अद्भुत है हिन्दू धर्म! शिवरात्रि के रतजगे में चूहे को शिव जी के ऊपर चढ़े प्रसाद को कुतरते देख मूलशंकर मूर्तिपूजा विरोधी हो कर स्वामी दयानन्द बन जाते हैं। सत्यार्थप्रकाश के समुल्लासों में मूर्ति पूजकों की बखिया ही नहीं उधेड़ते, वरन गमछा-कुरता-धोती तार तार कर देते हैं। पर मूर्ति पूजक हैं कि अभी तक गोईंग स्ट्रॉग!
सबसे चतुर हनुमान जी हैं। भगवान राम के “तुम कौन हो?” के पूछने पर ओपन एण्डेड उत्तर देते हैं - “देह बुद्धि से आपका दास हूं, जीव बुद्धि से आपका अंश और आत्म बुद्धि से मैं आप ही हूं!”
शिवलिंग का चढ़ावा चरती बकरी |
नन्दी को हटा लगा तख्त |
देवी मां के सानिध्य में बकरी |
शिव जी के सानिध्य में श्वान |
खैर, जब मैं कोटेश्वर महादेव और उसके आस पास देखता हूं तो लगता है कि यह लिबरेशन का सवाल हमारे मन में जबरदस्ती घुसा है। अन्यथा जो चेले चापड़ शंकर भगवान ने अपने आस पास बसा रखे हैं वे पूरी लिबर्टी लेते हैं शंकर जी से, इसी जन्म में और इसी वातावरण में।
आस-पास वालों ने बकरियां पाल रखी हैं। भगत लोग शंकर जी की पिण्डी पर बिल्वपत्र-प्रसाद चढ़ाते हैं तो उनके जाते ही बकरी उनका भोग लगाती है। शंकर जी और देवी मां के ऊपर से चरती हुई।
नन्दी शिव जी के सामने हैं ओसारे में। बारिश का मौसम है तो चेलों को ओसार चाहिये रात में सोने के लिये। लिहाजा नन्दी को एक ओर नीचे हटा कर मंदिर के ओसारे में खटिया लगा ली जाती है। नन्दीपरसाद बारिश में भीगें तो भीगें। स्पेशल हैं तो क्या, हैं तो बरदा (बैल)! उपेक्षा में उनकी टांगें भी टूट गई हैं। किसी मुसलमान ने तोड़ी होती तो बलवा हो जाता!
अपने प्रियजनों की स्मृति में लोगों ने छोटे छोटे मन्दिर बना दिये हैं शंकर जी के। मुख्य मन्दिर के बायें एक सीध में। उन्हीं में यह उपेक्षा देखने में आती है। एक मंदिर में तो कुत्ता कोने में सो रहा था – वर्षा से बचने को। बकरी के लेंड़ी तो यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी नजर आती है। सड़क के किनारे छोटे और उपेक्षित से मन्दिर बनते ही हैं ईश्वर से पूरी लिबर्टी लेने को!
नवरात्रि के समय में हनुमान जी के दरवाजे पर मां दुर्गा को स्थापित कर देते हैं चेलागण – बतैर द्वारपाल। संतोषी माता की आंखों मे इतना काजल ढेपार दिया जाता है कि उनकी सुन्दर आंखें डायलेटेड नजर आती हैं। पूरे एस्थेटिक सेंस की ऐसी तैसी कर देते हैं भक्तगण! इतनी लिबर्टी और कौन धर्म देता होगा कि अपने संकुचित स्वार्थ, अपने भदेसपने और हद दर्जे की गंदगी के साथ अपने देवता के साथ पेश आ सकें!
और एक हम हैं – जो ध्यानमग्न हो कर बाबा विश्वनाथ से याचना करते हैं – लिबरेशनम् देहि माम!
कहां हैं स्वामी दयानन्द सरस्वती!
यही लिबरेशन ही श्रेष्ठता है , शायद बहुत जन्मो के पुण्य को मिलाकर इस जन्म में हिन्दू होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हमें |
ReplyDeleteवरना ऐसी पोस्ट पढने पर भी बैन लगा होता |
|| " सत्यमेव जयते " ||
:) :( :P :D :$ ;)
मै तो हनुमान जी का उत्तर ही सुनकर गदगद हूँ....शुक्रिया...बाकि दयानंद सरस्वती जी भी कालांतर में सब कुछ समझ भावानन्द में मग्न हो गए होंगे...."सचमुच आप ज्ञान के दत्त हैं, प्रातः नमन आपको...."
ReplyDeleteयही तो हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता है कि यहाँ सब कुछ चलता व सहन किया जा सकता है |
ReplyDelete"वरुण जी ने सही कहा है यही लिबरेशन ही श्रेष्ठता है , शायद बहुत जन्मो के पुण्य को मिलाकर इस जन्म में हिन्दू होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हमें |
वरना ऐसी पोस्ट पढने पर भी बैन लगा होता |"
और अब तक तो आपकी पोस्ट के खिलाफ कहीं से फतवा तक जारी हो जाता |
बढि़या ज्ञान जी की ज्ञानमयी पोस्ट
ReplyDelete.....पर इसी लिबेरशन के कारण ही तो हम कुछ और तरह के सोच को विकसित कर पाते हैं ...... सो जोर से बोलो !! – लिबरेशनम् देहि माम!
ReplyDeleteबाकी ऐसे दृश्य .... तो हर छोटे मंदिरों में आम हैं!!
अभी मैं फतेहपुर और राय बरेली सीमा पर स्थित आसनी घाट के मंदिरों में गया तो एक ही परिसर में ६ शिव मंदिर मिले ...एक को छोड़ किसी में कुत्ते की ...., तो किसी में बकरी की ?????
फिर भी हम प्रणाम करने से नहीं चूके !!
हनुमान जी के जवाब से परिचित कराने के लिए साधुवाद!!
इन्टर्नेट पर चल रहे इंसानी पापों का घड़ा भरने को है। जरा इस साइट पर जाएँ।
ReplyDeletehttp://be-shak.blogspot.com
बहुत बढ़िया ! धार्मिक अंधविश्वास और हम लोगों की धर्म के प्रति मानसिकता पर आंखे खोलने का प्रयत्नरत यह लेख बहुत अच्छा प्रयत्न है आपका !
ReplyDeleteमैं आस्तिक हूँ पर कभी मंदिर नहीं जाता, ईश्वर में और मूर्ति पूजा में भी संस्कार वश पूरा विश्वास रखता हूँ मगर मंदिर की देख रेख करने वाले संरक्षकों,पुजरिओं में बिलकुल विश्वास नहीं है ! मेरे विचार में ९०% मंदिर अशुद्ध हैं और उनमें पूजा अर्चना शुद्ध मन से नहीं की जाती ! ढोल ,आभूषण , घंट ध्वनि इत्यादि से हमारा मन मोहने का प्रयत्न अवश्य किया जाता है की ताकि भक्त गण आते रहें और यह दुकान चलती रहे ! कृपया अवश्य बताएं आपने आजतक ब्राह्मण वेश में कोई ऐसा ब्राह्मण देखा है ? जिनके मन से चरण स्पर्श करने का दिल करे ? कहाँ गए हमारे वे ऋषि, जिनका ईश्वर से पहले जिनका स्मरण कर लेने में मन को शांति मिलती थी ! और वह गुरु जनों का स्नेह....
शुद्ध मन से पूजा करने वाले पुजारियों के स्थान, मंदिर के नाम पर करोडो रुपयों की सरकारी जगह पर कब्ज़ा कर, ब्राह्मण वेश व्यापारिओं ने ये दुकाने खोली हुई हैं जगह जगह , और हमारे परिवार वहां जाकर इनका चरण स्पर्श कर प्रसाद पाते हैं !
मुझे पूरी उम्मीद है ज्ञान दत्त जी कि आपके इस लेख को पढ़कर विद्वान् लोग आपको नास्तिक मानने लगेंगे और भगवान् कृष्ण के स्वरुप युक्त आपके ब्लाग को आपका ढोंग ....ईश्वर आपको विद्वानों की चोटें सहने की शक्ति दें ...
ReplyDeleteमेरी शुभकामनायें !!
@ श्री सतीश सक्सेना - जी नहीं। स्वार्थी, फटीचर और अंविश्वासी/अंधविश्वास फैलाने वाला जीव भी उतना ही हिन्दू है जितने हम और आप।
ReplyDeleteमैं केवल उदग्र हिन्दुत्व की बात करने वालों से कहना चाहता हूं कि असली एजेण्डा हिन्दुत्व को रिज्यूविनेट करने में है।
अपने आप पर व्यंग कर लेना हिन्दू धर्म की खासियत है तो अपने को रिज्यूविनेट करना भी खासियत है।
मन्दिरों को शुद्ध करें, परिवेश को शुद्ध करें, नदियों को साफ करें - यह जरूरी है! और यह सब धर्म का काम है।
@सतीश जी !!
ReplyDeleteजहाँ तक मैं समझता हूँ ....समस्यायों के कारण आप उसके मूल से भटकने की बात क्यों करें ?
हमारा उद्देश्य तो उन आयी प्रवत्तियों को परस्त करने का होना चाहिए !!
बाकी किसी के प्रति आपकी विरक्ति किसी और कारण से हो तो और बात है|
ढाईहजार साल पहले की मूर्तियाँ देखने को नहीं मिलतीं। शायद उस के पहले बनती ही न थीं। सुपारी पर मौली लपेट कर उसे ही देवता मान कर या रेत या मिट्टी की मूर्ति बना कर पूजा अनुष्ठान किया और बाद में उसे विसर्जित कर दिया। यही सही कायदा था। हम ने उस कायदे को बिसरा दिया।
ReplyDeleteअद्भुत -यही विपर्यय हिन्दू धर्म दर्शन की कमजोरी भी हैं मगर शक्ति भी ! गंगा लहरी से मुदे तो सीधे मुक्ति द्वार पर आ पहुंचे ?
ReplyDeleteप्रसंगवश बता दूं की पुतलियों का दायलेशन सौन्दर्य को द्विगुणित कर देता है ! नेट सर्चिया लीजिये !
क्या करे स्वामी दयानंद जी , मुर्तिविरोध से उत्पन्न आर्य समाज की वेदशालाये भी बकरी एवं कुकरों की पनाहगाह बनी हुई है . वहां भी जाकर कभी जायजा ले . सिर्फ आर्यसमाज की सम्पत्ति पर कब्जे वाले माफिया जो पदाधिकारी कहलाते है कभी कभार यज्ञ करने पहुचते है .
ReplyDeleteहमारी शिक्षा ही हमारी अपने ही भाषा, धर्म और संस्कृति के प्रति आस्था का नाश कर रही है, यह सब इसी का परिणाम है।
ReplyDeleteहिंदू समाज की रुढ़ियों और कुरीतियों पर स्वामी दयानन्द सरस्वती अपनी तरह से करारा प्रहार कर गये. यही हिंदू धर्म की विशेषता है, हर किसी को खुद अपने धर्म की बारीकी से पड़ताल करने की अनुमति देता है, और मन में आए तो आलोचना की भी. यही उदात्ता उसे एक अलग स्थान देती है.
ReplyDeleteइस्लाम के साथ सबसे बड़ी परेशानी यही रही कि वहां धार्मिक कट्टरता के चलते बदलते समय के साथ स्वयं पर आवश्यक दृष्टिपात करने की अनुमति नहीं है. बहता हुआ जल शुद्ध रहता है और बंद तालाब का पानी सड़ जाता है.
ईसाइयत का इतिहास तो इस्लाम से भी कई गुना अधिक असहिष्णुता का है. मीडियावल टाइम्स की बात करें तो ईसाइयत के सापेक्ष, इस्लाम जैसा कट्टरपन भी बहुत मॉडेस्ट नजर आता है.
"लिबरेशनम् देहि माम"
ReplyDeleteई अंग्रेज़ी में लिबरेशन होने का नाही! क्योंकि गुजराती मूलसंकर ने भी हिंदी के माध्यम से ही ‘सत्य का प्रकाश’ पावा:) सो, मैटर यह है कि लिबरेशन से मुक्ति आपको हिंदी में ही मिलेगा:)
सटीक बात, धर्म के लिये हम लोग बहुत लड़ लेते हैं, परंतु जहाँ मंदिरों की साफ़ सफ़ाई की बात आती है तो सब पतली गली पकड़ कर निकल लेते हैं। जरुरत है समाज को जागृत करने की।
ReplyDeleteआप हिंदू जागृति मंच के संरक्षक बनने की ओर बढ़ रहे हैं:) मैं खुद इसी तरीके के लेखन का समर्थक हूं जो, अपने उदाहरण से आसानी से दूसरों को समझा जाए।
ReplyDeleteआपका पहला ही वाक्य ’अद्भुत है हिन्दू धर्म’ सूत्र रूप में सब कुछ कह देता है .
ReplyDeleteबहुत से मन्दिर-मस्जिद-गोम्पा-गुरुद्वारे-गिरजाघर देखने का मौका मिला हैं पर सामान्यतः मंदिरों जैसी बदहाली और गंदगी कहीं नहीं देखी .
आस्तिक हूं , भले ही आपसे थोड़ी ’इनफ़ीरियर वैराइटी’ का, पर मन्दिरों का हाल देखकर अक्सर अवसादग्रस्त होकर ही लौटता हूं . गंदगी में पवित्रता का दर्शन भला कैसे हो सकता है ?
अभी अप्रत्याशित रूप से बहुत सुखद अनुभूति हुई भगवान शिव के एक बिना छत के मंदिर को देख कर . मंदिर क्या एक बड़ी प्राकृतिक चट्टान है शिवलिंग के आकार की जिसे शिवलिंग मान लिया गया है . सो जहां प्राण की प्रतिष्ठा वहां ईश्वर .
अरुणाचल प्रदेश के लोअर सुबनसिरी जिले के ज़ीरो नामक कस्बे से साढे चार किलोमीटर दूर फिलहाल दुर्गम इस स्थान पर जाने में एक बार को हालत खराब हो गई . पुलिया टूटी होने के कारण एक किलोमीटर की पदयात्रा और उसके बाद पहाड़ी पर डेढ़ किलोमीटर की चढ़ाई-उतराई वाली सीढियां .
पर वहां पहुंच कर जो अनुभूति हुई वह वर्णन के बाहर है . चारों ओर पहाड़ियों से घिरा सुदूर जनजातीय इलाके का अनूठा मंदिर है यह श्री सिद्धेश्वरनाथ मन्दिर . पच्चीस फुट ऊंचा और बाईस फुट चौडा शिवलिंग है जिसकी जड़ में प्राकृतिक रूप से बनी गणेश की मुखाकृति है . वहां युवा पंडित जी ने श्रद्धापूर्वक जो पूजा करवाई वह सदा याद रहेगी . लौटने में तो जैसे हमारे पंख लग गए थे .
इस शिव मंदिर का एसबीआई,ज़ीरो,अरुणाचल प्रदेश का अकाउंट नम्बर लिखकर ले आया हूं ताकि भविष्य में भी इस मंदिर से जुड़ाव बना रहे और दूर बैठे भी अरुणाचल वाले पहाड़ी भोलेनाथ के प्रति श्रद्धा ज्ञापित कर सकूं.
कामाख्या का अनुभव ऐसा नहीं था .
इस पोस्ट का नाम - पकल्ले बे बकरी ऱखा जा सकता था :)
ReplyDeleteलिबरेशन तो आज सभी लोग ले रहे हैं चाहे वह हिंदू हो , मुसलमान हो या फिर इसाई हो। लेकिन लिबरेशन की प्रक्रिया में एक समानता दिखाई देती है जिसके मूल में है स्वार्थ ।
इसी स्वार्थ के चलते जगह कब्जे करने की नेकनीयति चलती है। एक पत्थर रख, सिंदूर लगा कर जगह मिल जाती है।
एक इबादत के लिये चटाई बिछाने से वह जगह मिल सकती है।
एक क्रॉस जमीन पर गाड देने से वह जगह मिल सकती है।
लेकिन उस जगह से संबंधित कागज सही जगह पहुंचाने से वह जगह नहीं मिलती । उस पर खोसला का घोसला बन जाता है। यानि अवैध कब्जा हो जाता है।
धर्म की यह भी एक विडंबना है ।
ऐसो को उदार जग माहीं!
ReplyDeleteभगवान के मन्दिर बना दिये हैं, रख रखाव भी भगवान ही करे । यही उपकार क्या कम था कि जगत के पालनहार को रहने के लिये जगह दे दी । अब जितना अधिकार मनुष्य का है भगवान पर, उतना और भी कृतियों का है । मनुष्य निश्चय ही उत्कृष्टतम रचना है परन्तु और भी गये गुजरे नहीं हैं । लाख लगा दो पहरे, पहुँच ही जायेंगे अपने भगवन के पास ।
ReplyDeleteस्वामी दयानंद ने जो काम 'सत्यार्थ प्रकाश' के द्वारा किया वही काम आप 'मानसिक हलचल' के द्वारा कर रहे हैं.बुराइयों की ओर इंगित किया जाएगा, तभी उनका निराकरण हो पायेगा.
ReplyDeleteमेरे लिये धर्म जीने की एक कला है और मा - पिता जी से दिये हुए कुछ उसूल...
ReplyDeleteगणपति विसर्जन के नाम पर हम प्लास्टर ओफ़ पेरिस की मूर्तिया समुद्र मे बहाते है जो पानी मे घुलती नही, बहती रहती है और पालूशन का प्रयाय बनती है...
"मन्दिरों को शुद्ध करें, परिवेश को शुद्ध करें, नदियों को साफ करें - यह जरूरी है! और यह सब धर्म का काम है।"
एकदम सही है और ये भी धर्म कि किताबो मे समाहित होना चाहिये...
सरजी हमारा धर्म और हमारी धार्मिक विचारधारा बहुत ही सहनशील है जो सब कुछ झेलने में सक्षम है ......
ReplyDeleteबहुत सुंदर, मै अपनी तरफ़ से कुछ नही लिखूगां, क्योकि मै कभी जाता ही नही मंदिर मै.... ओर भगवान कहां है, यह मुझे पता है.
ReplyDeleteइतने गम्भीर, महत्वपूर्ण विषय पर आप ने 'खेल खेल में' ऐसा हंसते, गुदगुदाते लिख डाला जो मन को छू गया. मैं मन से स्वीकार करता हूँ कि आप ज्ञानी नहीं परम ज्ञानी हैं. लेकिन बन्धु, आप पर नास्तिक, हिंदुत्व विरोधी होने का ठप्पा आज नहीं तो कल लगेगा ही. वर्षों तक गौतम बुद्ध को हिंदुत्व विरोधी कहने के बाद हमने उन्हें अवतार माना, आप की बातें भी मानी जायेंगी लेकिन एक आध सदी गुजर जाने के बाद.
ReplyDeleteसवा अरब की आबादी में यदि मन्दिरों की गणना की जाये तो सम्भवतः २-५ परिवारों के हिस्से में एक मन्दिर आ जाये. इसके बाद, पर्व-त्योहारों पर, गली-मुहल्लों में तम्बू मन्दिरों की गिनती ही नहीं. क्या हम वास्तव में इतने धार्मिक हो गये हैं?
मैं पहली बार आपके ब्लॉग तक पहुंचा हूँ. लगता है अब बार बार आना पड़ेगा. शर्त है, तेवर न बदल जाएँ.
सब लोग इतना कह दिए हैं अब मैं क्या कहूँ?
ReplyDeleteवैसे आप मूर्ति में श्रद्धा रखने वाले प्रतीत होते हैं।
पत्थर के नन्दी बाहर हों तो आप को कष्ट होता है, आदमी को रात को छाँव मिल जाय तो ऑबजेक्शन !
नॉट सस्टेंड मी लॉर्ड !!
मन्दिर बकरी को आहार दे रहा है और कुतुक नरायन को शरण ! गद्गगद होइए चचा, है किसी और धर्म के पूजा स्थल में ऐसा खुलापन और करुणा ?
शंकर समाज में सबके लिए जगह है - चींटी, धौरी गैया, कउआ मामा, नाग देवता... बस आदमी के लिए थोड़ी तंगी थी वह भी धीरे धीरे दूर हो रही है। ...
साष्टांग दण्डवत कर रहा हूं गुरूदेव्।
ReplyDeletehar jeev main narayan hain....
ReplyDelete...yahi to adweetvaad hai !!
...shwan liberation aur gauw liberation bhi to isi param satya ka udharan hain...
...is liberation se derived hamara frustration jayaz nahi !!
are ye jaam kyun laga hai ?
kya kaha gau mata road cross kar rahi hain?
Main apne shabd waapis leta hoon.(frustration jayaz nahi !!waale)
दैनिक और सामान्य सी लगने वाली चीज़ों में इतना गूढ़-गंभीर चिंतन! पोल-खोलू - यह असली 'मानसिक हलचल' है.
ReplyDeleteवैसे यह कहना छोटे मुंह बड़ी बात होगी - मगर फिर भी बहुत अच्छा लिखा है.
सौरभ
अपने चारों ओर दृ्ष्टि डाली जाए तो हर तरफ बस यही कुछ दिखाई देता है। ये सब देख सुनकर तो अब लगने लगा है कि वास्तव में धर्म की हालत किसी कूडे कचरे से अधिक नहीं रही । सडक किनारे चार ईंटे खडी करके झंडा गाड दिया या किसी पत्थर को सिन्दूर लगा के रख दिया तो समझो धर्म हो गया । किसी नदी में डुबकी लगा ली, दो चार चक्कर पीपल या बड के लगा लिए तो समझिए धर्म हो गया । व्रत के नाम पर एक दिन भूखा रह लिए(कहने को) बाद में फिर हर रोज तरह तरह के तर माल उडाते रहे तो मानो धर्म हो गया । माथे पर चन्दन से साढे ग्यारह नम्बर का साईन बोर्ड लगा लिया तो समझिए धर्म हो गया । :)
ReplyDeleteऊपर वरूण कुमार जी ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि "शायद बहुत जन्मो के पुण्य को मिलाकर इस जन्म में हिन्दू होने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ है" । यहाँ मैं उनसे एक बात कहना चाहूँगा कि यदि यही सब देखने करने के लिए हमने हिन्दू धर्म में जन्म लिया है तो फिर ये जरूर हमारे पुण्य नहीं बल्कि पापों का फल है ।
लोग भी पता नहीं किस भ्रम में जिए जा रहे हैं कि इसी को हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता मानने में लगे हुए हैं । लेकिन कोई ये समझने को तैयार ही नहीं कि धर्म वास्तव में है क्या ?
अहा...
ReplyDeleteएक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले कौन मंदे।
ईश्वर के हृदय में जब समस्त जीवों के लिये जगह हो सकत है तो ई मंदिर मां क्यों नाहीं।
गिरिजेश जी और पंचम जी ने मूँह की बात ऐसे छीन ली जैसे कुत्ते के मुँह से हड्डी। अगली बार जल्दी टिपियाने का प्रयत्न करेंगे..
हम तो हर जीव में ईश्वर का अंश देखते हैं... इसी लिए श्वान और बकरी भी देवस्थल पर आमंत्रित है ...
ReplyDeleteवैसे उचित और विचारणीय लेख.... साधू!!
Ek Hindu dharm hee hai jo hamen punarjanm ke roop me bar bar mauka deta hai bhoolon ko sudhar kar pap mukt aur is sansar se mukt hone ka.
ReplyDeleteदुबारा बांच लिये नयी टिप्पणियों सहित।
ReplyDeleteसतीश पंचम जी का सुझाव धांसू है-इस पोस्ट का नाम - पकल्ले बे बकरी(बकरिया) ऱखा जा सकता था :)
यह हमारी सहिष्णुता है या विडम्बना ...
ReplyDeleteअंतर्द्वंद है ...!!
गिरिजेश जी से सहमत अलग से कुछ कहने की जरुरत नही समझ रही.
ReplyDeleteएक दयानन्द हम सब में बैठा है.
ReplyDeleteऐसी आजादी और कहाँ?
भैय्या आप तो लिबरेटेड हैं तभी न हमारे धर्म के आत्मा की आवाज़ सुन पा रहे हैं. अति सुन्दर. आभार,
ReplyDeleteमंदिर/मूर्तिपूजा में भरोसे पर मैं थोडा कंफ्यूज रहता हूँ, जब भी किसी मंदिर में गया ऑब्जर्वर की तरह... अक्सर प्रणाम करना भी भूल जाता हूँ. कई बार थोडी स्पिरिचुअल फीलिंग सी भी हो जाती है... शायद माहौल का असर. पर जो भी हो अपने आपको एक अच्छा हिन्दू समझने में कभी शंका भी नहीं करता. यही तो खासियत है जैसी भी विचारधारा हो आपके लिए जगह है इस धर्म में. थोडी सफाई और लूट मार वाली बात खटकती है बस. बाकि शायद तीसरी बार आपके ब्लॉग पर टिपिया रहा हूँ कि धर्म में विश्वास आधे से ज्यादा हिन्दुस्तान को जिन्दा रखे हुए है... बिना डिप्रेशन के.
ReplyDeleteसनातन धर्म मैं ही ऐसी आजादी है की हम आप इतनी सहजता से इस समस्या पे चर्चा कर रहे हैं | इधर उधर जा के देखिये कहीं थोडा टेढा सवाल पुचा नहीं की साड़ी आँखें आपकी और प्रश्न भरी द्रिस्टी से देखेगा ... कौन है ये ऐसा पूछने वाला हमारे धर्म का तो नहीं हो सकता |
ReplyDeleteजो भी हो बढिया विवेचन किया है आपने |
प्स्तक विमोचन एवं पुत्र एवं पुत्रवधु के स्वागत में व्यस्त हैं, अतः ज्ञानखूंटी दिमाग में गड़ा नहीं पा रहे हैं. अभी क्षमा मांग कर काम चला लेता हूँ.
ReplyDeleteinspite of all this, what is the inner strength that has perpetuated HINDUISM for more then 5,000 yrs ?
ReplyDeletethat remains an unsloved Riddle :)
गज़ब की चर्चा रही। हमारे आधे पाप तो इस चर्चा को पढकर ही धुल गये होंगे (ईश्वर कृपालु है) सतीश पंचम के सुझाव "पकल्ले बे बकरी" पर खूब हंसी आयी। दुहराव का खतरा लेते हुए मैं भी यही कहूंगा कि सच्चे मन्दिर वही हैं जो सभी प्राणियों के मन में अभय भावना जगा सकें। इस नाते कामाख्या के मन्दिर के मुकाबले मैं बमनपुरी की गौशाला को अधिक पवित्र समझता हूँ।
ReplyDeleteसब लोग इतना कह दिए हैं अब मैं क्या कहूँ?
ReplyDeleteवैसे आप मूर्ति में श्रद्धा रखने वाले प्रतीत होते हैं।
पत्थर के नन्दी बाहर हों तो आप को कष्ट होता है, आदमी को रात को छाँव मिल जाय तो ऑबजेक्शन !
नॉट सस्टेंड मी लॉर्ड !!
मन्दिर बकरी को आहार दे रहा है और कुतुक नरायन को शरण ! गद्गगद होइए चचा, है किसी और धर्म के पूजा स्थल में ऐसा खुलापन और करुणा ?
शंकर समाज में सबके लिए जगह है - चींटी, धौरी गैया, कउआ मामा, नाग देवता... बस आदमी के लिए थोड़ी तंगी थी वह भी धीरे धीरे दूर हो रही है। ...
हिंदू समाज की रुढ़ियों और कुरीतियों पर स्वामी दयानन्द सरस्वती अपनी तरह से करारा प्रहार कर गये. यही हिंदू धर्म की विशेषता है, हर किसी को खुद अपने धर्म की बारीकी से पड़ताल करने की अनुमति देता है, और मन में आए तो आलोचना की भी. यही उदात्ता उसे एक अलग स्थान देती है.
ReplyDeleteइस्लाम के साथ सबसे बड़ी परेशानी यही रही कि वहां धार्मिक कट्टरता के चलते बदलते समय के साथ स्वयं पर आवश्यक दृष्टिपात करने की अनुमति नहीं है. बहता हुआ जल शुद्ध रहता है और बंद तालाब का पानी सड़ जाता है.
ईसाइयत का इतिहास तो इस्लाम से भी कई गुना अधिक असहिष्णुता का है. मीडियावल टाइम्स की बात करें तो ईसाइयत के सापेक्ष, इस्लाम जैसा कट्टरपन भी बहुत मॉडेस्ट नजर आता है.
@ श्री सतीश सक्सेना - जी नहीं। स्वार्थी, फटीचर और अंविश्वासी/अंधविश्वास फैलाने वाला जीव भी उतना ही हिन्दू है जितने हम और आप।
ReplyDeleteमैं केवल उदग्र हिन्दुत्व की बात करने वालों से कहना चाहता हूं कि असली एजेण्डा हिन्दुत्व को रिज्यूविनेट करने में है।
अपने आप पर व्यंग कर लेना हिन्दू धर्म की खासियत है तो अपने को रिज्यूविनेट करना भी खासियत है।
मन्दिरों को शुद्ध करें, परिवेश को शुद्ध करें, नदियों को साफ करें - यह जरूरी है! और यह सब धर्म का काम है।