आप अपने आस पास अर्बनाइजेशन देखें। बम्बई में मराठी मानूस का तर्क ले कर शहरी बनने की जुगत लगाते लोगों को बाहर रखने का यत्न हो रहा है। आस्ट्रेलियायी लोग भारतीयों को येन-केन-प्रकरेण दबोलना चाहते हैं। ब्लैक को गोरे इसी तरह से घेट्टो बनाने को मजबूर करते रहे हैं पिछली शती में। इस प्रक्रिया में लोकल पोलीस, म्यूनिसिपालिटी, नेता और कानून; सब रोल अदा करते हैं सबर्बिया को कोने में धकेलने में। उनको मिलती है सबसे रद्दी जमीन, शहरी सुविधाओं का अभाव, धारावी जैसी दशा। और उनमें जीवट होता है उन परिस्थितियों का भी प्रयोग कर आगे बढ़ने का। वे अर्ध-संस्कृत भाषा, हिंसा और छोटे अपराधों से परहेज नहीं करते। इसके बिना चारा नहीं।
मराठी मानूस तो एक बहाना है आने वालों को बाहर रखने का। अगर मुम्बई में आने वाले मराठी ही होते तो नारा मराठी मानूस की जगह कुछ और होता। पर नये आने वाले को किनारे धकेलने का काम और उसे करने का हथकण्डा एक सा ही होता। कीनिया, दक्षिण अफ्रीका, जिंबाब्वे, डेट्रॉइट, मेलबर्न, ग्दांस्क, मनीला, बेरूत,आयरलैण्ड, मुम्बई --- सब जगह स्लम-सबर्बिया को कोहनियाने की तकनीकें एक सी हैं।
(विश्व के स्लम्स का चित्र विकीपेडिया से।)
सबर्बिया (Suburbia) और साइबर्बिया (Cyburbia) में रीयल और वर्चुअल जगत का अन्तर है। अन्यथा साम्य देखे जा सकते हैं।
नया ब्लॉगर आता है। अपना स्पेस तलाशता है। पुराने जमे लोग अपने में ही मगन रहते हैं। नया सोचता है कि वह कहीं ज्यादा टैलेण्टेड है। कहीं ज्यादा ऊर्जावान। स्थापित ब्लॉगर गोबर भी लिखते हैं तो बहुत तवज्जो मिलती है। उसे नायब लिखने पर भी कोई नोटिस नहीं करता। सो नया बन्दा अपने घेट्टो तलाशता है। हिंसा (गरियाने) का भी सहारा लेता है। डोमेन हथियाता (जमीन खरीदता) है। रीजनल आइडेण्टिटी की गुहार लगाता है। चिठ्ठाचर्चा के पर्याय बनाता है। सोशल नेटवर्किंग तेज करता है। कोई कोई बेनामी गन्द भी उछालता है। घर्षण बढ़ता है। स्थापित उनकी लैम्पूनिंग करते हैं और नये ब्लॉगर स्थापितों की। बस इसी गड्डमड्ड तरीके से साइबर्बिया आबाद होता है। बढ़ता है।
सबर्ब और साइबर्ब में बहुत साम्य दीखता है मुझे। जब मैं नया ब्लॉगर था, तब मैने एक बार अनूप शुक्ल जी को कहा था कि यह चिठ्ठाचर्चा बहुत बायस्ड है। मसिजीवी ऐण्ड को. ने अधिपत्य जमा रखा है। अब देखता हूं कि लोग वही अनूप शुक्ल के बारे में कह रहे हैं। मसिजीवी के बायस्ड होने की सोच आई-गई-खत्म हो गई। अनूप शुक्ल के बायस्ड होने की बात भी आई-गई है; खत्म भी हो जायेगी। पर जैसे जैसे यह साइबर्बिया बढ़ता रहेगा, बायस्ड होने के नये नये केन्द्र-उपकेन्द्र बनते रहेंगे।
बहुत प्रकार के ब्लॉगिंग साभ्रान्त देखे हैं मैने - तकनीकी दक्ष, साहित्यकार, स्क्राइब्स तो ब्लॉगजगत पर अपना वर्चस्व जता जता कर हार गये अन्तत:! आजकल हल्के-फुल्के मनमौजियत के लेखन वाले वर्चस्व जताने का यत्न कर रहे हैं। गम्भीर और विषयनिष्ठ लेखन वाले अभी हिन्दी ब्लॉगजगत को शायद चिर्कुटर्बिया (चिरकुट-अर्बन ) मान कर अलग हैं। पर जब पर्याप्त विस्तार होगा तो मल्टीनेशनल्स की तरह वे भी हाथ आजमायेंगे। वे एक नया अर्बन डायमेंशन प्रदान करेंगे हिन्दी को। शायद।
मैं जानता हूं कि मैं कोई समाजशास्त्री नहीं हूं। साम्य तलाशना शत प्रतिशत सही नहीं होता। पर यही तरीका है किसी फिनॉमिनॉ को समझने का। नहीं?
क्या खूब लिखा हैआज तो आपने - अब आभासी संसार का तो कोई भौतिक वजूद होता नहीं -होता तो ऐसे विस्फोटी लेखन से दीवारों के दरकने और छतों के उड़ जाने का डर था -आप की यह पोस्ट कुछ कुछ भौतिकी के बर्नौली सिद्धान्त का अनुगमन करती इतनी तेज प्रवाह से बह चली है कि कम दाब वाले क्षेत्रों पर खतरा सहसा ही बहुत बढ़ गया है - हल्की फुल्की छप्परें और उनके आश्रयी या आश्रयदाता सावधान हो लें कस के एक दूसरे को थामे रहें -आधुनिक परशुराम क्रोधित हो उठे हैं -फूँक चहहु उडाऊ पहाडू..कहने अभी मिथिलेश भाई आते ही होगें .....हा हा .....
ReplyDeleteअरे कितना सुन्दर शब्द गढ़ा है ? चिर्कुटर्बिया-बलि जाऊं !
नये शब्दों के ईजाद के साथ निशाने पर चोट करती पोस्ट।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
इस फिनॉमिनॉ को समझने के जद्दोजहद या यूँ कहें, शोध तो जारी रखा ही जा सकता है, उसमें क्या हर्जा होना है. :)
ReplyDeleteबहुत बढ़िया साम्य तलाश किया है आप से १००% सहमत !!
ReplyDeleteसाइबर्बिया...
ReplyDeleteचिर्कुटर्बिया...
ब्लॉग डायरेक्टरी में दो नए शब्द और जुड़ गए ...
शहरीकरण और ब्लोगिंग में साम्य सिद्ध कर दिया है आपने ...
जब भी मांग, आपूर्ति से अधिक होगी, असंतोष की प्ररिणति शायद इसी तरह परिलक्षित होती है..जीवन के हर क्षेत्र में. अभाव की संस्कृति का फल है.
ReplyDeleteचिर्कुटर्बिया wow!
ReplyDeleteये शब्द हिन्दी ब्लॉगिंग की उपलब्धि है। अगर हिन्दी जाति के संकर शब्दों का इतिहास लिखा जाए तो अपका नाम नीओन से लिखा जाएगा।
समझने का तरीका दुरूस्त है।
ReplyDeleteमेरे लिये आज का दिन नए शब्दो का दिन है :
ReplyDeleteखुशदीप जी के ब्लोग से मैने 'ब्लोगवुड' और आपके ब्लोग से 'चिर्कुटर्बिया' शब्द.
बहुत गहरे पैठ के बाद इस रचना ने जन्म लिया होगा.
जैसे जैसे यह साइबर्बिया बढ़ता रहेगा, बायस्ड होने के नये नये केन्द्र-उपकेन्द्र बनते रहेंगे।
ReplyDeleteबहुत प्रकार के ब्लॉगिंग साभ्रान्त देखे हैं मैने - तकनीकी दक्ष, साहित्यकार, स्क्राइब्स तो ब्लॉगजगत पर अपना वर्चस्व जता जता कर हार गये अन्तत:! आजकल हल्के-फुल्के मनमौजियत के लेखन वाले वर्चस्व जताने का यत्न कर रहे हैं। गम्भीर और विषयनिष्ठ लेखन वाले अभी हिन्दी ब्लॉगजगत को शायद चिर्कुटर्बिया (चिरकुट-अर्बन smile_regular) मान कर अलग हैं। पर जब पर्याप्त विस्तार होगा तो मल्टीनेशनल्स की तरह वे भी हाथ आजमायेंगे। वे एक नया अर्बन डायमेंशन प्रदान करेंगे हिन्दी को। शायद।........
सही लिखें हैं आपसे एकदम सहमत हूँ ,वर्तमान में यही हाल है.
सर,
ReplyDeleteलगभग बीस हजार ब्लोग्गर्स तो हो ही गए हैं , जाने कितने घेटों में हैं या होंगे , मगर ये संख्या निश्वित ही सैकडा भी पार नहीं कर पाएगी । और बकिया सब तो फ़ेंटो ( ये घेटो का विपरीतार्थक है , जिसमें सब एक साथ फ़ेंट फ़ेंटा जाते हैं , घेटो कोई नहीं रहता ) ही रह जाएंगे ।
बहुत आभार
ReplyDeleteआप जो भी लिखते हैं
सोचकर/ मनोमंथन के बाद
प्रस्तुत करते हैं
अब अपनी कहूं तो
मैंने हमेशा जो मन से भाव उभरे वही लिख दीये -- किसी खेमे या गुट में रहने की
न कभी इच्छा थी ना आगे भी रहेगी
स्नेह सहित
- लावण्या
एक निश्पक्ष विश्लेशन सहमत हूँ आपसे शुभकामनायें
ReplyDeleteबढ़िया पोस्ट है.
ReplyDeleteमुझे समझ नहीं आता कि अब भी आभासी दुनियाँ क्यों कहा जाता है ब्लॉग जगत को? कम से कम हिंदी ब्लॉग जगत को ऐसा कहने का औचित्य मुझे तो समझ में नहीं आता. घेट्टो बन ही गए हैं. ब्लॉगर अशोसियेशन बन ही गए हैं. कहीं साइंस के नाम पर तो कहीं क्षेत्र के नाम पर. पुरस्कार दिए ही जा रहे हैं. कौन पुरस्कार दे रहा है वह भी पता चल जाता है. फिर कौन सी आभासी दुनियाँ?
वैसे आपकी इस पोस्ट से मुझे तो बहुत नुक्सान हो गया. बहुत कसकर थामा. बहुत कोशिश की लेकिन आपकी इस पोस्ट की वजह से मेरी हल्की-फुल्की छप्पर उड़ गई. पूरा टील-टप्पर उड़ गया. अब उड़ गया तो उड़ गया. हल्का-फुल्का था सो उड़ लिया. अब भारी टील-टप्पर खड़ा करूंगा. भारी-भरकम स्टील की शीट ले आऊंगा. नायिका-भेद वाली स्टील की शीट और पहेली वाली कील. ब्लॉगर और ब्लागरा वाले विमर्श की ईंट और पुरुष पर्यवेक्षण वाला बालू. उसके ऊपर रामचरित मानस से चौपाई का सीमेंट. फिर देखूँगा कि आप की अगली आंधी-पोस्ट मेरे टील-टप्पर का क्या कर सकती है?.......:-)
वैसे एक सवाल आपसे भी है. आप किसी समूह या घेट्टो के सदस्य क्यों नहीं बने? इसके बावजूद कि आपको भी कभी चिट्ठाचर्चा से शिकायत थी.
आप भी सीधे मंगल और तिलंगी से बात करते करते सैबर्बिया तक पंहुच जाते है , त्रिआयामी प्रोजेक्टर लगा रखा है दिमाग में , अपन का साधारण दिमाग ख़राब हो जाता है कई बार, क्या चीज हो आप भी गुरु ??
ReplyDeleteThree cheers for coining two new terms ! That thing apart i'd say there is no reason to take blogging this much seriously. Its just fun ,nothing more or less ,but as the title of a book by Amartya Sen suggests we are ,after all, 'argumentative Indians'!
ReplyDeleteजब किसी जगह पर ताजा ताजा पानी भरा जाता है तो उससे उठते बुलबुले सतह पर आते आते फूटने लगते हैं और जो नहीं फूट पाते वह सूक्ष्म बुलबुलों के रूप में ईग्लू रूप धारण कर आपस में जुड जाते हैं और सतह पर कुछ देर तक जुडे रहते हैं। यह एक प्रकार का घेट्टोईस्म या ग्रुपिस्म ही है।
ReplyDeleteइस हिसाब से मेरा यह मानना है कि घेट्टोईस्म या ग्रुपिस्म तो एक प्रकार से प्रकृतिगत स्वभाव है। इस से इन्कार नहीं किया जा सकता। हम इस परिस्थिति को तोड तो नहीं सकते, बस टाल जरूर सकते हैं।
और हां, इसके साथ साथ और भी एक प्रकार का ग्रुपिस्म होता है। जिस पात्र में पानी भरा जाता है, वहां यदि पहले से कुछ घास फूस, तिनके या कुछ हल्की चीज हो तो वह पानी भरने के साथ ही सतह पर वह चीजें आती जाती हैं और उपरी सतह पर एक दूसरे से जुड कर एक प्रकार की अनोखी ग्रुपिंग बना लेती हैं।
यहां मुंम्बई में देखता हूं कि लोग घर ढूँढने से पहले देखते हैं कि सोसाईटी में मांस मच्छी वाले तो नहीं हैं, गुजराती सोसाईटी हो तो उत्तम, मुसलमान परिवार हो तो उसके बगल में फ्लैट लेने से कतराते हैं। यह घेटोईस्म बडे पैमाने पर समाज में प्रांत और भाषा का अपरूप लेकर हमारे सामने आज प्रत्यक्ष दिख रहा है और हम हैं कि इस पर कुछ नहीं कर सकते।
हर एक का अपना अपना ईग्लू होता है।
@ शिव कुमार मिश्र > वैसे एक सवाल आपसे भी है. आप किसी समूह या घेट्टो के सदस्य क्यों नहीं बने? इसके बावजूद कि आपको भी कभी चिट्ठाचर्चा से शिकायत थी.
ReplyDeleteमेरे पास एक समूह था जिसके दो सदस्य थे। शिवकुमार मिश्र और मैं। शिवकुमार मिश्र के होते मुझे ज्यादा बड़े समूह को बनाने की जरूरत नहीं पड़ी! :-)
शिव जी पूरी तरंग में हैं आज ..आखिर क्यूं न हों उनकी मधुयामिनी है आज !
ReplyDeleteबम बम भोले !
बहुत सही लिखा जी. ज्ञानवादी पोस्ट से आगे जाती पोस्ट. पसन्द आयी.
ReplyDeleteज्ञानदत्त पाण्डेय सर जी हमेशा एक से एक बेहतरीन लेख देते हैं और नये नये शब्द उत्पन्न होते हैं.
ReplyDeleteमेरा मानना है ब्लॉग ऐसी स्लेट है जहाँ लिखने के लिए इतनी आज़ादी है के आधी रात नींद में गर कुछ ख्याल खलल डाल रहे है ...आप उसे बिहार या अमेरिका में जागते शख्स से बाँट सकते है ....कौन कैसे इस आज़ादी का इस्तेमाल करता है ये व्यक्ति- व्यक्ति पर निर्भर है .....जिस तरह मै टी वी के रिमोट का इस्तेमाल करता हूँ .वैसे ही माउस का भी.......मेरी समझ में ब्लॉग आप का आइना है....ओर इसका इस्तेमाल मन का पढना ओर मन का लिखने के लिए करना चाहिए ....
ReplyDeleteबढ़िया ज्ञानदत्तीय विश्लेषण
ReplyDeleteदेव !
ReplyDeleteबहत कुछ देख रहा हूँ | आँखें चौधियां - सी गयी हैं |
बस गंगा-प्रवाह देख रहा हूँ ! यहाँ थोड़ी नमीं पाता हूँ ! आभार !
बड़े-बड़ों के बीच क्या बोला जाए..जब कोई निष्कर्ष निकाल लें..सब मिलकर एक सार्वजनिक श्वेतपत्र जारी कर दें..हम वही पढ़ लेंगे.
ReplyDeleteबढ़िया और सही विश्लेषण।
ReplyDeleteमुझे भी शुरुआती दौर में यह देखकर अजीब लगता था कि
चिट्ठाचर्चा में बस कुछ लोगों के ही उल्लेख होते थे।
हां यह अलग बात है कि भूले भटके अपने नाम का उल्लेख देखकर खुशी भी होती थी।
वैसे एक और बात यह भी है कि इस तरह के कार्य कोई भी करे। आरोप लगने तय ही हैं।
यह बात चिट्ठाचर्चा के लिए कह रहा हूं।
कहां संभव है कि कोई आज के पूरे 19-20 हजार ब्लॉग्स पढ़ने के बाद ही चिट्ठाचर्चा करे।
तो बात वही जो शुरुआती दौर से चली आ रही है कि बचने और चलने के साथ लोकप्रिय वही ब्लॉग होंगे जो स्तरीय लेखन करेंगे।
स्तरीय लेखन वालों को पढ़ने वाले खुद आ कर पढ़ेंगे, उसे अपने पोस्ट की लिंक ईमेल पर ठेलने की जरुरत ही नही होगी।
पर देर-सबेर यह बात समझ में आ ही गई कि यहां आने का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ ब्लॉग लिखना ही है।
कोई चर्चा करे अपने नाम की तो ठीक, नहीं करे तो ठीक।
मुद्दे से भटक गया शायद
रहा सवाल घेटो का तो, जब ब्लॉगिंग के सहारे "ग्लोबल" होने की बात कही जा रही है या फिर ग्लोबल हुआ जा रहा है। ऐसे में घेटो बनाना और तलाशना, दोनों ही बेकार है। जो घेटो बनाएंगे वे घेटो में ही सिमटे रह जाएंगे, और जो घेटो तलाशेंगे वे यही करते रह जाएंगे। वैसे समूह के अंदर के उप समूह अर्थात घेटो के अंदर के सब घेटो के लिए क्या शब्द?
क्योंकि यहां यही ज्यादा हो रहा है।
;)
अब फिर एक अलग मुद्दा
काफ़ी समय पहले मैने आपके पर्सोना में बदलाव पर पूछा था।
और आपने बताया भी था। पर्सोना में बदलाव तो समय के साथ आते ही रहते हैं।
तो अब फिर से एक पोस्ट हो जाए, पर्सोना में आए बदलाव पर? संदर्भ ब्लॉगजगत या ब्लॉग।
;)
गजब का लिखा है । सच में यह हर क्षेत्र में हो रहा है । निशाना वो बनते हैं जो लाइमलाइट में आते हैं । मुम्बई में पहले दक्षिण भारतीय निशाना थे अब उत्तर भारतीय हो गये । कुछ दिनों बाद विदर्भ के और कोंकणी लोग भी मुम्बई में बाहर के माने जायेंगे । पाकिस्तान राष्ट्र बनने के बाद मुसलमानों को गाहे बगाहे बाहर का प्राणी बता दिया जाता है ।
ReplyDeleteयही ब्लॉग जगत में दिख रहा है । पुरानी मानसिकता नये को रास्ता देने को तैयार ही नहीं । नये भी इतने विद्रोही कि पुरानों से मुगल-पिताओं सा व्यवहार करते हैं । ’म्युचुअल एकॉमडेशन’ ही नहीं । ऐसा लगता है कि मानसिक कंगाली छायी है ।
भविष्य के गर्भ मे क्या छुपा है यह अभी समझना मुश्किल है...सभंव है गम्भीर और विषयनिष्ठ लेखन वाले...अभी समय की प्रतीक्षा कर रहे हो..।
ReplyDeleteपोस्ट बहुत गहरे चिंतन मे डुबोती है...
शत प्रतिशत सहमत हूँ आपसे...
ReplyDeleteईमानदारी से कहूँ तो जब कभी यह सत्य/ तथ्य दिमाग पर छाता है,तो मन वितृष्णा से भर जाता है...कि यहाँ भी,यही सब ?????
फिर लगता है...छोडो,जिसको जो समझ में आता है करे... सब लोग अपने अपने संस्कार से विवश हैं...जिन्हें अच्छा कर संतोष पाना है,वो उसी के अनुरूप अपने समस्त क्रियाकलाप रखेंगे और जिन्हें केवल अपना नाम चमका चर्चा में बने रहना है,वे उसी अनुरूप सबकुछ करेंगे...
मैं उस समय को कभी नहीं भूल पाती कि नेट/ब्लॉग लेखन के पूर्व वर्षों तक मैं केवल पाठक थी और एक पाठक के रूप में मुझे इन सबसे कोई मतलब नहीं रहता था...मुझे नेट पर केवल अपने रूचि के उत्कृष्ट सामग्री की खोज रहती थी,चाहे उसे किसी नामी ने लिखा हो या बेनामी ने...
ये सारे झोर झमेले गुटबंदी ऐसे ही उड़ जायंगे,बीतते समय के पलों संग...सुखद यह है कि नेट पर स्थित/संरक्षित अच्छी चीजें अपना महत्त्व सदा के लिए स्थायी रख पाएंगी और आज न सही कभी न कभी तो ये सही लोगों तक पहुँच ही जायेंगी..
ज्ञान के भण्डार जी, कोहानियाने की तरकीबें जानी जी . क्या खूब लिखा है . पिछले ३० सालों से लेखन में कोहानियाने की कोशिश नाकाम रही . आज से ३० साल पहले पत्रिकाओं में स्थान बनाने के लिए जो मूर्धन्य लेखक सामने थे वे आज भी हैं . पिछले दिनों दिल्ली जाना हुआ . रेल स्टेशन पर एक प्रतिष्ठित पत्रिका खरीदी और पूरी पढ़ डाली . लगभग २५ दिनों बाद लौटा तो फिर दूसरी बहुचर्चित पत्रिका खरीदी . पढ़ने बैठा तो एक बारगी पत्रिका का मुख्य पृष्ठ पलट कर देखना पड़ा कि वही पत्रिका तो नहीं खरीद्ली ? वही मूर्धन्य लेखक ? इस दौरान एक पत्रिका के सम्पादक जी ने विवशता जाहिर करते हुए कहा, फलां खूब लिखते हैं सो उन्हें छापना पड़ता है, फिर पत्रिका की छवि का सवाल भी तो है ! श्रष्ट पत्रिकाओं में भी तो घेट्टो बाज़ी है ? नवागत का स्वागत भी क्या ज़रूरी नहीं ? चाहे वह ब्लोगिंग ही क्यों न हो ?? माफ़ी सहित .
ReplyDeleteठहरे हुए पानी में एक कंकर कितनी लहरें पैदा कर सकता है कोई यहाँ आ के गिन सकता है. लहर-लहर में करेंट है!
ReplyDelete..वाह!
गोसाई जी के समय में ई घेट्टू-फेट्टू नहीं रहा होगा। लेकिन एगो बात ऊ कहे थे
ReplyDeleteधूमउ तजई सएज करूआई ।
अगरू प्रसंग सुगंध बसाई । ।
धुआं भी अगर के संग से सुगन्धित होकर अपने स्वाभाविक कडु़वेपन को छोड़ देता है ।
इसी लिये हम .... छोड़िए।
गुरूदेव बहुत से सवाल उमड़ रहे हैं?कभी आपसे बात कर शंका का समाधान चाहूंगा।मगर मैं एक बात बता दूं छतीसगढ की ब्लागर मीट कंही से घेटो बनाना नही था।अगर ऐसा है तो मैं अभी से कह रहा हूं कि मैं घेटो मे रहने वाला नही।
ReplyDelete@ शिव जी की मधुयामिनी - जबरदस्त!
ReplyDeleteमहारथी के व्यंग्यबाणों का एकघ्नी से उत्तर अतिरथी ही दे सकते हैं।
बाकी सब लोग कह ही दिए हैं। देर से आने में बहुत फायदा रहता है।
@गम्भीर और विषयनिष्ठ लेखन वाले अभी हिन्दी ब्लॉगजगत को शायद चिर्कुटर्बिया (चिरकुट-अर्बन ) मान कर अलग हैं।
ऐसा नहीं है। आज भी गम्भीर और विषयनिष्ठ लेखन ब्लॉगरी में हो रहा है। ... शायद मेरी व्यंग्य की समझ ठीक नहीं है :) ।
हमारी समझ में तो ब्लाग अभिव्यक्ति का माध्यम है बस। जैसे आप होंगे वैसी ही आपकी अभिव्यक्ति होगी।
ReplyDeleteचिट्ठाचर्चा के बारे में जब आप नये थे तब आपकी कुछ सोच/समझ रही होगी! बीच में भी कुछ कुछ रही होगी। अभी कुछ दिन पहले की सोच भी देखी मैंने जिससे लगा कि यह विचार किसी नवोदित ब्लॉगर के हैं!
ऐसा होता है कि हम आदतन उस काम के बारे में बेहतर राय व्यक्त कर सकते हैं जो हम खुद कभी करते नहीं।
ब्लॉगिंग की तमाम स्थितियां और दौर बताते समय (.....बस इसी गड्डमड्ड तरीके से साइबर्बिया आबाद होता है। बढ़ता है। ) आप एक और दौर बिसरा गये वह है ...इनाम बांटता है।
वस्तुत: हम लोगों ने कोलकता में बतियाते हुये यह भी सोचा था कि एक इनाम इनाम देने वालों के लिये भी रखना चाहिये।
समझने के इस तरीके के शेयर करते ही अपुन भी बिना घुटना खुजाये समझ गईले
ReplyDeleteबिलकुल आसान शब्दों में बहुत ही अच्छा और सटीक विश्लेषण किया है आपने. धन्यवाद!
ReplyDeleteपांडे जी , करीब चार पांच साल से मै आपके बलोग को पढ़ रहा हूँ | टिप्पणी बहुत कम ही कर पाता हूँ | आपके ब्लॉग पर आने से ही नए नए शब्दों से परिचय हो पाता है |
ReplyDeleteऔर हम इनसब से ऑलमोस्ट अनभिज्ञ ही हैं ! हमको हिंदी ब्लोग्गर माना जाएगा क्या?
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