शाम के समय पत्नी जी के साथ बाजार तक घूमने निकला। लिया केवल मूली - 6 रुपये किलो। आधा किलो। वापस लौटते समय किसी विचार में चल रहा था कि सामने किसी ने पच्च से थूंका। मैं थूंक से बाल-बाल बचा। देखने पर चार-पांच व्यक्ति नजर आये जो यह थूंकने की क्रिया कर सकते थे। उसके बाद सारा ध्यान थूंक केन्द्रित हो गया।
हर कोने-अंतरे और सड़क पर थूंक की चित्रकारी देखने लगी। शाम के समय पतली सी ओम पुरी के गालों के डिजाइन वाली सड़क पर आ-जा रहे यूनिवर्सिटी के होनहार छात्रों, घर लौटते मजूरों, सब्जी के ठेले पर अंतिम लॉट की सब्जी ठेलने को आतुर ठेले-वालों, चाय की दुकान पर सडक का अतिक्रमण कर बैंच लगा बैठे चाय और एक रुपये वाले समोसे का सेवन करते बैठे-ठालों की गड्ड-मड्ड दुनियाँ थी। उसमें से हर पांचवां व्यक्ति दायें-बायें या सीधे सामने पिच्च से थूकता नजर आया।
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एक आदमी बुद्ध की तरह ध्यान-मग्न बैठा था अपने खोली नुमा घर के दरवाजे पर। मुझे वह प्रथम दृष्ट्या दार्शनिक लगा। पर ध्यान से देखा तो वह मुंह में पान गुलगुला रहा था और उसके हाथ में ज़ाफरानी जर्दा की पुड़िया थी, जिसे वह प्यार से पंखे की तरह हिला रहा था। इससे पहले कि वह सड़क पर इंस्टालमेण्ट्स में थूंके, मैं सपत्नीक आगे बढ़ गया।
जब प्रांत पर खुन्दक आती है मन में तो मैं अपनी पत्नी को यूपोरियन कहता हूं और अपने को बाहर वाला समझता हूं। मेरा भुनभुनाना प्रारम्भ हो गया - 'यही तुम्हारा यूपी है। असभ्य जाहिल और गंवार लोग! यहां केवल मुँह में थूंक बनाने की इण्डस्ट्री भर चल रही है।' पत्नी जी ने काउण्टर भुनभुनाया - 'हां, तुम तो सीधे विलायत से टपके थे न!'
मुझे लगा कि ज्यादा भुनभुनाने से न केवल पारिवारिक शांति पर खतरा हो सकता है वरन शाम का भोजन खतरे में पड़ सकता है! लिहाजा कदम जल्दी-जल्दी बढ़ा कर घर पहुंच कर कम्प्यूटर में मुंह गड़ा लिया। पर मन से थूंकने की प्रवृत्ति पर सोच कम नहीं हुई। मैं विकास और थूंकने में सम्बन्ध जोड़ने लगा। "थूंक-वृत्ति इज इनवर्सली प्रोपोर्शनल टू डेवलपमेण्ट"। यह मुझे समझ में आया।1
सूबेदारगंज इलाहाबाद का उपनगर है। उत्तर-मध्य रेलवे का दफ्तर वहाँ शिफ्ट होने की प्रक्रिया में है। नयी चमचमाती हुई बिल्डिंग बनी है। कुछ विभाग एक महीने से ज्यादा समय से वहां शिफ्ट हो चुके हैं। पर हर सोमवार को होने वाली प्रिंसीपल ऑफीसर्स मीटिंग में यह विलाप कोई न कोई वरिष्ठ अधिकारी कर देता है कि कर्मचारी वहां कोने, दीवारें, फर्श और वाश बेसिन पान की पीक से रंगना और सुपारी के उच्छिष्ट से चोक करना बड़ी तेजी से बतौर अभियान प्रारम्भ कर चुके हैं।
अजब थूंकक प्रदेश है यह।
1. वैसे एक ब्लॉग पर कल पढ़ा था कि सड़क बनने से विकास नहीं होता। जरूरी यह है कि उस प्रांत में कोई एनडीटीवी पत्रकार पिटना नहीं चाहिये, बस! (मैं किसी दबंग बाहुबली के पक्ष में नहीं बोल रहा। और मुझे उस प्रांत की राजनीति से भी कोई मतलब नहीं। लेकिन पत्रकारिता में यह मायोपिया भी ठीक नहीं। इसी तर्ज पर; किसी प्रांत में रेलवे स्टेशन पर हुड़दंग हो, स्टेशन मास्टर से झूमा-झटकी हो, तोड़-फोड़ हो और मैं उसे उस राज्य के विकास जैसी बड़ी चीज से जोड़ दूं - तो कोई प्रांत बचेगा नहीं; पूरा देश बर्बरता के दायरे में होगा। रेलकर्मी के खून में हिमोग्लोबीन और देशभक्ति इन तथाकथित सजगता के पहरुओं से कमतर नहीं है।)
धन्य हो थूकक प्रदेश भी.आपक पुछ्ल्ला ज्यादा पसंद आया.
ReplyDeleteसुन्दर बयानी है थूंकक प्रदेश की-हमारा मध्य प्रदेश भी ऐसा ही रंगीला है. गहरा चिंतन. वैसे एक बात बतायें आप विलायत के हैं क्या?? :)
ReplyDeleteमूली सस्ती है आपके यहाँ। हमारे यहाँ १० रुपए किलो है। शायद यह भी विकास का सूचकांक हो, कि मूली जैसी वैकल्पिक सब्ज़ी(आलू, टमाटर और प्याज़ को मैं अनिवार्य सब्ज़ी मानता हूँ, मूली और खीरे को नहीं) का भाव क्या है?
ReplyDeleteउड़न तश्तरी> ...वैसे एक बात बतायें आप विलायत के हैं क्या?? :)
ReplyDeleteआपको क्या लगता है?
काकेश> ...आपक पुछ्ल्ला ज्यादा पसंद आया.
ReplyDeleteमेरी पत्नी का कथन है कि लोग पढ़ेंगे पुछल्ला पर कतरा कर कमेण्ट करेंगे थूंकक प्रदेश पर ही!
जैसा आपने कहा वैसा ही हम अपनी पत्नी से भी कहते हैं इलाहाबाद आने पर । और वही जवाब मिलता है जो आपको मिला । ये सच है कि थूंकक प्रदेश है ये लेकिन कला संस्कृति और राजनीति और अपराध में सबसे उर्वर भी तो है । थूकक होना तो बाईप्रोडक्ट है ।
ReplyDeleteखाली यूपोरियन पर कुछ खफा होते हैं। सारे उत्तर भारत में यही नजारा है। वैसे पान खाने के बाद मुंह में पीक भरकर जो स्थितिप्रज्ञता की मनोदशा बनती है, जो सुर्खुरूपन आता है, वाह! पान न खानेवाले उसकी महिमा नहीं समझ सकते। ऐसी हालत में सबै भूमि गोपाल की लगने लगती है। कहीं भी थूको, आपकी मर्जी...
ReplyDeleteएक ब्लॉग पर कल पढ़ा था कि सड़क बनने से विकास नहीं होता। जरूरी यह है कि उस प्रांत में कोई एनडीटीवी पत्रकार पिटना नहीं चाहिये, बस!
ReplyDeleteहम आपकी इस बात का समर्थन करते हुये इस मुद्दे पर हल्ला काटने वालो पर थूकना चाहते है आपकी परमीशन से.आखिर ब्लाग आपका है जी, और हम भी है ना य़ूपी के ही जी ..
प्रति व्यक्ति थूक के हिसाब से बिहार राष्ट्र का सर्वोपरि राज्य है, यूपी उसके बाद है।
ReplyDeleteथूक और सार्वजनिक तौर पर मूत्रविसर्जजनित टेंपरेरी चित्रकारी या आकृति विभ्रम टाइप मामले भी इधर ज्यादा हैं।
इन पर नाराज न होइये।
खुले आम सड़क पर थूकना, मूत्र विसर्जन एक लग्जरी है, जो हर देश अफोर्ड नहीं कर सकता।
दिल्ली में यूपी कैडर एक सीनियर अफसर को जानता हूं, जो मौका-बेमौका देखकर सड़क पर खुलेआम शुरु हो जाते हैं। मैंने एक बार टोका तो बताया कि जो मजा खुले में करने का है, वह एसी टायलेट में जाने का भी नहीं है।
मजे की बात है, मजे से देखिये।
थूक के प्रति आपका अपमान भाव ठीक नहीं है, थूक के चाटना, फिर चाट कर थूकना, फिर चाटना बड़े आदमियों के लक्षण है। हम सिर्फ देवेगौडाजी की बात नहीं कर रहे हैं।
ठीक कहा आप ने.. मैं थूकता हूँ इस प्रदेश पर..
ReplyDeleteमुंबई में मूली तीन रुपये में एक मिलती है सो सस्ती मूली पाने और खाने के लिए बधाई। ज्यादा न भुनभुनाएँ सच में खतरा हो सकता है....
ReplyDeleteथंकने पर याद आया यह दोहा पेश है-
राजा पीयैं गाँजा तंमाखू पियैं चोर
सुरती खायैं चूतिया थूंकैं चारों ओर।
आप सुर्ती को पान करके पढ़ सकते हैं।
"थूंकक" शब्द हमारे ज्ञान के भंडारे मैं भरने के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteभारत में थूकना एक महामारी जैसी बीमारी है. इस मामले में हम एक हैं.
अभी हाल ही में जयपुर के सबसे बड़े सरकारी हस्पताल में जाना हुआ. वहाँ उन्होंने में सीड़ियों की दोनों और लगी सफ़ेद टाईल के बीच बीच में गणेश जी की फोटो वाली टाईल लगा दी है जिस से वो सीडियाँ और टाईल जो हमेशा लाल पीक से भरी रहती थी एक दम साफ नज़र आयी. अब गणेश जी भी कहाँ कहाँ लगाये जायें?
नीरज
थूंथक प्रदेश ही नही है बल्कि सारा देश है।
ReplyDeleteकल ही मूली के भाव पर माताजी से चर्चा हो रही थी तो अभी आपकी पोस्ट पढ़कर मैने अपनी माताजी को बताया कि इलाहाबाद मे देखो मूली छह रुपए किलो है और अपने यहां 15-16 रुपए किलो!! यहां तक तो ठीक था लेकिन इसके बाद माताजी ने पूछा कि कैसे मालूम तो उन्हे आपका ब्लॉग दिखाया, माताजी बुजुर्ग हैं गुस्से में आती है तो कंप्यूटर को डिब्बा कहती हैं और मुझे डांटती है कि जब देखो तब डिब्बे में मुंह गड़ाकर बैठ जाता हूं। आपके ब्लॉग मे मूली वाली लाईन पढ़कर माताजी ने कहा कि ये सब पढ़ते रहता है तो उन्हें मैने समझाया कि जैसे मै अपनी डायरी लिखता हूं इंटरनेट पर वैसे ही पाण्डेय जी की डायरी है जो इलाहाबाद मे रहते हैं। तब जाकर उनकी समझ में आया!!
उत्तर भारत मे यही हाल है. यहाँ गोवा मे भी कुछ पान वाले है पर यहाँ की सरकार उन्हें हटाने पर लगी है क्यूंकि उनका मानना है की इससे गोवा गन्दा हो रहा है. और प्रदेशों को भी इससे सबक लेना चाहिए.
ReplyDeleteअजब थूंकक प्रदेश है यह!...वाह गुरु देव क्या झक्कास हेडिंग दिया है आपने ...और उतना ही सुंदर आपकी लेखनी है ...मजा गया ..क्या जादू है आपकी कलम में ..बिल्कुल अलग अंदाज़ में लिखते है आप .
ReplyDeleteदेखिये लोग तो मानने से रहे इसलिये इसका उपयोग खोजा जाये। पीक मे अगर तम्बाखू हो तो यह एक अच्छे कीटनाशक का काम कर सकता है। वैसे भी तम्बाखू का प्रयोग कीटनाशक के रूप मे दशको से होता आया है। अब जरा हमारे वैज्ञानिक यह शोध करे कि नाली मे पीक थूकने से क्या मख्खी-मच्छर समाप्त होंगे। मुझे लगता है होंगे। तो हम लोगो से कह सकते है कि थूक कर देश सेवा करे। वे करेंगे खुशी से करेंगे और फिर सडक पर थूकना इतिहास बन जायेगा। सभी समस्या का समाधान है पर सोच सकारात्मक होनी चाहिये। क्या कहते है आप?
ReplyDelete@ आलोक, बोधिस्त्व, संजीत - आप लोगों की टिप्पणियों से तो मूली निर्यातक बनने का मन कर रहा है!
ReplyDelete@ यूनुस - अरे भैया, बहुत दिनो बाद आये, बहुत अच्छे लगे।
@ अनिल रघुराज - सही कह रहे हैं, स्थितप्रज्ञता के दर्शन तो 'पानालीन' होने में दिखते हैं!
@ अरुण - आपने असली मुद्दा पकड़ा, जिसपर मैं बेचैन था।
@ आलोक पुराणिक - आपसे तो रोज सवेरे का साथ है - 'मॉर्निंग-ब्लॉग' (बतर्ज मॉर्निंग-वॉक) के साथी हैं आप। आपकी बात सर माथे!
@ नीरज गोस्वामी - आप तो जयपुर के संस्मरण पर एक पोस्ट ठेलें। और वहां अस्पताल क्यों गये? खैरियत तो है?
@ दर्द हिन्दुस्तानी - बड़ा अनूठा समाधान बताया। आगे शोध हो और कुछ सामने आये तो मजा आ जाये।
अगर आपके नए दफ्तर में थूकने की समस्या है तो आप भी वही करिये जो मुम्बई पुलिस ने किया था. कोनो पर देवी-देवताओं के चित्र लगवा दीजिये.
ReplyDeleteथूंकक प्रदेश ही नही सर ये तो थूंकक देश हो गया है. वैसे इस पोस्ट पर ज्यादा कुछ लिखने का अधिकार अपने पास है तो नही.
ReplyDeleteआपकी सोच् सही नहीं है। आप् मानते हैं कि थूकना विकास् के विपरीत् है। जबकि हमने बताया है कि कैसे थूकने से घाटा पूरा किया जाता है। इसके पहले थूकने के सामाजिक् उपयोग् बताते हुये यह् साबित् किया है कि ">बायें थूकने से तमाम् लफ़ड़े दूर् हो जायेंगे। :)
ReplyDeleteवैसे मैं आपकी बातों से विल्कुल सहमत हूँ , आपके पड़ोस में हीं रहता हूँ , हमारे लखनऊ में भी कमोवेश ऐसी हीं स्थिति देखने को मिलाती है .इस मामले में हम एक हैं. अजब थूंकक प्रदेश है यह!
ReplyDeleteथूक की महिमा पढ़कर हमे अपने देश की और याद आ रही है और याद आ रहे है और भी कई किस्से. थूक-महिमा के बाद अब नाक ..... की बारी कब आएगी ! सोच रहे है इस बारे आएँ तो साथ मे एक सुन्दर सा थूकदान लेकर चले. जहाँ लगे कि कोई थूकने वाला है मुस्करा कर आगे कर दें कि लीजिए इसमे थूकिए आपकी थूक-महिमा सुन चुके है सो ज़मीन पर क्यो ....... !
ReplyDeleteथूकक सारा देश है, हमारे बम्बई में तो डबल डैक्कर बस भी चलती है, जरा सोचिए आदमी तैयार हो कर निकले मोटर साइकिल पर और ऊपर से कोई ….। अजब त्रासदी है।
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