कामनाएं-
आपका शुभ हो, मंगल हो, कल्याण हो |
"सेल्फ प्रोक्लेम्ड नसीहताचार्यों से खुन्दक"
ReplyDeleteचचा को नसीहत देने की महाभूल किसने की? जल्दी बताएँ।
आप 'उच्छिष्ट' की जगह 'उच्छृंखल' लिखना चाह रहे थे क्या?
'अहो-रूपम-अहो-ध्वनि की परस्पर टिप्पणी' के ब्याज से ब्लॉग के जीवित पूर्वज 'प्रिण्ट' पर क्यों ताना कस रहे हैं? वहाँ भी ' विशुद्ध मनमौजियत'वाले पाए जाते हैं। बेचारों को मौज करने दीजिए।
" और जब लोग यह कहते हैं कि नेट पर ८०-९० प्रतिशत कूड़ा है तो या तो वे उस उच्छिष्ट सामग्री की बात करते हैं, जो पर्याप्त है और जिसमें रचनात्मकता/प्रयोगधर्मिता अंशमात्र भी नहीं है; या फिर वे शेष को कूड़ा बता कर (अपने को विशिष्ट जनाने के लिये) अपने व्यक्तित्व पर चैरीब्लॉसम पालिश लगा रहे होते हैं। " यह प्रिंट मीडिया का भी सच है।
सुबह सुबह क्रोध अच्छा नहीं होता। 'अतवार' के दिन तो हरगिज नहीं ! भतीजे दहशत में आ जाते हैं, उनका ख्याल रखिए।
गुणवत्ता भी देखी जाती है.. प्रयोगधर्मिता भी.. और विषयो की नवीनता भी.. दरअसल हमें ये लगता है कि जो लोग हमें टिपण्णी कर रहे है वे ही हमारे पाठक है.. पर ऐसा नहीं है.. आंकडे कहते है कि मेरे ब्लॉग के २६६ के करीब आर एस एस सब्स्क्राइबर है.. पर इतनी टिप्पणिया नहीं है.. रोज़ के लगभग १०० विसिट्स ब्लॉग पर होते है.. ऐसे में आप कुछ भी निर्णय नहीं ले सकते.. किस पाठक को कब क्या पसंद आ जाये ये हम सोच नहीं सकते.. फिर भी ब्लॉग लिखते वक़्त मेरा उद्देश्य ये होता है कि कुछ ऐसा लिखू जिससे मुझे थोडी देर शांति मिले.. यही शांति यदि पाठक भी महसूस करे तो मेरा लिखना सफल होता है..
ReplyDeleteयहाँ पर टिपण्णी देने वाले पाठक मुझे प्रिय है मैं उनका सम्मान करता हूँ.. पर मैं ये जानता हूँ कई बार, या यु कहू कि बहुत बार टिप्पणिया कुश को मिलती है ना कि पोस्ट को.. यही हो रहा है हिंदी ब्लोगिंग में.. ब्लोगर पोस्ट से बढा हो जाता है यहाँ पर.. हमारी हालत ये है कि ब्लोगर का फोटो देखते है उस पर पहुच जाते है और कमेन्ट कर देते है.. पर असली पाठक वही है जो गूगल से आये जो आपको जानता नहीं है.. सिर्फ पोस्ट पढ़कर कमेन्ट दे.. ऐसे लोगो का मैं हमेशा स्वागत करता हूँ.. यदि उम्दा ब्लोगिंग का मज़ा लूटना है तो पोस्ट पर कमेन्ट किया जाये.. ब्लोगर को नहीं..
बाकी मैंने आज तक कभी इस बात पर गौर नहीं किया कि किसी ने इन्टरनेट पर सामग्री को कूड़ा कहा या नहीं.. वाकई मुझे नहीं पता.. और आप का ब्लॉग तो ज्ञान का भंडार है ब्लॉग पोस्ट में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग निश्चित ही गूगल में आपके ब्लॉग को सर्च में जगह देता है.. सर्च इंजन ओप्टीमाइजेशन के हिसाब से आपके ब्लॉग को मैंने उत्तम पाया है..
हिन्दी का पाठक आपसे हिन्दी सीखने नहीं आ रहा। पर वह आपसे वह हिन्दी – उच्छिष्ट हिन्दी जो बोलचाल में है, को जस का तस भी नहीं सुनना चाहता।
ReplyDeletehow true
पठनीयता क्या है ? यह यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर मिलते ही बताये .
ReplyDelete"नेट पर ८०-९० प्रतिशत कूड़ा है"
ReplyDeleteइसका अर्थ यह भी हुआ कि नेट में प्रतिशत अच्छी सामग्री भी है। हमें प्रयास करना है कि यह प्रतिशत और बढ़े।
लिखने की शैली क्या होनी चाहिए .. बिल्कुल मालूम नहीं .. अपनी विषयवस्तु के बल पर ब्लाग जगत में हूं !!
ReplyDeleteचलिये पता तो चला आप कठीन हिन्दी में लिखते है. :) अपने मित्र से कहें हिंगलिश के स्थान पर हिन्दी सीखे....
ReplyDeleteश्री गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभ कामनाएं
ReplyDeleteज्ञान जी ...इस मुई ब्लोगिंग का एक फायदा है जहाँ स्विच दबाया ओन करके पढ़ लिया.अच्छा लगा तो टिपिया दिया नहीं तोअगले दरवाजे चले ..कई लोगो की आदत पढ़ चुकी होती है .एक दो दिन आगे पीछे झाँक कर देख लिया की क्या लिखे है ...शुरुआत में टिपण्णी गिनने की हरेक को आदत होती है फिर क्वालिटी कंट्रोल की आदत हो जाती है ..
ReplyDeleteजो भोगा देखा उसे शब्द देकर लिखना ...ब्लोगिंग वही है ..उसे आप कितना दिलचस्प बनाते है ये आपके मूड पर निर्भर है ...ओर आपके कौशल पे ..पाठक की सोचकर लिखेगे तो ब्लोगिंग नहीं होगी .फिर अपनी मर्जी पीछे चली जायेगी ...कौन बात किसको पसंद आ जाए कह नहीं सकते .पर फिर भी मै इसे उपयोगी टूल मानता हूँ ....अब ये आप पर है आप इसका उपयोग करे या दुरूपयोग...पर फायदा ये है रिमोट आपके हाथ रहेगा
"उपलब्ध सामग्री में कुछ काम का मिलना चाहिये पाठक को।"
ReplyDeleteइसमें तो कतई दो राय नहीं, नहीं तो आदमी दूसरी बार भले नजर मार ले, तीसरी बार तो वो किसी के ब्लॉग में झांकने भी नहीं जाएगा. (...ध्यान दीजिए, मैं आपके ब्लॉग पर अकसर आते रहता हूं...:))
रहा सवाल हुनरमंदी का तो हम भी मानते हैं कि आप हुनरमंद है! अलबत्ता, हम आपकी टाइपिंग एबिलिटी को दोष नहीं दे रहे...
किसी से भी खुंदक खाने से क्या लाभ है? मनुष्यों का संगठन सब से कठिन है। वे सब अपने तरीके से सोचते हैं, अभिव्यक्त करते हैं।
ReplyDeleteसुंदरता किसी भी लेखन की पहली शर्त है। असुंदर को कोई भी पास नहीं फटकने देता। पर स्थायित्व तो शिवम् और सत्यम् से ही आता है, इन के बिना तो असीम सुंदर लेखन भी दफ़्न हो जाता है।
Grammar is a bitch.
ReplyDeleteJohn Clare (English poet)
बढ़िया आलेख।
ReplyDeleteकिसी मजदूर से पूछा जाय तो कहेगा - पठनीयता उसे कहते हैं जब मस्टर पर दस्तखत करते समय मजदूरी की रकम सही दिख जाय।
मंत्री से पूछा जाय तो उसी फाईल को पठनीय मानेगा जो कि उसे कुछ 'विटामिन एम' दे सके।
यही प्रश्न अगर भीम से यक्ष ने पूछा होता तो जवाब मिलता - अचार की बरनी पर लिखे को पठनीयता कहते हैं :)
हर एक का पठनीयता डेफिनेशन अलग अलग होता है शायद :)
आफ़िस के घुनन .... मेरा मतलब मल्हन को भी हिंदी सिखा ही देते:-)
ReplyDeleteपठनीयता तो सेल्फ प्रोक्लेम्ड नसीहताचार्यों की पोस्टों/टिप्पणियों में भी है, आपका इतना समय खाये जा रहे हैं । या तो इतना गरिया लें कि पुनः गरियाने की इच्छा न हो, नहीं तो उन्हे क्षमा करते हुये एक और पोस्ट ठोंक दें । मानसिक हलचल के आयाम गंगा से गरियाने तक जा पहुँचे ।
ReplyDeleteकिसी रचयिता के भौकाल से पुस्तक/पोस्ट पढ़नी प्रारम्भ तो की जा सकती है पर पूरी करने के लिये और दुबारा पढ़ने की ललक जगने के लिये पठनीयता आवश्यक है । आपकी पोस्टों का नयापन व वैचारिक उद्वेलिता पोस्टों को अति पठनीय बनाती हैं । मन मौजियत में लिखे रहें ।
पठनीयता?
ReplyDeleteएक सर्वे करने का मन है. आपके अलावा कितने ब्लॉग्स गैर ब्लॉगर पाठकों की टिप्पणियाँ पाते हैं?
ReplyDeleteजिन खोजा तिन पाईंया..
कूड़े को परिभाषित किये जाने की आवश्यकता है ।
नसीहत अली रोज़े रख रहे हैं, तो नसीहताचार्य पैदा हो गये ।
रमज़ान मुबारक, गुरुवर !
बहुत से एसे भी होंगे जो कुछ-कुछ लिख कर बस रख भर लेते होंगे...ब्लाग एसे लोगों के लिए भी एक खिड़की है फ़र्क़ इतना भर है कि उन्हें बाहर देखने देने के बजाय हम उनकी खिड़की में झांकने चले जाते हैं.
ReplyDeleteकहना मल्हन साहब का भी ग़लत नहीं लगता, कोई प्याले को देखता है तो कोई प्याले में देखता है, अपनी अपनी नज़र है.
पोस्ट लिखना और उसे पब्लिश होने के लिये ठोंकना तो विशुद्ध मनमौजियत का विषय है। और मैं वही कर रहा हूं।)....
ReplyDelete...यह बात मेरे मन की कही। कुछ ऐसा ही शायद मैं भी कर रहा हूँ। शानदार आलेख के लिए खूब बधाई।