विवाह के तुरन्त बाद ही मुझे एक विशेष सलाह दी गयी:
’हाँकोगे तो हाँफोगे’
गूढ़ मन्त्र समझ में आने में समय लगता है| हर बार विचार करने में एक नया आयाम सामने आता है। कुछ मन्त्र तो सिद्ध करने में जीवन निकल जाते हैं।
अभी कुछ दिन पहले प्रशिक्षण के दौरान ग्राहक सेवा पर चर्चा हुयी। ग्राहक की अपेक्षाओं और अनुभव में जो अन्तर होता है वही असंतुष्टि का कारण बनता है। बहुत आवश्यक है कि अपेक्षाओं को सरल व मापे जाने वाला बनायें। अच्छा यह होगा कि वादों को सरल रखें। सरल रखने से न केवल आदेशों का सम्प्रेषण व क्रियान्वयन व्यवस्थित होता है अपितु ग्राहकों की अपेक्षायें भी भ्रमित नहीं होती हैं। यदि आप हाँकेंगे तो उन मानदण्डों को पाने के लिये लगातार दौड़ते रहेंगे।
घर में भी कई ग्राहक हैं जिनकी असंतुष्टि जीवन की शान्ति के लिये घातक है। उनसे भी वादे सरल रखें और निभायें, शायद विवाहोत्तर सलाह का यही आशय रहा होगा।
और यह है प्रवीण पाण्डेय की रचित ओजस्वी कविता:
मैं उत्कट आशावादी हूँ।
मत छोड़ समस्या बीच बढ़ो,
रुक जाओ तो, थोड़ा ठहरो,
माना प्रयत्न करने पर भी,
श्रम, साधन का निष्कर्ष नहीं,
यदि है कठोर तम, व्याप्त निशा,
कुछ नहीं सूझती पंथ दिशा ।
बन कर अंगद-पद डटा हुआ, मैं सृष्टि-कर्म प्रतिभागी हूँ।
मैं उत्कट आशावादी हूँ।।१।।
सूखे राखों के ढेरों से,
पा ऊष्मा और अँधेरों से,
पाता व्यापकता, बढ़ जाता,
दिनकर सम्मुख भी जलने का,
आवेश नहीं छोड़ा मन ने,
आँखों में ध्येय लगा रमने,
है कर्म-आग, फिर कहाँ त्याग, मैं निष्कर्षों का आदी हूँ।
मैं उत्कट आशावादी हूँ।।२।।
पत्ते टूटेंगे पेड़ों से,
निश्चय द्रुतवेग थपेड़ों से,
आहत भी आज किनारे हैं,
सब कालचक्र के मारे हैं,
क्यों चित्र यही मन में आता,
जीवन गति को ठहरा जाता,
व्यवधानों में जलता रहता, मैं दिशा-दीप का वादी हूँ।
मैं उत्कट आशावादी हूँ।।३।।
कर लो हिसाब अब, इस जग में,
क्या खोया, क्या पाया हमने,
जीवन पाया, संसाधन सब,
जल, खिली धूप, विस्तार वृहद,
यदि खोयी, कुछ मन की तृष्णा,
श्रम, समय और कोई स्वप्न घना,
हर दिन लाये जीवन-अंकुर, मैं नित प्रभात-अनुरागी हूँ।
मैं उत्कट आशावादी हूँ।।४।।
भ्रम धीरे-धीरे खा लेगा,
थकता है मन, बहका देगा,
मन-आच्छादित, नैराश्य तजो,
उठ जोर, जरा हुंकार भरो,
धरती, अम्बर के मध्य व्यक्त,
कर गये देव तुझको प्रदत्त,
मैं लगा सदा अपनी धुन में, प्रेरित छन्दों का रागी हूँ।
मैं उत्कट आशावादी हूँ।।५।।
जब किया जलधि-मंथन-प्रयत्न,
तब निकले गर्भित सभी रत्न,
हाथों में सुख की खान लिये,
अन्तरतम का सम्मान लिये,
स्वेदयुक्त सुत के आने की,
विजय-माल फिर पहनाने की,
आस मही को, क्यों न हो, मैं शाश्वत कर्म-प्रमादी हूँ।
मैं उत्कट आशावादी हूँ।।६।।
जीवन के इस चिन्तन-पथ को,
मत ठहराओ, गति रहने दो,
चलने तो दो, संवाद सतत,
यदि निकले भी निष्कर्ष पृथक,
नित चरैवेति जो कहता है,
अपने ही हृद में रहता है,
वह दीनबन्धु, संग चला झूमता, मैं बहका बैरागी हूँ।
मैं उत्कट आशावादी हूँ।।७।।
’हाँकोगे तो हाँफोगे’ मंत्र की व्याख्या देख हम तो प्रवीण जी की प्रतिभा के कायल हो गये. काव्य रचना उत्कृष्ट है, बधाई स्वीकारें.
ReplyDeletewaahh...ab gyaan ji ke blog par kavitayen bhi dikhengi... :P badhiya hai :)
ReplyDeletesuperb kavita.. padhkar josh aa gaya..mere cubicle par iska ek printout to banta hai.. lets see :)
बहुत ही नेक और गूढ सलाह है ये।
ReplyDeleteCorporate world शायद इस सलाह को न मानने के कारण ही अक्सर हलकान रहता है। मार्केट के प्रति भी और Employees के प्रति भी।
’हाँकोगे तो हाँफोगे’ हमने तो यह मन्त्र पहली बार सुना है ! वाकई बहुत गूढ़ बात कही है प्रवीण जी ने |
ReplyDeleteप्रवीण जी की बेशक के हफ्ते में एक पोस्ट आती है पर जो आती है बहुत बढ़िया होती है हर बार कुछ नयापण | समीर जी के साथ हम भी इनकी प्रतिभा के कायल है और हर बुद्धवार को इनकी पोस्ट का इंतजार रहता है |
’हाँकोगे तो हाँफोगे’ की खुबसुरत व्याख्या की है आपने।
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
बहुत कुछ नया है आज आपके ब्लॉग पर ....
ReplyDeleteगूढ़ मंत्र का अर्थ समझ आ गया तो सिद्ध हुआ ही समझो ...
प्रवीणजी की कविता सुबह की पहली किरण से उजली और आशा की संचारक है
बहुत बधाई ....!!
’हाँकोगे तो हाँफोगे’ हम भी नये आयाम से सोचेंगे।
ReplyDeleteमैं भी "उत्कट आशावादी" ...
बेहतरीन पोस्ट।
ReplyDeleteपोस्टकर्ता को बताइएगा कि ब्लागर मीट श्रंखला की ताजी कड़ी से जुड़ती है ये...
हाँकोगे तो हाँफोगे
ReplyDeleteमैं उत्कट आशावादी हूँ
उम्दा.....
श्रेष्ठ संदेश और उतनी ही सुंदर कविता!
ReplyDeleteग्राहक की अपेक्षाओं और अनुभव में जो अन्तर होता है वही असंतुष्टि का कारण बनता है। बहुत आवश्यक है कि अपेक्षाओं को सरल व मापे जाने वाला बनायें। अच्छा यह होगा कि वादों को सरल रखें। सरल रखने से न केवल आदेशों का सम्प्रेषण व क्रियान्वयन व्यवस्थित होता है अपितु ग्राहकों की अपेक्षायें भी भ्रमित नहीं होती हैं। यदि आप हाँकेंगे तो उन मानदण्डों को पाने के लिये लगातार दौड़ते रहेंगे।
ReplyDeleteउचित ही कहा है......... पूर्ण सहमति पर implimentation शायद सभी के लिए आसन नहीं.
सौ की सीधी एक बात "सरल" हर चीज़ सरल होनी चाहिए, पर आजकल के किताबी कीडों के लिए ये "सरलता" ही सबसे कठिन कार्य लगता है, हर जगह if और but का इस्तेमाल,
सहज होना, सहज रहना, सहज व्यव्हार करना, सहज प्रतिक्रिया, सबकुछ कितना दुष्कर सा लोगों को लगने लग गया है........
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
एक उत्कृष्ट पोस्ट. आभार
ReplyDeleteविवाह तो नही किया मगर हांफ़ ज़रुर रहे हैं,बहुत सही सलाह,आज से इस मंत्र को सब को बांटना शुरू कर देते हैं।
ReplyDeleteबहुत काम की बात बताई है, वादों को सरल रखें। इसे जीवन में उतारने की कोशिश रहेगी.
ReplyDeleteहमने तो ऐसा सुना था .वक़्त से पहले मत ज्यादा हांकना ....वरना टेम पे हांफ जायेगा .....आपके ब्लॉग पे कविता देख एक बार चौक गए ...उत्साही कविता है
ReplyDeleteप्रवीण जी की प्रशंशा के लिए शब्द नहीं हैं...कमाल का लेखन...मेरा नमन...
ReplyDeleteनीरज
कविता उल्लास और जूनून को साथ ले कर चलती है |
ReplyDeleteअच्छी कविता पढ़ाने के लिए बधाई ...
'कर्म-प्रमादी' जैसे प्रयोग खटकते हैं
क्योंकि कर्म का लक्ष्य प्रमाद विनाशन है,
फिर व्यक्ति कर्म-प्रमादी कैसे होगा ...
’हाँकोगे तो हाँफोगे’बस आज से इस मंत्र का जाप करा करेगे, ओर अपने आसपास के लोगो मै भी बांटेगे.
ReplyDeleteधन्यवाद
Kavita ne to man har liya....itni sundar kavita padhwane ke liye bahut bahut aabhaar..
ReplyDeletebahut sahi kaha...wadon kee khuraak utni hi honee chahiye jo asaanee se dee aur lee ja sake...
सरलता का सरलीकरण हांफ़ने से बचा गया:)
ReplyDeleteबहुत सुंदर.....
ReplyDelete’हाँकोगे तो हाँफोगे’ जी हाँ, बिल्कुल सही बात है। २३ अक्टूबर से आजतक मैं लगातार ‘पहले हाँकने और फिर हाँफने’ वालों को देख रहाँ हूँ।
ReplyDeleteइसीलिए मैं बिल्कुल चुप रहा हूँ और बिना हाँफे सबको पढ़ रहा हूँ। वाह...!
सच में बहुत हीं आशावादी रचना । आभार
ReplyDeleteबहुत उम्दा रचना है।
ReplyDeleteमंत्र बिल्कुल सही है।’हाँकोगे तो हाँफोगे’
अच्छा लेख और प्रभावशाली कवितायें----
ReplyDeleteपूनम
सरलता से ही संवाद और क्रिया की सफलता निश्चित होती है। शंकर भले दार्शनिकता गढ़ें लेकिन भज गोविन्दम तो कहना ही पड़ेगा।
ReplyDelete_________
निष्कर्षों का आदी
कर्म प्रमादी....
इतना जीवट सबमें नहीं होता बन्धु!
अच्छे लेखन के लिए बधाई जी :)
ReplyDeleteऔर सही है,
हांकना कैसा ? क्या कोइ भेड़ बकरियां हैं ?
- लावण्या
wah ji wah, punjabi mein kahen to ' poora tabbarr ee lekhakaan da ye!"
ReplyDeleteSadhuwad.
सरलता से ही संवाद और क्रिया की सफलता निश्चित होती है। शंकर भले दार्शनिकता गढ़ें लेकिन भज गोविन्दम तो कहना ही पड़ेगा।
ReplyDelete_________
निष्कर्षों का आदी
कर्म प्रमादी....
इतना जीवट सबमें नहीं होता बन्धु!
बहुत सुंदर.....
ReplyDeleteबहुत काम की बात बताई है, वादों को सरल रखें। इसे जीवन में उतारने की कोशिश रहेगी.
ReplyDeleteउत्कृष्ट अभिव्यक्ति लाजबाब प्रस्तुति हेतु बधाई
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