मैं स्वप्न से नहीं जगा, वास्तविकता में डूबा हूँ। ज्ञाता कहते हैं कि शिक्षा, स्वास्थ्य और आधारभूत संरचना सरकार के कार्य हैं। सरकार शिक्षा व्यवस्था पर पाठ्यक्रम उपलब्ध कराने के साथ साथ सरकारी विद्यालयों का रखरखाव भी कर रही है।
सरकारी विद्यालयों में 10 रुपये महीने की फीस में पढ़कर किसी उच्चस्थ पद पर बैठे अधिकारियों को जब अपने पुत्र पुत्रियों की शिक्षा के बारे में विचार आता है तो उन सरकारी विद्यालयों को कतार के अन्तिम विकल्प के रूप में माना जाता है। किसी पब्लिक या कान्वेन्ट स्कूल में दाखिले के लिये अभिभावक को एक लाख रुपये अनुग्रह राशि नगद देकर भी अपनी बौद्धिक योग्यता सिद्ध करनी पड़ती है।
किसी भी छोटे शहर के प्रथम दस विद्यालयों में आज जीआईसी जैसे विद्यालयों का नाम नहीं है। बचपन में प्राइमरी के बाद जीआईसी में पढ़ने की निश्चितता अच्छे भविष्य का परिचायक था। वहीं के मास्टर मुँह में पान मसाला दबाये अपने विद्यार्थियों को घर में ट्यूशन पढ़ने का दबाव डालते दिखें तो भारत के भविष्य के बारे में सोचकर मन में सिरहन सी हो जाती है।
गरीब विद्यार्थी कहाँ पढ़े? नहीं पढ़ पाये और कुछ कर गुजरने की चाह में अपराधिक हो जाये तो किसका दोष?
नदी के उस पार नौकरियों का सब्जबाग है, कुछ तो सहारा दो युवा को अपना स्वप्न सार्थक करने के लिये। आरक्षण के खेत भी नदी के उस पार ही हैं, उस पर खेती वही कर पायेगा जो उस पार पहुँच पायेगा।
विश्वविद्यालय भी डिग्री उत्पादन की मशीन बनकर रह गये हैं। पाठ्यक्रम की सार्थकता डिग्रीधारी बेरोजगारों की संख्या से मापी जा सकती है। हाँ, राजनीति में प्रवेश के लिये बड़ा सशक्त मंच प्रस्तुत करते हैं विश्वविद्यालय।
जरा सोचिये तो क्या कमी है हमारी शिक्षा व्यवस्था में कि लोग सरकारी नौकरी पाने के लिये 5 लाख रुपये रिश्वत में देने को तैयार हैं जबकि उन्ही रुपयों से 5 व्यक्तियों को कार्य देने वाला एक व्यवसाय प्रारम्भ किया जा सकता है।
आपकी बातें १०० % सच हैं
ReplyDeleteदीपावली पर अनेकों शुभकामनाएं
- लावण्या
बात आपने स्वय कह दी है, हमारे पास IIT, IIM ,AIIMS तो है लेकिन कोई ऐसा संस्थान नही है जो अच्छे टीचर बनाता हो..
ReplyDeleteअभिभावक भी इन्ज़ीनियर, डाक्टर बनाने पर ज्यादा जोर देते है, टीचिग जाब मे ग्लैमर नही है... मेरा मानना है जब तक हम अच्छे टीचर नही दे पायेगे, हमारी शिक्षा व्यवस्था को सुधारना बहुत मुश्किल है..
लेकिन अभी भी हमारे पास आनन्द कुमार जी जैसे लोग है जो अपनी जिम्मेदारी को समझते है -
http://pupadhyay.blogspot.com/2009/07/blog-post_1848.html
और रन्ग दे जैसी सन्स्थाये है, जो कुछ प्रयास कर रही है..
http://pupadhyay.blogspot.com/2009/09/blog-post_11.html
सरकारी नौकरी के पीछे आश्वस्त भाव और निश्चिन्तता
ReplyDeleteके मोह से उबर पाना शायद सबके बस की बात नहीं । आभार ।
प्रवीन जी ,
ReplyDeleteआज तो आपका लेख कमाल है बिलकुल सच . मैं भी ऐसे लोगो को जानता हूँ जो गाँव कसबे के स्कूलों में पढ़ कर आये और सफल हुए लेकिन अपने बच्चो की पढाई को अपने पढ़े हुए स्कूलों में नहीं भेजते . कोंवेंट या हाई फाई स्कूल की खोज करते है . अब तो इंटर नेशनल स्कूल चल रहे है . मैं भी उनमे से एक हूँ .
रही नौकरी में रिश्वत की बात तो बिजनिस की पढाई करने वाले भी नौकरी के लिए पढ़ रहे है . असुरक्षा की भावना व्यापार करने नहीं देती या कहे हम जोखिम उठाना ही नहीं चाहते क्योकि शिक्षा ऋण से उऋण होने की भी तो जल्दी है
आपने बिल्कुल सच्चाई बयान की है | मेरी नजर में तो विश्वविध्यालय और हमारी शिक्षा व्यवस्था बेरोजगार ज्यादा पैदा कर रहे | एक तरफ पढ़े लिखे युवाओं के लिए नौकरी नहीं है तो दूसरी और खेत मालिक से लेकर कारखाना मालिक तक श्रमिको की कमी की गंभीर समस्या से जूझ रहे है |
ReplyDeleteज्यादा कुछ न कह प्रवीण जी के चिन्तन को साधुवाद कह देते हैं.
ReplyDeleteसरकारी विद्यालयों की यह दशा जानबूझ कर की गई है। क्यों कि पनप सकें वे गैरसरकारी विद्यालय जो अब दुकानें हैं। कहाँ हैं वे स्कूल जो इंसान बनाते थे।
ReplyDeleteगरीब विद्यार्थी कहाँ पढ़े? नहीं पढ़ पाये और कुछ कर गुजरने की चाह में अपराधिक हो जाये तो किसका दोष?
ReplyDeleteअच्छे मुद्दों पर चिंतन करते हैं प्रवीण जी !!
बचपन में प्राइमरी के बाद जीआईसी में पढ़ने की निश्चितता अच्छे भविष्य का परिचायक था।"
ReplyDeleteजी आई सी की याद दिला दी आपने ! उस समय हम अपने आपको, अपने शहर में विशिष्ट मानते थे ! दयनीय शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालने के लिए शुक्रिया ,
आपको पढना सुखकर है !
आपका परिचय करने के लिए ज्ञानदत्त जी को आभार !!
प्रवीण जी से असहमत होने का सवाल ही नही उठता।उन्होने बड़ी अच्छी बात कही कि मोटी रिश्वत देकर नौकरी हासिल करने से अच्छा लोगो को नौकरी देने वाला खुद का व्यवसाय किया जाये।इस बात पर अमल होना शुरू हो जाये तो बहुत सारी समस्याओं का हल निकल जायेगा।रहा सवाल सरकारी स्कूलो की स्थिती का तो उसके लिये सीधे-सीधे सरकार ज़िम्मेदार है।सरकार दरअसल न केवल निजी स्कूल बल्कि निजी अस्पतालों की भी अप्रत्यक्ष रूप से दलाली कर रही है,सरकारी संस्थाओं को बदहाल करके उनके फ़लने-फ़ूलने के लिये अनुकूल वातावरण भी बना रही है।वैसे यंहा छत्तीसगढ मे तो निजी शिक्षण संस्थाणो की इतनी भीड़ हि गई कि अब छात्र ढूंढने के लिये मास्टरों की ड्यूटी लगाई जाने लगी है।सीटें खाली रह रही है।और हां नालंदा और तक्शिला की बात भी आपने की है,कभी मौका मिले तो यंहा आईये यंहा नालंदा से भी पुराने और बडे शिक्षा संस्थान श्रीपुर या सिरपुर के अवशेष देखने मिल जायेंगे।
ReplyDeleteप्रवीण जी ने बिल्कुल सार्थक बात कही है ..और आज इस बात पर किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा है. यही अफ़सोसनाक है ।
ReplyDelete5 लाख में व्यवसाय तो हो जाए. मगर उसे चलाने के लिए 16 घंटे काम करना पड़ता है. इसलिए सरकारी नौकरी भली.
ReplyDeleteकम शब्दों मे सरकारी शिक्षा के बारे में बहुत कुछ कह दिया है।
ReplyDelete----------
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महत्वपूर्ण और सच्चाई को बयां करनेवाला आलेख।
ReplyDeleteलगातार व्यस्त रहा। इस बीच मेरी दिलचस्पी के अनेक विषयों पर आपकी कलम चली। खासकर रेलवे से जुड़ी उन बातों पर जिन्हें आपका अनुभव ही व्यक्त कर सकता था। पढ़ता हूं धीरे-धीरे। दीवाली पर दो दिन की छुट्टी मिल रही है सो बैकलॉग पूरा हो जाएगा।
"गरीब विद्यार्थी कहाँ पढ़े?"
ReplyDeleteएकलव्य भी तो गरीब था।
संस्कार बदल गए हमारे क्योंकि भारत के स्वतन्त्र होने के बाद भी विदेशी शिक्षा नीति को लाद दिया गया। शायद हम स्वदेशी शिक्षा नीति बना पाने के योग्य ही नहीं हैं।
आप ने एक सच लिख दिया इस लेख मै आप से सहमत है जी.
ReplyDeleteआप को ओर आप के परिवार को दीपावली की शुभ कामनायें
श्रीलाल शुक्लजी ने लिखा है- हमारे देश की शिक्षा नीति रास्ते में पड़ी कुतिया है। जिसका मन करता है दो लात लगा देता है। जबसे यह बांचा है तबसे इसके अनगिन लातें लग चुकी हैं।
ReplyDeleteऐसा क्यों हो रहा है और कैसे हो रहा है । क्या हम सब भी समान रूप से भागीदार नहीं है इस व्यबस्था के । अगर व्यबस्था सुधारनी है तो शुरुआत अपने ही घर से होनीं चाहिये । पोस्ट पढ़कर बहुत अच्छा लगा ।
ReplyDeleteसंजय बेंगाणी जी की बात में दम है।
ReplyDeleteयहां प्राईवेट सेक्टर में तो दिन रात एक कर दो तो भी मन झृंकृत नहीं होता, जबकि दूसरी ओर सरकारी शिक्षा व्यवस्था के चलते ही कहीं कहीं तो चैन के सितार 'बीटल्स स्टाईल' में बजाये जाते हैं।
माना कि कुछ सरकारी नौकरियों में काफी चुनौतियां हैं लेकिन वह चुनौतियां प्राईवेट जॉब्स के भारीभरकम insecure ठप्पे के मुकाबले बहुत हल्की लगती हैं।
प्रवीण जी !! गंभीर बाते हैं आपकी !
ReplyDeleteअगली किस्तों में किस तरह से सरकारी स्कूल ध्वस्त हुए ? इस पर भी चाहेंगे आपके विचार आयें!
बाकी तो अनूप जी ने पूरी कहानी एक कथ्य में ठोंक ही दी है!!
प्राइमरी के मास्टर की दीपमालिका पर्व पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें!!!!
तुम स्नेह अपना दो न दो ,
मै दीप बन जलता रहूँगा !!
अंतिम किस्त-
कुतर्क का कोई स्थान नहीं है जी.....सिद्ध जो करना पड़ेगा?
१९७५ में हमारे गाँव में प्राईमरी स्कूल था. अब नहीं है.
ReplyDeleteश्री गिरिजेश राव की ई-मेल से टिप्पणी -
ReplyDeleteघर का नेट बन्द हो गया। जुगाड़ू हिसाब से काम चला रहे हैं। इसे टिप्पणी मानिए।
नदी के उस पार नौकरियों का सब्जबाग है, कुछ तो सहारा दो युवा को अपना स्वप्न सार्थक करने के लिये। आरक्षण के खेत भी नदी के उस पार ही हैं, उस पर खेती वही कर पायेगा जो उस पार पहुँच पायेगा।
बात बहुत जमी। क्वालिटी का क्षरण हुआ है विशेषकर छोटे कस्बों और शहरों में। जिस स्कूल में पढ़ कर हम नाज करते रहे, ग्रेजुएशन में कांवेंट और देहरादूनियों के छक्के छुड़ाते रहे, भोजपुरिया अंग्रेजी बोलते हुए भी बहस में उन्हें सरपटियाते रहे; वही स्कूल आज इनएफीसीयेंसी, राजनीति और उपेक्षा का शिकार बना हुआ है। अनुशासन तो रहा ही नहीं। ..... मुझे हर जगह अनर्गल धन कामना का षड़यंत्र नजर आता है। शायद मेरी दृष्टि धुँधला गई है।
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चचा ने अपनी बात क्यों नही कही?
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@ उक्त प्रश्न (अपनी बात क्यों नही कही? - मैं सोचता हूं, एक पोस्ट के रूप में प्रस्तुत करूं।
भाई अनूप शुक्ल जी की बात से काम चला लिया जाए.
ReplyDeleteगरीब विद्यार्थी कहाँ पढ़े? नहीं पढ़ पाये और कुछ कर गुजरने की चाह में अपराधिक हो जाये तो किसका दोष?
ReplyDeleteनदी के उस पार नौकरियों का सब्जबाग है, कुछ तो सहारा दो युवा को अपना स्वप्न सार्थक करने के लिये। आरक्षण के खेत भी नदी के उस पार ही हैं, उस पर खेती वही कर पायेगा जो उस पार पहुँच पायेगा।
यह पोस्ट इतना कुछ सोचने पर मजबूर कर रही है!!