दिनेश जी के बड़े मामा श्री ओम प्रकाश ने 1950 में राजकमल प्रकाशन की स्थापन दरियागंज, दिल्ली में की थी। सन 1954 में राजकमल की शाखा इलाहाबाद में स्थापित करने को दिनेश जी इलाहाबाद पंहुचे। सन 1956 में उन्होने पटना में भी राजकमल की शाखा खोली। कालांतर में उनके मामा लोगों ने परिवार के बाहर भी राजकमल की शेयर होल्डिंग देने का निर्णय कर लिया। दिनेश जी को यह नहीं जमा और उन्होने सन 1961 में राजकमल से त्याग पत्र दे कर इलाहाबाद में लोक भारती प्रकाशन प्रारम्भ किया।
उसके बाद राजकमल के संचालक दो बार बदल चुके हैं। राजकमल में दिनेश जी की अभी भी हिस्सेदारी है।
सन 1977 में दिनेश जी ने लोकभारती को लोकभारती प्रकाशन के स्थान पर लोकभारती को पुस्तक विक्रेता के रूप में री-ऑर्गनाइज किया। वे पुस्तकें लेखक के निमित्त छापते हैं। इसमें तकनीकी रूप से प्रकाशक लेखक ही होता है। दिनेश जी ने बताया कि उन्होने लॉ की पढ़ाई की थी। उसके कारण विधि की जानकारी का लाभ लेते हुये अपने व्यवसाय को दिशा दी।
उन्होने बताया कि उनकी एक पुत्री है और व्यवसाय को लेकर भविष्य की कोई लम्बी-चौड़ी योजनायें नहीं हैं। उल्टे अगले तीन साल में इसे समेटने की सोचते हैं वे। कहीं आते जाते नहीं। लोकभारती के दफ्तर में ही उनका समय गुजरता है। जो बात मुझे बहुत अच्छी लगी वह थी कि भविष्य को लेकर उनकी बेफिक्री। अपना व्यवसाय समेटने की बात कहते बहुतों के चेहरे पर हताशा झलकने लगेगी। पर दिनेश जी एक वीतरागी की तरह उसे कभी भी समेटने में कोई कष्ट महसूस करते नहीं प्रतीत हो रहे थे। व्यवसायी हैं - सो आगे की प्लानिंग अवश्य की होगी। पर बुढ़ापे की अशक्तता या व्यवसाय समेटने का अवसाद जैसी कोई बात नहीं दीखी। यह तो कुछ वैसे ही हुआ कि कोई बड़ी सरलता से सन्यास ले ले। दिनेश जी की यह सहजता मेरे लिये - जो यदा-कदा अवसादग्रस्त होता ही रहता है - बहुत प्रेरणास्पद है। मैं आशा करता हूं कि दिनेश जी ऐसे ही जीवंत बने रहेंगे और व्यवसाय समेटने के विचार को टालते रहेंगे।
मैं दिनेश जी की दीर्घायु और पूर्णत: स्वस्थ रहने की कामना करता हूं। हम दोनो का जन्म एक ही दिन हुआ है। मैं उनसे 25 वर्ष छोटा हूं। अत: बहुत अर्थों में मैं उन्हे अपना रोल मॉडल बनाना चाहूंगा।
अच्छा किया आपने दिनेश जी के बारे में बताया. वाकई ऎसे लोग प्रेरणा लेने योग्य है.
ReplyDeleteअच्छा लगा जानकर. तस्वीर से लगता है अभी 20 साल मजे से जम कर काम कर सकते है. ऐसी ही जिवटता होनी चाहिए.
ReplyDeleteग्रेट, दुकान समेटने पर वीतरागी भाव बहुत कम मिलता है। वरना तो लोग इमोशनल से हो जाते हैं। दुनिया रैन बसेरा है, यह बात सुनना जितना आसान है, मानना उतना ही मुश्किल है। दिनेशजी को ब्लागिंग में लगा दीजिये। ऐसे व्यक्ति के तजुरबे बहुत काम के होंगे, कहिए कि लिख डालें, ब्लाग पर।
ReplyDeleteवैसे मैंने देखा कि सितंबर, अक्तूबर और नवंबर में जन्मे लोग बेहद जहीन, मेहनती, लगनशील होते हैं।
मतलब मैं भी सितंबर का हूं,अपने मुंह से अपने बारे में क्या कहूं कि मैं भी महान हूं। मतलब मैं ऐसा मानता हूं कि महान हूं। और कोई माने या माने, महानता के मामले में आत्मनिर्भरता भली।
ज्ञानजी, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज में मैंने कुछ दिन बतौर संपादक काम किया है। उस समय राजकमल के मालिक अशोक महेश्वरी लोकभारती को खरीदने की बात अक्सर किया करते थे- जिसे किंचित तकलीफ के साथ सुनते रहने के अलावा और कोई चारा मेरे पास नहीं था। धीरे-धीरे गुणवत्ताहीन एकाधिकार की तरफ बढ़ रहे इस धंधे के कटु-तिक्त पहलुओं से मेरी भी कुछ वाबस्तगी रही है, जिसपर कभी ढंग से लिखने का मन है। लोकभारती की साख पुस्तक प्रकाशन की दुनिया में एक समय काफी अच्छी मानी जाती थी। एक उद्यम के रूप में उसका अवसान इस व्यवसाय में जड़ जमा चुकी घूसखोरी जैसी बीमारियों की भयावहता प्रदर्शित करता है। इसके अलावा लोकभारती के उठान के पीछे एक बड़ी भूमिका इलाहाबाद की बौद्धिकता और रचनाधर्मिता की भी थी, जो अस्सी के दशक से ही तेजी से ढलान पर है।
ReplyDeleteऐसे जिन्दादिल लोगो का होना प्रेरणादायी है पर उससे भी जरूरी यह है कि समय-समय पर उनसे मिलते रहा जाये ताकि अपने व्यक्तित्व मे निखार आ सके।
ReplyDeleteदिनेश ग्रोवरजी को नमन.
ReplyDeleteऐसे ही लोग प्रेरणा के स्तोत्र होते हैं. आप ने कहा है की "यह तो कुछ वैसे ही हुआ कि कोई बड़ी सरलता से सन्यास ले ले।" मेरा कहना है की संन्यास हमेशा सरलता से ही लिया जा सकता है बाध्य होने पे लिया जाने वाला कार्य संन्यास नहीं कहलायेगा. हम सब को एक ना एक दिन ये जो हम कर रहे हैं छोड़ना ही पड़ेगा चाहे मरजी से छोडें या मजबूरी वश. संन्यास के लिए हमेशा तैयार रहें और मेरा एक शेर याद रखें :
"जितना बटोर चाहे पर ये बताके तुझको
करने यही खुदा क्या दुनिया में लाया है ?
हम आशा करते हैं कि दिनेश जी ऐसे ही जीवंत बने रहेंगे चाहे व्यवसाय समेटने के विचार को टालें या क्रियान्वित करें क्यों की जीवंत वो ही व्यक्ति कहलाता है जो हर हाल में जीवंत रहे.
नीरज
आवृति-->आवृत्ति
ReplyDeleteआवृति ट्यून की जगह फ्रीक्वेन्सी मैच बढि़या जमता :)!
@ आर सी मिश्र - शब्दकोष का यह पन्ना हिज्जे यही बता रहा है। और आप सही हैं - कभी मैं जन बूझ कर भूसा बना देता हूं, हिन्दी शब्द का प्रयोग कर! :-)
ReplyDelete"अगले तीन साल में इसे समेटने की सोचते हैं वे।"
ReplyDeleteमुझ जैसे पुस्तकप्रेमी एवं हिन्दीप्रेमी के लिये यह एक दुखदाई खबर है -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
हर महीने कम से कम एक हिन्दी पुस्तक खरीदें !
मैं और आप नहीं तो क्या विदेशी लोग हिन्दी
लेखकों को प्रोत्साहन देंगे ??
आलोक जी उवाच : वैसे मैंने देखा कि सितंबर, अक्तूबर और नवंबर में जन्मे लोग बेहद जहीन, मेहनती, लगनशील होते हैं।
ReplyDeleteतभी में कहूँ कि मैं भी...