कल जो लिखा – “लिबरेशनम् देहि माम!” तो मन में यही था कि लोग इन सभी कमियों के बावजूद हिन्दू धर्म को एक महान धर्म बतायेंगे। यह नहीं मालुम था कि श्री सतीश सक्सेना भी होंगे जो हिन्दुत्व को कोसने को हाथो हाथ लेंगे। और मैं अचानक चहकते हुये थम गया।
«« गंगा किनारे सवेरा।
सोचना लाजमी था – इस देश में एक आस्तिक विरासत, ब्राह्मणिक भूत काल का अनजाना गौरव, भाषा और लोगों से गहन तौर पर न सही, तथ्यात्मक खोजपरख की दृष्टि से पर्याप्त परिचय के बावजूद कितना समझता हूं हिन्दू धर्म को। शायद बहुत कम।
ढोंगी सन्यासियों, जमीन कब्जियाने वाले लम्पट जो धर्म का सहारा लेते हैं, चिलम सुलगाते नशेड़ी साधू और भिखमंगे बहुरूपियों के भरे इस देश में कहां तलाशा है सही मायने में किसी योगी/महापुरुष को? क्यूं समय बरबाद कर रहा हूं इन छुद्र लोगों की लैम्पूनिंग में? किसका असर है यह? क्या रोज छिद्रान्वेंषणीय पोस्टें पढ़ लिख कर यह मनस्थिति बनती है?
वैसे हिन्दू धर्म के रहस्यों को या तो कोई पॉल ब्रण्टन प्रोब कर सकता है, या (शायद)हमारे जैसा कोई अधपका विरक्त – जो अपनी जिम्मेदारियां अपनी पत्नी को ओढ़ा कर (?) स्टेप बैक कर सकता है और जो नये अनुभवों के लिये अभी जड़-बुढ़ापा नहीं देखे है।
क्या करें? जमाने से पड़ी हैं कुछ पुस्तकें जो पढ़े और मनन किये जाने का इंतजार कर रही हैं। शायद उनका समय है। स्वामी शिवानंद कहीं लिखते हैं कि शीतकाल का समय आत्मिक उन्नति के लिये रैपिड प्रोगेस करने का है। कल शरदपूर्णिमा थी। अमृत में भीगी खीर खा चुका। कुछ स्वाध्याय की सम्भावना बनती है? पर स्वाध्याय अनुभव कैसे देगा?
गंगा में झिलमिलाता शरदपूर्णिमा का चांद
मैं केवल यह कह सकता हूं कि भारत ने मेरा विश्वास वापस दिला दिया है। --- मैं इसको बड़ी उपलब्धि मानता हूं। विश्वास उसी तरह से वापस आया जैसा एक अविश्वासी का आ सकता है – भीषण तर्क से नहीं, वरन चमत्कृत करने वाले अनुभव से।
-- पॉल ब्रण्टन, इस पुस्तक से।
और चलते चलते सूरज प्रकाश जी के ब्लॉग से यह उद्धरण -
बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। मतलब ये कि अगर आपकी जेब में दस रुपये का पुराना नोट हो और आपके हाथ में दस रुपये का नया नोट आये तो आप जेब में रखे पुराने नोट की जगह नया नोट रख लेंगे और जेब वाला पुराना नोट सर्कुलेशलन में डाल देंगे।
आज जीवन के हर क्षेत्र में यही हो रहा है। सब कुछ जो अच्छा है, स्तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है। कभी स्वेच्छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते। आज हमारे आस पास जो कुछ भी चलन में है, वह औसत है, बुरा है और कचरा है। हम उसे ढो रहे हैं क्योंकि बेहतर के विकल्प हमने खुद ही चलन से बाहर कर दिये हैं।
बड़ी राहत मिल रही है – अगर मेरा ब्लॉग चलन से बाहर जाता है तो एक दमदार तर्क मेरे हाथ रहेगा!
यहाँ बात सिर्फ हिन्दू धर्म की नहीं है देखा जाये तो सारे ही धर्मों में जो मूल है , और प्रगति का वास्तविक कारक है चुपचाप भुला दिया गया है और अब तक मात्र लम्पटों की ही पौ बारह रही है | इस पूरे चक्र में एक बात हिन्दू धर्म को सबसे अलग और महान बनती है और वो है व्यक्तिगत होना , उदाहरण के लिए अगर मैं वरुण हूँ तो फिर सारी जिन्दगी मेरा धर्म वरुण होने के इर्द- गिर्द ही घूमता रहेगा न कि मुझे पहले कुछ और जैसे मुस्लिम , ईसाई या अन्य कुछ होकर सोचना पड़ेगा |
ReplyDeleteइसी लिबरेशन में महानता का सारा राज छुपा है |
ज्ञान की परतें उघाड़ती पोस्ट के लिए बधाई |
:) :) :( :P :D :$ ;)
क्या रोज छिद्रान्वेंषणीय पोस्टें पढ़ लिख कर यह मनस्थिति बनती है?
ReplyDeleteनहीं भाई....ऐसा नहीं सोचते...मन पर काबू रखते हैं और शीतकाल की प्रतीक्षा करते हैं। और लगातार आपकी तरह अच्छा लिखते हैं।
sab tah ke log hain aur apne wichar prakat karane par pabandee bhee nahee hai. Par itane sankaton bad bhee ye dharm tika hua hai to tikega aur badhega.
ReplyDeleteअब इतने चिंतन मोड में भी न आईये -अध्ययन के शीत पर्व में मनन की ऊष्मा से हमें भी कृतार्थ करते रहें !
ReplyDeleteबड़ी राहत मिल रही है – अगर मेरा ब्लॉग चलन से बाहर जाता है तो एक दमदार तर्क मेरे हाथ रहेगा! अच्छा कहलाने के लिये इत्ती हुड़क भी अच्छी नहीं साहब जी।
ReplyDelete@ अनूप शुक्ल - फिक्र न करें। अभी ब्लॉग चलन में है - सो वह औसत है, बुरा है और कचरा है! :)
ReplyDelete"बड़ी राहत मिल रही है – अगर मेरा ब्लॉग चलन से बाहर जाता है तो एक दमदार तर्क मेरे हाथ रहेगा!"
ReplyDeleteऔर यदि यह चलन से बाहर नहीं गया तो वह दमदार तर्क फिसलकर हमारे हाथों में आ जाएगा ! :)
सहिष्णुता ही हमारे धर्म का गौरव है, बागवान का शुक्र है कि आज भी हमारा बहुमत कट्टर नहीं है , जियो और जीने दो में विश्वास करता हमारा धर्म हमें औरों से जोड़े रखेगा, ऐसा मेरा विश्वास है .
ReplyDeleteयह हमारी सहिष्णुता है या विडम्बना ...अंतर्द्वंद है ...
ReplyDeleteअपने मन से टिपण्णी लिखने की कोशिश करे तो शायद गडबडा जाएँ ..इसलिए वीरेन्द्र जी टिपण्णी को ही हमारी भी मान लें ....
सब कुछ जो अच्छा है, स्तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है। कभी स्वेच्छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते।
बहुत सही कहा है ...पर अच्छे का चलन लौटेगा पूरा विश्वास है ...!!
भूल सुधार
ReplyDeleteकृपया वीरेन्द्र जी लो वरुणजी पढ़े
आप इसे धर्म कहें या और कुछ मैं इसे हिन्दू जीवन पद्धति कहता हूँ। उस का सार यही है कि वह किसी को बांधती नहीं। उस की यात्रा बंधनों से मुक्ति की ओर है। यहाँ कोई बंधता भी है तो स्वैच्छा से।
ReplyDeleteलेकिन आप महिलाओं के बारे में सोचेंगे तो पाएँगे कि यह जीवन पद्धति उन्हें कहाँ कहाँ नहीं बांधती।
बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है।
ReplyDeleteये तो कटु सत्य है और इसको आपने ब्लाग के चलन से जोडकर सभी को एक उपाय सुझाया है. आखिर कब तक आदमी दौडता रहेगा? कभी ना कभी तो यह स्थिति हर आदमी के साथ आयेगी ही. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
ढोंगी सन्यासियों, जमीन कब्जियाने वाले लम्पट जो धर्म का सहारा लेते हैं, चिलम सुलगाते नशेड़ी साधू....याद हो तो इसी आधार पर एक बार गुरूजी के लिए मैने टिप्पणी की थी और आप नाराज हो गए थे. वैसे स्थिति स्पष्ट भी हो गई थी. कुल मिला कर एक औसत भारतीय एक सा सोचता है, जिसकी चिंताएं साँझा है.
ReplyDeleteसुनिल दीपक, उन्मुक्त, रविरतलामी को औसत से कम टिप्पणियाँ मिलती है और वे अच्छे ब्लॉगर है. आगे कुछ नहीं कहेंगे :)
हां ये सच है कि कई बार ऐसा लगता है सब कुछ छोड-छाड़ के प्रकृति की गोद मे छुप कर बैठ जायें।लेकिन रोज़ ज़िंदा रहने की कुत्ताघसिटी ऐसा करने भी नही देती।नदी मे तैरते चांद को देखे ज़माना बीत गया,नदी मे तैरते तो क्या आसमान पर उड़ते हुये भी नही देखा है।धर्म के नाम पर पाखण्ड देख-देख कर उल्टी होने लगी है।मंदिरों मे लूट-खसोट और देवता से ज्यादा दर्शनार्थ आई देवियो के दर्शन मे डूबे भक्तों को देखो तो ऐसा लगता है कि इससे तो नास्तिक़ होना बेहतर है।जाने दिजिये गुरुजी आपका असर हो रहा है मुझे तो स्टेप बैक करने के बीबी का सहारा भी नही है।
ReplyDeleteसूरज प्रकाश जी के लेख का प्रमाण मेरे सामने है . मेरे पिता जी राजनीती के उच्च स्तर तक पहुचकर स्वेच्छा से अलग होगये क्योकि सिस्टम में एडजेस्ट नहीं हो प् रहे थे . कोई आरोप भी नहीं लगा विरोधी से ज्यादा उनके अपने लोग उनकी इमानदारी से परेशान थे
ReplyDeleteचाहे कुछ भी कहें या लिखें हम तो कहेंगे "मेरा धर्म महान" अब क्या आपके नज़रिए से इसे महान कहलाने के लिए चलन से बाहर जाना होगा? .
ReplyDeleteकविता क्या है? हिंदू धर्म क्या है? शायद अनादि काल तक इसकी चर्चा चलती रहेगी। जहां तीन लाख देवी-देवता पूजे जाते हैं वहां धर्म की व्याख्या कैसी!!
ReplyDeleteक्या हिंदू धर्म है या हिंदुस्तान में रहनेवाले हर हिंदुस्तानी के रहने-जीने की पद्धति। इसकी व्याख्या साधारण कचरा ब्लागर करें।
मैं तो उच्च श्रेणी का ब्लागर हूं क्योंकि मेरा ब्लाग लुप्त होने के कगार पर है:)
आपके ही पिछले लेख पर आई एक टिप्पणी पर आपका ही प्रत्युत्तर यहाँ पर उद्धृत करना चाहूँगा-- ये चिलम सुलगाने वाले, गँजेड़ी और लम्पट भी इसी सनातन धर्म का अनन्य अंग हैं।
ReplyDeleteव्यवहार की कमियों को छोड़ दें तो मेरे विचार से जीवन संघर्ष से भागे इन प्राणियों को भी तो हमारा सर्वसमावेशी धर्म अपनी गोद में जगह देता है...
ईशावास्यमिदं सर्वं....
एक बेचैनी,निरंतर नकार का भाव,प्रश्नाकुलता,और समाहित करने की प्रवृत्ति. ये हमारी जीवन पद्धति रही है.यही इसमें उत्कृष्ट है बिलकुल आपके ब्लॉग की तरह.
ReplyDeleteयह हिन्दू धर्म की सतही भंगिमायें हैं । जब समाज द्वारा कोई अनुशासित व निश्चित आचार संहिता नहीं होती है तो सब लोग अपने अपने हिस्से के हिन्दुत्व का दिखावा करते हैं या अपने मन की भावनाओं को हिन्दुत्व बना कर परोसते हैं । अध्यात्म इन सतही कम्पनों का न तो आश्रय लेता है और न ही इस पर कुछ टिप्पणी देना अपना कर्तव्य ही समझता है । यह सब कर के कौन किसको बेवकूफ बना रहा है और कौन किस बेवकूफ का अनुसरण कर रहा है यह उनके मन की उधेड़बुन है । हिन्दुत्व की धुन तो बहुत ही सुरीली है । सुनाने वाला ढूढ़ा जाये ।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पढी किन्तु पढकर जो बात मैं अपनी टिप्पणी के माध्यम से कहना चाहता था....हूबहू वही विचार मुझसे पहले प्रवीण पांडेय जी अपनी टिप्पणी के जरिए प्रकट कर चुके हैं ।
ReplyDeleteवास्तव में आज यही हो रहा है कि हम लोग अपनी कमियों को दूर करने की अपेक्षा उसे ही अपनी विशेषता बताकर एक मिथ्या भ्रम में जीने के आदी हो चुके हैं ।
आज हम कुछ नही बोलेगे, बस चुप चाप पढेगे आप का लेख ओर टिपण्णीयां,क्योकि मेने पुजा करते , भगवान को मानाते तो बहुत देखे है, लेकिन भगवान की मानते किसी को नही देखा, इस लिये मै क्या कहूं .
ReplyDeleteधन्यवाद
इशारों इशारों में इतनी बड़ी बात कह देना यह आप ही के बस की बात है ज्ञान जी। सदैव की भाँति सहमत आपकी बात से। जय हिन्द।
ReplyDeleteएक रोचक वाकया बताना चाहूँगा।
ReplyDeleteअपने Shy nature को ही दोष दूंगा कि मैं Online तो खूब घसीट देता हूँ पर फेस टू फेस या फोन पर हैंक हो जाता हूँ। क्या कहूं सामने वाले से, क्या, कैसे....और इन्ही मानसिकता को लिये कटनी से गुजरते वक्त एक साधू से ट्रेन में मिला था।
बगल की बर्थ पर बैठकर वह साधू कोई किताब पढ रहा था। बैठे बैठे मैं उस किताब के कवर देखने लगा। अचानक साधू ने किताब को नीचे कर मेरी ओर देखा और कहा - Do u want to be 'Dedicated चूतिया' ?
आप समझ सकते हैं कि मेरी क्या हालत हुई होगी। अच्छा भला साधू अचानक 'डेडीकेटेड चूतिया' जैसे शब्दों का इस्तेमाल करे तो आश्चर्य होगा ही।
मैं मुस्करा पडा। बदले में उसने वह किताब मेरे सामने कर दी। किताब को उलट पलट कर देखा तो उसमें लंगोट विधि लिखी थी कि - हिंदू प्रणाली से वीर्य की रक्षा कैसे करे :)
फिलहाल तो मैं इस डेडिकेशन पर नहीं जाना चाहता, हां इतना जरूर कहूंगा कि हिंदू धर्म केवल लंगोट, जन्म पत्री और करमकाण्ड नहीं है....वह इससे आगे बढ कर है।
हमें तो लगा कि हम आजकल अपडेटेड रहते हैं अपने नए गैजेट से. लेकिन २ दिनों से देखा ही नहीं और शरद पूर्णिमा निकल गयी हमें पता तक नहीं चला ! आप अनुभव कीजिये और ब्लॉग पर ठेलिए हम भी पढ़ लिया करेंगे अब शरद पूर्णिमा का चाँद भी तो यहीं देख रहे हैं !
ReplyDeleteaap gyaani hai aur main mahamoorkh :) isliye main aaj chup :P
ReplyDeleteअगर मेरा ब्लॉग चलन से बाहर जाता है तो एक दमदार तर्क मेरे हाथ रहेगा- और ऐसा लिखते रहने के कारण मुझे उम्मीद है कि चलन बढ़ने वाला है, तब इस तर्क के मुताबिक??
ReplyDeleteबुरी मुद्रा कभी अच्छी मुद्रा रही होगी. और अच्छी मुद्रा कभी बुरी मुद्रा बन जायेगी .....
ReplyDeleteऐसे उद्धरणों को कम से कम स्वयं से तो न जोडिए.....
बुद्धिमानों से ऐसी अपेक्षा नहीं होती....
gyaan ji , namaskar
ReplyDeletejaise ki ye sabit ho chuka hai ki adhyaatam dharm se upar hai aur jeevan ke path par dongi dharmikata se jyada jaruri hai seedhi sacchi adhyatmikta .. agar hame eeshwar se judna hai to uske liye kisi dharm ke aawaran ki jarurat nahi apitu , sahaj man ke aachran ki jarurat hai jo ki insaniyat ki sewa se hi sambhav hai ..
aapka dhanywad.
regards
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com
हिन्दू धर्म या सनातन धर्म इतना विस्तृत है के , कितना भी जाने , बहुत सारा - फिर भी रह जाता है
ReplyDeleteजो छूट जाता है - चन्द्रमा की गंगा जी में छवि अच्छी लगी
- लावण्या
केवल हिन्दू धर्म ही नहीं, दूसरे धर्मों के साथ भी यही है. दिक़्क़त यह है कि हम लोग केवल हिन्दू धर्म को ही जानते हैं ठीक से, इसलिए इसी की आलोचना करते हैं. पश्चिम में भी तो चर्च लोगों को स्वर्ग का टिकट बेचता रहा, आज भी चर्चों मे जो कुछ हो रहा है ब्रह्मचर्य के नाम पर वह किसी से छिपा नहीं है. वहीं मस्जिदों-मदरसों से लेकर मजारों तक आप इस्लाम का दुरुपयोग देख सकते हैं. लेकिन यह सब धर्म के नाम पर हो रहा है, धर्म का काम नहीं है यह. इसके ख़िलाफ़ आम जन को खड़े होना चाहिए. आख़िर हम ऐसा होने ही क्यों देते हैं?
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