गांवों से शहरों की ओर तेजी से आ रहे हैं लोग। होमो अर्बेनिस (Homo Urbanis) एक बड़ी प्रजाति बन रही है। पर हमारे शहर उसके लिये तैयार नहीं दीखते।
शहर के शहरीपन से उच्चाटन के साथ मैने उत्क्रमित प्रव्रजन (Reverse Migration) की सोची। इलाहाबाद-वाराणसी हाईवे पर पड़ते एक गांव में बसने की। वहां मैं ज्यादा जमीन ले सकता हूं। ज्यादा स्वच्छ वातावरण होगा। पर मैं देखता हूं कि उत्क्रमित प्रव्रजन के मामले दीखते नहीं। लगता है कहीं सारा विचार ही शेखचिल्ली के स्वप्न देखने जैसा न हो।
कुछ सीधे सीधे घाटे हैं गांव के – बिजली की उपलब्धता अच्छी नहीं और वैकल्पिक बिजली के साधन बहुत मंहगे साबित होते हैं। कानून और व्यवस्था की दशा शहरों की अपेक्षा उत्तरप्रदेश के गांवों में निश्चय ही खराब है। गांवों का जातिगत और राजनीतिगत इतना ध्रुवीकरण है कि निस्पृह भाव से वहां नहीं रहा जा सकता!
फिर भी लोग गांव में बसने की सोचते होंगे? शायद हां। शायद नहीं।
उत्क्रमित नाव खेवन:
रोज सवेरे गंगा की धारा के विपरीत नायलोन की डोरी से बांध एक दो आदमी नाव खीचते ले जाते हैं। आज नाव खाली थी और एक ही व्यक्ति खींच रहा था। मैने पूछा – कहां ले जाते हो रोज नाव। चलते चलते ही वह बोला – ये धूमनगंज थाने पर जाती है।
धूमनगंज थाने पर जाती इस नाव का उत्क्रमित खेवन देखें 6 सेकेण्ड के इस वीडियो में:
यह दिया है ज्ञान का, जलता रहेगा।
ReplyDeleteयुग सदा विज्ञान का, चलता रहेगा।।
रोशनी से इस धरा को जगमगाएँ!
दीप-उत्सव पर बहुत शुभ-कामनाएँ!!
गांवों का जातिगत और राजनीतिगत इतना ध्रुवीकरण है कि निस्पृह भाव से वहां नहीं रहा जा सकता!
ReplyDeleteऔर ये हाल तब है जबकि गाँव के लोग सीधे सच्चे ईमानदार होते हैं ...हाँ ...शायद तभी इन्हें हांकना इतना आसान होता है ....
शुभ दीपावली ...!!
एकदम तैयारी कीजिए। सोलर पॉवर अब महंगा नहीं है। बैटरी वगैरह की भी देखभाल हो जाती है। मोबाइल कनेक्सन तो हर जगह उपलब्ध है। उस वक्त तक तीव्र गति नेट भी गाँव में उपलब्ध हो जाएगा।
ReplyDelete..
गाँवों में ध्रुवीकरण तो हमेशा से रहा है। कोई नई बात थोड़े है। आप का आश्रम ध्रुवीकरण का एक नया केन्द्र होगा, यह क्यों नहीं सोचते। सत्ता और प्रभाव का आधुनिक केन्द्र - महंत चचा की कुटी। यहाँ इंटरनेट से लेकर अल्ल सुबह दार्शनिक चर्चा की सुविधा उपलब्ध है। साहित्यकार लोग दूर रहें....
वाणी गीत जी को बताइए कि गँवार कितना सीधा होत है !
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आपात कारणों से कहीं 5 बजे ही जाना था। कल ही ड्राइवर से सब सेट कर लिया था। भाई साहब अब तक नहीं आए। मोबाइल ऑफ कर परुआ मना रहे हैं। शायद गाँव से आते हैं ;) पूछने पर इतना सुन्दर बहाना मारेंगे कि आप मुग्ध हो जाएँगे।
लखनऊ काहिलों की धरती है जिसका प्रभाव आस पास के गाँवों तक है। प्रयाग की क्या स्थिति है?
कुछ सोलर पैनल, एक बड़ा लोन्ग बैकअप इंवार्टर लाख से दो लाख के बीच मिल जाएँगे. एक इंजीनियर इंवार्टर का थोड़ा बहुत मैंटेनेंस-रिपेयर आसानी से सीख सकता है. सॉफ पानी के लिए एकवगार्ड और जोड़ लें. बस इंटरनेट नहीं मिलेगा. पर आराम के लिए इतनी कीमत चुकाई जा सकती है, थोड़ा व्यस्त रहना चाहें तो किसी पर्यावरण, सामाजिक, ग्रामीण, प्रशिक्षण, रोज़गार संबंधी एनजीओ को अपनी शिक्षा और परामर्श का लाभ दे सकते हैं उसके सदस्य बनकर.
ReplyDeleteहमने भी कभी उत्क्रमित प्रवजन का स्वपन देखा था कि उत्तराँचल में नौकरी लगी तो अपने गाँव वापस चले जाएँगे पर यह स्वपन अधूरा ही रह गया।
ReplyDeleteगांवों में सिर्फ थोडी बिजली की कमी ही दिक्कत पैदा करती है बाकि गांव में आजकल सभी सुविधाएँ उपलब्ध है और जो कुछ कमी है वह पास के शहर से पूरी की जा सकती है | जातिगत धुर्विकरण भी गांव में कितना भी क्यों न हो इज्जत सबको शहर से बढ़िया मिलती है | मेरी निगाह में तो गांव में रहने का मजा ही निराला है | मै तो गांव की प्रष्ट भूमि का आदमी हूँ रिटायर्मेंट लेने के बाद सीधा गांव जा कर ही रहूँगा | सुविधा के लिए दो डेस्कटॉप रखूँगा एक खेत वाले घर में और एक गांव की हवेली में | वही से बैठकर इत्मिनान से ब्लॉग लिखा करूँगा |
ReplyDeleteवाणी गीत जी आजकल गांव के लोग जितना आप समझते है उतने सीधे नहीं होते शहर से वापस गांव में जाकर बसने और उन्हें गंवार समझ हांकने वाले को गांव वाले एसा हांकते है कि वह अपना सारा शहरी ज्ञान भूल जाता है |
सुबह-सुबह गांव की याद। जय हो। सोचने में जाता क्या है। एक पोस्ट निकल आती है।
ReplyDeleteबड़े नगर में ऊँचे मूल्य पर मकान लेने से अच्छा है कि आबादी से १०-१२ किमी दूर डेरा बसाया जाये । शहर की (कु)व्यवस्थाओं पर आश्रित रहने की अपेक्षा कम सुविधाओं में रहना सीखा जाये । यदि ध्यान दिया जाये तो सुविधायें भी कम नहीं हैं ।
ReplyDelete१. नगर के बाहर भूमि लेने से लगभग ६-७ लाख रु का लाभ होगा । इसका एक वाहन ले लें । यदाकदा जब भी खरीददारी करने नगर जाना हो तो अपने वाहन का उपयोग करें ।
२. मकान में एक तल लगभग आधा भूमितल के अन्दर रखें । भूमि के १० फीट अन्दर ५ डिग्री का सुविधाजनक तापमान अन्तर रहता है जिससे बिजली की आवश्यकता कम हो जाती है । सीपेज की समस्या को इन्सुलेशन के द्वारा दूर किया जा सकता है ।
३. प्रथम तल में पु्राने घरों की तरह आँगन रखें । प्रकाश हमेशा बना रहेगा । यदि खुला रखना सम्भव न हो तो प्रकाश के लिये छ्त पारदर्शी बनवायें ।
४. एक कुआँ बनवायें । पानी पीने के लिये थोड़ा श्रम आवश्यक है ।
५. सोलर ऊर्जा पर निर्भरता कभी भी दुखदायी नहीं रहेगी । तकनीक बहुत ही विकसित हो चुकी है । यदि एक विंड पैनेल लगवाया जा सके तो आनन्द ही आ जाये ।
६. एक गाय अवश्य पालें । गायपालन एक पूरी अर्थव्यवस्था है ।
७. इण्टरनेट के बारे में निश्चिन्त रहें । डाटाकार्ड से कम से कम नेशनल हाईवे में आपको कोई समस्या नहीं आयेगी और आपका सारा कार्य हो जायेगा ।
८. स्वच्छ वातावरण के लिये पेड़ ही पेड़ लगायें । नीम के भी लगायें ।
९. निर्लिप्त भाव से साहित्य सृजन करें । हिन्दी की प्रगति होगी ।
१०. वहाँ के समाज को आपका आगमन एक चिर प्रतीक्षित स्वप्न के साकार होने जैसा होगा ।
११. अगल बगल कुछ प्लॉट रोक कर रखें । बहुत से लोग जल्दी ही टपकेंगे ।
आश्रम का आईडिया जोरदार है. शत प्रतिशत सफलता की गेरेंटी
ReplyDeleteप्रवीण जी ने पूरा खाका ही खींच दिया है प्रवास का/आश्रम का । मुझे खूब आकर्षित कर रहा है ।
ReplyDeleteआकर्षित तो आपकी प्रविष्टि ने भी किया-शीर्षक से ही - ’उत्क्रमित प्रवजन’ ।
वाकई सोचने में कुछ भी नहीं जाता। सोचते तो हम भी हैं। पर फिर लगता है संभव नहीं है। वैसे भी नगर से 10 -12 किलोमीटर की परिधि में ही जाना हो तो कोई बात नहीं कुछ दिन बाद वह स्थान नगर का ही हिस्सा होगा।
ReplyDeleteदीपावली की शुभकामनाएँ!
Homo Urbanis ban rahe hain is bare me to sure nahi hun lekin Homo Barbaris (Kameene , kayaiyan , kutil) ik prajati teji se fail rahi hai. Aur itani klisht hindi to aapke blog ko kisi sarkari anubhag ke up prkosht ke anusoochi ke avashisht prakhand me daal degi.
ReplyDeleteप्रवीण जी ने तो खुश कर दिया, ज्ञान जी ने सपने जगाये और प्रवीण जी ने गजब का ब्लूप्रिंट भी दिखा दिया....अब तो बस....
ReplyDeleteवास्तव में बड़ी संख्या में गाँव के लोग शहर की ओर पलायन कर रहे हैं। यह एक गम्भीर समस्या है।
ReplyDeleteलक्ष्मीपूजन तो कल हो चुका, चलिए आज दीपावली मनाएँ।
प्रवीण पांडे जी ने अच्छे सुझाव दिए हैं।वैसे गाँव मे रहने की अपनी इच्छा भी है।
ReplyDeleteदीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनाये आपको और आपके परिवाजनों को ....
ReplyDeleteअपनी जड़ो में लौटना किसे अच्छा नहीं लगेगा . लेकिन यह व्यावहारिक नहीं है . यह पागलपन के शिकार हम भी हो चुके है . गाँव में बसने के लिए अच्छा खासा मकान बनवाया खेती के लिए लाखो रु खर्च करे लेकिन हम तो फेल हो गए . मन करता है सब बेच के मुक्त हो तो बेहतर होगा .
ReplyDelete@ प्रवीन जी , दूर के ढोल सुहावने होते है
Yani "Mc'dee ke burgur" aur "Gau Gober" dono hi kaaafi nazdik aa jaiyenge...
ReplyDeleteM LOVIN IT !!
...Generation 'y' ko generation 'Gai' banne ka accha idea hai....
AAJ POST SE ZAYADA PRAVEEN JI KI TIPPANI PRABHAVIT KAR GAYI !!
ReplyDeleteबहुत सुंदर विचार, ऎसा ही विचार अहि मेरा भी, मै जब तक भारत मै रहा महा नगरो मे ही रहा, यहा आते ही गांव मै रहना पडा, गांव मै लाभ बहुत है, लेकिन भारत मै बस एक डर है कि आप जब गांव मै या गांव के आसपास मकान लेते है तो सुरक्षा कम होती है, लेकिन्शहरो मे भी कहा है सुरक्षा, अगर मै भारत मै आ कर रहा तो जरुर किसी गांव मै ही डेरा जमे गा, ्दुध घर का, सब्जियांघर की, क्योकि मुझे बहुत शोक है बाग बाणी का.आगे राम जाने
ReplyDeleteगाव बनाम शहर! विषय बडा ही तार्किक है- इस पर व्यवहारिक कठीनाऎ है. चुकी मुम्बई शहर इस समस्या से झुज रहा है हजारो व्यक्ति रोजाना रोजगार वास्ते बडे शहरो की तरफ़ पलायन करते है. सरकारे उन्हे मुलभूत सुविधाऎ (बिजली/पानी/ राशन/ मकान ) नही दे पाती है जिससे सामाजिक ढाचा गडबडा सा गया है. जब तक गावो का विकास ना होगा इस समस्या को झेलना ही पडेगा. यह सरकारे पानी बिजली घर, एवम रोजगार के अवसर गावो मे मुहैया नही कराते तब तक नागरिको को दुखी होना ही पडेगा. रही बात प्रवीणजी की - गावो-शहरो से दुर घर मकान लेने से रुपयो कि बचत हो जाती है पर रुपया पैसा बडा फ़ैक्टर नही है- कुछ सामाजिक व्यवाहारिक अध्यापन चिकित्सा जैसे महत्वपुर्ण अवरुधता है... इस और सोचने मे विचारने मे...
ReplyDeleteआपने बडे ही काम के विषय को चुना है--- इस पर सरकारो को बडी ही गम्भीरता से विचार करना होगा.... दिखने मे यह मुद्दा छोटा लगता है पर बात बडी ही महत्वपुर्ण है.
आदरणीय पाण्डेजी!
सुख, समृद्धि और शान्ति का आगमन हो
जीवन प्रकाश से आलोकित हो !
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दीपावली की हार्दिक शुभकामनाए
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ताऊ किसी दूसरे पर तोहमत नही लगाता-
रामपुरियाजी
हमारे सहवर्ती हिन्दी ब्लोग पर
मुम्बई-टाईगर
ताऊ की भुमिका का बेखुबी से निर्वाह कर रहे श्री पी.सी.रामपुरिया जी (मुदगल)
जो किसी परिचय के मोहताज नही हैं,
ने हमको एक छोटी सी बातचीत का समय दिया।
दिपावली के शुभ अवसर पर आपको भी ताऊ से रुबरू करवाते हैं।
पढना ना भूले। आज सुबह 4 बजे.
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दीपावली की हार्दिक शुभकामनाए
हेपी दिवाली मना रहा हू ताऊ के संग
ताऊ किसी दूसरे पर तोहमत नही लगाता-
रामपुरियाजी
द फोटू गैलेरी
महाप्रेम
माई ब्लोग
मै तो चला टाइगर भैया के वहा, ताऊजी के संग मनाने दिवाली- संपत
हे प्रभु यह तेरापन्थ
भारतीय गांव आज विश्व व्यापी आर्थिक मंदी मे ताजा हवा की तरह उभर कर प्रकट हुये हैं. भारत मे जो मंदी की मार कम होती दिखाई दे रही है उनके पीछे गांव ही है. आज गांव को पहले जैसा आंकन बडा गलत होगा. हर बडी कंपनी आज गांव को लक्ष्य करके अपनी मार्केटिंग पोलिसी बनाती है.
ReplyDeleteवैसे भी गांव वाले अब गांव वाले नही रहे....शहर वालों को बेभाव बेचने की अक्ल और ताकत रखते हैं.:)
रामराम.
बहुत मुश्किल है कृत्रिम अंतर बनाए रखना.
ReplyDeleteशहर गांवों को व गांव शहरों को प्रभावित करते ही आए हैं, किसी भी समाज को देखे लें.
हम शहर के बाहर गांव में ही रहते थे पर देखते देखते अब यह गांव शहर में मिल गया- ग्रेटर हैदराबाद! अब न गांव के मज़े हैं न शहर की सुविधाएं। हां, टैक्स तो बढ गए हैं:)
ReplyDeleteआप को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteगांव मे बसने का मन तो मेरा भी है गुरूदेव और इस दिशा मे पिछले दो-तीन सालों से ट्राई भी कर रहा हूं लेकिन कभी कभी ऐसा लगता है सब कुछ अपने हाथ मे होते हुये भी कुछ भी अपने बस मे नही होता।गांव का अपना अलग आनंद है तो ज़रूर लेकिन अब गांवो मे आपको सिर्फ़ और सिर्फ़ बूढे ही मिलेंगे,गिरते हुये घरो की देखभाल करते हुये,जवान तो शहर की चकाचौंध मे गुम हो जाने के लिये चुंबक की तरह खींचे चले जाते है शहर की ओर्।वैसे यंहा बिज़ली की कमी तो नही है मगर शहरो की तुलना मे गांव मे बिजली कम ही मिलती है,बस यही एक प्रोब्लम है,बाकी तो सब बराबर है।देखते है कब वापसी हो पाती है अपनी।
ReplyDeleteनित कुछ विचार आते हैं
ReplyDeleteनित कुछ विचार जाते हैं
जाने कैसी फितरत है हमारी
हम जहाँ थे वहीं रह जाते हैं...
-समीर लाल ’समीर’
अभी तो रिटायरमेन्ट में समय है..चाँद पर बसने का प्लान कैसा रहेगा? :)
ReplyDeleteIN WEST especially in America MEGAPOLIS are being created
ReplyDeleteThe idea of an idyallic , rural helmett is attarctive ,but it has
its flaws I'm sure as human beings whever may we live , tend to spoil the enviornment & mis use the basic infrastructure provided therein --
still, nothing wrong in trying :)
Hope Deepawali was wonderful
&
that Boat was really fast --->
प्रसिद्ध शायर कैफी आज़मी ने अपने अंतिम दिनो मे यह निर्णय लिया था कि वे अपना अंतिम समय यू पी के अपने गाँव में व्यतीत करेंगे । आज पुत्र के पास रहने का मोह अधिकांश लोगो को गाँव जाने से रोकता है । कुछ सुख सुविधाओ का मोह भी । शायद अब गाँव मे आबादी कम होती जाये और शहरों मे बढ़ती जाए ।
ReplyDeleteगाँव में बसना सुखकर हो सकता है यदि आप स्वामी ज्ञानानंद बनकर जाएँ , और बहुमत को शिष्य बनाने में कामयाब हो जाएँ ! अगर ऐसा करने में नाकामयाब रहे तो लोग आपको शिष्य बनाने का प्रयत्न अवश्य करेंगे !
ReplyDeleteआज गाँव में सीधे साधे लोग नहीं रहते, शहर की हर बुराई हर जगह देखी जा सकती है, हाँ पर्यावरण को अवश्य अभी नुक्सान नहीं पहुंचा, मगर सामाजिक पर्यावरण यहाँ से अधिक दूषित है !
हमारा भी यही सपना है अब देखते हैं कि यह कब सच होता है और व्यवहारिक कठिनाइयों से हम कितना लड़ पाते हैं अगर उतक्रमित प्रव्रजन किया तो मतलब सपना साकार किया तो क्योंकि हमारे कुछ मित्र ये सपना उज्जैन में साकर कर चुके हैं और जैसा कि प्रवीण जी ने बताया है, उससे जीवन की व्यवहारिक कठिनाइयों से निपटा जा सकता है।
ReplyDeleteअब गांव वैसे नहीं रह गये है ....न गांव वाले ..बाजारीकरण का वाइरस वहां भी अपने पांव जमा चूका है सर जी
ReplyDeleteमैं तो इस पर सट्टा लगा रहा हूँ कि अगर आप बस गए तो मैं भी जल्दी रिटायर्मेंट लेके उधर ही पड़ोस में बस जाऊँगा :) लेकिन वास्तव में जा के रहना.... देखते हैं. कुछकुछ प्लान है तो. पहले आप चलिए.
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