छब्बीस दिसम्बर को मेरा दफ्तर इलाहाबाद में सिविल लाइन्स से बदल कर सुबेदारगंज चला गया। महाप्रबंधक कार्यालय का उद्घाटन तो पिछले महीने ही हो गया था। मेरे दफ्तर का शिफ्टिंग अब हुआ। बड़ी आलीशान इमारत है नये दफ्तर की। खुला वातावरण। पर मैं अवसादग्रस्त हो गया हूं। नयी जगह पर अटपटा लग रहा है। ट्यूब लाइट नहीं लगी हैं सभी। चपरासी के लिये घण्टी नहीं है। चाय बनाने का इन्तजाम नहीं हो पाया है। बाहर से लायी चाय ’पेशल’ है पर अदरक कस के पड़ी है उसमें। इण्टरकॉम और इण्टरनेट काम नहीं कर रहे। कमरे में कर्टेन नहीं लगे हैं। स्टॉफ अपने दफ्तर और कण्ट्रोल सेण्टर की जगह के लिये लड़ रहा है।
उत्तर मध्य रेलवे के नये मुख्यालय उद्घाटन के कुछ चित्र
शाम होते ही फेटीग और मच्छर घेर लेते हैं। मैं घर के लिये निकल लेता हूं। पर घर का रास्ता भी नयी जगह से पंद्रह मिनट और लम्बा हो गया है। अंधेरा हो गया है। ट्रैफिक ज्यादा है। यह ड्राइवर तेज क्यों चल रहा है? अवसाद ही अवसाद!
मैं गाड़ुलिया लुहारों और जिप्सियों की कल्पना करता हूं। ये घुमन्तू लोग तो आज यहां कल वहां। उन्हे तनाव नहीं होता क्या? दक्षिणी-पूर्वी योरोप के गड़रिये - जो अपनी भेड़ों के साथ चारे और पानी की तलाश में घूमते हैं, क्या वे नयी जगह में असहज होते हैं?
यायावरी और फक्कड़ी जीवन में कैसे लाई जाये? अधेड़ उम्र में जीवन की निश्चितता को कैसे अनलर्न किया जाये? ये प्रश्न हॉण्ट कर रहे हैं और बड़ी तीव्रता से कर रहे हैं।
पता नहीं, अज़दक चीन हो आये। मुझे कोई चुनार जाने को कह दे - जो मेरे अपने कार्यक्षेत्र का अंग है और जिसके कर्मचारी मेरे कहने पर सभी सम्भव कम्फर्ट मुहैया करा देंगे - तो भी मैं वहां न जाऊं। जाने के लिये ठेला जाऊं तो बात अलग है!
जरा सा परिवर्तन, जरा सा डिसकम्फर्ट सहा नहीं जाता। कैसे बदला जाये अपने स्वभाव को?
कोई सुझाव हैं आपके पास?
लगता है इस जिप्सियाना प्रश्नों के चलते मेरी ब्लॉगिंग अनियमित रहेगी।
ब्रिटिश राज से मुगल पीरियड में गए हैं, कुछ देर तो सहना होगा। फिर कुछ आदत में आएगा, कुछ आप खुद बदल डालेंगे। असुविधा का आनन्द लेना प्रारंभ कर दें समय कट जाएगा।
ReplyDeleteपांडेजी,
ReplyDeleteधीरज रखिए।
धीरे-धीरे आप नयी जगह पर settle हो जाएंगे।
मेरा अनुभव तो विपरीत है।
Construction Industry से जुडा हूँ और हम एक जगह पर टिके नहीं रह सकते।
आपको तो केवल शहर के अन्दर, एक इमारत से हटकर दूसरे इमारत जाना पढ़ा।
आप तो भाग्यशाली है!
हमें कई बार शहर, राज्य और कभी देश भी छोड़ना पढ़ा।
बस अब career का अंत समीप है और आजकल self-employed हूँ और अपने घर में ही अपना कार्यालय खोलकर बैठा हूँ। किसी की मजाल जो मुझे यहाँ से हटाएं!
नये वर्ष की शुभकामनाएं।
G विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु
ज्ञानजी
ReplyDeleteअथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा वाला सिद्धांत अमल में लाइए मजे ही मजे हैं।
नौकरी को लात मार कर मुम्बई चले आइये.. हीरो बनने या राइटर बनने का स्ट्रगल कीजिये.. जीवन को बदल दीजिये.. स्वभाव बदल जाएगा! हाँ थोड़ी(या शायद काफ़ी तकलीफ़) ज़रूर होगी..
ReplyDeleteसब ठीक हो जायेगा. ब्लागिंग भी चलेगी...
ReplyDeleteलेकिन अभय जी की बात पर अमल सोच समझ कर कीजियेगा...मुम्बई जाकर हीरो बनने का ख़याल तो एक दम मत कीजियेगा. समीर जी अन्तिम बार मुम्बई में देखे गए थे...अगर वे हीरो बन गए हैं तो आपका चांस वैसे भी नहीं रहा...लेकिन अगर स्ट्रगल चल रही है, तो इसपर अभी तक एक भी पोस्ट नहीं लिखी उन्होंने...
रही बात लेखक बनने की तो जहाँ अभय जी, बोधि भाई जैसे लेखक हैं, वहाँ जमने का चांस न के बराबर है...इसलिए मेरे पुराने प्रस्ताव पर विचार कीजिये..कलकत्ते आईये, हम दोनों मिलकर एक्सेंचर से भी बड़ी कंसल्टिंग फर्म खोलेंगे..
हीरो बनने का हो तो ग्लोबल सोचियेगा वरना कोई फ़ायदा नहीं है ।
ReplyDeleteआपकी समस्या का हमारे पास तो कोई समाधान नहीं है सिवाय इसके कि थोडा सब्र से काम लें और स्वयं को नये परिवेश में ढालने का सोचें ।
मनुष्य तो हर परिस्थिति में एडजस्ट कर लेने वाला जीव है। परिवर्तन थोड़े समय के लिए ही परेशान करते हैं। आप अभी तक की नौकरी में कितने तबादले, कितनी शिफ्टिंग पहले ही मजे में झेल चुके हैं।
ReplyDeleteदफ्तर के भवन की इस शिफ्टिंग से उपजे क्षणिक अवसाद ने एक पोस्ट लिखने लायक मसाला उपलब्ध करा दिया, यही क्या कम है।
नया भवन तो चकाचक लग रहा है. टिपिकल सरकारी दफ्तर से भिन्न. कोर्पोरेट स्टाइल का. यहाँ काम करने में मजा आयेगा. प्रारंभिक परेशानीयाँ है, बाद में सेट हो ही जाना है.
ReplyDeleteलेखक टाइप के बंदे लगभग हर जगह दिल लगा बैठते हैं। अब आपका दिल पुराने दफ्तर में लग गया, तो ठीक ही है। नया दफ्तर भी थोड़े दिन में पुराना हो लेगा। फिर यहां से जायेंगे, तो भी आप येसी उदास टाइप पोस्ट लिखेंगे। ये मानवीय स्वभाव है।
ReplyDeleteएक जमाने में भी मैं भी येसे ही उदास होता था, फिर एक बार पुरानी दिल्ली,नयी दिल्ली, पृथ्वीराज की दिल्ली, हुमायूं का मकबरा, सेंट्रल सेक्रेट्रेयिरेट, पीएम हाऊस चार पांच दिनों के अंतराल में ही जाना पड़ गया। एक फिलोसोफिकल किस्म की कौंध सी पैदा हुई, प्यारे पुरानी दिल्ली भी नयी दिल्ली थी सौ साल पहले, और ये कनाट प्लेस तो हमारे देखते देखते ही पुराना हो गया बीस साल में। ये जो माल धमाल नये बन रहे है, ये भी बीसेक साल में पुराने हुए जाते हैं।
नया सिर्फ इंसान में हरामीपन रहता है, या कहें कि क्रियेटिविटी नयी होती है।
पहले वाला गुण तो व्यंग्यकारों का ही है,मूलत,आप दूसरे वाले पर फोकस किये रहें। मजे की छनेगी।
जब सभी सलाह देने पर तुल गये हैं तो मैं भला क्यों पीछे रहूं..
ReplyDeleteआप एक काम किजिये, चेन्नई आ जाईये.. हम मिलकर साफ्टवेयर कम्पनी खोलते हैं, या फ़िर कोई हिंदी साइट चलाते हैं.. वैसे भी आपका ब्लौग विभिन्न विधाओं से भरा हुआ है(तकनिकी तौर पर) और आप फ़ास्ट लर्नर भी हैं, सो आपको ज्यादा तकलीफ नहीं होगी ये सब सीखने में.. :D
नए और जोरदार दफ्तर मे जाने की बधाई ।
ReplyDeleteऔर रहा सवाल स्वभाव बदलने का और नए दफ्तर मे adjustment का तो वो दो-चार दिन मे ठीक हो ही जाता है।
अरे आप प्रकृति के मजे लीजिये। :) (परदे नही लगें है न )
ई का पांडे जी, आप जैसा व्यक्ति भी अवसादों से घिर जाएगा तो दूसरों का का होगा?
ReplyDeleteसारा अवसाद इधर ब्लॉग पर ठेला जाए, भले ही दिनो की चार पोस्ट होएं, हम लोग तो है ही, पढने और कमेंटियाने के लिए। और हाँ, चुनार भी एक बार हो ही आइए, कम से कम एक और एचीवमेंट हो जाएगा कि देखा जो नामुमकिन दिख रहा था कर दिखाया। तो फिर जल्दी से यात्रा की तैयारियां कीजिए, थोड़ा मन भी बहल जाएगा, और कुछ नयी पोस्ट का मसाला भी मिल जाएगा।
आप तो बहुत छोटे से बदलाव से परेशान हो गए । हम तो इतने घर, जगहें, प्रदेश बदल चुके हैं कि मजाल है जो सपने में कभी अपना घर दिखे, सदा एक नए घर में ही रह रही होती हूँ ।
ReplyDeleteजहाँ तक मेरा अनुमान है आप भी बहुत जगह की बदलियाँ झेल चुके होंगे ।
वैसे मनुष्य एक ऐसा जीव है कि हर परिवर्तन को बहुत जल्दी झेलना सीख लेता है व उसके अनुसार ही स्वयं को ढाल लेता है ।
घुघूती बासूती
धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा। आप आज काफी हाउस हो आये, लौटते मे चने ले लीजियेगा फिर रविवार को कुछ देर गंगा तट पर बिताइयेगा। हो सके तो उस किसान से भी मिल लीजियेगा जिसके बारे मे आपने पहले लिखा था। फिर भी मन उचटे तो दीपक जी के साथ रायपुर आ जाये। उस वैद्य के पास चलेंगे।
ReplyDeleteपंकज अवधिया जी ने रायपु्र आने का निमंत्रण दे ही दिया है आपको, मै भी समर्थन करता हूं! बहुमत हो गया रायपुर के लिए!!
ReplyDeleteवैसे रेलवे अपने ऐसे मुख्यालयों को इतना शानदार खर्च करके बनवाता है कि सरकारी लगते ही नही, बिलासपुर में देखा, रायपुर में भी देखा!! कहीं से सरकारी दिखता ही नही सिर्फ़ कामकाज से मालूम चलता है कि सरकारी है ;)
अपनी तो सलाह है कुछ दिन के लिए चंबल के इलाके में आ जाईये बीहड़ घूम लेंगे तो दुनियां में किसी भी नयी जगह एडजस्ट होने में परेशानी नहीं आयेगी.
ReplyDeleteभईया
ReplyDeleteहमारे साथ तो बिल्कुल उल्टा हुआ.देहली के पाँच सितारा टाइप के ऑफिस से जब खोपोली आए तो ऑफिस और रहने के नाम पर जो था वो किसी तबेले को शर्मिंदा करने के लिए काफ़ी था. लेकिन हम ने उनका भी भरपूर आनंद किया. आज सब कुछ बदल गया है. वैसे आप का सोच भी समय के साथ बदल जाएगा. देख रहा हूँ लोग आप को बुला बुला के नए नए प्रलोभन दे रहे हैं उनको छोडिये. हम कब से कहे जा रहे हैं आप यहाँ आयीईये और कुछ भी काम मत कीजिये सिवाय प्रकर्ति को निहारने, टाँगे पसारने और चाय सुड़कने के अलावा. जीवन में आनंद लेने से अधिक ज़रूरी और काम है ही नहीं.
नीरज
ज्ञान जी, नए दफ़्तर की ज़्यादातर समस्याएँ दो-चार दिनों में दूर हो जाने लायक हैं. जैसे-ट्यूबलाइट, चपरासी की घंटी, इंटरनेट-इंटरकॉम, चाय बनाने की व्यवस्था आदि.
ReplyDeleteहाँ, मच्छरों की समस्या थोड़ी बड़ी है कम-से-कम जाड़े भर के लिए. शाम को घर पहुँचने में 15 मिनट ज़्यादा लगना भी कुछ दिनों तक ज़रूर ही खलेगा. लेकिन महीने भर में सब कुछ नॉर्मल लगने लगेगा.
दिल्ली में पढ़ाई और नौकरी के दौरान मैं भी कुल तीन अलग-अलग जगहों पर रहा था. तब तो गाँव से 1100 किलोमीटर दूर की दिल्ली ही मेरे लिए विदेश जैसी थी, लेकिन उस विदेश में भी एक जगह से उखड़ना खलता था. दरअसल स्थान परिवर्तन के दौरान आप अपने कमरे की दीवरों-खिड़कियों, गलियों-सड़कों-नालों, आवारा कुत्तों, भटकती गायों, मुहल्ले के सब्ज़ी बेचने वाले कुँजरों, अख़बार के हॉकर, मुहल्ले की परचून की दुकान और ढाबे जैसी न जाने कितनी ही चीज़ों को एक झटके में ही पीछे छोड़ देते हैं जो कि काफ़ी दिनों से आपकी पारिस्थितिकी का, आपके इकोसिस्टम का अभिन्न हिस्सा थीं.
लेकिन विश्वास करें, पखवाड़े से महीने भर में दोबारा सब कुछ सामान्य हो जाता है, एक नई पारिस्थितिकी निर्मित हो जाती है आपके इर्दगिर्द. आपको हमारी शुभकामनाएँ!
"पर घर का रास्ता भी नयी जगह से पंद्रह मिनट और लम्बा हो गया है।"
ReplyDelete"कोई सुझाव हैं आपके पास? "
जी हां सुझाव हैं. सबसे पहले तो यह सोचना शुरू कर दीजिये कि अधिक यात्रा करने के कारण कल के चिट्ठे के बारे में सोचने के लिये हर दिन 15 मिनिट अधिक मिलने लगेंगे !!
ज्ञान जी मुझे आप का तो पता नहीं पर मैं सब ब्लोगरों की आत्मियता देख भाव विभोर हो रही हूँ। पूरे भारत से निंमत्रण है, वाह्।
ReplyDeleteजहां तक मुझे याद आता है आप तो हर समस्या का निदान गीता और रामायण में ढूढते हैं राम भी घर से इतनी दूर गये थे जगंल में भी एक जगह नहीं बैठे, कुछ तो लिखा होगा इसके बारे में कैसे निपटते थे इस अवसाद से, पढ़ें तो हमें भी बताइएगा, अपुन तो ऐसी किताबे कभी पढ़ते नहीं।
वैसे बम्बई आने का नीरज जी का प्रस्ताव अच्छा है, हम मानते है कि अब आराम करने से ज्यादा अच्छा काम अब कोई नहीं, प्रकति की गोद में चाय सुड़किये, घर की बनी थर्मस में ले जाइए। आप ने तो कहा था कि आप के सब पेपरस फ़ैक्स से घर आ जाते हैं तो द्फ़्तर काहे जाते हैं…।…।:)
यायावरी और फक्कड़ी जीवन में कैसे लाई जाये? अधेड़ उम्र में जीवन की निश्चितता को कैसे अनलर्न किया जाये? ये प्रश्न हॉण्ट कर रहे हैं और बड़ी तीव्रता से कर रहे हैं। ---- ज्ञान जी, हम तो सबकी आत्मीयता देखकर मंत्र-मुग्ध हो गए. मौका पाते ही सबकी मेहमाननवाज़ी का लुत्फ उठाइए.
ReplyDeleteउम्र किस पड़ाव पर है इस विषय पर न सोचकर नए वर्ष में यायावरी की ठान लें.लैपटॉप लेना न भूलिएगा.
नई ऑफिस की शुभ कामनाऐं
ReplyDeleteवैसे अब आपके रास्ते में ..... हम भी पड़ेगें :)
जब सभी सलाह देने पर तुल गये हैं तो मैं भला क्यों पीछे रहूं..
ReplyDeleteआप एक काम किजिये, चेन्नई आ जाईये.. हम मिलकर साफ्टवेयर कम्पनी खोलते हैं, या फ़िर कोई हिंदी साइट चलाते हैं.. वैसे भी आपका ब्लौग विभिन्न विधाओं से भरा हुआ है(तकनिकी तौर पर) और आप फ़ास्ट लर्नर भी हैं, सो आपको ज्यादा तकलीफ नहीं होगी ये सब सीखने में.. :D
लेखक टाइप के बंदे लगभग हर जगह दिल लगा बैठते हैं। अब आपका दिल पुराने दफ्तर में लग गया, तो ठीक ही है। नया दफ्तर भी थोड़े दिन में पुराना हो लेगा। फिर यहां से जायेंगे, तो भी आप येसी उदास टाइप पोस्ट लिखेंगे। ये मानवीय स्वभाव है।
ReplyDeleteएक जमाने में भी मैं भी येसे ही उदास होता था, फिर एक बार पुरानी दिल्ली,नयी दिल्ली, पृथ्वीराज की दिल्ली, हुमायूं का मकबरा, सेंट्रल सेक्रेट्रेयिरेट, पीएम हाऊस चार पांच दिनों के अंतराल में ही जाना पड़ गया। एक फिलोसोफिकल किस्म की कौंध सी पैदा हुई, प्यारे पुरानी दिल्ली भी नयी दिल्ली थी सौ साल पहले, और ये कनाट प्लेस तो हमारे देखते देखते ही पुराना हो गया बीस साल में। ये जो माल धमाल नये बन रहे है, ये भी बीसेक साल में पुराने हुए जाते हैं।
नया सिर्फ इंसान में हरामीपन रहता है, या कहें कि क्रियेटिविटी नयी होती है।
पहले वाला गुण तो व्यंग्यकारों का ही है,मूलत,आप दूसरे वाले पर फोकस किये रहें। मजे की छनेगी।
सब ठीक हो जायेगा. ब्लागिंग भी चलेगी...
ReplyDeleteलेकिन अभय जी की बात पर अमल सोच समझ कर कीजियेगा...मुम्बई जाकर हीरो बनने का ख़याल तो एक दम मत कीजियेगा. समीर जी अन्तिम बार मुम्बई में देखे गए थे...अगर वे हीरो बन गए हैं तो आपका चांस वैसे भी नहीं रहा...लेकिन अगर स्ट्रगल चल रही है, तो इसपर अभी तक एक भी पोस्ट नहीं लिखी उन्होंने...
रही बात लेखक बनने की तो जहाँ अभय जी, बोधि भाई जैसे लेखक हैं, वहाँ जमने का चांस न के बराबर है...इसलिए मेरे पुराने प्रस्ताव पर विचार कीजिये..कलकत्ते आईये, हम दोनों मिलकर एक्सेंचर से भी बड़ी कंसल्टिंग फर्म खोलेंगे..
मनुष्य तो हर परिस्थिति में एडजस्ट कर लेने वाला जीव है। परिवर्तन थोड़े समय के लिए ही परेशान करते हैं। आप अभी तक की नौकरी में कितने तबादले, कितनी शिफ्टिंग पहले ही मजे में झेल चुके हैं।
ReplyDeleteदफ्तर के भवन की इस शिफ्टिंग से उपजे क्षणिक अवसाद ने एक पोस्ट लिखने लायक मसाला उपलब्ध करा दिया, यही क्या कम है।