Tuesday, March 24, 2009

एक आत्मा के स्तर पर आरोहण


पर जो भी मेहरारू दिखी, जेडगुडीय दिखी। आदमी सब हैरान परेशानश्च ही दिखे। लिहाजा जो दीखता है – वह वही होता है जिसमें मन भटकता है। आत्मा कहीं दीखती नहीं।

आत्मा के स्तर पर आरोहण सब के बस की बात नहीं। जैसे “युधिष्ठिर+५+कुकुर” चढ़े थे हिमालय पर और पंहुचे केवल फर्स्ट और लास्ट थे; वैसे ही आत्मा के स्तर पर आरोहण में फर्स्ट और लास्ट ही पंहुचते हैं। हम जैसे मध्यमार्गी सुजाता की खीर की इन्तजार ही करते रह जाते हैं।

चिरकुटों के भाग्य में न तो बिरियानी लिखी है न सुजाता की खीर। न इहलोक की मौज न बुद्धत्व। अत: आत्मा के स्तर पर आरोहण तो दिवास्वप्न है। उनके भाग्य में कोंहड़ा की तरकारी और बिना घी की रोटी ही लिखी है – रोज आफ्टर रोज! (डिस्क्लेमर – पत्नीजी पर कोई कटाक्ष इण्टेण्डेड नहीं है!)।

i-amइष्टदेव सांकृत्यायन जी की आत्मा। प्रोफाइल में इतनी भयंकर-भयंकर किताबें ठिली हैं कि आत्मा बहुत विद्वान जान पड़ती है।
इष्टदेव सांकृत्यायन जी ने कहा कि उनके ब्लॉग पर उनकी आत्मा की तस्वीर है। मैं उस आत्मा से रूबरू हो लूं। अब आत्मा की फोटू देखना एक बात है। फोटू तो ध्यानमग्न श्री कृष्ण की भी लगा रखी है मैने, पर उनका स्मरण करने में भी बहुत यत्न करना होता है। मन जो देखना चाहता है, वही देखता है। कल दिन में कनाट-प्लेस के दो-तीन चक्कर लगे होंगे चलते वाहन से। पर जो भी मेहरारू दिखी, जेडगुडीय दिखी। आदमी सब हैरान परेशानश्च ही दिखे। लिहाजा जो दीखता है – वह वही होता है जिसमें मन भटकता है। आत्मा कहीं दीखती नहीं।

खैर, आप इष्टदेव जी की आत्मा की तस्वीर निहारें। हमने तो उनसे उनकी भौतिक तस्वीर मांगी थी – जो उन्होंने बड़ी चतुराई से मना कर दी। यह तस्वीर तो बड़ी ताऊलॉजिकल है। न ताऊ का पता है, न इस आत्मा का पता चलता है। आत्मा के स्तर पर आरोहण करें तो कैसे?!

मैं सांकृत्यायन जी से मिलना चाहता था। मैं बोधिसत्त्व से भी मिलना चाहता हूं। इन लोगों की आत्मा तो क्या पहचानूंगा, उतनी काबलियत नहीं है; पर इन लोगों का व्यक्तित्व जरूर देखना चाहूंगा। यह अवश्य सम्भव है कि अगर मिलूं तो अधिकांश समय चुपचाप बैठे रहने में निकल जाये। पर मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है। शायद बेहतर सम्प्रेषण।  

(यह पोस्ट २५६२ स्वतन्त्रता सेनानी एक्स्प्रेस के डिब्बा नम्बर ४८८० में लिखी, गढ़ी और पब्लिश की गयी। आप समझ सकते हैं कि पटरी और डिब्बा, दोनो संतोषजनक हैं। अन्यथा, हिचकोले खाते सफर में यह काम कैसे हो पाता! :-)


31 comments:

  1. उम्‍दा ट्रेनीय पोस्‍ट

    ReplyDelete
  2. हमारी तो आत्मा इतनी पारदर्शी है कि चित्र में आत्मा के सिवाय सारा कमरा नजर आ रहा है। सो चिपकाने का कोई लाभ नहीं।
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  3. भारतीय रेलों का प्रचार इस पोस्ट से किया जा सकता है- रेल पर चलिये ,आत्मा से जुड़िये।

    ReplyDelete
  4. कहते हैं कि चित्र बोलते है - फिर, भले ही वो ताऊलोजिकल हो या सैकोलोजिकल। इस चित्र के सैकोलोजिक विश्लेषण से यह पता चलता है कि यह अपनी आत्मा को तुरंत इस पार्थिव शरीर को त्यागने की तैयारी में है:)

    ReplyDelete
  5. यह बात तो दुरुस्त है पर मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है। शायद बेहतर सम्प्रेषण। और विश्वसनीय भी!

    परंतु यह पोस्ट पटरी और सभी प्रकार के डिब्बे के संतोषजनक होने का प्रमाण-पत्र नहीँ। पटरी तो कॉमन है, पर आप तो विशिष्ट अधिकारी डिब्बे में ही सवार थे न? न कि जन सामान्य के डिब्बे मे! चलो बेहतर तो है ही कि आप रेल सेवाओं की गुणवत्ता परखने की नयी नयी युक्तियाँ ईजाद करते हैं।

    ReplyDelete
  6. आपने डिब्बा पटरी सब कहा लेकिन चलती ट्रेन का डिब्बा नही कहा, जुडीगुडी और परेशान आत्माओं को कनाट प्लेस में देखकर रूके हुए डिब्बे में भी हिचकोले खाने की संभावना बनी रहती है।

    ReplyDelete
  7. हा!हा!हा!हा!हा!हा!हा!
    आत्मा की तस्वीर?
    हा!हा!हा!हा!

    ReplyDelete
  8. यह पढ़ कर तो कई कई भाव स्फुलिंगिया गए -किस किस को यहाँ उकेरूँ .चलिए स्थाई भाव लेता हूँ -ब्राहमण को कोहडा मिलता जाय और कुछ नही न मिले तो भी वह इस भव सागर को हँसी खुशी पार कर लेगा -मैं श्रीमती रीता पाण्डेय जी के इस सनातनी नुस्खे की हिमायत करता हूँ ! और रही सांकृत्यायन की बात तो तय जान लीजिये कि जैसी कि मेरी यह गट फीलींग है कि यह शख्श अपनी आत्मा से भी ज्यादा भयंकर हो सकता है -क्योंकि चिंतन के स्तर से यह निश्चित ही बन्रार्ड शा का अवतर लगे है -साफ़ साफ बचे ! बधाई !

    ReplyDelete
  9. @ चंद्रमौलेश्वर प्रसाद (cmpershad> यह अपनी आत्मा को तुरंत इस पार्थिव शरीर को त्यागने की तैयारी में है:)
    मुझे तो लगता है कि यह आत्मा दर्शक को आत्मलोक पंहुचाने में तत्पर दीखती है!

    ReplyDelete
  10. यह अवश्य सम्भव है कि अगर मिलूं तो अधिकांश समय चुपचाप बैठे रहने में निकल जाये। पर मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है। शायद बेहतर सम्प्रेषण।
    " bhut shi khaa aapne....maun me bhi smpreshn hota hai.....lakin ye janne ki jigysa bhi kam nahi ki in tasveron ke piche kaun vyktitav hain.."

    Regards

    ReplyDelete
  11. @(यह पोस्ट २५६२ स्वतन्त्रता सेनानी एक्स्प्रेस के डिब्बा नम्बर ४८८० में लिखी, गढ़ी और पब्लिश की गयी। आप समझ सकते हैं कि पटरी और डिब्बा, दोनो संतोषजनक हैं। अन्यथा, हिचकोले खाते सफर में यह काम कैसे हो पाता! :-)

    आपकी पोस्‍ट चुनाव आचार संहिता के दायरे में आ रही है :)

    ReplyDelete
  12. क्या केने क्या केने। ट्रेनों का लेवल वाकई सुधऱ गया है। खास तौर पर ट्रेन इन्कवायरी का स्तर बहुत सुधऱ गया है। पहले तो स्टेशन पर फोन मिलाना ही मशक्कत का काम होता था। अब तो झटके से जवाब मिलता है। लालूजी के दो काम बहुत महत्वपूर्ण हैं एक तो यही कि इन्कवायरी का सुविधा हो गयी कि गाड़ी कित्ती लेट है। मतलब गाड़ी लेट न हों, इसमें सुधार की जरुरत बाकी है, पर सूचना मिल जाती है। दूसरा इंटरनेट पर रिजर्वेशन कराने की सुविधा, इससे आलसियों की मौज आ गयी है। पहले टिकट कटाना खासा पराक्रम का काम समझा जाता था। अब इंटरनेट ने मजे कर दिये हैं। और कमाल यह है कि आईआरसीटीसी की वैबसाइट बावजूद सरकारी होने के बहुतै ही धांसू काम करती है। जमाये रहिये।

    ReplyDelete
  13. "पर मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है। शायद बेहतर सम्प्रेषण।"

    सही कहा आपने...एक कथा याद आ गयी जिसमें एक बार कबीर और फरीद दोनों एक जगह पर पहली बार मिले और दो घंटों तक चुपचाप बैठे रहे...शिष्य उत्सुकता वश देखते रहे की कब ये दो महान व्यक्ति बात करें और कब शब्दों के फूल झड़ें...लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ...उनके बिछुड़ने पर शिष्यों ने पूछा की कबीर जी आपने बात क्यूँ नहीं की तो कबीर जी हंसते हुए कहा की हम दोनों चुप ही कब रहे लगातार बात करते रहे अब तुम लोग सुन नहीं पाए तो इसमें हमारा क्या दोष...

    आप भी जेड़ गुडी को जानने लग गए हैं देख हर्ष हुआ...जल्द ही बालीवुड के अभिनेता और अभिनेत्रियों को भी पहचानने लगेंगे...शुरुआत हो चुकी है...
    नीरज

    ReplyDelete
  14. आत्म सम्प्रेषण तो मौन में ही होता है, शब्दों को तो मन सुनता है .
    रेल की हलचल में एक स्थिर लेख अच्छा है .

    ReplyDelete
  15. पर मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है..bilkul

    ReplyDelete
  16. आपकी आत्मा ने ड्यूटी समय में ब्लॉग लिखने की स्वीकृति दे दी ?

    ReplyDelete
  17. इस बार की पोस्ट से खुद को जोड़ नही पाया.. फिर भी बहुत कुछ है जिसे साथ ले जा रहा हू..

    ReplyDelete
  18. @ हेम पाण्डेय - मेरा ड्यूटी का समय और व्यक्तिगत समय गड्ड-मड्ड है। मैं सामान्यत: गाड़ियां गिनना सवेरे पौने छ बजे प्रारम्भ करता हूं और रात सवा दस तक लिपटा रहता हूं। इसके अलावा आपत दशा में कभी भी काम में लगना होता है।
    और पिछले कुछ महीने, जब कोहरा बहुत पड़ा, शरीर और आत्मा बहुत कष्ट में थे। :)
    आप निश्चिंत रहें, नौकरी से इनजस्टिस नहीं कर रही है मेरी आत्मा। :)

    ReplyDelete
  19. आज तो बडी आत्मकारक पोस्ट है. और रेल के बोगी से पोस्ट पबलिश हुई यह जानकार अच्छा लगा कि हम प्रोग्रेस कर रहे हैं. इसीलिये हमारे इ-मेल द्वारा दिये गये सजेशन का रेल्वे से पत्र द्वारा बाकयदा जवाब आया.

    बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

    ReplyDelete
  20. आत्मा की फ़ोटू, अजी अभी नही, जब ऊपर जायेगे तो आप को मेल से भेज देगे अपनी आत्मा की फ़ोटू, आप उसे कही भी लगये, लेकिन बिल अभी अदा कर दे , दोवारा थोडे आऊगा बिल लेने.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  21. इष्टदेव सांकृत्यायन जी की आत्मा के चित्र के सम्बन्ध में,

    श्रीमदभगवद्गीता के अनुसार, "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि...", अब उनकी खुद की आत्मा तो बुलेटप्रूफ़ है लेकिन दूसरों को अंग्रेजी कट्टा लेकर हडका रहे हैं। बडी नाइंसाफ़ी है, :-)

    मिलना तो हमें भी बहुत लोगों से है और भांग एट गंगा तट भी चलाना है। देखें कब फ़ुरसत मिलती है।

    ReplyDelete
  22. पांडेय जी,
    काश आपके रेल मंत्री लालू जी भी आपका इ वाला पोस्‍टवा पढ लेते तो दिमाग में कुछ बुदि़ध घुस जाती। दल के दलदल से निकलकर बिहार अउर देश के लोगन खातिर कुछ निक बात सोचते। साला अउर मेहरारु से फुरसत पाकर ही न यह सब कुछ हो पावेगा, पर उन्‍हें इसका सहूर कहां-

    ReplyDelete
  23. भाई ज्ञान जी,
    आप ने चिंतापरक लेख जिस सहज अंदाज में रोचक शैली में गंभीर विषय को भी अपने शुभचिंतकों को परोसा, मन को तृप्त कर गया.
    बधाई स्वीकार करे.

    आपके लेख की निम्न पंक्तियों से मै पूर्णतः सहमत हूँ............................
    * "जो दीखता है – वह वही होता है जिसमें मन भटकता है। आत्मा कहीं दीखती नहीं।"
    आत्मा वस्तुतः महसूस करने वाली संग है, जिसका जब तक साथ, जीवन चलायमान वरना जीवन निष्प्राण.
    इससे साक्षात्कार विरले ही कर पाते हैं, जो कर न पाएं वही "अंगूर खट्टे हैं" जैसा कहने के हालात में होते हैं. यह व्यक्ति-व्यक्ति के ज्ञान स्तर पर निर्भर करता है................

    * "मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है। शायद बेहतर सम्प्रेषण।"
    वस्तुतः मैंने भी कही पढ़ा था कि

    "यदि आप मेरे मौन को नहीं समझ सकते तो आप मेरी बातों को भी नहीं समझ सकते हैं" कहने का आशय यह कि संप्रेषण किसी भाषा, किसी उवाच का मोहताज नहीं होता, ऐसा कई बार होता है कि कोई आपसे कुछ भी कहने वाला नहीं होता पर लगता है कि कोई आपसे कुछ कह रहा है, जिसे सिर्फ और सिर्फ आप ही सुन और महसूस कर सकतें है. बाद में वैसी ही घटना मूर्तरूप भी ले लेती है..............................

    और भाई पुछल्ला
    * * "पटरी और डिब्बा, दोनो संतोषजनक हैं। अन्यथा, हिचकोले खाते सफर में यह काम कैसे हो पाता!"
    तो चुनाव आचार संहिता का ख्याल कर लिखा है न. आप भी रेलवे में, लालू भाई भी........................

    कल से आपको यह कमेन्ट प्रेषित करना चाह रहा हूँ और यह चौथा प्रयास है. किसी न किसी कारण से बात पूरी होने के पहले ही तकनीकी बाधा आने से तीन प्रयास व्यर्थ हो गए, विचार प्रस्तुति में शब्द भी बदल गए क्योंकि जब जो विचार, शब्द मन में उत्पन्न होते है, यदि सहेजे न जा सकें तो दुबारा उन्ही शब्दों, विचारों का प्रयोग होना मुश्किल हो जाता है, फिर भी प्रयास और जैसे भी बन पड़ा, प्रेषित कर रहा हूँ.

    मेरे पूर्व के तीनो प्रयास शायद "मौन संप्रेषण" की भेंट चढ़ गए..................और इस संप्रेषण को आप ही बेहतर समझ सकते है....................

    चन्द्र मोहन गुप्त

    ReplyDelete
  24. जो चीज़ आसानी से मिल जाये उस की कीमत कम हो जाती है'.चाहे किसी का परिचय हो क्यूँ नहीं!

    'मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है'
    -आप ने train में यह पोस्ट लिखी है!
    बहुत बढ़िया!

    ReplyDelete
  25. आत्मा के चित्र दर्शनोपरांत भी ऐसा संप्रेषण.......लाजवाब !!

    ReplyDelete
  26. वाकई भारतीय रेल प्रगति की राह पर है जो आपने उसमे ऐसी पोस्ट ठेली ...बाकी पोस्ट को समझने के लिए लगता है पिछले कई दिनों की दूसरी पोस्ट पढ़नी पढेगी ...

    ReplyDelete
  27. मतलब आपसे मिलने के लिए आत्मा की फोटू तैयार करनी पड़ेगी. मैं भी कुछ भारी-भारी किताबें (फिल्में चलेगी क्या?) अपनी प्रोफाइल में लिखता हूँ. शायद हमसे भी मिलने का मन हो जाय आपका :-)

    ReplyDelete
  28. आत्‍मा की तस्‍वीर के दीदार भी ब्‍लागजगत में ही संभव हैं।

    ReplyDelete
  29. मंडन मिसिरों की इस चर्चा मेंं बाकी सब तो ठीक है लेकिन कोंहड़ा को इतना डाउन मार्केट न समझा जाए. मंदी में बड़े बड़े भाग्यवानों की इज्जत बचा रहा है यह कद्दू. पका हुए मीठा कोंहड़ा और उसमें थोड़ी सी खटाई और मंदी आंच में पकी उसकी तरकारी, जो जितनी बार खाए उतनी बार ले चटखारी. चाहे सूखी रोटी हो चाहे तर पूड़ी, चाहे चिरकुट हों या चौधरी सब की हसरत होती है पूरी. वैसे चिरकुट और गरीब में फर्क होता है.इस पर चर्चा बाद में.

    ReplyDelete
  30. बाप रे! आप तो हमारी बिरादरी यानी कि पत्रकारों से भी ज़्यादा ख़तरनाक मालूम होते हैं. मैने तो सोचा था कि आप ऐसे ही शिनाख़्त करने के लिए फोटो चाहते हैं. ताकि कहीं मिलने पर आसानी से पहचाना जा सके. पर आपने तो पत्रकारों जैसा काम किया. हम तो जानते थे कि ऐसा काम अकसर हमीं लोग करते हैं. यानी राजनेताओं-सरकारी अफसरों से अनौपचारिक बातचीत को इंटरव्यू बता कर छाप देते हैं. पर आप भी ऐसा काम कर सकते हैं.
    वैसे यह सही है कि यह मेरी आत्मा की ही छवि है. पूरे देश ही नहीं, दुनिया भर में भ्रष्ट्राचार, भाई-भतीजावाद, शोषण, उत्पीड़न, चोरों की चांदी का जो आलम देख रहा हूं, उससे इच्छा तो बार-बार यही होती है कि अभी और यहीं इसे बनाने के लिए ज़िम्मेदार सभी तत्वों को एक लाइन से खड़ा करके धांय-धांय कर दूं. पर क्या बताऊं, कर नहीं पाता. इसलिए ऊपर-ऊपर शरीफ़ बना रहता हूं. बिलकुल वैसे ही जैसे कि इस दुनिया में और भी कई शरीफ़ हैं... नवाज शरीफ़, जाफ़र शरीफ़ ... वगैरह-वगैरह. बस एकदम वैसे ही.

    ReplyDelete
  31. ट्रेन की खट खट पट पट के मध्य भी सम्प्रेषण असर कर गया -
    सौ. रीता भाभी जी कोहँडे की सब्जी भी लजीज पकाती होँगीँ इसका विश्वास है .
    और् खीर भी बनवा ही लीजिये . प्रेतीक्षा ना करेँ :)
    - लावण्या

    ReplyDelete

आपको टिप्पणी करने के लिये अग्रिम धन्यवाद|

हिन्दी या अंग्रेजी में टिप्पणियों का स्वागत है|
--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय