|| MERI MAANSIK HALCHAL ||
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Tuesday, September 30, 2008
ढ़पोरशंखी कर्मकाण्ड और बौराये लोग
सामान्यत: हिन्दी का अखबार मेरे हाथ नहीं लगता। सवेरे मेरे पिताजी पढ़ते हैं। उसके बाद मैं काम में व्यस्त हो जाता हूं। निम्न मध्यवर्गीय आस-पड़ोस के चलते दिन में वह अखबार आस पड़ोस वाले मांग ले जाते हैं। शाम के समय घर लौटने पर वह दीखता नहीं और दीखता भी है तो भांति-भांति के लोगों द्वारा चीथे जाने के कारण उसकी दशा पढ़ने योग्य नहीं होती।
छुट्टी के दिन हिन्दी अखबार हाथ लग गया। पहले पन्ने की एक स्थानीय खबर बहुत अजीब लगी। जसरा के पास घूरपुर में पुलीस चौकी पर हमला किया गया था।
"मौनीबाबा" की अगवाई में एक ग्लास फैक्टरी में बने मन्दिर में यज्ञ करने के पक्ष में थे लोग। मौनीबाबा घूरपुर से गुजरते समय वहां डेरा डाल गये थे। उन्होंने लोगों को कहा कि बहुत बड़ी विपत्ति आसन्न है और जरूरत है एक यज्ञ की। लगे हाथ ग्लास फैक्टरी के मन्दिर में कीर्तन प्रारम्भ हो गया। यज्ञ का इन्तजाम होने लगा। वेदिका के लिये जमीन खोदने लगे लोग। पर जब फैक्टरी के मालिक ने पुलीस को रिपोर्ट की तो पुलीस ने लोगों को रोका। मौनीबाबा को चित्रकूट रवाना कर दिया गया। कुछ लोगों को पकड़ लिया पुलीस ने।
उसके बाद लोगों ने किया थाने का घेराव और चक्काजाम। जिला प्रशासन ने अन्तत: मौनी बाबा को वापस आने के लिये मनाने की बात कही लोगों के प्रतिनिधियों से।
अजीब लोग हैं। किसी के प्राइवेट परिसर में जबरी यज्ञ करने लगते हैं। रोकने पर उग्र हो जाते हैं। और कोई काम नहीं। धार्मिक कर्मकाण्डों ने लोगों को एक आसान बहाना दे दिया है जीने का। आर्थिक चौपटपन है मानिकपुर, जसरा, शंकरगढ़ चित्रकूट के बुन्देलखण्डी परिदृष्य में। अत: लोग या तो बन्दूक-कट्टे की बात करते हैं; या देवी-भवानी सिद्ध करने में लग जाते हैं। अनिष्ट से बचने को कर्म नहीं, यज्ञ-कीर्तन रास आते हैं। रोकने पर आग लगाने, पथराव और चक्का जाम को पर्याप्त ऊर्जा है लोगों में।
जकड़े है जड़ प्रदेश को ढ़पोरशंखी धार्मिक कर्मकाण्ड और बौराये हैं लोग। बहुत जमाने से यह दशा है।
ढ़पोरशंख शब्द का प्रयोग तो ठसक कर कर लिया। पर ढ़पोरशंख की कथा क्या है? यह शब्द तो मिला नहीं शब्दकोश में।
यज्ञ कर्म तो बिना राग द्वेष के किये जाने हैं। बिना कर्म-फल की आशा के। आप /९-११/गीता/ के तात्पर्य को देखें। फिर बलात किसी जमीन पर कीर्तन-यज्ञ और दंगा-फसाद; यह कौन सा धर्म है जी?! और कौन सा कर्म?!
कल टिप्पणी में अशोक पाण्डेय ने कहा कि देहात के भारत में तो पी-फैक्टर नहीं सी-फैक्टर चलेगा। यानी जाति का गुणक। बात तो सही लगती है उनकी। पर मैं तो अभी भी कहूंगा कि राजनीतिक दल पी-फैक्टर की तलाश करें; साथ में सी-फैक्टर की समीकरण भी जमा लें तो बहुत बढ़िया!
और अन्तिम-मोस्ट पुच्छल्ला -
इन्द्र जी के ब्लॉग पर यह पोस्ट में है कि अमरीकी राष्ट्रपतीय चुनाव में अगर निर्णय गूगल के इन्दराज से होना हो तो ओबामा जीते। उनकी ६४० लाख एन्ट्रीज हैं जबकि मेक्केन की कुल ४७४ लाख; गूगल पर।
अपडेट पुच्छल्ला:
वाह! सत्यार्थमित्र ने ढ़पोरशंख की कथा (“अहम् ढपोर शंखनम्, वदामि च ददामि न”) लगा ही दी अपनी पोस्ट पर। इसे कहते हैं - ब्लॉगर-सिनर्जी! आप वह पोस्ट देखने का कष्ट करें।
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धन्य हमारी कब्ज़ा संस्कृति! पड़ोसी का चबूतरा हो या मोहल्ले का चौराहा - मठिया या मजार से शुरू करो और शौपिंग माल तक ले जाओ.
ReplyDeleteजकड़े है जड़ प्रदेश को ढ़पोरशंखी धार्मिक कर्मकाण्ड और बौराये हैं लोग।
ReplyDelete-इससे बेहतर कैसा चित्रण हो सकता है अभी का! आप धन्य हैं.
सख्ती हम कर नहीं सकते किसी के साथ । उदारमना भारतीयों ने दो हजार साल तक तो यूं ही विदेशियों को आने-जाने दिया अपने यहां । फिर जब राज करने की इच्छा जागी तो आराम से कहा , कर लो..इत्ते हम झपकी ले लेते हैं। भाई लोग सात समंदर से आए, पश्चिमी तट का एक टापू देखा , सोचा ,अपने रिश्तेदार को दहेज में दे सकते हैं। दे दिया। पराये माल का दहेज...ठाकरे के पुरखे सोते रहे। ये सब जो आप कह रहे हैं , हमारी विरासत है, थाती है, ऐसे ही कैस छोड़ दें इन्हें हम हिन्दुस्तानी?
ReplyDeleteअभी हालात और बिगडेंगे, लोगों को यह दूसरे की जमीन पर कैसे कब्जा किया जाय वाला चस्का बहुत भा रहा है और ऐसे मे ये ढोंगी-पाखंडी अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए अविवेकी जनता को और घेरेंगे। आसाराम जैसे आश्रम जुगाडु और जमीन फसाउ लोगों का उदाहरण लिया जा सकता है। जाने कब जाकर यह सब बंद होगा।
ReplyDeleteआज भी देश में अंधविश्वासों का बोलबाला है !
ReplyDeleteमुझे एक घटना याद हो आई.. मेरे घर के पास किसी डाक्टर के जमीन पर ऐसे ही भक्त गण जबरी एक छोटा सा मंदिर बना लिये थे.. डाक्टर साहब बेचारे पहले प्यार से बोले.. कोई ना माना.. बस ऐसे ही तोड़-फोड़ और मार कुटाई कि बात की लोगो ने..
ReplyDeleteउसके बाद डाक्टर साहब ने भी अपना बल प्रदर्शन दिखाया और उस मंदिर बनाने वाले मुख्य हिरो को जमकर पिटवाया.. साथ में दिन में दो बार चक्कर लगा आते थे कम से कम 10-15 बंदूकधारियों के साथ.. फिर मंदिर उखाड़ कर फिकवा दिये.. अब कोई ना था कुछ भी बोलने के लिये.. अब भला बंदूक के आगे कौन बोलेगा? :)
ये घटना पटना के शास्त्रीनगर की है.. शायद सन् 1999-00 की..
यह कर्मकाण्ड देश को नपुंसकता की और ढकेल रहा है। इसे हस्तमैथुन की संज्ञा देना उचित होगा।
ReplyDeleteउक्त क्षेत्र में ही नही बल्कि धार्मिक दादा गीरी के उदाहरण दिल्ली में सरकारी कार्यालय परिसरों में सरे आम देखे जा सकते हैं ! इनकम टेक्स, कस्टम आफिस के परिसरों में हवन, सत्य नारायण एवं नवदुर्गों पर समारोह धड़ल्ले से और बिना किसी पूर्व अनुमति के होते हैं ! यह सब आयोजन एक जूनून के ओतप्रोत होकर किए जाते हैं जिसमे किसी प्रशासन से कोई अनुमति और दखलन्दाजी की अपेक्षा एक धार्मिक अपराध माना जाता है !
ReplyDeleteबेहद प्रभावशाली लेख !
हिन्दी अखबारों में ऐसे ही खबरों की भीड़ होती है .....समाज की दुर्दशा मन को चिंतित तो करती ही है।
ReplyDeleteसमाज का एक बड़ा तबका अशिक्षित है. उससे भी बड़ा अर्द्ध-शिक्षित. जो तथाकथित पढ़े-लिखे हैं वे भी इन जैसे धूर्त बाबाओं के चक्कर लगाते दिख जाते हैं. लोगों में वैज्ञानिक सोच का पूर्ण अभाव है. आशा ही कर सकते हैं कि स्थिति बदले, मगर कैसे होगा ये?
ReplyDeleteढपोरशंख की कथा स्कूल में एक सर जी से सुनते थे. अब याद नहीं रही.
और ओबामा या मेक्केन, क्या हमें बहुत ज्यादा फर्क पड़ेगा? असल में तो स्थिति उलट रही है. ओबामा कह रहे हैं कि जरूरत हुई तो पाकिस्तान के अन्दर जाकर आतंकवादियों का सफाया करेंगे. उधर मेक्केन ऐसा कहने से बच रहे हैं.
आलोक पुराणिक जी की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी:
ReplyDeleteधर्म सब जगह विकट धंधा है, पर उत्तर भारत में निहायत फूहड़ धंधा है। कभी कभी लगता है कि साऊथ के देवी देवता कित्ते सौंदर्यबोध वाले हैं कि क्लासिकल सुनकर, गंगूबाई हंगल को सुनकर, सुब्बूलक्ष्मी को सुनकर प्रसन्न होते हैं। नार्थ के देवी देवता तो जागरण में लेटेस्ट फिल्मी ट्यून सुनते हैं। कैसा फर्क है, साऊथ और नार्थ में। पर इस संबंध में कुछ बोलने का मतलब है पिटाई।
आडम्बर और रूढ़ियों ने तो हिन्दू धर्म का बेड़ा पहले से गर्क कर रखा है। अब इसमें एक और बुराई जुड़ गयी है। भक्तिभाव के प्रदर्शन की होड़। इस बुराई का शिकार बहुत पढ़े-लिखे लोग भी हो रहे हैं।
ReplyDeleteढपोर शंख की कथा मुझे बचपन में बतायी गयी थी। याद करके आज ही सत्यार्थमित्र पर ठेलता हूँ।
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सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्रयम्बके गौरि नारायणी नमोस्तुते॥
शारदीय नवरात्रारम्भ पर हार्दिक शुभकामनाएं!
(सत्यार्थमित्र)
आप से पुरी तरह सहमत हुं। वैसे आलोक जी भी गलत नही कह रहे हैं।एक बार इलाहाबाद जीप खरीदने के लिये रेल से गया था,रेल मे ही एक पन्डे ने मुझ पर कब्जा कर लिया।उसे लाख समझाया मगर वो होटल के दरवाजे तक साथ गया।उसके बाद बडी मुश्किल से उसके कब्जे से मुक्त हुआ।दुसरे दिन संगम गया तो वहां भी नाव पर बैठे महराज ने सन्कल्प के नाम पर घेरने कि कोशिश की।जब आदमी पर कब्जा करने से नही चूकते तो ज़मीन कहां छोदने वाले हैं।बडी बेबाकी से लिखा आपने।वर्ना लठ लेकर पिछे लगने वालों की कमी नही है।
ReplyDelete.
ReplyDeleteअपुन ने पूरी पोस्ट तो पढ़ी नहीं, पर टिपिया दूँ .. क्या जाता है ?
तो, सरजी.. छुट्टी के दिन आप हिन्दी अख़बार पढ़ते हैं, वह भी हाथ लगने पर,
यानि ख़रीद कर नहीं ? इट इज़ नाट वर्थ स्पेन्डिंग मनी !
लेकिन यदि आज फास्ट न रखा हो तो,
लंच में पोटैटो ब्रिंज़ल वेजिटेबल विथ फ़्यू चपातीज़ तो लेंगे ही !
आज एवनिंग में थोड़ा टाइम स्पेयर करें..
मेरे रेज़िडेन्स पर ढपोरशंख की कथा होगी, उससे परिचय भी हो जायेगा..
और मुझे भी मलाल न रहेगा कि मेरे गुरु ने ढपोरशंख न जाना !
आपने सही कहा-लोग या तो बन्दूक-कट्टे की बात करते हैं; या देवी-भवानी सिद्ध करने में लग जाते हैं। अनिष्ट से बचने को कर्म नहीं, यज्ञ-कीर्तन रास आते हैं। रोकने पर आग लगाने, पथराव और चक्का जाम को पर्याप्त ऊर्जा है लोगों में।
ReplyDeleteधर्म के नाम पर ही तो लोगो को चलाया जा रहा है..
ReplyDeleteवैसे हिन्दी अख़बार पढ़ने में कोई बुराई नही है..
शायद इन धर्म के धंधेबाजों की दूकान हमारे यहाँ कभी बंद नही होगी !
ReplyDeleteबहुत शुभकामनाएं !
यहाँ बेंगळूरु में फ़ुटपाथ पर कुछ "मन्दिर" मिल जाएंगे।
ReplyDeleteइन्हें "मन्दिर" कहना कहाँ तक उचित है यह विवादास्पद हैं। कोई छत नहीं, केवल मूर्ति या एक शिवलिंग। कहीं कहीं तो रास्ते के ठीक बीच में ऐसे "मन्दिर" मिल जाएंगे।
मध्यवर्गीय और शिक्षित परिवार यहाँ कभी नहीं पधारते हैं। केवल कुछ गरीब लोग यहाँ पूजा करते हैं। यहाँ के "पूजारी" को शास्त्रों का कितना ज्ञान है, तथा कहाँ तक इस काम के लिए योग्य है यह भी विवादस्पद है।
इन्हें हटाने की किसी की हिम्मत नहीं है। कौन मुसीबत मोल लेगा! गरीब के पास चाहे पैसा न हो, पर वोट तो है। चलने दो ! आखिर इनको भी अधिकार है कहीं जाकर भगवान से प्रार्थना करने का। संपन्न लोगों और सवर्ण हिन्दुओं के मन्दिरों में भले ही इन लोगों का प्रवेश वर्जित नहीं, यह लोग हमारे मन्दिरों में प्रवेश करना नहीं चाहेंगे। हीन भावना से आज भी उन्हें मुक्ति नहीं मिली है।
आप हिन्दी की सेवा कर रहे हैं, इसके लिए साधुवाद। हिन्दुस्तानी एकेडेमी से जुड़कर हिन्दी के उन्नयन में अपना सक्रिय सहयोग करें।
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सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्रयम्बके गौरि नारायणी नमोस्तुते॥
शारदीय नवरात्र में माँ दुर्गा की कृपा से आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हों। हार्दिक शुभकामना!
(हिन्दुस्तानी एकेडेमी)
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अंधविश्वास और ऐसे बाबा लोगों से देश भरा है।
ReplyDeleteगंदा है, लेकिन धंधा है.. धर्म का धंधा। भावनाओं के शोषण पर चलता है यह धंधा। कुछ लोग धर्मानुरागी होने का पाखंड कर यह धंधा करते हैं, कुछ धर्मनिरपेक्षता का पाखंड कर। खुद तो धन के जुगाड़ में रहते हैं, जनता को भावनाओं के सागर में गोते लगवाते हैं। यह पाखंड ही इस देश के महान लोगों की पूंजी बन गयी है, यह पाखंड ही इस देश को रसातल में पहुंचा रहा है।
ReplyDeleteहमारे यहाँ पुरानी कहावत है ...जमीन कब्जानी हो तो वहां मन्दिर या कोई पीर रातो-रात खड़ा कर दो ....इसे कहते धर्म का सदुपोग
ReplyDeleteज्ञानजी के लिखे, ढपोरशँखकी बात
ReplyDeleteपढकर और आगे सत्यार्थमित्र जी की लिखी पूरी कथा पढकर खुशी हुई ..
धर्मान्धता ..कट्ट्तरता..दकियानूसी कर्मकाण्ड ये धर्म के विकृत स्वरुप हैँ ..चाहे कोई सा भी पँथ क्यूँ ना हो !
भारत मेँ, स्वयम को और समाज को देश के हित मेँ उपर उठाने के प्रयास करने और करवाने वालोँ की आवश्यकता है
- लावण्या
सही कहा आपने.अनाधिकार कब्जा संस्कृति में सबसे प्रभावशाली धर्मस्थलों के रूप में अधिकार करना ही होता है.
ReplyDeleteभारत मे जब तक अंधविश्वाशियो की फ़ोज रहे गी यह ऎसा ही होता रहेगा, यह कावडं अन्ध विशवाश नही तो क्या हे,मोनी बाबा को उलट टाग दो फ़िर उस से पुछो किस का बुरा वक्त हे.
ReplyDeleteधन्यवाद
अरे बंगळरु में ही क्यों दिल्ली के फुटपाथों पर भी आपको कई देवी देवता मिल जायेंगे । धीरे धीरे इनका स्थान बडा होने लगता है और बाद में तो छोटा मोटा मंदिर ही खडा हो जाता है । और शादी के पंडाल किस तरह बीच रास्ते में लग कर सारा ट्राफिक जाम कर देते हैं । This is a free country and everybody is free.
ReplyDeleteधर्म के नाम पर अधर्म करने वाले लोग मैदान में संगठित और सक्रिय हैं जबकि लोग या तो बन्द कमरों में बैठे कर शाब्दिक जुगाली कर रहे हें या फिर इस तरह टिपिया रहे हैं ।
ReplyDeleteसक्रिय दुर्जन, निष्क्रिय सज्जन ।
insaniyat ka paath padhana chahiye dharm aisakoi chalana chahiye
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