वैसे तो हम सभी चिन्दियाँ बीनने वाले हैं - विजुअल रैगपिकर (visual rag picker)। किसी भी दृष्य को समग्रता से ग्रहण और आत्मसात नहीं करते। उतना ही ग्रहण करते हैं जितने से काम चल जाये। बार-बार देखने पर भी किसी विषय के सभी पक्षों को देखते-परखते नहीं। हमारा एकाग्रता का समय और काल इतना छोटा होता है कि कोई भी बात पूर्णरूपेण समझ ही नहीं पाते। पर फिर भी हम बुद्धिजीवी की जमात में बैठने की हसरत रखते हैं।
इसके उलट भौतिक जगत में चिन्दियां बीनने वाला जो कूड़े-कचरे की रीसाइकल इण्डस्ट्री का मुख्य तत्व है; हम सब की हिकारत और दुरदुराहट का पात्र है।
मेरी सवेरे की सैर में चिन्दियाँ बीनने वाले का अवलोकन एक अनिवार्य अंग है। सवेरे सवेरे चिन्दियाँ बीनने वाले को ज्यादा कीमती चीजें मिलती होंगी। जैसे कहावत है - अर्ली बर्ड गेट्स द वॉर्म; उसी तरह जल्दी चिन्दियाँ-बीनक को भी लॉटरी लगती होगी। सवेरे-सवेरे सफेद रंग के बड़े पॉली प्रॉपीलीन के थैले बायें हाथ में लिये और दायें हाथ से पॉलीथीन, शीशी, प्लॉस्टिक, गत्ता, धातु आदि बीनते हर गली-नुक्कड़ पर ये दिख जाते हैं। कूड़े के ढ़ेर को खुदियाते कुरेदते बहुत सारे चिन्दियाँ बीनने वाले मिलते हैं। एक आध से बात करने का यत्न किया। पर ये बहुत शर्मीले और जल्दी में रहते हैं।
चिन्दियाँ बीनने वाला बच्चा ---- केरोल एजकॉक्स की कविता के अंश का भावानुवाद |
चिन्दियाँ बीनने वाले 10-18 साल के लगते हैं। कई दिनों से बिना नहाये। सवेरे जल्दी उठने वाले। आर्थिक रूप से इतने दयनीय लगते हैं कि कबाड़ी जरूर इनका शोषण करता होगा। औने-पौने भाव पर कबाड़ इनसे लेता होगा। और शायद पूरे पैसे भी एक मुश्त न देता होगा - जिससे कि वह अगली बार भी कबाड़ ले कर उसी के पास आये।
मेरा अन्दाज यह है कि जो पैसे इन्हें मिलते भी होंगे, उसका बड़ा हिस्सा जुआ और नशे में चला जाता होगा। बहुत कम पैसा और बहुत अधिक समय शायद इनके सबसे बड़े दुश्मन हैं। फिर भी इनको मैं सम्मान की दृष्टि से देखता हूं। ये भिखारी नहीं हैं और पर्यावरण साफ रखने में इनकी अपनी भूमिका है।
क्या विचार है आपका?
सहायता की अपील: अंकुर गुप्ता ने अदृष्य फोल्डर बनाना बताया। मैने ऐसा फोल्डर विस्टा में डेस्कटॉप पर बना डाला। अब वह अदृष्य फोल्डर सिन्दबाद जहाजी के बूढ़े की तरह चिपक गया है।डिलीट ही नहीं होता! डेस्कटॉप से कहीं जाता भी नहीं। डिलीट कैसे करें? |
चना जोर गरम की पोस्ट के बाद पंकज अवधिया जी चाहते थे कुछ मीठा। पर मुझे दुख है कि मैं यह अभावग्रस्त पोस्ट दे रहा हूं, जो पर्व के माहौल के अनुरूप नहीं है। पर मानसिक हलचल पर मेरा पूर्ण नियंत्रण तो नहीं कहा जा सकता।
विकास के साथ ये चिंदिंयां बटोरनेवाले भी एक दिन विलुप्त हो जाएंगे। बस 10-15 सालों की बात है।
ReplyDeleteहमारा एकाग्रता का समय और काल इतना छोटा होता है कि कोई भी बात पूर्णरूपेण समझ ही नहीं पाते। पर फिर भी हम बुद्धिजीवी की जमात में बैठने की हसरत रखते हैं।
ReplyDeleteज्ञान जी क्या जबरदस्त ज्ञान की बात कही है, विकास के साथ शायद इन्हें भी एक दिन कुछ ओर काम देखना पड़े।
आप इसे माहौल के अनुरूप नही मान रहे जबकि मुझे आपकी यह पोस्ट एकदम प्रासंगिक लगाती है।
ReplyDeleteरघुराज भाई मै आपसे सहमत नही हूँ, जब तक भारत में गंदगी रहेगी ये कबाड़ बिनने वाले कबाड़ी खत्म होने वाले नही है। भले ही आज भारत का एक आदमी विश्व का सबसे अमीर आदमी है किन्तु 1/3 जनता आज भी भोजन पानी से महरूम है।
ReplyDeleteबिडम्बना है कि हम जिसे खराब/घृणित समझ कर फेक देते है वही किसी के जीवन यापन का साधन है।
यही इण्डिया की तस्वीर है, इण्डिया को इण्डिया ही पढ़े भारत नही।
आजकल तो आप कुछ अलग ही अंदाज मे लिख रहे है।
ReplyDeleteऔर आपकी ये पोस्ट बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है.
अच्छा लिखा है !
ReplyDeleteज्ञान भैय्या
ReplyDelete"किसी भी दृष्य को समग्रता से ग्रहण और आत्मसात नहीं करते। उतना ही ग्रहण करते हैं जितने से काम चल जाये। बार-बार देखने पर भी किसी विषय के सभी पक्षों को देखते-परखते नहीं"
कितनी सच्ची बात लिखी है आपने. मैं आप के कथ्य और शब्दों के चयन का कायल हूँ. सरल भाषा में आप जो कह जाते हैं उसके लिए लोग ग्रन्थ रच डालते हैं. भावपूर्ण लेख और उसके साथ दी गई कविता के लिए मेरी दिली बधाई. आप को पढने के बाद ख़ुद को संयत रख पाना आसान नहीं होता.
नीरज
ज्ञान जी, मैंने अंकुर जी का ट्रिक पढा.. उनका ट्रिक तो बहुत बढिया है लेकिन बहुत पुराना भी.. मैं अभी विंडोज विस्टा पर काम कर रहा हूं और शायद आप भी विस्टा पर ही काम कर रहे हैं, तभी वो फ़ोल्डर डिलीट नहीं हो रहा है.. ये एक तरह का कीड़ा(BUG) है जो विंडोज 98,2000, ME और विस्टा के साथ है..
ReplyDeleteविंडोज XP के साथ ये बिलकुल सही काम कर रहा है.. मुझे अभी तक जो अनुभव प्राप्त हुये हैं उससे मैं ये कह सकता हूं कि विस्टा में अभी बहुत सारी त्रुटियां है जो इसके अगले वर्सन में ही सही हो सकता है.. सो इसके अगले वर्सन का इंतजार करें(जैसा XP के सेकेण्ड एडिसन में सब कुछ ठीक था पर पहला वर्सन उतना सही नहीं था) या फिर ओपेन सोर्स के किसी ओपेरेटिंग सिस्टम पर भरोसा करें..
मार्मिक लेख लिखा आपने. बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता लेख है ये. भगवान् से यही प्रार्थना है रघुराज जी की बात जितनी जल्द सच हो वही अच्छा.
ReplyDelete"इनको मैं सम्मान की दृष्टि से देखता हूं। ये भिखारी नहीं हैं और पर्यावरण साफ रखने में इनकी अपनी भूमिका है।"
ReplyDeleteमैं भी. ये लोग न होते तो आज कूडा और अधिक होता. ये न केवल कचरे की मात्रा कम करते है, बल्कि साधनों के पुन: उपयोग के द्वारा पृथ्वी के संसाधनों का दोहन कम कर रहे हैं -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
इस काम के लिये मेरा और आपका योगदान कितना है?
आपकी मानसिक हलचल ऐसी ही बनी रहे और उस पर आपका पूर्णरुपेण नियंत्रण कभी न हो ताकि आप डिमांड के आधार पर न लिखे, बल्कि वही लिखें जो आप की मानसिक हलचल लिखना चाहे!!
ReplyDeleteआपकी यह पोस्ट पढ़ने से कुछ देर पहले ही मैने स्थानीय अखबार में नक्सली इलाके बस्तर के नारायणपुर की एक खबर पढ़ी। खबर के मुताबिक--
" एक महिला के पति का निधन सरकारी अस्पताल में हो गया, गरीबी इतनी कि शव जलाने के पैसे नही, दिन भर जुगाड़ करने के बाद रात आठ बजे कहीं से हाथठेला लाई और शव ले गई, दूसरे दिन सुबह से दोपहर तक फ़िर जुगाड़ करने पे एक ठेकेदार ने 500 रुपए दिए, जिससे वनविभाग के डिपो से शव जलाने की लकड़ियां खरीदी जो कि गीली और नाकाफ़ी थी, और पैसे का जुगाड़ नही हुआ, अंतत: उस महिला ने शम्शान घाट पर अन्य चिताओं में पड़ी अधजली लकड़ियों को बटोरा और फ़िर एक कबाड़ी ने कुछ दया दिखाते हुए मिट्टी तेल ( केरोसिन) दे दिया, तब जाकर उस महिला ने अपने पति का अंतिम संस्कार किया!!
कोई माने या न माने, कहे या न कहे, सहे या न सहे पर यह दिख रहा है कि आपके लेखन मे पैनापन आ रहा है। पाठको का कहना गलत नही है। शुभकामनाए। निश्चय ही दूसरो की मेहनत पर वाहवाही लूट्ने का स्वप्न देखने वाले ब्लागर इससे प्रेरणा लेंगे। और अपना कुछ लिखेंगे।
ReplyDeleteभई भौत बढिया। हम सब कबाड़ी ही हैं जी। कहीं से अनुभव कबाड़ते हैं, कहीं से भाषा। फिर लिख देते हैं। आदरणीय परसाईजी की एक रचना जेबकटी पर है। जिसमें उन्होने जेबकट के प्रति बहुत ही संवेदना दरशाते हुए लिखा है कि लेखक और जेबकट में कई समानताएं होती हैं।
ReplyDeleteलेखक और कबाड़ी में भी कई समानता होती हैं।
अब तो आप धुरंधर कोटि के लेखक हो लिये जी। जब कबाड़े से भी बंदा पोस्ट कबाड़ ले, तो क्या कहना।
आपकी सम्वेदनशीलता वाक़ई क़ाबिले-तारीफ़ है। वरना मुझे अक्सर कूड़ा बीनने वाले दिखते ही नहीं हैं। या यह भी हो सकता है कि ये सब देखने के लिए सुबह-सुबह आँख ही नहीं खुलती है।
ReplyDeleteज्ञानदत्त जी, दिल को छू गयी आपकी बातें. देखते तो सभी हैं उनको पर कभी कभार चाह कर भी उनके लिए कुछ नहीं कर पाते सिर्फ़ ये सोच कर की ये सब कुछ जो दिख रहा है किसी एक बड़े से सिस्टम का हिस्सा है... व्यक्तिगत अनुभव मेरा इतना बुरा है की आपसे क्या कहू.. काफी पहले ऐसा ही एक बच्चा हमारे घर अक्सर आ जाया करता था और हम उसे शाम के वक्त कुछ ना कुछ खाने को दे दिया करते थे. एकदिन उसका मालिक आया और हम सभी को धमकाते हुए बोला की खबरदार जो आज के बाद इस्सकी तरफ़ देखा भी. हमारी वजह से साला काम नहीं करता है आजकल ठीक से. फ़िर लगभग उसे पीटते घसीटते ले गया.
ReplyDeleteबढ़िया है। सबेरे पढ़ा था। अभी सबेरे के पहले टिपिया रहे हैं। आलोक पुराणिक की बाद काबिले गौर है जी। हम सब कबाड़ी हैं जी। बचपन से एकाध साल गर्मी की छुट्टियों में अपने एक दोस्त के साथ बिजली की बंद दुकानों के बाहर हम तांबे का के तार बटोर के बेचते थे और बेंच के कम्पट,टाफ़ी खाते थे। :)
ReplyDelete"किसी भी दृष्य को समग्रता से ग्रहण और आत्मसात नहीं करते। उतना ही ग्रहण करते हैं जितने से काम चल जाये। बार-बार देखने पर भी किसी विषय के सभी पक्षों को देखते-परखते नहीं। हमारा एकाग्रता का समय और काल इतना छोटा होता है कि कोई भी बात पूर्णरूपेण समझ ही नहीं पाते। "
ReplyDeleteलगता है मेरे मनोविज्ञान के लेक्चर का हिन्दी अनुवाद हो रहा है। कितने क्षेत्रों में महारत हासिल की है जी। और इस बार तो कविता भी है, फ़ोटू, कविता, पूरे मसाले हैं। वैसे दाद देनी पड़ेगी आप साधारण सी चीजों को भी अपनी पारखी नजर से बीन लेते है फ़िर असाधाराण संवेदना की पॉलिश लगा कर ऐसा चमका देते है कि कहना ही पड़ता है- वाह्…।
जहां तक बहुत कम पैसा और बहुत अधिक समय की बात है, बम्बई का अनुभव ये है कि ये बच्चे इतने हौशियार होते हैं कि कबाड़ी इन्हें उल्लु नहीं बना सकता। खूब कमाते है और खूब खर्च करते है क्योंकि इनके पास कोई सुरक्षित जगह नहीं होती पैसा जमा करने की।ज्यादातर पैसा दवाइयों में जाता है (सफ़ाई के अभाव में त्वचा रोग से अकसर पीड़ीत रहते है),रोटी का जुगाड़ तो हॉटेलों के बचे हुए खाने से, ठेले वालों से नहीं तो यहां का प्रसिद्ध वड़ा पाव खा के कर लेते हैं।
ज्ञान जी , पहले तनाव की बोगी न चलने का वचन दे चुके हैं इसलिए बस यही कहेंगे कि समय न मिलने के कारण बाल दिवस और आपके जन्म दिवस पर यह मार्मिक रचना पढ़ने का अवसर मिला.
ReplyDeleteआपकी पैनी नज़र हर दिशा को छू लेती है. आपको नतमस्तक प्रणाम !
लेख में आपकी संवेदनशीलता उभर आई है .. इससे पहले कि मैं अपराध भाव से ग्रस्त हूँ - निकल लो !
ReplyDeleteबाकी बात रही वह फोल्डर डिलीट वाली.. यह ट्रिक हम कॉलेज मैं अपनाया करते थे - किसलिए यह मैं आपकी कल्पना पर छोड़ता हूँ ;) दरअसल (alt + 4 digit number) दबाने से एक स्पेशल चेरेक्टेर पैदा होता है उदाहरण के लिए alt + 0169 दबाने पर कॉपीराइट वाला संकेताक्षर उत्पन्न होता है. इसी तरह से alt + 0160 से स्पेस ' ' पैदा हुआ जो कि अब दिख नहीं रहा . जानने के लिए देखिये .
रही बात उसे डिलीट करने की तो यदि आपको याद है की आपने वह फोल्डर कहाँ पर बनाया था तो वहाँ जा कर F5 (refresh) का बटन दबाइए - इससे वह फोल्डर एक क्षण के लिए दिखाई देगा. फ़िर आप उसे डिलीट कर सकते हैं ! अभी तो मुझे यह छुट्टन सा तरीका ही याद आ रहा है अगर काम नहीं करता है तो बताइए फ़िर कुछ सोचना पड़ेगा.
माफ़ करियेगा पिछली बार यह लिंक देना भूल गया था!
ReplyDeletehttp://en.wikipedia.org/wiki/Windows_Alt_keycodes
अस्वस्थता के कारण आपकी कई पोस्ट आज ही पढ़ रही हूँ -- सही और नियमित धारदार लेखन के लिए बधाई
ReplyDeleteअनीताजी ने बंबई के राग पीकर बच्चों की याद दिला दी - धारावी - विश्व का सबसे बड़ा अड्डा है इनका --
क्या होगा इनका ? :-(
- लावण्या