’उनके’ पति जा चुके थे। एक लड़का अमेरिका में और दूसरा उत्तरप्रदेश के किसी शहर में रहते हैं। पति की मृत्यु के बाद धीरे धीरे वे डिमेंशिया की शिकार होने लगीं। इस रोग में व्यक्ति धीरे धीरे मानसिक शक्तियां खोने लगता है। वे याददाश्त खोने लगीं। लोगों को पहचानने में दिक्कत होने लगीं। उत्तरप्रदेश में अपने छोटे लड़के के पास रह रही थीं। इस बीच परिवार को सामाजिक कार्यक्रम में किसी अन्य स्थान पर जाना पड़ा। यह वृद्धा अकेली घर में थीं।
परिवार के वापस आने पर घर का दरवाजा नहीं खोला वृद्धा ने। फ़िर कराहने की आवाज आयी। घर का दरवाजा तोड़ कर लोग अन्दर पंहुचे। वहां पता चला कि वे फ़िसल कर गिर चुकी हैं। कूल्हे की हड्डी टूट गयी है। स्त्रियों में कूल्हे की हड्डी टूटने की सम्भावना पुरुषों के मुकाबले ३ गुणा अधिक होती है।
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खैर, त्वरित डाक्टरी सहायता उपलब्ध करायी गयी। ऑपरेशन से हड्डी जोड़ी गयी - जांघ और घुटने के बीच की हड्डी में रॉड डाल कर। फ़िर उन्हें ४० दिन के लिये बिस्तर पर रहने को कह दिया गया। सभी नित्य कर्म बिस्तर पर होना व्यक्ति को बहुत हतोत्साहित करता है।
रोज नहा धो कर भोजन ग्रहण करने वाली वृद्धा के लिये यह निश्चय ही कष्ट कारक रहा होगा। उन्होने भोजन में अरुचि दिखानी प्रारम्भ करदी। कहने लगीं कि उन्हे लगता है उनके पति बुला रहे हैं। डिमेंशिया बढ़ने लगा।
फ़िर भी हालत स्थिर थी। अमेरिका से आया लड़का वापस जाने की फ़्लाइट पकड गया। ऑपरेशन को सोलह दिन हो चुके थे।
(डिमेंशिया पर विकीपेडिया पर पन्ने के अंश का चित्र। चित्र पर क्लिक कर आप पन्ने पर जा सकते हैं।)
वृद्धा की, लगता है इच्छा शक्ति जवाब दे गयी। डिमेंशिया, बिस्तर पर रहने का कष्ट, पति का न होना और उम्र - इन सब के चलते वे संसार से चली गयीं। उस समय अमेरिका गया लड़का बीच रास्ते फ़्लाइट में था। अमेरिका पंहुचते ही उसे मां के जाने का समाचार मिला। अन्देशा नहीं था कि वे चली जायेंगी - अन्यथा वह कुछ दिन और भारत में रह जाता।
यह सुनाने वाले सज्जन वृद्धा के दामाद थे। वे स्वयम अपने परिवार में सदस्यों की बीमारी से जूझ रहे हैं। जब उन्होने यह सुनाया तो उनकी आवाज में गहरी पीड़ा थी। पर यह भी भाव था कि मांजी मुक्त हो गयीं।
वृद्धावस्था, डिमेंशिया/अल्झाइमर बीमारी, कूल्हे की हड्डी का टूटना और अकेलापन - यह सभी इनग्रेडियेण्ट हैं दुनियां से फ़ेड आउट होने के। बस कौन कब कैसे जायेगा - यह स्क्रिप्ट सबकी अलग-अलग होगी।
जो हम कर सकते हैं - वह शायद यह है कि वृद्ध लोगों का बुढ़ापा कुछ सहनीय/वहनीय बनाने में मदद कर सकें। कई छोटे छोटे उपकरण या थोड़ी सी सहानुभूति बहुत दूर तक सहायता कर सकती है। मैं यह जानता हूं - मेरे पिताजी की कूल्हे की हड्डी टूट चुकी है और उनके अवसाद से उबरने का मैं साक्षी रहा हूं।
रविवार के दिन मैं अपनी चाचीजी को देखने गया था अस्पताल में। उम्र ज्यादा नहीं है। पैर की हड्डी दो बार टूट चुकी है। बिस्तर पर सभी नित्यकर्म हो रहे हैं। वह भी रोने लगीं - मौत भी नहीं आती। बड़ा कठिन है ऐसे लोगों में बातचीत से आशा का संचार करना। उनमें तो सहन शक्ति भी न्यून हो गयी है। जाने कैसे चलेगा?!
वृद्धावस्था के कष्ट; यह मैं किसके पढ़ने के लिये लिख रहा हूं। कुछ जवान पढ़ने आते हैं ब्लॉग; वे भी अरुचि से चले जायें?
लेकिन जीवन में सब रंग हैं; और मानसिक हलचल कभी ऐसे रंगों को न छुये - यह कैसे हो सकता है?
मेरे दादा जी के भी कूल्हे की हड्डी टूट गयी थी। बड़ा कष्ट सहना पड़ा उन्हें।
ReplyDeleteजीने की इच्छा का होना सबसे जरूरी तत्व है ऐसे रोगों में सुधार का। इसमें यह भी होता है कि किसलिये जियें? अच्छी पोस्ट है। जीवन का यह भी एक अपरिहार्य रंग है।
ReplyDeleteज्ञान जी, मन भर आया, आंख भर आई। और क्या कहूं। इस पीड़ा को आपने बेहद संजीदगी और सहानुभूति से डील किया है। बहुत जबरदस्त लेखनी चली है आपकी।
ReplyDeleteजीवन के हर पहलू के बारे में लोगों की आंख खोलना जरूरी है. आभार.
ReplyDeleteआपक फेविकान तो गजब का है !!
मार्मिक
ReplyDeleteमेरे पिता की कूल्हे की हड्डी लगभग दस महीने पहले टूटी । अब भी ठीक तरह से बैठ और चल नहीं पाते । अवसाद के क्षण भी आते हैं पर उनकी लिखाई पढ़ाई लगातार चलती रहती है । तीन महीने पहले तक मेरे ही साथ थे अब भाई के पास हैं । फोन पर कौन सी किताब कितनी पढ़ी इसका प्रोग्रेस रिपोर्ट मैं माँगती रहती हूँ । आजकल डिसापीयरंस ऑफ यूनीवर्स पढ़ रहे हैं । फोन पर उनकी आवाज़ में गज़ब की बुलंदी रहती है जबकि मैं जानती हूँ कि लगातार बिस्तर पर पड़े रहने से हौसला और मन कितना पस्तहाल होता है ।
ReplyDeleteआपका ये पोस्ट मन के बहुत करीब लगा ।
ज्ञान जी, मैं तो आपके इन्ही तरह के संवेदनशील लेखों का दिवाना हूं.. आपके संस्मरणों से मुझे कई बार प्रेरणा भी मिली है और कई बार सोचने की नई दिशा भी.. सो ऐसा कतई ना सोचे कि सारे जवान लोग भी आयेंगे और इसे बिना पढे ही चले जायेंगे..
ReplyDeleteसही कहूं तो इससे पहले के कुछ पोस्ट को अनमने ढंग से पढ कर मैं जरूर चला जाता था.. कारण मुझे उन विषयों में ज्यादा रूची नहीं थी.. और यही कारण है की कोई कमेंट भी नहीं कर रहा था, सोचता था की जब विषय की सही जानकारी ही नहीं तो उसके बारे में क्या लिखूं...
मन को छू गयी आपकी ये पोस्ट।
ReplyDeleteचिन्ता न करें!!
ReplyDeleteनही जाएंगे जी अरुचि से यह पढ़कर बल्कि अच्छा लगा इसे पढ़कर
क्योंकि यह आम घरों में होने वाली बात ही है!
मुख्य बात है जीजिविषा और इस जीजिविषा के लिए विषय आसक्ति!!
स्वर्गीय पिताजी पैदल ताउम्र पैदल चलते रहे, ऐसे ही एक दिन पैदल चलते हुए अचानक किसी सांड ने उन्हें उठाकर पटक दिया नतीजन कूल्हे की हड्डी खिसक गई, प्राकृतिक उपचार से बिठाया गया, तीन महीने बिस्तर पर रहे, तब उम्र थी 75 साल!! ठीक हुए और फ़िर सारा शहर पैदल नापना शुरु!!
बस पहले बिना छड़ी के सहारे थे इस दुर्घटना के बाद छड़ी के सहारे!!
ऐसे ही माता जी घर के दरवाजे पर खड़ी थी और एक गाय ने उन्हें गिरा दिया, कूल्हे की हड्डी टूट गई, ऑपरेशन हुआ प्लेट डाली गई, तब उम्र थी 66 साल, तीन महीने बिस्तर पर ही रहीं और आज फ़िर पैदल ही घूमती हैं!!! माता जी के बारे में बता दूं कि जब सारा पंजाब आतंकवाद की आग में जल रहा था तब वह हरिजन सेवक संघ की एक कार्यकर्ता के रूप में वहां अमन-चैन के लिए हुई पदयात्रा में शामिल थीं।
हकीकत है ये पर आशाऒं का संचार तो हमें ही करना होगा ना हमारे बुजुर्गों में। क्षीण होती जीवन की अभिलाषा शायद अकेलेपन की उपज है। ऐसे में विघटित होते सयुंक्त परिवार भी निराशा का एक कारण प्रतीत होते हैं।
ReplyDeleteमार्मिक किंतु बहुत ही शिक्षाप्रद पोस्ट है. पढ़ कर दुःख भी हुआ. पर हल आपने दिया भी है कि "वृद्ध लोगों का बुढ़ापा कुछ सहनीय/वहनीय बनाने में मदद कर सकें।"
ReplyDeleteवृद्धावस्था के शारीरिक-मानसिक संकट और व्याधियों को सही परिप्रेक्ष्य में लेने को प्रेरित करती, कारणों की पड़ताल कर जिजीविषा को बढाने वाली और परिणामतः अवसाद का विरेचन करने वाली पोस्ट जो 'सिम्पथी' और 'एम्पथी' का नायाब नमूना है . इसे आवश्यक पाठ के अन्तर्गत रखना उचित होगा .
ReplyDeleteआप संवेदनशील प्रेक्षक और समर्थ लेखक हैं .
जरा सबसे बड़ी व्याधि है भाई.....इसमें कुछ भी नहीं जुड़ता....इस लिए टूटने से बचाना ही एक मात्र उपाय है.....
ReplyDeleteज्ञान जी , जितनी सहजता से आप कह जाते हैं उतना ही सहज रूप से पढ़ते हुए अपनत्त्व की भावना जागती है. शायद इसी भावना से प्रेरित होकर दुख सुख की चर्चा करते हैं. अप्रत्यक्ष रूप में एक दूसरे को सहारा देते हैं.
ReplyDeleteआपके लेख से ही नही...टिप्पणियों से भी धीरज मिलता है.
शिक्षाप्रद पोस्ट है.
ReplyDeletekaafi dino pehley mainey apni naani kaa sansmaran likhaa thaa '"DHUUA BANA KAR". unko bhii sab maaji hi kahtey they.par potey ki mrituy aur bahut lambaa vaidhavya bhogney ke baad unhoney chuchaap apni biimari ki ot me mrituy kaa svayam hi varan kiyaa thaa ye hum sab jaantey hain...aapki post ne aankhey geeli kar dii fir se
ReplyDeleteइन लोगो के कष्टो को दूर करने मे मेरा ज्ञान और समय काम आ सके तो मै अपना जीवन सफल समझूंगा। मै तत्पर हूँ। चलिये अपनो ही से शुरूआत करे।
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