वह बगुला अकेला था। झुण्ड में नहीं। दूर दूर तक और कोई बगुला नहीं था। इस प्रकार का अकेला जीव मुझे जोनाथन लिविंगस्टन सीगल लगता है। मुझे लगा कि मेरा कैमरा उसकी फोटो नहीं ले पायेगा। पर शायद कुछ सीगलीयता मेरे कैमरे में भी आ गयी थी। उसकी फोटो उतर आई।
बगुला मुझे ध्यान की पराकाष्ठा का जीव लगता है। ध्यानजीवी है। ध्यान पर ही उसका भोजन निर्भर है। इतना कंसंट्रेशन हममें हो जाये तो लोक भी सुधर जाये और परलोक भी। हे प्रभु हमें बगुले का ध्यान-वर दो।खैर बगुले को लग गया कि हमारे रूप में अध्यानी पास आ रहा है। सो गुरुमन्त्र दिये बगैर बकुलराज उड़ गये। मेरे पास गंगा किनारे से लौटने का ही विकल्प बचा।
जीवन में उष्ट्र-माधुर्य तभी है, जब निस्पृह भाव से, जो भी लादा जाये, वह लादने को तैयार हों हम।
पर वापसी में ऊंटदेव मिल गये जो गोबर की खाद के लदान के लिये बैठने की प्रक्रिया में थे।
बगुले का ध्यान न मिल सके, ऊंट की सुन्दरता और ऊंचाई ही मिल जाये जीवन में। बहुत साल जीने के हैं – भगवान न जाने क्या देंगे! न जाने किस करवट बिठायेंगे। यही बगुला-ऊंट-कुकुर-बिलार-बकरी-भैंस दिखाते ही तत्वज्ञान देदें तो महती कृपा। निरर्थक आत्मदर्प से तो बचा रहेगा यह जीवन।
आजकल ऊंट बहुत दीखता है – कछार से लौकी-कोंहड़ा ले कर मण्डी जाते अक्सर दीखता है। खाद भी लादता है, यह अब पता चला। जीवन में उष्ट्र-माधुर्य तभी है, जब निस्पृह भाव से, जो भी लादा जाये, वह लादने को तैयार हों हम।
आइये तैयार हों लदने को, नित्य की समस्याओं से! समस्यायें चाहे लौकी-कोंहड़ा हों या चाहे गोबर!
जोनाथन लिविंग्स्टन सीगल:
आप बगुले की तरह ध्यान चाहते हैं उंट सी लदान चाहते हैं! क्या क्या लेकर धरेंगे। कुछ तो जैसा है वैसा रहने देंगे कि घर के सारे पर्दे बदलने की तरह सब आदतें बदल डालेंगे!
ReplyDeleteएक और दत्तात्रेय रूपाकार ले रहा है ! हर्ष ! हर्ष !!
ReplyDeleteयह तो सच ही है -काक चेष्टा बकुल ध्यानम
ReplyDeleteइन्सान सीखना चाहे
ReplyDeleteतब हमारे आस पास
और भीतर भी बहुत से गुरु हैँ
आत्म दर्प से बचे रहना
ईश्वर की विशेष कृपा से ही सँभव होता है
..जैसे बगुले
के पीछे घास से झुकना सीखेँ
और ऊँट अल्ल्हाबाद मेँ देख विस्मय हुआ -
ये नई घटना है क्या ?
हमेँ तो लगा ये राजस्थान मेँ ही दीखते हैँ
- लावण्या
इन दोनों की ज़रुरत तो मुझे है... न बगुले सा ध्यान मिला न ऊँट सी ऊंचाई.
ReplyDeleteमन चंचल होता है शायद यही बताना चाहते हैं सब को।
ReplyDeleteवैसे ऊँट के बोझा ढोने की सीमा होती है।
"इतना कंसंट्रेशन हममें हो जाये तो लोक भी सुधर जाये और परलोक भी। "
ReplyDeleteतो चलिए ना, रामदेव बाबा के पास चलते हैं:)
ऐसा लगा मनो अंतरात्मा बोल रही हो. मुक्ति मार्ग में अग्रसर होने के लिए यह दोनों आवश्यक तो हैं. मष्तिष्क में मिक्सी चल रही है. आभार
ReplyDeleteअच्छा हुआ रास्ते में हाथी न मिला वरना तो आप उस मोड में आ लिए थे कि स्वतः भावविभोर कह उठते कि हे गजराज!! अपका शरीर मुझे मिल जाये. वो खुशी खुशी देकर सटक भी लेता और आप हमारी तरह दाँत चियारे पछता रहे होते.
ReplyDeleteजय हो आपकी...वैसे लदान की सीख सीखने वाली है, अतः साधुवाद!!!
जीवन में उष्ट्र-माधुर्य तभी है, जब निस्पृह भाव से, जो भी लादा जाये, वह लादने को तैयार हों हम।
ReplyDeleteक्या बात कह दी सरजी आज..
मन किसी के बांधे नहीं बंधता सर जी .जिसने बाँध लिया वो बुद्ध हो गया !
ReplyDeleteएकाग्रता के लिए आतमौर से बगुला को याद किया जाता है, पर बहुत से सांप ऐसे होते हैं जो अपने शिकार के पास आने की प्रतीक्षा में घंटो बिना हिले डुले बैठे रहते हैं।
ReplyDeleteहजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर .................
ReplyDeleteप्रणाम
ReplyDeleteबगुला जैसा ध्यान और ऊंट जैसी ताकत (शायद केवल ऊंट ही बोझ लाद कर खडा होता है )मिल जाये तो जीवन बिना कष्ट के गुजर जाये .
और पशु-पंखी सोचते होंगे, प्रभू मानव जैसी बुद्धी दे दो...
ReplyDeleteबचपन मे बगुले और केकड़े की तो कहानी भी पढ़ी है । :)
ReplyDeleteबगुले और ऊंट को देखकर यह विचार पैदा होना शायद आत्मचिन्तन का लक्षण है. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
सीखने के लिए तो सृष्टि का प्रत्येक जीव प्रेरणा स्रोत है। बस, एक नजर चाहिए।
ReplyDeleteवकोध्यान ,उष्ट्र काण्ड निश्चित ही लुभा तो रहा है और आपकी परखी नज़र उसकी तो बात ही कुछ और है . { कुछ लोग बुरा न मान जाए इस लाइन पर }
ReplyDeleteबगुला ऊंट के साथ साथ छोटा हाथी आपके कैमरे को क्यों नजर नहीं आया . बहुत रोचक सचित्र पोस्ट बधाई .
ReplyDeleteसच कहूं तो मैं ऊंट की उंचाई या सुंदरता चाहने की बजाय बगुले का ध्यान पाना चाहूंगा, क्योंकि मेरी नज़र में एक इसी बात का अभाव है मुझमे, वह है एकाग्रता।
ReplyDeleteबहुत ही गुनने वाली पोस्ट।
वाह वाह क्या मालगाड़ी दर्शन ठेला है कि निस्पृह भाव से जो कुछ लादा जाये, उसे ठेले जाने के लिए तैयार रहें। मालगाड़ी डिवीजन में जाने पर तो आप फिलोसोफिर हो लिये जी। मालगाड़ी दर्शन पर कुछ और पोस्ट हों जी।
ReplyDeleteham to upar aalok ji ki baat sun kar chakit ho gaye...aisa jeevan darshan maalgadi division se bhi aa sakta hai, kabhi socha hi nahin tha.
ReplyDeletebagule ka dhyan mil jaaye to kya baat hai, hamara to man kisi cheez par tikta hi nahin.
aap bhi kis kis cheez me se post likhne ka material nikal lete hain :)
जीवन में उष्ट्र-माधुर्य तभी है, जब निस्पृह भाव से, जो भी लादा जाये, वह लादने को तैयार हों हम।
ReplyDeleteबहुत उम्दा विश्लेषण है बड़े भाई. कृतकृत्य हुए हम.
ठीक कह रहे हैं समीर भाई..अच्छा हुआ जो रास्ते में आपको गजराज नहीं मिले :)
ReplyDeleteज्ञानदत्त पाण्डेय साहब,
ReplyDeleteसादर वन्दे,
बगुला, ऊँट के प्रतीकों से जीवन की सच्चाईयों से रु-ब-रू कराती रचना बहुत सिखाती भी है खासकर दृष्टीकोण कितना पैना होना चाहिये किसी लेखक के लिये.
साधुवाद.
मुकेश कुमार तिवारी
रेगिस्तानी जहाज संकट मे है और तेजी से घट रहे है। क्यो घट रहे है? यह जानने के लिये इस लेख पर नजर डाले
ReplyDeleteReasons for the decrease include a loss of grasslands to development and the growing use of modern transportation.
http://www.wwenglish.com/en/voa/spec/2009/01/2009011329633.htm
जय हो ! ज्ञान सर्वत्र बिखरा पड़ा है बस आप जैसी दृष्टि चाहिए.
ReplyDeleteऊँट में कोई रूचि नहीं है, हाँ यदि बगुले का ध्यान मंत्र मिले तो मेरे को भी अवश्य बताईयेगा! :)
ReplyDeleteवैसे आपके ब्लॉग के साथ पता नहीं पिछले एक-डेढ़ महीने से क्या समस्या आ रही है, पोस्ट वाला पन्ना एक बार में पूरा लोड ही नहीं होता, रिफ्रेश करने के बाद ही पूरा लोड होता है। ऐसी समस्या किसी अन्य वर्डप्रैस अथवा ब्लॉगस्पॉट वाले ब्लॉग में नहीं आ रही। आपकी तरफ़ मामला ठीक है तो लगता है अपने इंटरनेट कनेक्शन का ही कोई बैर है आपके ब्लॉग से! :)
ऊँट में कोई रूचि नहीं है, हाँ यदि बगुले का ध्यान मंत्र मिले तो मेरे को भी अवश्य बताईयेगा! :)
ReplyDeleteवैसे आपके ब्लॉग के साथ पता नहीं पिछले एक-डेढ़ महीने से क्या समस्या आ रही है, पोस्ट वाला पन्ना एक बार में पूरा लोड ही नहीं होता, रिफ्रेश करने के बाद ही पूरा लोड होता है। ऐसी समस्या किसी अन्य वर्डप्रैस अथवा ब्लॉगस्पॉट वाले ब्लॉग में नहीं आ रही। आपकी तरफ़ मामला ठीक है तो लगता है अपने इंटरनेट कनेक्शन का ही कोई बैर है आपके ब्लॉग से! :)
ज्ञानदत्त पाण्डेय साहब,
ReplyDeleteसादर वन्दे,
बगुला, ऊँट के प्रतीकों से जीवन की सच्चाईयों से रु-ब-रू कराती रचना बहुत सिखाती भी है खासकर दृष्टीकोण कितना पैना होना चाहिये किसी लेखक के लिये.
साधुवाद.
मुकेश कुमार तिवारी
बगुला ऊंट के साथ साथ छोटा हाथी आपके कैमरे को क्यों नजर नहीं आया . बहुत रोचक सचित्र पोस्ट बधाई .
ReplyDeleteहजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर .................
ReplyDeleteअच्छा हुआ रास्ते में हाथी न मिला वरना तो आप उस मोड में आ लिए थे कि स्वतः भावविभोर कह उठते कि हे गजराज!! अपका शरीर मुझे मिल जाये. वो खुशी खुशी देकर सटक भी लेता और आप हमारी तरह दाँत चियारे पछता रहे होते.
ReplyDeleteजय हो आपकी...वैसे लदान की सीख सीखने वाली है, अतः साधुवाद!!!
इन्सान सीखना चाहे
ReplyDeleteतब हमारे आस पास
और भीतर भी बहुत से गुरु हैँ
आत्म दर्प से बचे रहना
ईश्वर की विशेष कृपा से ही सँभव होता है
..जैसे बगुले
के पीछे घास से झुकना सीखेँ
और ऊँट अल्ल्हाबाद मेँ देख विस्मय हुआ -
ये नई घटना है क्या ?
हमेँ तो लगा ये राजस्थान मेँ ही दीखते हैँ
- लावण्या