सो बनती है गड्डमड्ड पोस्ट – जैसे कि यह!
सबेरे सबेरे बन्दर पांड़े दिखे पड़ोस की सुकुलाइन की मुंड़ेर पर। कल रात उनके किरायेदार की बीवी को काट लिया था। उसके बाद कल्लू के बाप को खौंखिया रहा था। कल्लू और उसके निठल्ले दोस्तों ने दौड़ाया तो गायब हो गया। आज सवेरे फिर हाजिर! बन्दर पांड़े इज अ बिग मिनास फॉर सिविलाइज्ड (?) सोसाइटी!
वैसे बन्दर पांड़े अपनी प्रजाति के परित्यक्त हैं - आउटकास्ट। उनकी प्रजाति का एक झुण्ड आया था और उनकी धुनाई कर चला गया। उनसे बचने को छिपते फिर रहे थे!
« खैर, गंगा तट पर देखा कि वैतरणी नाला (मेरा अपना गढ़ा नाम) – जो शिवकुटी-गोविन्दपुरी का जल-मल गंगा में ठेलता है; अपने वेग और आकार में सिकुड़ रहा है। पहले इसका गंगाजी में बाकायदा संगम होता था निषादघाट के समीप।
पर अब वह गंगाजी में मिलने से पहले ही समाप्त हो जा रहा है।
अब उसका पानी रेत में से छ्न कर गंगा में जा रहा होगा। वैतरणी नाला वैसे भी घरों का सीवेज ले जाता था, किसी फैक्टरी का केमिकल वेस्ट नहीं। फिर भी अच्छा लगा कि उसका गंगा-संगम अवरुद्ध हो गया है। »
माल्या प्वॉइण्ट (वह स्थान जहां गुड़ की शराब बनाने के प्लास्टिक के जरीकेन रेत में दबाये गये हैं) के पास मैं बैठ गया। रेत दोनो हाथ में ले कर धीरे धीरे गिराना अच्छा लगता है। रेत की कमी नहीं, फिर भर लो – फिर गिराओ! पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं! पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्रेक्टीकल। मेरी पत्नी प्रयोग करते मेरा फोटो लेती हैं।
« वापसी में देखा कि बन्दर पांड़े मेरे दरवाजे पर विराजमान हैं। चाहते नहीं कि घर में घुसें हम। खौंखियाते आगे बढ़े बन्दर पांड़े। टिपिकल इलाहाबादी चरित्र – दूसके के मकान पर जबरी कब्जा करने की मनोवृत्ति। मदार की एक संटी तोड़ उन्हे धमकाना पड़ा। हमारा बन्दर, हम से ही खोंखों! अब भरतलाल इन्हें दूध रोटी दे कर तो देखे!
जय हो पोस्ट लेंथ का ठेलन हो गया!
[ मैने कहा कि वैतरणी नाला अब गंगा में नहीं मिलता, पर वह परिदृष्य बदल गया। कल से गंगा में जल बहुत बढ़ा। तट पर कटान भी बढ़ी। सारे उभरे द्वीप बिला गये। वैतरणी नाला अब गंगा से पुन: संगमित हो गया। दायें बाजू के चित्र में नावें गंगा किनारे पार्क की गई हैं और वैतरणी नाले का जल उनको स्पर्श कर रहा है।
शाम के समय तो और पता चला – सवेरे स्नान को इकठ्ठी स्त्रियों के नीचे से जमीन धसक कर पानी में चली गई थी। कठिनाई से बच पाईं! शाम को पानी बढ़ रहा था। किनारे की रेत छप्प-छप्प कर कट रही थी। अंधेरे में मैं और मेरी पत्नीजी खड़े थे और गंगामाई का उद्वेलन अजीब सा लग रहा था – उनके सामान्य व्यवहार से अलग!]
अपडेट आज सवेरे सात बजे -
सवेरे छ बजे दृष्य और भी खतरनाक था। गंगाजी तेजी से किनारा काटती जा रही थीं। हल्की धुन्ध थी। स्त्रियां जो सामान्यत: १५-२० होती थीं, आज मात्र एक दो दिख रही थीं। आदमी भी भयावहता की बात कर रहे थे। एक सज्जन बोले – जब मनई गंगा जी पर अत्याचार कर रहा है, तब वे भी तो कर सकती हैं।यह रहा कटान का ताजा वीडियो -
तट पर रहते रहते कितने अनुभवी हो गये हैं आप गंगा माई के व्यवहार को समझ लेने के लिए..ठेलते चलें. :)
ReplyDeleteसुबह-सवेरे रेत के बहाने दार्शनिक सत्य का परीक्षण !
ReplyDeleteआपके बंदर पाँडे का नाम भी लेना पड़ा सुबह-सवेरे ही । आभार ।
वो निराला की कविता कौन सी थी -रेत सा तन ढह गया -याद नहीं आ रही सवेरे सवेरे !
ReplyDeleteबंदर पाण्डे को धीरे से कहिये कि उसे शांति के लिये Nobel Prize मिलने की घोषणा की गई है
ReplyDeleteतब शायद बंदर पाण्डे उधम रोकते हुए खुद ही कह बैठें
- अरे मुझे तो पता ही नहीं था कि मैं इस लायक भी हूँ ! :)
सन के रेशों की क्वालिटी बहुत बढ़िया होती है और आप यूं ही फैंक नही सकते उन रेशों को
ReplyDeleteकुछ ही दिनों में एक पुस्तक का रूप ले लेंगे ये रेशे .. काफी महत्वपूर्ण हैं ये !!
रेत में खेलती तस्वीर ने तो गांव का बचपन याद करा दिया , क्या मजा आता था बालू रेत के टिल्लों पर लुढ़कर खेलने का ! बचपन का कोई एसा दिन नहीं बिता होगा जब रेत में लोटकर ना खेलें हो !
ReplyDeleteवैतरणी नाले का गंगा में संगम ना होना सुखद समाचार लगा |
बहुत सूक्ष्म और आजतकनुमा एक्स्क्लूसिव रिपोर्टिंग है जनाब!! रिपोर्टर ऑफ द ईयर.
ReplyDeleteकहते हैं कि ब्न्दर पाण्डॆ क सुबह नाम ले लो..तो खाना नसीब नहीं होता..यह मिथ तोड़ खबर दिजिये जरा.
ReplyDeleteसन के रेशे आकृतियाँ लेते हुए एक दिन पुस्तक का रूप लेंगे ...संगीताजी से सहमत ...बहुत शुभकामनायें ..!
ReplyDeleteरेत में प्रवाह है । पड़ोसी है जल, उसमें भी प्रवाह है । पर साथ साथ रहते हैं तो जड़ हो जाते हैं !
ReplyDeleteकैसे कैसे काम करते हो आप भी ? समय कैसे मिलता है महाराज !
ReplyDelete@ उड़न तश्तरी > कहते हैं कि ब्न्दर पाण्डॆ क सुबह नाम ले लो..तो खाना नसीब नहीं होता..यह मिथ तोड़ खबर दिजिये जरा.
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नाश्ता कर लिया है। दफ्तर निकलने की तैयारी है और टिफिन भी तैयार है! :)
टूट गया जी. हमने आज छुट्टी के दिन यह पोस्ट पढनी शुरु की और दर्शन करते ही घरवाली ने गर्मा गर्म जलेबी टेबल पर रख दी हैं और हमने खाना भी शुरु कर दिया है.:) आप तो ऐसे दर्शन रोज रोज
ReplyDeleteकरवाईयेगा.
रामराम.
हमेशा की भाँती पढ़ लिया है. लत लग गई है. टिप्पणी समझ नहीं आ रही क्या करें...
ReplyDeleteमाल्या पॉइंट इतना खुला है की कोई भी इस्तेमाल कर सकता है ?उसके पास बैठकर ही थोडा सरूर आ गया होगा जो बन्दर पांडे से भिड़ने चल दिए आप.....अब इलाहाबादी चरित्र पूरे देश में फ़ैल गया है ....
ReplyDeleteगड्डमड्ड इतनी सुघड़ है तो गठी हुई कैसी होगी?
ReplyDeleteरेत में बैठे हुए आपकी तस्वीर अच्छी है. बिलकुल जमीन से जुड़े हुए :)
ReplyDeleteबन्दर पांडे की दूध-रोटी बंद तो नहीं हुई?
@ अभिषेक ओझा - बन्दर पांड़े गायब हैं। शान्ति (महरी) का झोला छीनने की कोशिश कर रहे थे। उसमें उसको बुरी तरह काट भी खाये।
ReplyDeleteफिर भी उनके लिये रोटी रखी जाती है, पर दिख ही नहीं रहे। दिवाली आने वाली है। पटाखे की आवाज से वैसे ही कहीं दूर चले जायेंगे!
गोलू पांडे तो लगता है पडोसी पर फ़िदा है ...... गंगा नदी में जिस तरह नाले का मिलाप हो रहा है उसी तरह माँ नर्मदा भी इसे नालो से प्रदूषित हो रही है .
ReplyDeleteक्या अब संशोधन करना पड़ेगा वानर कुत्ता हाथी नहीं जाति के साथी , वानर की जगह वामन लगता था . और यह बंदर पांडे नहीं लगता आदते तो बंदर सिंह सी लग रही है .
ReplyDeleteअजी अगर पुलिस ने देख लिया कि आप रेत पर बेठे बठे हाथो से बार बार उठा रहे है तो किसी शक मै ना धरे जाओ...
ReplyDeleteस्त्रियां जो सामान्यत: १५-२० होती थीं, आज मात्र एक दो दिख रही थीं। अरे बाकी कहां गई... कही डुब ...
राम राम
इ बंदर पाण्डे जी का केरेक्टर बहुत अच्छा लगा । और यह जिन्दगी भी रेत की तरह ही तो है ।
ReplyDeleteश्रीमान बन्दर को पांडे कहने के पीछे कोई ख़ास मंशा है या फिर यूँही..?
ReplyDeleteवैसे बन्दर पांड़े अपनी प्रजाति के परित्यक्त हैं - आउटकास्ट। उनकी प्रजाति का एक झुण्ड आया था और उनकी धुनाई कर चला गया। उनसे बचने को छिपते फिर रहे थे!
ReplyDeleteनिश्चित रूप से आपके बन्दर पांड़े अपनी बिरादरी में कुछ ऊंच-नीच करके आए हैं. उनको समझाइए कि यहां आ गए तो शरीफ़ हो जाएं, जैसे नवाज शरीफ़ या जाफर शरीफ टाइप के लोग हैं.
"हमारा बन्दर, हम से ही खोंखों!"
ReplyDeleteमुहावरा पसंद आया. कहीं आप साहित्य का नोबल पाने के प्रयास में तो नहीं हैं? सुना है उसके लिए ज्ञानपीठ से कम राजनीति से ही काम चल जाता है. अलबत्ता देश-विदेश की नेट्वर्किंग चाहिए, सो तो है ही आपके पास ब्लॉग-बाबा की कृपा से.
बंदर पांडे की तो छोड़िए यह बताया जाए कि रेत में खेलना कैसा लगा? मुट्ठी से रेत जब फिसलती है तो कुछ अजीब सा लगता है अपने को तो। :)
ReplyDeleteबहुत रोचक...
ReplyDeleteपर आपने बंदर पांडे ही क्यों कहा ? ... सुकुल, तेवारी, मिसरा, ओझा,चौबे,दूबे,पुरी, गिरी,दीक्षित,सरयूपारीण,भारद्वाज, गोसाईं,महापात्र... तीन में या तेरह में और किसी में न लिखने का कोई खास कारण ?
बकिया गंगा मैया तौ सब के जीवन दायनी हैं .. सब के ख्याल रखती हैं ... हम भले न रखें उनका ख़याल