रविवार का दिन और सवेरे सवेरे रद्दी वाला रोका गया। घर की पिछले चार महीने की रद्दी बेचनी थी। पत्नीजी मुझे जाने कैसे इस बात में सक्षम मान रही थीं कि मैं उसके तोलने में टेनी मारने की जो हाथ की सफाई होती है, उसका तोड़ जानता हूं।
मैने भौतिक शास्त्र के मूल भूत नियमों के अनुसार वह तराजू की जिस भुजा में बाट रख कर रद्दीवाला तोल रहा था, उसमें आगे तोले जाने वाले अखबार रखने और बाट की जगह दूसरे भुजा में पहली बार तोले गये अखबार को बतौर बाट रखने को कहा।
यह आदेश सुन उस रद्दीवाले ने कहा – आप क्या कह रहे हैं? जैसा कहें वैसा तोल दूं। पर असली टेनी कैसे मारी जाती है, वह बताता हूं।
उसने हल्के से हाथ फिराऊ अन्दाज से एक भुजा दूसरे से छोटी कर दी। वह भुजा फ्री-मूविंग नहीं थी जो एक फलक्रम से नीचे लटक रही हो। उसने फिर कहा – अगर टेनी मारनी हो तो आप पकड़ न पायेंगे। पर आपने रेट पर मोल भाव नहीं किया है – सो मैं टेनी नहीं मारूंगा।
मैने उसे उसके अनुसार तोलने दिया। अन्तमें पुन: मैने पूछा – अच्छा बताओ कुछ टेनी मारी होगी या नहीं?
वह हंस कर बोला – नहीं। मारी भी होगी तो किलो में पचास-सौ ग्राम बराबर!
बन्दा मुझे पसन्द आया। नाम पूछा तो बोला – रामलाल। दिन भर में पच्चीस-तीस किलो रद्दी इकठ्ठी कर पाता है। उसने कहा कि एक किलो पर बारह आना/रुपया उसका बनता है। मैं यह मानता हूं कि यह बताने में भी उसने टेनी मारी होगी; पर फिर भी जो डाटा उसने बताया, उसे मॉडरेट भी कर लिया जाये तो भी बहुत ज्यादा नहीं कमाता होगा वह!
उद्धरण |
थामस एल फ्रीडमेन ने (अमरीकी अर्थव्यवस्था की चर्चा में) कहा:जॉर्ज डब्लू बुश ने कभी नहीं; एक बार भी नहीं; अमरीकी लोगों से कुछ मेहनत का काम करने को कहा। अगले राष्ट्रपति को यह लग्ज़री मिलने वाली नहीं। उन्हें हर आदमी को कुछ न कुछ कठिन करने को कहना ही होगा। |
टेनीमार के बयान पर कोई टेनी नहीं. फ्रीडमेन का उद्धरण पसंद आया.
ReplyDeleteमेरी माता जी रद्दी वाले से डील करने में एक्सपर्ट हैं | मैं इन कामों से थोड़ा दूर ही रहता हूँ| रद्दी वाले का कुछ हक़ बनता है की वो अमीरों को टेनी मारे ;)
ReplyDeleteअगले राष्ट्रपति को यह लग्ज़री मिलने वाली नहीं। उन्हें हर आदमी हे कुछ न कुछ कठिन करने को कहना ही होगा।
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सही कहा ! और वो रामलाल बँदा, टेनी मारकर कुछ अपने हिस्से कर रहा है !
- लावण्या
वाह,
ReplyDeleteइस पर तो हम लम्बी टिप्पणी करेंगे और एक किस्सा भी सुनायेंगे ।
१) कुछ तो टैलीपैथी है ब्लाग जगत में, कल रात को मैने अपने मेलबाक्स से डाक निकालने गया तो लगभग सारी रद्दी थी और मैं रद्दी वाले के बारे में सोच रहा था । यहाँ रद्दी भी एक सरदर्द है क्योंकि बिना डाक जांचे कूडे में फ़ेंक भी नहीं सकते, क्रेडिट कार्ड वाले बिना मांगे एडवांस चेक भेज देते हैं जिनकी भले ही जरूरत न हो लेकिन बिना फ़ाडे नहीं फ़ेंक सकते । बाकी सारी डाक में पिज्जा के बिना मांगे ऐड-कूपन, बैंक एकाउंट खोलने के आफ़र, फ़र्निचर और इन्स्योरेंस के आफ़र और भी सब बिना मतलब की चीजें होती हैं । मेरे हिसाब से हमारे अपार्टमेंट में बिना मांगे हर महीने लगभग २-३ किलो रद्दी आती है । लेकिन कोई रद्दी खरीदने वाला नहीं आता । लेकिन इसके अलावा कल मैं सोच रहा था कि इस सबको भेजने पर कितना खर्चा होता होगा और कितने पेड काटे जाते होंगे ।
२) भारत में हमारे कालेज में कम ही लोग होस्टल का कमरा ताला लगाकर रखते थे । एक दिन हमने अपने कुछ अन्य दोस्तों के साथ मिलकर जान पहचान से सब कमरो से अखबारों की रद्दी साफ़ करके रद्दी वाले को बेच दी और उन पैसों से शहर में जाकर मस्त वाला डिनर खाया :-)
क्या उद्धरण पेश किया है..रामलाल को हम भी जानते हैं जो कहता है..भईया, आप से कैसी कांटी...भाभी झूट्ठे शकयायिन रहती हैं..आप रहते हैं तो ही ठीक..बताईये, हम आपसे कमा कर कहाँ जाईब!!
ReplyDeleteरद्दीवाले टेनी मारने में उस्ताद होते हैं , खासकर उनके सामने , जो उन्हें पूरा मूल्य नहीं देना चाहते। जब उन्हें रेट आधे मिल रहे होते हैं , तो वे दुगुना भार तक तौलकर अपने पैसे वसूल कर लेते हैं। वैसा करने का हक भी है उन्हें। आखिर उनकी कमाई है ही कितनी , दिनभर माथापच्ची करने के बाद।
ReplyDeleteये काम तो मैं ने भी किया कल .... एक बार कभी कोशिश की थी मैं ने भी ..... लेकिन फिर कुछ सोच कर इस बात को हमेशा के लिए मन से निकाल दिया ... अब तो रद्दीवाले के ईमान पर पूरा विश्वास रखते हुए अपना काम करता हूँ.
ReplyDeleteइन मामलों में हम तो बहुत भोले हैं
ReplyDeleteइन छोटे मोटे रद्दीवालों, सबजी बेचने वालों वगैरह से तोल मोल करके शायद पाँच-दस रुपये बचा लेते हैं।
बाद में बड़े दूकानों में जाकर सौ दो सौ रुपये खोकर आते हैं।
कुछ साल पहले हमने यह रद्दी बेचना छोड़ दिया।
अपनी नौकरानी को भेंट कर देता हूँ।
वेतन के साथ, यह उसका perquisite है।
वह जानती है कहाँ, और कैसे इसका सही दाम एंठा जा सकता है।
न आप समझे और न भाभी। टेनी मारने वाले बहुत चालाक होते हैं। और टेनी मारने की यह कला किसी को नहीं बताते। पिछले आठ-दस सालों में ये हाई टेक भी हुए हैं। पहले लकड़ी की डंडी वाले तराजू लिए आते थे, अब इलेक्ट्रॉनिक तराजू लेकर। लेकिन टेनी मारना बंद नहीं करते। मेरे यहाँ रद्दी पेपर इस्तेमाल करने का उद्योग है। परचेजिंग के लिए शहर में एक स्थान पर जगह बनाई है। ये सभी संग्रहकर्ता वहीं अपना माल ले जाते हैं। वहाँ छह रुपए किलो में रद्दी ली जाती है। मेरा क्लर्क रद्दी का बंड़ल बांध कर कार में डाल देता है। अदालत से वापसी पर उस के यहाँ तुलवा देता है। हो सकता है वहाँ इलाहाबाद में भी यह सुविधा हो।
ReplyDeleteविश्वनाथजी सही कह रहे हैं। इत्ती झाऊं झाऊं के बाद सौ दौ सौ बचा भी लिये तो क्या। झेलू क्षमता विकसित कीजिये। वैसे भी कितना भी साबित कर लीजिये, पत्नी नही मानेंगी कि आप सच्ची में समझदार, कुशल और होशियार टाइप हजबैंड है। किसी की नहीं मानतीं। ये रुल है।
ReplyDeleteयह वाक़या तो रद्दी वाले को अखबार बेचने पर अक्सर होता आया है -मगर इतना सूक्ष्म विश्लेषण कभी किया नहीं -तभी तो आप डिफ़रेंट हैं !
ReplyDelete"आपने रेट पर मोल भाव नहीं किया है – सो मैं टेनी नहीं मारूंगा"
ReplyDeleteयही बात है.. हम भाव ताव करके उसका profit कम करते है.. और वो टैनी मार कर profit बढा़ता है.. balance..
हमारी रद्दी इलेक्ट्रोनिक तराजू से तोल कर लेजाता है, अतः टेनीमार की मार से बचे हुए है, वैसे भी कितने की मार लगती?
ReplyDeleteदूसरी बात यह है की बात दो-तीन रूपयों की नहीं , उसके पीछे की बेईमानी की मानसिकता की है. वह नहीं होनी चाहिए. पैसे कह कर कम दो वह सही.
पिछले देनों जब हम दिल्ली मे यहे तब हमने भी रद्दी बेचीं थी और रद्दी वाले से मोलभाव नही किया क्यूंकि उसने ख़ुद ही ७ रूपये किलो बोला था . रद्दी वाले ने सारे अखबार एक बोरे मे भरकर एक साथ इलेक्ट्रोनिक तराजू से वजन किया तो टेनी तो नही मारा पर एक तरह से टेनी मारनी चाही। वो ऐसे की पहले उसने सही वजन २३ किलो बताया पर अगले ही पल उसे १८ किलो बोला । और जब हमने उसे दोबारा वजन करने को कहा तो फ़िर २३ किलो ही बताया।
ReplyDeleteबहुत सिरदर्दी का काम है यह ..जो मिल जाए वही ठीक :)
ReplyDeleteटेनी मारने बिना क्या इनका काम चल सकता है। बेचारे पाते ही इतना हैं कि टेनी तो मारेंगे ही। पर कुछ भी कर लीजिए। गैस वाला भी जब तोलेगा तो पूरा वजन निकलेगा चाहे वो आधा दे।
ReplyDeleteडंडी मारना रद्दी वालों का जन्मसिद्ध अधिकार है और इसके लिए कई तरह के तरीके इन्होने ईजाद किए होते हैं जो केवल रद्दी वालों के ही कॉपी राइट होते हैं. अन्य दुकानों पर डंडी इन तरीकों से नहीं मारी जा सकती. वहां के तरीके दूसरे होते हैं.
ReplyDeleteवैसे रामलाल की तस्वीर को बड़े सुंदर फ्रेम में जड़कर ब्लॉग पर लगाया है आपने. लगता है सचमुच प्रभावित कर गया ईमानदारी से अपनी बेईमानी के तरीके बतला कर.
इस कला में ये माहिर होते हैं ! इनके साथ इतना मोल भाव हो जाता है की
ReplyDeleteऔर कोई चारा ही नही होता ! तो ये क्या करे ? पेट तो पालना ही है, और
कुछ आदतन भी हो जाते होंगे !
रद्दीवाला थोडी बहुत टेनी मार भी लेगा तो कितना ठग लेगा? इसलिए इन चीज़ों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते हम!आपका उद्धरण बहुत जमा....ऐसे ही और भी अच्छे अच्छे बताते रहिये!
ReplyDeleteएक तोल मापक घर पर रख ले।इस झंझट से बच जाएगें।
ReplyDeleteये टिप्पणियां ब्लॉगर अपडेट नहीं कर रहा -
ReplyDeleteसागर नाहर -
आप क्या समझते हैं, उसने डंडी नहीं मारी? और आपको सच सच बता दिया?
नहीं भाई साहब, आप उनके भाव से एक रुपया कम में भी रद्दी बेचो तो भी रद्दी वाले डंडी ( टेनी ) मारे बिना रह ही नहीं सकते, विश्वास नहीं होता तो अगली बार उसके द्वारा तुली रद्दी को इलेक्ट्रोनिक काँटे पर तुलवा कर देख लीजियेगा।
सतीश सक्सेना -
रद्दी वाले और फल सब्जी बालों की कभी आप तकलीफें पूंछ कर देखें ! पूरा व्यापार मोहल्ले की गृहणियों और रिटायर लोगों पर निर्भर रहता है ! अगर गलती से कोई रामलाल ईमानदारी का प्रयत्न करे तो रद्दी से तो कुछ नहीं बच सकता ! कोई उसका लाभ जोड़कर पैसे देने से रहीं ! और सब्जी बाला अगर खरीद कर १०० किलो लेकर चला तो ८० किलो बेचकर ही माल ख़तम हो जाएगा !
आप आजकर रद्दी वाले और सब्जी वाले पर काफी मेहरवान हो रहे हो और दूकान तब भी खूब चल रही है, दिल में कुछ ....;-)
सचिन -
very cleaver.....
http://shayrionline.blogspot.com/
हम रद्दीवाले को अपना कौशल दिखाने का मौका नहीं कतई देते। हमारे घर में रद्दी निपटान के दो तरीके हैं- एक है जो हमारी पत्नी को पसंद है हमें नापसंद- ये है स्वामीनारायण ट्रस्ट के मृदुभाषी स्वयंसेवको को रद्दीदान जो हर आल्टरनेट संडे आते हैं- मुस्कराकर बिना तोले ले जाते हैं- धन्यवाद देते हैं। इससे धर्म जुड़ा हुआ है हमें नहीं पचता।
ReplyDeleteदूसरा है जब अति हो जाए..स्टोर से अखबार बाहर आ आ गिरने लगें तो रद्दीवाले को बुलाते हैं...उसे रद्दी दिखते हैं..कितने दोगे..बिना तोले । वो हमेशा कहता है सौ रुपए हम डेढ़ सौ कहते हैं ..वो देता है हम लेते हैं। इति श्री रद्दी कथा।
दोनों ही मामलों में हमें टेनी लगी यह सच है पर हमारी मरजी से लगी..किसी को लगाने नहीं दी। :))
नेता लोग तो सीधे सीधे हमारे और देश की जेब पर टेनी मार रहे हैं,यह बेचारा रद्दीवाला क्या मार लेगा.दस घरों में मरेगा तो भी शायद ही एक किलो चावल खरीद पाए
ReplyDeleteकृपया पिछली टिप्पणी हमारे नाम से समझी जाए..भूलवश दूसरे लॉगइन से भेजी गई है।
ReplyDeleteमसिजीवी
इसको टेनी मारना कहते है ?हमारे होस्टल में कैंटीन वाले के नौकर ने एक दिन गांजा पीकर विद्रोह कर दिया था . तौलने वाले तराजू के नीचे चुम्बक दिखायी थी ..हैरानी की बात है की वहां सिर्फ़ पौवा ओर नमकीन तुला करती थी....आप की आज की पोस्ट ने एक मुस्कान ला दी चेहरे पर...
ReplyDeleteहोस्टल और विश्वनाथ जी से ध्यान आया: हमारे होस्टल में सफाई करने वालों का इस पर हक़ होता था... और जिस दिन पूछना होता की भाई साहब अखबार हटा दूँ... उस दिन सफाई अच्छी हो जाती थी.
ReplyDelete---
ऐसे कठिन जीवन में टेनी मारना जरुरत बन जाती है. जिन्हें जरुरत नहीं वो भी जब टेनी मारते हैं तो ग़लत है. और ऐसे कम नहीं...
''नेता लोग तो सीधे सीधे हमारे और देश की जेब पर टेनी मार रहे हैं,यह बेचारा रद्दीवाला क्या मार लेगा.दस घरों में मरेगा तो भी शायद ही एक किलो चावल खरीद पाए''
ReplyDeleteरंजना जी की इस टिप्पणी से मैं भी सहमत हूं।
हमने हमेशा से माना है की जो जिस क्षेत्र का है उसे उसमे मात दे पाना सम्भव नही है सो हम उदारता का बहाना करके अपनी नाकामी छुपा लेते हैं
ReplyDeleteअजी एक गरीब को मारने दो टेनी, हमारे तो नेता इतना ट्ना मारते हे, यह गरीब .....
ReplyDeleteधन्यवाद सुन्दर लेख के लिये, ओर टेनी के चित्र के लिये
Teni kaise maari jaati hai ye to pata chala
ReplyDeleteअनीता कुमार जी की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी -
ReplyDelete"आप ने ये नहीं बताया कि इलाहाबाद में रद्दी क्या भाव बिकती है। रद्दी ऊंचे दामों पर बेच पाना कुछ ऐसे परम सुख है जिसका अंदाजा आप नहीं लगा सकते वो सिर्फ़ भारतीय ग्रहणियां ही लगा सकती हैं। हमें तो पूरा अंदाजा रहता है कि महीने की रद्दी कितनी होती है। रद्दी वाला फ़ोन करने पर आता है सारी रद्दी जमा कर बाधंता है और फ़िर हम अपना वजन करने वाली मशीन पर रख उसका वजन कर लेते है 30 से 35 किलो एक महीने की रद्दी। साथ में और भी कबाड़ निकाल सके तो बोनस हो जाता है। अहा! क्या संतु्ष्टी मिलती है ये सोच कर कि देखा हमने ये अखबार पढ़ भी लिए और अगले महीने का अखबार का बिल देने का जुगाड़ भी इन्हीं से कर लिया"
अनिता कुमार
ज्ञानजी नेताओं के जो वचन अनमोल लगते हैं अगले दिन वो रद्दी बन जाते है, यहां तक की रद्दीवाले को भी उन्हे लेने मे घाटा ही जान पडता है, एसे हालात में उनका टेनी मारना कुछ हद तक चला सकने लायक बेईमानी कह सकते हैं :)
ReplyDelete"वह हंस कर बोला – नहीं। मारी भी होगी तो किलो में पचास-सौ ग्राम बराबर!"
ReplyDeleteकाफी ईमानदार आदमी निकला यह तो, वर्ना ग्वालियर में एक किलो तौलता है तो वह डंडी मार के तीन किलो अतिरिक्त का जुगाड कर लेता है.
-- शास्त्री
-- हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाजगत में विकास तभी आयगा जब हम एक परिवार के रूप में कार्य करें. अत: कृपया रोज कम से कम 10 हिन्दी चिट्ठों पर टिप्पणी कर अन्य चिट्ठाकारों को जरूर प्रोत्साहित करें!! (सारथी: http://www.Sarathi.info)
जिस तरह सुनार और दर्जी आदतन 'अपनी करनी' करते हैं उसी तरह रद्दी वाला भी टेनी मारता ही मारता है । सुखी रहने का यही तरीका है कि हम मानते रहें कि हमने उसे टेनी नहीं मारने दी ।
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