साहित्यकार हिन्दी का बेटा-बेटी है। शायद वसीयत भी उसी के नाम लिख रखी है हिन्दी ने। न भी लिख रखी है तो भी साहित्यकार मानता है कि उत्तराधिकार कानूनानुसार न्यायव्यवस्था उसी के पक्ष में निर्णय देगी। हिन्दी का जो भी है, उसका है, यह शाश्वत विचार है साहित्यकार का।*
हम जैसे ब्लॉगर, जो न कालजयी हैं न मालजयी, वो रियाया की तरह बेगारी में हिन्दी ठेल रहे हैं। दिन भर की बेगार खटने में जिस तरह सुकुरू हरवाह सांझ को चना-चबैना पाता था (सुकुरू का नाती अब गांव में मजूरी मे क्या पाता है, मालुम नहीं।); उसी तरह हमें दस बीस टिप्पणियां मिलती हैं। टिप्पणियों के टप्पे पर झूम रही है हमारी ब्लॉगरी।भाषा – और खास कर हिन्दी भाषा, ज्यादा प्रयोगात्मक लिबर्टी नहीं देती। ज्यादा टिपिर टिपिर करो तो हिन्दी के महन्त लोग गुरगुराने लगते हैं।
यह तत्वज्ञान होने पर भी हम जैसे निघरघट नियमित ३०० शब्द ठेलने को पंहुच जाते हैं।
भाषा की बपौती और भाषा के प्रति कमिटमेण्ट का दम भरना ब्लॉगर के लिये अनर्गल (पढ़ें – फालतू-फण्ड/फैंकोलॉजिकल) बात है। ब्लॉगर सही मायने में अनपॉलिश्ड/अनगढ़/रूखे/खुरदरे एक्पेरिमेण्टेशन पर चलता है। भाषा – और खास कर हिन्दी भाषा, ज्यादा प्रयोगात्मक लिबर्टी नहीं देती। ज्यादा टिपिर टिपिर करो तो हिन्दी के महन्त लोग गुरगुराने लगते हैं। हो सकता है हिन्दी ब्लॉगिंग के लिये बहुत उपयुक्त भाषा ही न हो। या शायद ब्लॉगिंग भाषा से परिमित होनी ही न चाहिये (?)।
च चली, मित्र, पोस्ट लायक ठेल ही दिया है। पोस्ट ही तो है, कौन सा मग्ना-कार्टा है!
वैसे सुकुरू (जितना मुझे याद आता है); विषयानन्द में जितना विपन्न था, भजनानन्द और ब्रह्मानन्द में उतना ही उन्नत। हमारे गावों में कबीर-तत्व बहुतायत में है। कमी यह है कि हमारे एण्टीना बहुत घटिया हैं वह तत्व पकड़ने में! *- यह माना जा सकता है कि हिन्दी आउट-लिव करेगी वर्तमान साहित्य और साहित्य विधा को। |
रोचक है कथ्य का प्रवाह और व्यंग्य। बधाई।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बिलकुल सही लिखा आपने हिंदी से कुछ लोगो ने वसीयत लिखवा ली है . हम जैसे के पिता न लेखक है न चाचा आलोचक है . इसलिए बेगार कर रहे है हिंदी के लिए . वैसे सुकुरू अब नकद मे विश्वास करता है
ReplyDeleteअच्छा फेटा और खींचा है आपने अब निचोड़ने की बारी है वह भी इहीं लागे निपटाई दीजिये ज्ञान जी !
ReplyDeleteहिन्दी साहित्यकारों के बारे में कुछ मत कहिये नहीं तो यह तबका बिदक जायेगा क्योंकि यह भी किसी टुच्चे नेता से कम प्रतिक्रियावादी नहीं है बस महज कुछ अपवादों को छोड़ दें तो ये हमारे स्वनामधन्य हिन्दी साहित्यकार हिन्दी भाषा और और विभाग को हमारे हरि हरिल की लकडी की भांति वक्षस्थल से चिपका कर बैठ गए हैं और साहित्य का अर्थ बस भाषाई संदर्भों तक ही सीमित कर चुके हैं ! आपने अच्छी खबर ली है आज -हम आपके डेढ़ इंच मुरीद और हो गए ! इसी तरह जमाये रखिये !
हिंदी में ज्यादा छूट या गुंजाइश नहीं है ये दर्द हम राजस्थान वालों से पूछिए.यूपी के गंवई मुहावरे तो फिर भी हिंदी में जगह बना लेते है पर मारवाडी के देशज मुहावरे हिंदी में ज़रा कम ही घुल पाए है.फिर हमें पढ़ी सुनी हिंदी के दायरे में काम चलाना पड़ता है,या फिर हो जाइए संस्कृत शरणम्.वैसे मज़ा आया आज की बात से.हिंदी के ठेकेदारों की परवाह मत करिए उन्हें आपस में लड़ने से फुर्सत कहाँ.अपनी बात कहने में सीमाओं से परे जाकर सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति की है आपने.
ReplyDeleteबिचारे हिन्दी के साहित्यकार? काहे उन्हें गरियाते हैं। एकाध किताब छपती भी है तो अकादमी के सहयोग से या फिर खुद के पैसों से और फिर डब्बा बंद। उन्हें अपने हाल में जीने दो। उन्हें लगता है, उन के घाव कुरेदते हैं। एक सम्मानित साहित्यकार कल मिले, कह रहे थे हमें ब्लागिंग सिखाओ।
ReplyDelete"उसी तरह हिन्दी में चमचमाता लिखने वाले अगर पजा गये (यानी इफरात में हो गये/ठसाठस भर गये) तो सबसे पहले हमारे जैसे किनारा दिखाये जायेंगे।" हमारे ऑफिस में भी जो 'स्टार' कर्मचारी हैं वो ऐसे ही मंदी से डराते हैं... हम आज तक नहीं डरे. तो यहाँ भी नहीं डरेंगे :-)
ReplyDeleteठेकेदारी का नाम आने पर लादेन याद आ रहा है. जैसे गुफा में बैठे बैठे उसने पूरी दुनिया को बर्बाद करने का ठेका उसने ले रख है. काश उसे हिन्दी आती होती तो वो भी बामियान में बैठा बैठा ब्लॉगिंग में हिन्दी के ठेकेदारों की खबर ले रहा होता या फिर ऑरकुट में कई चिरकुटों को 'गड़बड़Ó हिन्दी लिखने पर ओबामा का एजेंट बता रहा होता.
ReplyDeleteफुरसतिया और समीरलाल छाप तो तब तक जुगाड़ लगा कर साहित्य के टेण्ट में एण्ट्री पा चुके होंगे!
ReplyDeleteहमारा क्या होगा सरदार?:)
रामराम.
कुछ दिन पहले विनीत कुमारजी ने एक क्लासिक काव्य सृजन किया है, सो आप सुनें
ReplyDeleteआलोचक गाली देवे
पत्रकार चुटकी लेवे
साहित्य गेंदा फूल
हम तो न तीन में न तेरह में, और लोग नाराज न हो जायें इसके चलते एडल्ट ह्यूमर भी न लिखा और न ही पसीने से तरबतर लडकी को गले लगाते फ़ोटो ही दिखायी। अगली ही पोस्ट में हिसाब बराबर करते हैं, वैसे भी हमारे जैसों की कहाँ कोई गिनती होती है। आपकी मानसिक हलचल की ट्रेन तो फ़िर भी दौड जायेगी, :-)
ReplyDeleteहिंदी के ठेकेदारो की परवाह करने की ज़रुरत ही नही है। अब उनकी सुनता ही कौन है। आप तो बस अपनी मानसिक हलचल को सुपर फ़ास्ट की तरह दौड़ात्र जाईये,मेला लगा रहेगा आपके पीच्छे चलने वालो का,उनमे एक तो हम है ही।
ReplyDeleteरियाया की तरह बेगारी में हिन्दी ठेल रहे हैं, पोस्ट लायक ठेल ही दिया है .अब हिंदी के साहित्यकारों से पंगा लेना अच्छा भी तो नहीं है, अच्छा चलिए उनसे तो एक बार कुछ कह भी दो पर कही मीडिया को भनक लग गयी इस बात की तो राम बचावे.
ReplyDeleteसाहित्यकारों को अपनी रचना पढ़ने के लिए प्रकाशक खोजना पड़ता है पर हम ब्लोगर के लिए अच्छा है की हम सारा काम खुद ही कर लेते है . अपना काम कोई बेगारी थोड़े ही है .शांति देने के लिए कुछ लोग टिपिया ही देते है .
हिंदी खड़ी बाज़ार में.. देखके खुद को रोये..
ReplyDeleteपीछे गाना बज रहा.. ओये लकी ओये.....
नहीं सर जी ब्लोगिंग का एंटीना अपनी मर्जी से घूमता है ..दूर समंदर पार से ठेले हुए शब्द किसी संपादक के हाँ के मोहताज़ नहीं है .पर फिर भी पहेलियों ओर अखबार की खबरों से इतर अगर कुछ कंटेंट हो तो ही हिंदी ब्लोगिंग का सुधार हो सकता है वरना हम खामखाँ की बहसों में ही उलझे रहेगे
ReplyDeleteजिसको जो सोचने हो सोचे, हम तो यूँ ही ठेलते रहेंगे. वैसे ब्लॉगिंग फालतू की चीज नहीं, ई देखो...और गर्व से ब्लॉगिंग करो जी.
ReplyDeletehttp://www.tarakash.com/Internet/world-against-bloggers.html
मैं तो इतना ही कहूँगी भाषा शुद्ध हुई की मरी ...बाकि रविश जी आपकी अशुद्धता काहे अख़बार में छापे यह हमसे न पूछिये :-)
ReplyDeleteभाई ज्ञानदत्त जी
ReplyDeleteयक़ीन मानिए, जो क्षणभंगुर है वही कालजयी है. जो कालजयी होने के भ्रम में है उसकी स्थिति उस संन्यासी जैसी है जिसके लिए साहिर लुधिआनवी ने लिखा था .. इस जग को तो तुम पा न सके/उस जग को क्या अपनाओगे/दुनिया से भागे फिरते हो/भगवान को तुम क्या पाओगे. ... अरे जो अभी की बात नहीं कर सकता वो कभी और की बात क्या ख़ाक करेगा. असल में तो यही जनता का साहित्य है. अब यह अलग बात है कि हिन्दुस्तान की 70 प्रतिशत नहीं, सिर्फ़ सात प्रतिशत जनता है. और सच यह है कि अकादमियों और इनवर्सिटियों वाला सहित्य 0.07 प्रतिशत जनता तक भी नहीं पहुंच रहा है. तो यक़ीन मानिए, आपकी ब्लॉगरी उनसे बेहतर है.
वैसे अरविन्द मिश्रा जी ने हिन्दी साहित्य और विभागों के बारे में जो कहा है, वह सौ फ़ीसद सही है. उस पर विश्वास करने के अलावा और कोई चारा ही नहीं है.
मुझे तो लगता है हिन्दी की पाचन शक्ति सबसे ज्यादा है.. किसी भाषा का शब्द हो हिन्दी पचा जाती है, हाँ ठेकेदार जी अपनी राग गाते बजाते रहते है पर हिन्दी कभी रुकी क्या? तो शब्दों से फर्क क्या पड़ता है.. हमें क्या पता २००० साल पहले कि हिन्दी कैसी थी और उनमें से कितने शब्द हम आज भी काम लेते है... पर हमें पता है कि भाषा हिन्दी थी..
ReplyDeleteमुझे तो सारे साहित्यकारों की लेखनी एक ही जैसी लगती है(इंस्पायर्ड फ्रॉम शोले, "मुझे तो सभी पुलिस वालों कि shaklen एक ही जैसी लगती है")..
ReplyDeleteवेराईटी देखनी हो तो ब्लौग ही टटोलना पड़ता है.. हो सकता है कि 10 साहित्यकारों की शैली 10 तरह की हो, मगर यहां तो 10000 ब्लौग हैं और् 10000 अलग-अलग लेखनी पढ़ने का मजा.. :)
हिन्दी तो सारे हिन्दी प्रेमियों की है जिनमें साहित्यकार भी हैं, ब्लोगर भी हैं और वे भी हैं जो न तो साहित्यकार हैं और न ही ब्लोगर।
ReplyDeleteतो आपकी नजर भी हिन्दी महारानी की चल अचल संपत्ति के कागजात पर पड़ गयी...। कितना जतन से छुपा कर रखते हैं हमारे हिन्दी साहित्यकार... लोगों को पता नहीं चले इसलिए अपनी गरीबी का कितना रोना रोते हैं...। ...और यह वसीयत यूं ही थोड़े पायी है, महारानी बनने के बावजूद अपनी हिन्दी माता को विदेशी मैकाले की मां अंग्रेजी की नौकरानी बनने दिया... पद, पगार और पुरस्कार के लिए अपनी आत्मा को गिरवी रख दिया...। .... सोचिए हमारे हिन्दी साहित्यकारों ने कितना बड़ा त्याग किया....अब इसके बदले में उस अबला की वसीयत ही हथिया ली तो कउनो गुनाह थोड़े होइ गवा... :) :(
ReplyDeleteसहुत्याकारों के लिए ब्लॉग वर्जित कर दिया जावे. वे किताबों में, अख़बारों में या फिर साहित्य सम्मेलनों में ही बने रहें. नहीं तो हम जैसे कहाँ जायेंगे.
ReplyDeleteचिट्ठा जगत में मुझे जल्दी ही दो वर्ष पूरे हो जाएंगे। इस बीच मैं अनुभव कर रहा हूं कि 'ब्लाग' को या तो साहित्य समझा जा रहा है या उसे साहित्य बनाने के प्रयास हो रहे हैं।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट भी यही चिन्ता जताती नजर आती है कि आप भी ब्लाग और साहित्य को पर्याय मान रहे हैं।
भाषा की शुध्दता, प्रांजलता और साहित्यिकता - तीनों अलग-अलग बातें हैं। आप तीनों का घालमेल करते नजर आ रहे हैं।
साहित्यिकता के नाम पर भाषा को दुरुह और असहज बनाने की भोंडी कोशिशें करने वाले अपने आप निरस्त कर दिए जाएंगे, किनारे पर फेंक दिए जाएंगे। मुकाम तक वही पहुंचेगा जो खुद को प्रवाह के अनुकूल बनाए रखेगा।
भाषा के साथ भी यही स्थिति है, यह कहने/जताने की आवश्यकता कम से कम आपको तो नहीं ही है।
मेरे विचार से भाषा की शुध्दता का आग्रह अनुचित नहीं है किन्तु इसे 'दुराग्रह' में बदलना तनिक भी उचित नहीं है। इतर भाषाओं के शब्दों से परहेज करना यदि समझदारी नहीं है तो इतर भाषाओं के शब्दों का अकारण उपयोग भी उचित नहीं और इसी मानसिकता के अधीन हिन्दी शब्दों का विस्थापन तो बिलकुल ही उचित नहीं है। उदाहरणार्थ विद्यार्थी के लिए स्टूडेण्ट प्रयुक्त करना असहज लगता है।
आपने तीन सौ शब्दों में शुरुआत तो कर दी किन्तु इसका समापन कोई भी तीन सौ शब्दों में नहीं कर पाएगा।
अपनी बात को कुछ इस तरह से कहूं कि हम आपको 'ज्ञानदत्त' के नाम से ही जाने, पहचानें, पुकारें, 'नालेज पेड' के नाम से नहीं।
रहा सवाल 'चिट्ठा जगत' में बने रहने का सो नोट कर लीजिए, आप चाहेंगे तो भी आप बाहर नहीं हो पाएंगे। हम सबके लिए यहां बने रहने के लिए आप विवश हैं - 'अभिशप्त' होने की सीमा तक।
साहित्यकार ब्लोगरों को उपेक्षित नहीं कर पा रहे हैं यह खुशी की बात है | अब देखियेगा साहित्यकार ब्लॉग्गिंग में घुसेगा और यहाँ भी वर्णव्यवस्था की शुरुआत होने वाली है |
ReplyDeleteविष्णु बैरागी जी ने सटीक लाइन और लेंथ पर गेंद फेंकी है, शुद्धता और अशुद्धता दोनों की अति से बचना पडेगा | कोई शक नही की ज्ञानदत्त जी के पोस्ट के शीर्सक पर नजर पड़ने के बाद, पूरा पढ़े बिना बचकर निकलना हठयोगी के ही बस की बात है | मैं भी इस ज्ञान से फायदा उठाकर १ पोस्ट करने वाला हूँ |
आपकी चिंता जायज है , किन्तु साहित्य किसी की बपौती नहीं , साहित्य के इन ठेकेदारों से परेशान होने की कोई जरूरत नहीं .....
ReplyDeleteकहां है हिंदी के साहित्यकार
ReplyDeleteजिनका हिंदी पर उत्तराधिकार
अब तो ब्लागर भी है दरकार
मिले उन्हें भी विशेष अधिकार:)
साहित्य के इन ठेकेदारों से परेशान होने की कोई जरूरत नहीं .....
ReplyDeleteअजी कब टेंडर भरा, कब निलामी हुयी हमे तो पता ही नही चला...
चलिये अब ठेके दारो का नाम तो बता दे....
बिना कथ्य का परिपेक्ष्य जाने कुछ कहना कठिन है...निशाना किधर है ,समझ नहीं आ रहा...
ReplyDeleteपोस्ट लायक ठेलने में इतना कुछ मिल चुका है हगर पोस्ट ठेलते तो क्या कुछ ना हो जाता। या फिर इस जमात को भी ठेलने लायक चीज ही समझ में आती है ;)
ReplyDeleteउसी तरह हिन्दी में चमचमाता लिखने वाले अगर पजा गये (यानी इफरात में हो गये/ठसाठस भर गये) तो सबसे पहले हमारे जैसे किनारा दिखाये जायेंगे। फुरसतिया और समीरलाल छाप तो तब तक जुगाड़ लगा कर साहित्य के टेण्ट में एण्ट्री पा चुके होंगे! चिंता छोड़ें, सुख से जियें।
ReplyDeleteSo hilarious but so realistic. I regret of missing your writings till now. The words are so usual but sound so magical in your artical and so informational too (like Magna Carta)
ReplyDeleteWould try to visit regularly. (sorry for English)
"उसी तरह हमें दस बीस टिप्पणियां मिलती हैं। "
ReplyDeleteअरे भाई साहब यह क्यों भूल जाते हैं कि आपके पाठक / टिप्पणीकार:
१. स्थायी हैं
२. खुशामदी नहीं हैं
३. नामचीन (या बदनाम) साहित्यकारों की और से भले ही न हों खासे बुद्धिमान लोगों की तरफ से हैं
४. स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले हैं (उदाहरण के लिए अगर आप खच्चर पर लिखेंगे तो हम उसकी तारीफ़ करें ही यह ज़रूरी नहीं है)
"जाने वो कैसे लोग थे जिनको
ReplyDelete"साहित्यकार " का नाम मिला.
हमने तो जब आशा थी जताई
"प्रवचन" का प्रतिकार मिला
:-(
आप लिखेँ ..निशँ:क़ ..
- लावण्या
१."भाषा की बपौती और भाषा के प्रति कमिटमेण्ट का दम भरना ब्लॉगर के लिये अनर्गल (पढ़ें – फालतू-फण्ड/फैंकोलॉजिकल) बात है।"
ReplyDelete*पूर्ण सहमति है .
२."ब्लॉगर सही मायनेमें अनपॉलिश्ड/ अनगढ़/ रूखे/खुरदरे एक्पेरिमेण्टेशन पर चलता है।"
*पूर्ण सहमति
३."भाषा – और खास कर हिन्दी भाषा, ज्यादा प्रयोगात्मक लिबर्टी नहीं देती।
* पूर्ण असहमति . अंग्रेज़ी और हिंदी, ये दोनों भाषाएं जितनी प्रयोगात्मक लिबर्टी दे रही हैं और लेखक-ब्लॉगर जितनी छूट ले रहे हैं,उतनी कम ही भाषाएं देती हैं .स्वयं ज्ञान जी का लेखन इस छूट के रचनात्मक उपयोग का आदर्श उदाहरण है .
४."ज्यादा टिपिर टिपिर करो तो हिन्दी के महन्त लोग गुरगुराने लगते हैं।"
* महंतों के गुरगुराने के बावजूद यदि आप सर्वाधिक लोकप्रिय ब्लॉगरों में से एक हैं तो यह हिंदी के सामर्थ्य और उसके प्रयोगशील होने का प्रमाण है . यह महंतों के निष्प्रभावी होने और होते जाने का भी ऐलान है .गुरगुराने वाले जल्दी खींसें निपोरते नज़र आएंगे
५."हो सकता है हिन्दी ब्लॉगिंग के लिये बहुत उपयुक्त भाषा ही न हो।"
* असमति . हर लिहाज से हिंदी ब्लॉगिंग के लिए उपयुक्त भाषा है और यह उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रमाणित होता जा रहा है. अगर नेट पर हिंदी की उपस्थिति क्षीण है तो इसका कारण हिंदी पट्टी की गरीबी और साधनहीनता है .
६. "या शायद ब्लॉगिंग भाषा से परिमित होनी ही न चाहिये (?)।"
* पूर्ण सहमति . पर ब्लॉगिंग होगी तो किसी भाषा में ही . यह ज़रूर है कि जो कोई जिस किसी भी भाषा में जो कुछ भी ’जोइ सोइ’ गा सकता है गाना चाहिए . सही-गलत से बड़ा सवाल सम्प्रेषण है . उस चीख का है जो उठना चाहती है तमाम असहायताओं के बावजूद .ब्लॉगिंग सिर्फ़ सही व्याकरण लिखने वाले ’पुलिटिकली करैक्ट’लेखकों, पत्रकारों या साधनसम्पन्नों का शगल नहीं होना चाहिए . इसमें आम जनता का लोकतांत्रिक माध्यम बनने की अपार सम्भावनाएं हैं .