गरीबी अभिशाप है। कई बच्चे उनके माता पिता द्वारा इसलिये छोड़ दिये गये क्योंकि स्वयं को ही बचा पाना उनके लिये कठिन हो गया था। ... छोड़ने के बाद भी वो भीड़ का हिस्सा बनकर यह देखते रहते हैं कि उनके बच्चों का क्या हुआ।
अतः आश्चर्य इस बात पर नहीं होना चाहिये कि बंगलुरु जैसे बड़े और बढ़ते शहर में भी इनका अस्तित्व है, पर आप यह जानकर दुखी होंगे कि केवल बंगलुरु में पिछले 2 वर्षों में 4500 बच्चों को ऐसी संस्थाओं ने बचाया है। पर ऐसे कितने ही बच्चे जो बचाये नहीं जा पाते हैं, या तो अपराध तन्त्र में डूबते हैं या बाल मजदूर के रूप में देश की जीडीपी बढ़ाते हैं या मंदिर के बाहर भीख माँगते हुये दिखायी पड़ते हैं। समस्या को समग्र रूप में देखने में जो दूरगामी सामाजिक परिणाम दिखायी पड़ते हैं उसे सोचकर मन में सिहरन सी हो उठती है।
कार्यकर्ताओं से बात करने पर उन्होने बताया कि वे ’बच्चों के बचपन’ को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। यदि उनके मन की कोमल भावनाओं को नहीं बचाया गया, उसका कुप्रभाव समाज के लिये बहुत हानिकारक होगा। परिवार के लोगों द्वारा त्यक्त आहतमना बच्चों को जब समाज का प्रश्रय नहीं मिलेगा, उनका मन कठोरतम होता जायेगा। यदि उनका शोषण हुआ तो वही मन विद्रोही बनकर समाज की हानि करेगा। ऐसे आहतमना बच्चों को ढूढ़ने के लिये प्रतिदिन कार्यकर्ताओं को सड़कों पर ८-१० किमी पैदल चलना पड़ता है।
गरीबी अभिशाप है। कई बच्चे उनके माता पिता द्वारा इसलिये छोड़ दिये गये क्योंकि स्वयं को ही बचा पाना उनके लिये कठिन हो गया था। ऐसे बच्चों को लोग स्टेशन पर छोड़ देते हैं। छोड़ने के बाद भी वो भीड़ का हिस्सा बनकर यह देखते रहते हैं कि उनके बच्चों का क्या हुआ। झाँसी में पिछले दो वर्षों में ऐसे दस बच्चों को रेलवे कर्मचारियों ने अनाथालय में पहुँचाया है।
कुछ बच्चे माता पिता की आकस्मिक मृत्यु के बाद सम्बन्धियों द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर घर छोड़कर भाग आये थे। कुछ विकलांग थे और उनका भार जीवनपर्यन्त न वहन कर सकने के कारण उनके माता पिता ने छोड़ दिया था। कुछ बच्चे बिछुड़ गये थे अपने परिवार से पर इस संस्था में होने के बाद भी उनके परिवार के लोग उन्हे नहीं ढूढ़ पाये।
यह पोस्ट श्री प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है। प्रवीण बेंगळुरू रेल मण्डल के वरिष्ठ मण्डल वाणिज्य प्रबन्धक हैं।
निठारी काण्ड ने खोये हुये बच्चों को ढूढ़ने में पुलिस की निष्क्रियता की पोल खोल कर रख दी है। किसी गरीब का बच्चा खोता है तो वह इसे अपना दुर्भाग्य मान कर बैठ जाता है क्योंकि उसे किसी से भी कोई सहायता नहीं मिलती है। अमेरिका में खोये बच्चों को मिलाने का एक देशव्यापी कार्यक्रम चल रहा है और आधुनिक तकनीक की सहायता से उन्हे पहचानने में बहुत सहायता मिल रही है। ’एक नेटवर्क’, ’जेनेटिक फिंगर प्रिन्टिग’ और ’फेसियल फीचर एक्स्ट्रापोलेशन’ आदि विधियों से इस कार्यक्रम की सफलता दर ९९% तक पहुँच गयी है। कुछ लोगों को तो २० वर्ष बाद में मिलाया गया है। कोई भी केस वहाँ बन्द नहीं होता है जब तक सफलता न मिल जाये। हमारे यहाँ तो केस दर्ज़ ही नहीं किया जाता है। कहने को तो अभी सरकार ने १०९८ का हेल्पलाइन नम्बर प्रारम्भ किया है पर उसका कितना उपयोग हो पा रहा है, कहा नहीं जा सकता है। कार्यक्रम में बच्चों का उत्साह दर्शनीय था। हर एक के मन में कुछ कर गुजरने का एक सपना व दृढ़निश्चय था। एक सहारा बच्चे की दिशा और दशा सँवार सकता है। एक देश व समाज के रूप में हम अपने बच्चों की कितना ध्यान रखते हैं, उस संस्था में जाकर मुझे आभास हो गया।
मेरे पास आज रेलवे के एक अन्य सज्जन का परिचय देने का योग है। ये हैं श्री हिमांशु मोहन। कल उनके चेम्बर में गया तो वे अपने डेस्कटॉप और मोबाइल से पिट पिट कर रहे थे। हिमांशु हमारे मुख्य संचार अभियंता (Chief Communications Engineer) हैं। शुद्ध इलाहाबादी होंगे। हिन्दी में बहुत प्रवीण हैं। कविता-ओविता जबरदस्त करते हैं। ब्लॉग जगत में कस कर टिकने का माद्दा रखते हैं। देवनागरी में जम कर की-बोर्ड पर हाथ चला लेते हैं।
आनन फानन में इलाहाबादी के नाम से एक पोस्टरस पर ब्लॉग बना डाला उन्होने। आप जरा नजर मारें वहां। माइक्रोब्लॉगिंग की दो पोस्टें तो ठेल ही चुके हैं अपने मोबाइल से।
स्वागत हिमांशु!
सामने दिखती दुनिया में ही कितने अँधेरे कोने अतरे भी है और वहां तक प्रकाश न पहुंचा पाने की अपनी भी अकरयमन्यता और विवशता कभी कभी बहुत उद्विग्न कर जाती है -
ReplyDeleteकुछ लोग तो हैं जो अच्छा करने में जुटे हैं उन्हें मेरा नमन
आपको इस पहलू पर प्रकाश डालने के लिए बधाई मगर आपकी भी भूमिका महज मुख्य अतिथि के पद का विभूषण प्राप्त करना और उपरान्त इस ताई मुंह मोड़ लेना ही नहीं हो जाना चाहिए
आप यह भी बताते कि आपका योगदान मुख्य अतिथि के अलावा क्या रहा तो यह पोस्ट अपनी सही निष्पत्ति पा जाती .....
सच है ''किसी गरीब का बच्चा खोता है तो वह इसे अपना दुर्भाग्य मान कर बैठ जाता है क्योंकि उसे किसी से भी कोई सहायता नहीं मिलती है।''
ReplyDeleteगम्भीर विषय पर ध्यान आकर्षण.
हिमांशु जी का स्वागत.
हिमांशु जी का स्वागत |
ReplyDeleteसामाजिक संस्था स्ट्रीट चिल्ड्रेन के बारे में जानकारी मिली ...और सामजिक सरोकारों के प्रति आपकी संवेदनशीलता की भी ...!!
ReplyDelete@ Arvind Mishra
ReplyDeleteबच्चों के उत्साह के सागर में उनका इतिहास मुँह छिपाये बैठा था । अतः उत्साहवर्धन ही किया, संवेदनायें अपने पास ही रखीं । अपने वाणिज्यिक कर्मचारियों के माध्यम से हम लोग ’यात्रियों में अपवादों’ को ढूढ़ते रहते हैं । कई घर से भागे हुये प्रेमी युगलों को भी समझा बुझा कर घर वापस भेजने का कार्य रेल कर्मचारियों ने किया है । अभिनेता बनने के लिये भागे कई युवाओं को भी झाँसी में चिन्हित कर वापस वास्तविक धरातल में लाकर वापस घर भेजा है । अवयस्कों के पाये जाने पर उनके परिवारजनों को सूचित करते हैं और यदि उनसे कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं होता है तो ऐसी संस्थाओं को सौंप देते हैं । मुझे गर्व है कि इन परिस्थितियों में रेल कर्म्चारियों की संवेदनायें अति परिपक्व हैं ।
बहुत गंभीर विषय चिन्तन के लिए छोड़ा है..
ReplyDeleteहिमांशु जी का स्वागत है! परिचय के लिए आपका आभार.
गली और फुटपाथ के बच्चों के बारे में कुछ करना सराहनीय है। लेकिन उन वजहों के बारे में भी सोचा जाए जिन के कारण ये गली और सड़कों पर आते हैं।
ReplyDeleteसही पोस्ट उचीत चिंतन.
ReplyDelete@ श्री अरविन्द मिश्र और @ श्री प्रवीण पाण्डेय -
ReplyDeleteब्लॉगर और लेखक में यह अन्तर है! लेखक आदर्शवाद ठेल कर कट लेता है। ब्लॉगर से पाठक लप्प से पूछ लेता है - आदर्श बूंकना तो ठीक गुरू, असल में बताओ तुमने क्या किया? और ब्लॉगर डिफेन्सिव बनने लगता है।
एक तरीके से जिम्मेदार ब्लॉगर के लिये ठीक भी है। फिर वह आदर्श जीने का यत्न करने लगता है। उसका पर्सोना निखरने लगता है।
हम सभी किसी न किसी सीमा तक आदर्श जीते हैं। ड्यूअल पर्सनालिटी होती तो बेनामी नहीं बने रहते? और अगर यथा है, तथा लिखें तो ब्लॉगिंग भी एक तरह की वीरता है।
आप दोनो मुझे प्रिय हैं, इस गुण के कारण!
चिंतन - मनन देने वाली पोस्ट है....रेलवे कर्मचारियों को साधुवाद...
ReplyDeleteैसी संस्थाओं से जुडे लोगों को नमन है पाँडेय जी को पहले भी पढा है उनकी प्रतिभा काबिले तारीफ है हिमाँशू जी को भी शुभकामनाये। आपका धन्यवाद इन से परिचय करवाने के लिये।
ReplyDelete@प्रवीण जी शुक्रिया -मेरी पृच्छा -जिज्ञासा शमित हुयी -
ReplyDeleteजन सेवा की इस भावना को निजी तौर पर और सरकारी प्रयासों के जरिये जारी रखें !
रेलवे कर्मचारियों को साधुवाद...
ReplyDeleteuncle,
ReplyDeletea beutyful quot of child by ~Harold Hulbert
"Children need love, especially when they do not deserve it."
एक विचारणीय पोस्ट है....बहुत गंभीर समस्या है बच्चो की यह..लेकिन सरकार या हम क्या कर रहे हैं....शायद कुछ नही....शायद ऐसी संस्थाएं ही कुछ कर सकेंगी इन के लिए...।
ReplyDeleteहिमांशु जी का स्वागत है।
मुंबई में तो मुझे लगता है,इनकी तादाद सबसे ज्यादा है....इतने लोमहर्षक किस्से हैं कि विश्वास करना मुश्किल हो जाए....यहाँ भी बहुत सारी संस्थाएं काम कर रही हैं....
ReplyDeleteएक संस्था है ;'हमारा फुटपाथ'...मैं भी उस से जुडी हुई हूँ....और इतने व्यस्त रहने वाले...मल्टीनेशनल में काम करने वाले,थियेटर में काम करने वाले....डॉक्टर लोग हर पेशे से जुड़े लोग इसके सदस्य हैं...सबलोग एक जगह जमा होते हैं..उन्हें कहानियाँ सुनाई जाती हैं.ड्राइंग सिखाई जाती है.दांत ब्रश करने..कंघी करने,स्नान करने के फायदे बताये जाते हैं...और ये सारे काम चुपचाप होते हैं...बिना किसी शोर शराबे के...उन्हें कभी कभी चिड़ियाघर और पार्क भी ले जाया जाता है....अपनी अपनी तरफ से लोग जितना कर पाते हैं...कर ही रहें हैं..जो नहीं कर पाते...उनकी संवेदनाएं ही बहुत हैं..
लगभग ऐसे ही दो बच्चों से कल ही मिलना हुआ और मन भीग गया। आपकी इस पोस्ट ने उस अनुभूति को और प्रगाढ् तथा दीर्घ किया।
ReplyDeleteबधाई! समय के सदुपयोग की आपकी खुशी छलक रही है! सच है निठारी काण्ड ने अपराधियों की निर्दयता और पुलिस के निकम्मेपन और भ्रष्टाचार के छुरों से दिन रात कटते बचपन का बड़ा दर्दनाक खुलासा किया है. हर बचाया हुआ बच्चा अपने आप में एक बड़ा पुरस्कार है. आपकी यह आर्द्रता बनी रहे, बढ़ती रहे!
ReplyDeleteएक संस्था है " बचपन बचाओ आन्दोलन" कैलाश सत्यार्थी जी की...मेरा छोटा भाई कई वर्षों तक उनके साथ काम करता रहा था और सौभाग्य से बहुत नजदीक से उनके कार्य प्रणाली तथा कार्यक्रमों,उनके आश्रमों को देखने का मौका मिला...सच कहूँ..अभिभूत हो गयी..
ReplyDeleteसार्थक प्रयासों में लिप्त समर्पित भाव से ऐसे संस्थानों/ एनजीओ को देखकर मन बड़ा अच्छा हो जाता है...