यह पंकज अवधिया जी की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है। यह पोस्ट शीतकालीन स्वास्थ्य के लिये शीतकालीन वनस्पति के प्रयोग से सम्बन्धित है। आप पोस्ट पढ़ें:
प्रश्न: मै साल भर स्वास्थ्य की अच्छे से देखभाल करता हूँ फिर भी सर्दियों मे बीमार पड जाता हूँ। पूरे मौसम कुछ न कुछ होता ही रहता है। बचपन मे जिस मस्ती से सर्दियों मे मजे करते थे , लगता है अब सम्भव नहीं।
उत्तर: यदि माँ प्रकृति ने सर्दी का मौसम दिया है तो यह भी जान लीजिये कि इस मौसम मे होने वाले बीमारियो से लड़ने और बचने के उपाय भी उपलब्ध करवाये हैं। उनकी सौगात हमारे आस-पास वनस्पतियों के रूप मे बिखरी हुई है। सर्दी के मौसम मे यदि आप ध्यान दें तो कुछ विशेष प्रकार की वनस्पतियाँ उगती है। इन्हे आप दूसरे मौसम मे नही पायेंगे। हम अज्ञानतावश भले ही इन्हे फालतू ठहरा दें पर जानकार इन्ही की सहायता से रोगों से बचे रहते है। इन्ही मे से एक वनस्पति बथुआ है।
ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े सभी लोग इसे अच्छे से जानते हैं और उन्होने इससे तैयार परांठों का सेवन किया होगा। पर बहुत कम लोग यह जानते है कि इस वनस्पति मे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाने की असीम ताकत होती है। इसके नाना प्रकार के उपयोग हैं। सबसे सरल उपयोग है सर्दियो के दौरान किसी न किसी रूप मे प्रतिदिन इसका प्रयोग। यदि परांठे से ऊब होती हो तो भाजी के रूप मे या पकौड़े के रूप मे इसे खाया जा सकता है। नाश्ते के समय इसका प्रयोग सबसे अधिक गुणकारक है। भोजन के समय यह कम और रात के समय इसका किसी भी रूप मे उपयोग अधिक लाभ नही पहुँचाता है।
इस प्रकार का विशिष्ट ज्ञान आपको प्राचीन ग्रंथो मे नही मिलेगा। यह हमारा सौभाग्य है कि यह ज्ञान हमारे पारम्परिक चिकित्सको के पास है और वे इसका प्रयोग कर रहे है जन-सेवा में। इन्हे सम्मानित कर इस पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान को मान्यता प्रदान करने की आवश्यकता है।
आमतौर पर चने और गेहूँ के खेतों मे यह अपने आप उगता है और किसान इसे उखाड़ते-उखाड़ते थक जाते हैं। खेतो मे स्वत: उगने वाला बथुआ सर्वोत्तम है। शहरी माँग की पूर्ति करने अब इसकी खेती भी की जाती है। और अच्छे उत्पादन के लिये रसायनो का प्रयोग भी। रसायनयुक्त बथुआ का सेवन यदि दवा के रूप मे करना है तो यही बेहतर होगा कि इसे खाया ही नही जाये।
आज दुनियां भर के वैज्ञानिक कैंसर के उपचार की खोज मे जुटे हैं। हमारे देश के पारम्परिक चिकित्सक पीढ़ियों से केंसर से बचने के उपायों को जानते हैं। आज जब हमारे शहर कैंसर के लिये उत्तरदायी कारकों के घर हुये जा रहे हैं ऐसे समय मे हमारा पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान ही हमे बचा सकता है।
देश के मध्य भाग के पारम्परिक चिकित्सक आम लोगों को अपने हाथों से बथुआ लगाने और उसकी सेवा करने को कहते हैं। जब पौधे बड़े हो जाते हैं तो रोज सुबह नंगे पाँव उसपर जमी ओस पर चलने की सलाह देते हैं। ऐसा आपने दूब के साथ किया होगा आँखो की ज्योति बढ़ाने के लिये। बथुआ पर जमी ओस पर चलना न केवल कैंसर से बचाता है बल्कि उसकी चिकित्सा मे भी सहायक उपचार के रूप मे कारगर है। जोड़ों के दर्द से प्रभावित रोगियों को तो बथुआ के पौधों पर सर्दी की रात को सफेद चादर बिछा देने की सलाह दी जाती है। सुबह ओस और पौधे के प्राकृतिक रसायन युक्त चादर को नीम की छाँव मे सुखा लिया जाता है। फिर रोज बिस्तर पर इसे बिछाकर सोने की सलाह दी जाती है।
इस प्रकार का विशिष्ट ज्ञान आपको प्राचीन ग्रंथो मे नही मिलेगा। यह हमारा सौभाग्य है कि यह ज्ञान हमारे पारम्परिक चिकित्सको के पास है और वे इसका प्रयोग कर रहे है जन-सेवा में। इन्हे सम्मानित कर इस पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान को मान्यता प्रदान करने की आवश्यकता है।
बथुआ पर आधारित शोध आलेख ईकोपोर्ट पर उपलब्ध है। आप बथुआ के विषय में चित्र यहां देख सकते हैं।
पंकज अवधिया
कॉपीराइट चित्र का प्रयोग न करने की बात के चलते मेरी पत्नी और मैं मार्किट गये बथुआ खरीदने। पांच रुपये की छ गांठ बथुआ खरीद कर लाये; जिनके चित्र ऊपर हैं। जब हम उद्यम कर बथुआ की गांठ या बच का गमला ब्लॉग पर लाने का कार्य करते हैं; तो बावजूद इसके कि पोस्ट में ग्लिटर (glitter - चमक) कम होती है; पोस्टियाना ज्यादा आनन्ददायक लगता है! और यह आनन्द पंकज अवधिया की संगत और शास्त्री जे सी फिलिप की कॉपीराइट विषयक पोस्टों से अनुप्रेरित है।
कल पंकज अवधिया जी ने मेरी पोस्ट पर टिप्पणी में लम्बी कविता ठेली और ठेलने की प्रक्रिया में हमारी विचारधारा को भी ठेला! यह विचारधारा में अंतर पंकज में भी है और प्रियंकर में भी। प्रियंकर नन्दीग्राम विषयक रैली में भाग लेने वाले जीव हैं। पंकज की तरह फुटपाथ अतिक्रमण को गरीब-सहानुभूति से जोड़ कर देखने वाले। पर ब्लॉगजगत का नफा यह है कि मैं इन बंधुओं की सोच के लिये स्पेस रखने लग गया हूं|
आजकल प्रियंकर नजर नहीं आ रहे - समीर लाल जी की तरह। शायद वुडलैण्ड का जूता पहन इतराये हुये हैं!
लेख पढ़कर बथुआ के बारे में पता चला । यदि इसके दि चार पत्तों पर ही फोकस करते तो पहचान अधिक सरल हो जाती ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
बथुआ हम खाते हैं। लेकिन रात को मनाही काहे? काफ़ी चमकदार है फोटो।
ReplyDeleteभाई, बथुआ और बथुई, हम दोनों ही खाते हैं। आप के चित्र में जो है, बथुई लग रही है, यह अधिक गुणकारी है। आजकल की सबसे बड़ी बीमारी कब्ज की बेहतरीन दवा। अभी सुबह इस की कढ़ी बनने वाली है।
ReplyDeleteतो यह कहिए न
ReplyDeleteबथुआ खाओ
स्वास्थ्य बनाओ....
अच्छा है...
"कॉपीराइट चित्र का प्रयोग न करने की बात के चलते मेरी पत्नी और मैं मार्किट गये"
ReplyDeleteइसका मतलब यह हुआ ज्ञान जी कि सारथी का असर न केवल चिट्ठाकारी पर पड रहा है, बल्कि परिवारों पर भी पड रहा है. अब हम अपनी धर्मपत्नी को यह लेख दिखा देते हैं जिससे उनको भी पता चले कि एक चिट्ठे के अनेक प्रभाव है !!
चित्र अच्छे आये हैं. यदि हर चिट्ठाकार इस तरह चित्र खीचने की आदत डाल ले तो काफी देशज जानकारी का चित्रीकरण हो जायगा.
स्वास्थ्यवर्धक औषधि के बारे मे अपने बढ़िया जानकारी दी है जिसके लिए आपको धन्यवाद. हमारे देश मे वनस्पतियों का भंडार भरा पुरा है बस जरुरत है जानने और पहचानने की | समय समय पर इसी तरह की जानकारी प्रदान करते रहे.
ReplyDeleteहाँ जी बथुआ का प्रयोग तो हमारे घर मे लगभग पूरे जाड़े के मौसम होता है. बिल्कुल उसी तरह जैसे आपने बताया. कभी कढ़ी, कभी परौठा, कभी पकौडे तो कभी सब्जी और अपन तो रात मे भी खाते है. ये दीगर बात है कि अपन को परौठा और पकौडे ज्यादा पसंद है. क्यों ? ये बात हमारी भौगोलिक संरचना देखकर ही कोई समझ पायेगा.
ReplyDeleteधांसू पोस्ट है। कालजयी पोस्ट यही होती है। बाकी सारे विषय अप्रासंगिक हो जायेंगे, पर बथुआ और हल्दी की उपयोगिता अब से एक हजार सालों बाद भी बनी रहेगी।
ReplyDeleteन केवल परांठा बल्कि हमारे यहां तो बथुए का रायता भी बहुत बनता है। और काफी स्वादिष्ट भी होता है। हाँ बथुए इतना लाभकारी है ये पता नही था।
ReplyDeleteये टिप्पणी तो नही है, पर कुछ अटपटा लग रहा है, इसलिये लिख रहा हूँ।
ReplyDeleteमुझे लग रहा है कि Comments welcomed in English also! को Comments are welcome in English too लिखा जाय तो अच्छा लगेगा :)।
बथुए को सिर्फ रायता बनाकर ही खाया था लेकिन आज रोगों के इलाज़ में कैसे इस्तेमाल करना है यह नई जानकारी है... बहुत बहुत धन्यवाद....यहाँ न नीम न बथुआ है..इन्हे पाने का कुछ उपाय सोचना पड़ेगा .
ReplyDeletebathuye ke paraanthey to sardiyon ki shuruaat se hi khaaye jaaney lagtey hain hamarey yahan ..magar faaydeymand bhi hai aaj gyaat huaa..bahut aabhaar
ReplyDeleteसही है, वैसे मेरे यहाँ बथुआ काफ़ी महँगा मिलता है, कभी कभी एक गुच्छी १० रुपए तक की भी - क्योंकि पराँठों के लिए काफ़ी लोकप्रिय है।
ReplyDeleteआज पता चला कि अंग्रेज़ लोग बथुआ नहीं, चेनोपोडियम अल्बम के पराँठे खाते हैं! :) वैसे जब आप गूगल की कड़ी दें तो hl=hi कर सकते हैं।
ReplyDeleteअच्छी जानकारी है पंकज भाई छत्तीसगढ में इसे कुथुआ कहते हैं ना ? कृपया यही जानकारी दीजियेगा ।
ReplyDeleteक्या बात है!!
ReplyDeleteवाकई अपने अवधिया जी ये सब ज्ञान का खज़ाना है, मेरा घर और उनका घर मुश्किल से पांच-छह मिनट के फासले पर होगा पर मुलाकात ही नही हो पाई है कभी।
ज्ञान जी, बथुवा खाए टू जमाना बीत गया है..
ReplyDeleteऔर आपने बीते ज़माने की याद दिला दी..
सच में आज मम्मी के हाथ का बथुवा खाने का जी करने लगा.. बस बथुवा का साग(मार वाला) और भात..
आप सभी की टिप्पणियो के लिये आभार। आशा है आप सभी इन सब नुस्खो का प्रयोग दैनिक जीवन मे भी कर रहे होंगे।
ReplyDeleteपोस्ट आने से दो-तीन दिन पहले तक मुझे लगता है कि काश मै अदृश्य रूप से ज्ञान जी के पीछे होता और उनकी तैयारियो को देख पाता। वे बहुत मेहनत करते है। वरना आप मेरे मूल लेख को देखे तो वह इतना रोचक नही लगेगा।
संजीव जी कुथुआ बथुआ नही है। कुथुआ अलग प्रकार की वनस्पति है और आम तौर पर इसका प्रयोग बथुआ की तरह नही होता। आप दुर्ग की सब्जी मंडी पर जाये और बथुआ मांगे तो यह आपको अवश्य मिल जायेगी।
मेरी कविता से ज्ञान जी ज्यादा आहत हुये हो तो मै क्षमाप्रार्थी हूँ। पर मुझे लगता है अन्धेर नगरी चौपट राजा मे यदि सुधार करना ही है तो प्रजा से नही राजा से शुरूआत करनी होगी।
पंकज अवधिया > मेरी कविता से ज्ञान जी ज्यादा आहत हुये हो तो मै क्षमाप्रार्थी हूँ।
ReplyDeleteकतई ऐसा नहीं है। सोचने के ढ़ंग में इतने अंतर का मार्जिन तो होना ही चाहिये। अन्यथा हम एक दूसरे के क्लोन न होते!
आपने मेरी प्रशंसा की - धन्यवाद।
बथुए का रायता बचपन में खाते थे इसकी कुछ धुंधली सी याद है, पर अब तो शायद पहचान भी न पायें। बम्बई के बाजारों में तो कभी देखा नहीं । पर जानकारी के लिए शुक्रिया, अब ढूढेगें
ReplyDeleteबथुए का रायता बचपन में खाते थे इसकी कुछ धुंधली सी याद है, पर अब तो शायद पहचान भी न पायें। बम्बई के बाजारों में तो कभी देखा नहीं । पर जानकारी के लिए शुक्रिया, अब ढूढेगें
ReplyDeleteoh wow...what a paratha..veru innovative twist to stuffed paratha!
ReplyDeleteIndian Vegetarian Recipes