श्री बुध प्रकाश मेरे जोनल रेलवे (उत्तर मध्य रेलवे) के महाप्रबंधक हैं। सामान्यत: मैं उनपर नहीं लिखता - कि वह कहीं उनकी चाटुकारिता में लिखा न प्रतीत हो। पर वे ३१ दिसम्बर को रिटायर होने जा रहे हैं और ऐसा कोई मुद्दा शेष नहीं है जिसमें मुझे उनकी चाटुकारिता करने की आवश्यकता हो। इसके अलावा वे इण्टरनेट को खोल कुछ पढ़ते भी नहीं हैं। लिहाजा यह पोस्ट मैं लिख सकता हूं।
मुझे वे लोग पसंद हैं जो बहुत सरल, ग्रामीण और समृद्धि के हिसाब से साधारण पीढ़ी से अपने बल बूते पर आगे बढ़े होते हैं। श्री बुध प्रकाश उस प्रकार के व्यक्ति हैं। ग्रामीण परिवेश के। माता-पिता लगभग शहरी जीवन से अनभिज्ञ। श्री बुध प्रकाश हरियाणा के बागपत जिले के रहने वाले हैं। आर्यसमाजी हैं। गर्ग गोत्र के हैं पर आर्यसमाज के प्रभाव के चलते (?) अपने नाम के आगे जातिसूचक शब्द नहीं लगाते। अत्यन्त सरल व्यक्ति हैं। अन्दर और बाहर एक - ट्रांसपेरेण्ट व्यक्तित्व।
मैं कल सवेरे उनके सामने अकेले बैठा था। हम रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष के एक फोन की प्रतीक्षा कर रहे थे और उसमें देर हो रही थी। बात बात में पूर्वजों की सरलता और उनके द्वारा दिये गये संस्कारों की बात होने लगी। श्री बुध प्रकाश ने अपने पूर्वजों के विषय में दो तीन कथायें बताईं। मैं उनमें से एक के बारे में बताता हूं।
"इनके परिवार के पांच भाइयों ने एक निर्णय किया। इनमें से बारी बारी एक भाई सवेरे पैदल दूसरे गांव जाता। दुकान का ताला खोल कर दिन भर दुकान चलाता। वहीं उनके घर से आया भोजन करता। ... और जब वह घर सक्षम हो गया तब निस्पृह भाव से इन भाइयों ने अपने कर्तव्य की इतिश्री की। " |
उन्होने बताया कि उनकी कुछ पीढ़ी पहले दो भाई थे। एक गांव से करीब पांच किलोमीटर दूर दूसरे गांव में बस गये। कालांतर में दूसरे गांव वाले नातेदार के परिवार में सभी वयस्कों का निधन हो गया। घर में केवल स्त्रियां और दो-तीन साल के बच्चे ही बचे। इनके गांव में परिवार में पांच भाई थे। दूसरे गांव में जीविका के लिये एक दुकान थी पर कोई चलाने वाला नहीं था। स्त्रियां दुकान पर बैठ नहीं सकती थीं और बच्चे इतने बड़े नहीं थे।
इनके परिवार के पांच भाइयों ने एक निर्णय किया। इनमें से बारी बारी एक भाई सवेरे पैदल दूसरे गांव जाता। वयस्क पुरुष विहीन परिवार की दुकान का ताला खोल कर दिन भर दुकान चलाता। वहीं उनके घर से आया भोजन करता। उनका घर-दुकान सम्भालता लेकिन उनके घर पर (केवल स्त्रियों के होने के कारण) न जाता। शाम को देर से दुकान का हिसाब किताब कर दुकान बंद कर पांच किलोमीटर पैदल चल अपने घर वापस आता। बारी बारी से यह क्रम तब तक चला - लगभग १४-१५ वर्ष तक - जब तक कि वहां के बच्चे घर दुकान सम्भालने योग्य नहीं हो गये। अत: १४-१५ वर्ष तक इनके परिवार से एक व्यक्ति रोज १० किलोमीटर पैदल चल कर एक घर को सम्भालता रहा - निस्वार्थ। और जब वह घर सक्षम हो गया तब निस्पृह भाव से इन भाइयों ने अपने कर्तव्य की इतिश्री की।
श्री बुधप्रकाश जी ने यह और दो अन्य घटनायें यह स्पष्ट करने के ध्येय से मुझे बताईं कि हमको हमारे पूर्वजों के किये सत्कर्मों के पुण्य का लाभ अवश्य मिलता है। मैं अपने पूर्वजों के बारे में सोचता हूं तो उनका यह कहा सत्य प्रतीत होता है।
मै जब उनके चेम्बर से ड़ेढ़ घण्टे बाद वापस आया तो मेरे मन में उनके और उनके सरल पूर्वजों के लिये सहज आदर भाव आ गया था।
श्री बुधप्रकाश जी के बारे में मैने पहले एक ही पोस्ट लिखी है - यह पोस्ट विकलांगों को उचित स्थान दें समाज में; १४ अप्रेल को लिखी गयी थी। उल्लेखनीय है कि श्री बुघप्रकाश के बच्चे विकलांग हैं और वे इस विषय में बहुत सेन्सिटिव हैं।
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सर्दी बढ़ गयी है। सवेरे घूमते समय बेचारे गली के कुत्तों को देखता हूं तो वे गुड़मुड़ियाये पड़े रहते हैं। किसी चायवाले की भट्टी के पास जगह मिल जाये तो बहुत अच्छा। जरा ये मोबाइल कैमरे से लिये दृष्य देखिये कुत्तों और सर्दी के:
दो-तीन पीढ़ी पहले तक चीजें बड़ी सरल थीं। जीवन बड़ा सरल था। आज हम बस उसकी याद ही कर सकते हैं। उससे प्रेरणा ले भी लें तो कुछ कर नहीं सकते।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा उनके बारे में पढ कर.. पता नहीं क्यों अपने दादा-दादी कि याद आ गयी..
ReplyDeleteज्ञान भईया.
ReplyDeleteऐसे सीधे सरल लोगों को मेरा नमन. जब भी ऐसे लोगों के बरे में पढता सुनता हूँ सरे अवसाद क्षण भर में दूर हो जाते हैं. सच तो ये है की ऐसे ही लोगों की उपस्तिथि से ये दुनिया रहने लायक बनी हुई है. श्री बुध प्रकश जी को मेरा सादर नमस्कार.
नीरज
नीरज गोस्वामी जी का कहना सही सा लगता है। शायद ऐसे ही लोगों की उपस्थिति के कारण दुनिया बची हुई है अब तक!!
ReplyDeleteअच्छा लगा!!
बुधप्रकाश जी के लिए शुभकामनाएं।
आपके मोबाईल से तस्वीरें अच्छी आती है।
बहुत अच्छी बात बताई आपने.
ReplyDeleteइस तरह के प्रेरक प्रसंग ही अपन जैसे लोगों के दिल मे दब गई अच्छाई के लिए उत्प्रेरक का काम करते हैं.
मेरी भी राय यह है कि दुनिया इत्ती टुच्ची और कमीनी नहीं है, जितनी वह बाज वक्त दिखती है। मतलब बिलकुल सीधी सच्ची हो, येसा भी नहीं है। पर इसी दुनिया में ऐसे लोग भी बसते हैं, जो अपने दुख सुख स्वार्थों से ऊपर हटकर भी सोचते हैं और ये दुनिया सच्ची में उन्ही की वजह से चल रही है। वरना जंगलियों और हममें कुछ खास फर्क नहीं रहे।
ReplyDeleteबुधप्रकाश जी को शुभकामनाएं कहें।
रिटायरमेंट के बाद पैसे कमाने के लिए स्मार्ट निवेश डाट काम पढ़ें।
समय बचें, तो आलोक पुराणिक डाट काम पढ़ें।
फिर भी समय बचे, तो आपका ब्लाग पढ़ें।
और इसके अलावा है ही क्या जिसे पढ़ा जाये, नहीं क्या।
वाकई कुछ बातें जानकर, पढ़कर तसल्ली हो जाती है कि हालात इतने बुरे नही है.
ReplyDeleteयदि कोई सैद्धान्तिक रूप से अपने नाम के आगे जातिसूचक चिह्न नहीं लगाता है तो फिर उस व्यक्ति की जन्म आधारित जाति को प्रकाशित करना क्या उनके इसी सिद्धान्त का निरादर नहीं है?
ReplyDelete@ आलोक - शायद निरादर हो। मैने इस कोण से नहीं सोचा। आगे लेखन में इस कोण पर सोच कर लिखा करूंगा।
ReplyDeleteप्रेरणादायी पोस्ट। रिटायरमेंट के बाद उन्हे हमारी तरफ से ब्लाग जगत मे आने का आमंत्रण दे दीजियेगा।
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट। बुधप्रकाशजी को रिटायरमेंट के बाद हमारी भी शुभकामनायें। उनके बच्चों के लिये मंगलकामनायें।
ReplyDeleteबुद्ध जी के पूर्वजों जैसे हमारे घर में भी उदाहरण हैं । पर अनिल जी की बात भी सही है आज कल ऐसे लोग मिलने बहुत मुश्किल हैं । अंत में फ़ोटो बहुत अच्छे हैं, पिल्लों की अम्मा(हमें कुतिया कहना अच्छा नहीं लगता) लगता है पोस दे रही हो, मां बनने से पहले मॉडल रही होगी। आप का मोबाइल केमरा भी बहुत बड़िया है, कौन सा है?
ReplyDeleteयहां मुंबई में गुजरातीयों के यहां इस तरह के वाकये देखने में आते हैं कि यदि किसी का कोई दुकान वगैरह संभालने वाला नहीं है तो कोई रिश्तेदार सामने आता है और जब तक उस घर की महिला खुद दुकान की समझ नहीं ले लेती या उसके बच्चे नहीं बडे हो जाते कुछ न कुछ समय दुकान को देता रहता है। एक वाकया मेरे आस पास ही हुआ है।
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