पर जो भी मेहरारू दिखी, जेडगुडीय दिखी। आदमी सब हैरान परेशानश्च ही दिखे। लिहाजा जो दीखता है – वह वही होता है जिसमें मन भटकता है। आत्मा कहीं दीखती नहीं।
आत्मा के स्तर पर आरोहण सब के बस की बात नहीं। जैसे “युधिष्ठिर+५+कुकुर” चढ़े थे हिमालय पर और पंहुचे केवल फर्स्ट और लास्ट थे; वैसे ही आत्मा के स्तर पर आरोहण में फर्स्ट और लास्ट ही पंहुचते हैं। हम जैसे मध्यमार्गी सुजाता की खीर की इन्तजार ही करते रह जाते हैं।
चिरकुटों के भाग्य में न तो बिरियानी लिखी है न सुजाता की खीर। न इहलोक की मौज न बुद्धत्व। अत: आत्मा के स्तर पर आरोहण तो दिवास्वप्न है। उनके भाग्य में कोंहड़ा की तरकारी और बिना घी की रोटी ही लिखी है – रोज आफ्टर रोज! (डिस्क्लेमर – पत्नीजी पर कोई कटाक्ष इण्टेण्डेड नहीं है!)।
खैर, आप इष्टदेव जी की आत्मा की तस्वीर निहारें। हमने तो उनसे उनकी भौतिक तस्वीर मांगी थी – जो उन्होंने बड़ी चतुराई से मना कर दी। यह तस्वीर तो बड़ी ताऊलॉजिकल है। न ताऊ का पता है, न इस आत्मा का पता चलता है। आत्मा के स्तर पर आरोहण करें तो कैसे?!
मैं सांकृत्यायन जी से मिलना चाहता था। मैं बोधिसत्त्व से भी मिलना चाहता हूं। इन लोगों की आत्मा तो क्या पहचानूंगा, उतनी काबलियत नहीं है; पर इन लोगों का व्यक्तित्व जरूर देखना चाहूंगा। यह अवश्य सम्भव है कि अगर मिलूं तो अधिकांश समय चुपचाप बैठे रहने में निकल जाये। पर मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है। शायद बेहतर सम्प्रेषण।
(यह पोस्ट २५६२ स्वतन्त्रता सेनानी एक्स्प्रेस के डिब्बा नम्बर ४८८० में लिखी, गढ़ी और पब्लिश की गयी। आप समझ सकते हैं कि पटरी और डिब्बा, दोनो संतोषजनक हैं। अन्यथा, हिचकोले खाते सफर में यह काम कैसे हो पाता! :-)
उम्दा ट्रेनीय पोस्ट
ReplyDeleteहमारी तो आत्मा इतनी पारदर्शी है कि चित्र में आत्मा के सिवाय सारा कमरा नजर आ रहा है। सो चिपकाने का कोई लाभ नहीं।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
भारतीय रेलों का प्रचार इस पोस्ट से किया जा सकता है- रेल पर चलिये ,आत्मा से जुड़िये।
ReplyDeleteकहते हैं कि चित्र बोलते है - फिर, भले ही वो ताऊलोजिकल हो या सैकोलोजिकल। इस चित्र के सैकोलोजिक विश्लेषण से यह पता चलता है कि यह अपनी आत्मा को तुरंत इस पार्थिव शरीर को त्यागने की तैयारी में है:)
ReplyDeleteयह बात तो दुरुस्त है पर मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है। शायद बेहतर सम्प्रेषण। और विश्वसनीय भी!
ReplyDeleteपरंतु यह पोस्ट पटरी और सभी प्रकार के डिब्बे के संतोषजनक होने का प्रमाण-पत्र नहीँ। पटरी तो कॉमन है, पर आप तो विशिष्ट अधिकारी डिब्बे में ही सवार थे न? न कि जन सामान्य के डिब्बे मे! चलो बेहतर तो है ही कि आप रेल सेवाओं की गुणवत्ता परखने की नयी नयी युक्तियाँ ईजाद करते हैं।
आपने डिब्बा पटरी सब कहा लेकिन चलती ट्रेन का डिब्बा नही कहा, जुडीगुडी और परेशान आत्माओं को कनाट प्लेस में देखकर रूके हुए डिब्बे में भी हिचकोले खाने की संभावना बनी रहती है।
ReplyDeleteहा!हा!हा!हा!हा!हा!हा!
ReplyDeleteआत्मा की तस्वीर?
हा!हा!हा!हा!
यह पढ़ कर तो कई कई भाव स्फुलिंगिया गए -किस किस को यहाँ उकेरूँ .चलिए स्थाई भाव लेता हूँ -ब्राहमण को कोहडा मिलता जाय और कुछ नही न मिले तो भी वह इस भव सागर को हँसी खुशी पार कर लेगा -मैं श्रीमती रीता पाण्डेय जी के इस सनातनी नुस्खे की हिमायत करता हूँ ! और रही सांकृत्यायन की बात तो तय जान लीजिये कि जैसी कि मेरी यह गट फीलींग है कि यह शख्श अपनी आत्मा से भी ज्यादा भयंकर हो सकता है -क्योंकि चिंतन के स्तर से यह निश्चित ही बन्रार्ड शा का अवतर लगे है -साफ़ साफ बचे ! बधाई !
ReplyDelete@ चंद्रमौलेश्वर प्रसाद (cmpershad> यह अपनी आत्मा को तुरंत इस पार्थिव शरीर को त्यागने की तैयारी में है:)
ReplyDeleteमुझे तो लगता है कि यह आत्मा दर्शक को आत्मलोक पंहुचाने में तत्पर दीखती है!
यह अवश्य सम्भव है कि अगर मिलूं तो अधिकांश समय चुपचाप बैठे रहने में निकल जाये। पर मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है। शायद बेहतर सम्प्रेषण।
ReplyDelete" bhut shi khaa aapne....maun me bhi smpreshn hota hai.....lakin ye janne ki jigysa bhi kam nahi ki in tasveron ke piche kaun vyktitav hain.."
Regards
@(यह पोस्ट २५६२ स्वतन्त्रता सेनानी एक्स्प्रेस के डिब्बा नम्बर ४८८० में लिखी, गढ़ी और पब्लिश की गयी। आप समझ सकते हैं कि पटरी और डिब्बा, दोनो संतोषजनक हैं। अन्यथा, हिचकोले खाते सफर में यह काम कैसे हो पाता! :-)
ReplyDeleteआपकी पोस्ट चुनाव आचार संहिता के दायरे में आ रही है :)
क्या केने क्या केने। ट्रेनों का लेवल वाकई सुधऱ गया है। खास तौर पर ट्रेन इन्कवायरी का स्तर बहुत सुधऱ गया है। पहले तो स्टेशन पर फोन मिलाना ही मशक्कत का काम होता था। अब तो झटके से जवाब मिलता है। लालूजी के दो काम बहुत महत्वपूर्ण हैं एक तो यही कि इन्कवायरी का सुविधा हो गयी कि गाड़ी कित्ती लेट है। मतलब गाड़ी लेट न हों, इसमें सुधार की जरुरत बाकी है, पर सूचना मिल जाती है। दूसरा इंटरनेट पर रिजर्वेशन कराने की सुविधा, इससे आलसियों की मौज आ गयी है। पहले टिकट कटाना खासा पराक्रम का काम समझा जाता था। अब इंटरनेट ने मजे कर दिये हैं। और कमाल यह है कि आईआरसीटीसी की वैबसाइट बावजूद सरकारी होने के बहुतै ही धांसू काम करती है। जमाये रहिये।
ReplyDelete"पर मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है। शायद बेहतर सम्प्रेषण।"
ReplyDeleteसही कहा आपने...एक कथा याद आ गयी जिसमें एक बार कबीर और फरीद दोनों एक जगह पर पहली बार मिले और दो घंटों तक चुपचाप बैठे रहे...शिष्य उत्सुकता वश देखते रहे की कब ये दो महान व्यक्ति बात करें और कब शब्दों के फूल झड़ें...लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ...उनके बिछुड़ने पर शिष्यों ने पूछा की कबीर जी आपने बात क्यूँ नहीं की तो कबीर जी हंसते हुए कहा की हम दोनों चुप ही कब रहे लगातार बात करते रहे अब तुम लोग सुन नहीं पाए तो इसमें हमारा क्या दोष...
आप भी जेड़ गुडी को जानने लग गए हैं देख हर्ष हुआ...जल्द ही बालीवुड के अभिनेता और अभिनेत्रियों को भी पहचानने लगेंगे...शुरुआत हो चुकी है...
नीरज
आत्म सम्प्रेषण तो मौन में ही होता है, शब्दों को तो मन सुनता है .
ReplyDeleteरेल की हलचल में एक स्थिर लेख अच्छा है .
पर मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है..bilkul
ReplyDeleteआपकी आत्मा ने ड्यूटी समय में ब्लॉग लिखने की स्वीकृति दे दी ?
ReplyDeleteइस बार की पोस्ट से खुद को जोड़ नही पाया.. फिर भी बहुत कुछ है जिसे साथ ले जा रहा हू..
ReplyDelete@ हेम पाण्डेय - मेरा ड्यूटी का समय और व्यक्तिगत समय गड्ड-मड्ड है। मैं सामान्यत: गाड़ियां गिनना सवेरे पौने छ बजे प्रारम्भ करता हूं और रात सवा दस तक लिपटा रहता हूं। इसके अलावा आपत दशा में कभी भी काम में लगना होता है।
ReplyDeleteऔर पिछले कुछ महीने, जब कोहरा बहुत पड़ा, शरीर और आत्मा बहुत कष्ट में थे। :)
आप निश्चिंत रहें, नौकरी से इनजस्टिस नहीं कर रही है मेरी आत्मा। :)
आज तो बडी आत्मकारक पोस्ट है. और रेल के बोगी से पोस्ट पबलिश हुई यह जानकार अच्छा लगा कि हम प्रोग्रेस कर रहे हैं. इसीलिये हमारे इ-मेल द्वारा दिये गये सजेशन का रेल्वे से पत्र द्वारा बाकयदा जवाब आया.
ReplyDeleteबहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
आत्मा की फ़ोटू, अजी अभी नही, जब ऊपर जायेगे तो आप को मेल से भेज देगे अपनी आत्मा की फ़ोटू, आप उसे कही भी लगये, लेकिन बिल अभी अदा कर दे , दोवारा थोडे आऊगा बिल लेने.
ReplyDeleteधन्यवाद
इष्टदेव सांकृत्यायन जी की आत्मा के चित्र के सम्बन्ध में,
ReplyDeleteश्रीमदभगवद्गीता के अनुसार, "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि...", अब उनकी खुद की आत्मा तो बुलेटप्रूफ़ है लेकिन दूसरों को अंग्रेजी कट्टा लेकर हडका रहे हैं। बडी नाइंसाफ़ी है, :-)
मिलना तो हमें भी बहुत लोगों से है और भांग एट गंगा तट भी चलाना है। देखें कब फ़ुरसत मिलती है।
पांडेय जी,
ReplyDeleteकाश आपके रेल मंत्री लालू जी भी आपका इ वाला पोस्टवा पढ लेते तो दिमाग में कुछ बुदि़ध घुस जाती। दल के दलदल से निकलकर बिहार अउर देश के लोगन खातिर कुछ निक बात सोचते। साला अउर मेहरारु से फुरसत पाकर ही न यह सब कुछ हो पावेगा, पर उन्हें इसका सहूर कहां-
भाई ज्ञान जी,
ReplyDeleteआप ने चिंतापरक लेख जिस सहज अंदाज में रोचक शैली में गंभीर विषय को भी अपने शुभचिंतकों को परोसा, मन को तृप्त कर गया.
बधाई स्वीकार करे.
आपके लेख की निम्न पंक्तियों से मै पूर्णतः सहमत हूँ............................
* "जो दीखता है – वह वही होता है जिसमें मन भटकता है। आत्मा कहीं दीखती नहीं।"
आत्मा वस्तुतः महसूस करने वाली संग है, जिसका जब तक साथ, जीवन चलायमान वरना जीवन निष्प्राण.
इससे साक्षात्कार विरले ही कर पाते हैं, जो कर न पाएं वही "अंगूर खट्टे हैं" जैसा कहने के हालात में होते हैं. यह व्यक्ति-व्यक्ति के ज्ञान स्तर पर निर्भर करता है................
* "मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है। शायद बेहतर सम्प्रेषण।"
वस्तुतः मैंने भी कही पढ़ा था कि
"यदि आप मेरे मौन को नहीं समझ सकते तो आप मेरी बातों को भी नहीं समझ सकते हैं" कहने का आशय यह कि संप्रेषण किसी भाषा, किसी उवाच का मोहताज नहीं होता, ऐसा कई बार होता है कि कोई आपसे कुछ भी कहने वाला नहीं होता पर लगता है कि कोई आपसे कुछ कह रहा है, जिसे सिर्फ और सिर्फ आप ही सुन और महसूस कर सकतें है. बाद में वैसी ही घटना मूर्तरूप भी ले लेती है..............................
और भाई पुछल्ला
* * "पटरी और डिब्बा, दोनो संतोषजनक हैं। अन्यथा, हिचकोले खाते सफर में यह काम कैसे हो पाता!"
तो चुनाव आचार संहिता का ख्याल कर लिखा है न. आप भी रेलवे में, लालू भाई भी........................
कल से आपको यह कमेन्ट प्रेषित करना चाह रहा हूँ और यह चौथा प्रयास है. किसी न किसी कारण से बात पूरी होने के पहले ही तकनीकी बाधा आने से तीन प्रयास व्यर्थ हो गए, विचार प्रस्तुति में शब्द भी बदल गए क्योंकि जब जो विचार, शब्द मन में उत्पन्न होते है, यदि सहेजे न जा सकें तो दुबारा उन्ही शब्दों, विचारों का प्रयोग होना मुश्किल हो जाता है, फिर भी प्रयास और जैसे भी बन पड़ा, प्रेषित कर रहा हूँ.
मेरे पूर्व के तीनो प्रयास शायद "मौन संप्रेषण" की भेंट चढ़ गए..................और इस संप्रेषण को आप ही बेहतर समझ सकते है....................
चन्द्र मोहन गुप्त
जो चीज़ आसानी से मिल जाये उस की कीमत कम हो जाती है'.चाहे किसी का परिचय हो क्यूँ नहीं!
ReplyDelete'मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है'
-आप ने train में यह पोस्ट लिखी है!
बहुत बढ़िया!
आत्मा के चित्र दर्शनोपरांत भी ऐसा संप्रेषण.......लाजवाब !!
ReplyDeleteवाकई भारतीय रेल प्रगति की राह पर है जो आपने उसमे ऐसी पोस्ट ठेली ...बाकी पोस्ट को समझने के लिए लगता है पिछले कई दिनों की दूसरी पोस्ट पढ़नी पढेगी ...
ReplyDeleteमतलब आपसे मिलने के लिए आत्मा की फोटू तैयार करनी पड़ेगी. मैं भी कुछ भारी-भारी किताबें (फिल्में चलेगी क्या?) अपनी प्रोफाइल में लिखता हूँ. शायद हमसे भी मिलने का मन हो जाय आपका :-)
ReplyDeleteआत्मा की तस्वीर के दीदार भी ब्लागजगत में ही संभव हैं।
ReplyDeleteमंडन मिसिरों की इस चर्चा मेंं बाकी सब तो ठीक है लेकिन कोंहड़ा को इतना डाउन मार्केट न समझा जाए. मंदी में बड़े बड़े भाग्यवानों की इज्जत बचा रहा है यह कद्दू. पका हुए मीठा कोंहड़ा और उसमें थोड़ी सी खटाई और मंदी आंच में पकी उसकी तरकारी, जो जितनी बार खाए उतनी बार ले चटखारी. चाहे सूखी रोटी हो चाहे तर पूड़ी, चाहे चिरकुट हों या चौधरी सब की हसरत होती है पूरी. वैसे चिरकुट और गरीब में फर्क होता है.इस पर चर्चा बाद में.
ReplyDeleteबाप रे! आप तो हमारी बिरादरी यानी कि पत्रकारों से भी ज़्यादा ख़तरनाक मालूम होते हैं. मैने तो सोचा था कि आप ऐसे ही शिनाख़्त करने के लिए फोटो चाहते हैं. ताकि कहीं मिलने पर आसानी से पहचाना जा सके. पर आपने तो पत्रकारों जैसा काम किया. हम तो जानते थे कि ऐसा काम अकसर हमीं लोग करते हैं. यानी राजनेताओं-सरकारी अफसरों से अनौपचारिक बातचीत को इंटरव्यू बता कर छाप देते हैं. पर आप भी ऐसा काम कर सकते हैं.
ReplyDeleteवैसे यह सही है कि यह मेरी आत्मा की ही छवि है. पूरे देश ही नहीं, दुनिया भर में भ्रष्ट्राचार, भाई-भतीजावाद, शोषण, उत्पीड़न, चोरों की चांदी का जो आलम देख रहा हूं, उससे इच्छा तो बार-बार यही होती है कि अभी और यहीं इसे बनाने के लिए ज़िम्मेदार सभी तत्वों को एक लाइन से खड़ा करके धांय-धांय कर दूं. पर क्या बताऊं, कर नहीं पाता. इसलिए ऊपर-ऊपर शरीफ़ बना रहता हूं. बिलकुल वैसे ही जैसे कि इस दुनिया में और भी कई शरीफ़ हैं... नवाज शरीफ़, जाफ़र शरीफ़ ... वगैरह-वगैरह. बस एकदम वैसे ही.
ट्रेन की खट खट पट पट के मध्य भी सम्प्रेषण असर कर गया -
ReplyDeleteसौ. रीता भाभी जी कोहँडे की सब्जी भी लजीज पकाती होँगीँ इसका विश्वास है .
और् खीर भी बनवा ही लीजिये . प्रेतीक्षा ना करेँ :)
- लावण्या