@@ सर्चना = सर्च करना @@
मुझे एक दशक पहले की याद है। उस जमाने में इण्टरनेट एक्प्लोरर खड़खड़िया था। पॉप-अप विण्डो पटापट खोलता था। एक बन्द करो तो दूसरी खुल जाती थी। इस ब्राउजर की कमजोरी का नफा विशेषत: पॉर्नो साइट्स उठाती थीं। और कोई ब्राउजर टक्कर में थे नहीं।
बम्बई गया था मैं। एक साहब के चेम्बर में यूंही चला गया। उन्हें कम्प्यूटर बन्द करने का समय नहीं मिला। जो साइट वे देख रहे थे, उसे उन्हों नें तड़ से बन्द किया तो पट्ट से दूसरी विण्डो खुल गयी। उनकी हड़बड़ाहट में तमाशा हो गया। एक बन्द करें तो दो खुल जायें! सब देहयष्टि दिखाती तस्वीरें। वे झेंपे और मैं भी।
बाद में इण्टरनेट ब्राउजर सुधर गये। पॉप-अप विण्डो ब्लॉक करने लगे।
कल रिडिफ पर पढ़ा तो बड़ा सुकून मिला - पॉर्नोग्राफी अब सबसे ज्यादा सर्च की जाने वाली चीज नहीं रही इण्टरनेट पर (ऊपर रिडिफ की पेज का फोटो हाइपर लिंकित है)! एक दशक पहले इण्टरनेट पर बीस प्रतिशत सर्च पॉर्न की थी। अब वह घट कर दस प्रतिशत रह गयी है। अब सोशल नेटवर्किंग साइट्स ज्यादा आकर्षित कर रही हैं सर्च ट्रेफिक।
मैने अपने ब्लॉग के की-वर्ड सर्च भी देखे हैं - कुछ महीना पहले बहुत से सर्च भाभी, सेक्स, काम वासना आदि शब्दों से थे। अब इन शब्दों से नहीं वरन पशु विविधता, जनसंख्या, नेटवर्किंग, ऋग्वेद, अफीम, थानेदार साहब, भगवान, परशुराम, तिरुवल्लुवर, एनीमल, मैथिलीशरण, बुद्ध, हल्दी, भारतीय रेलवे... आदि शब्दों से लोग ब्लॉग पर पंहुच रहे हैं।
नजरिया बदल रहा है और लोग बदल रहे हैं। अब के जवान लोग तब के जवान लोगों से ज्यादा संयत हैं, ज्यादा शरीफ, ज्यादा मैच्योर!
कल प्रमेन्द्र प्रताप सिंह महाशक्ति और अरुण अरोड़ा पंगेबाज मिले। प्रमेन्द्र किसी कोण से विशालकाय और अरुण किसी कोण से खुन्दकिया-नकचढ़े नहीं थे। ये लोग ब्लॉग जगत में गलत आइकॉन लिये घूम रहे हैं।
बड़े भले अच्छे और प्रिय लोग हैं ये।
कल प्रमेन्द्र प्रताप सिंह महाशक्ति और अरुण अरोड़ा पंगेबाज मिले। प्रमेन्द्र किसी कोण से विशालकाय और अरुण किसी कोण से खुन्दकिया-नकचढ़े नहीं थे। ये लोग ब्लॉग जगत में गलत आइकॉन लिये घूम रहे हैं।
ReplyDeleteकारण है कि
नजरिया बदल रहा है और लोग बदल रहे हैं। अब के जवान लोग तब के जवान लोगों से ज्यादा संयत हैं, ज्यादा शरीफ, ज्यादा मैच्योर!
प्रमेन्द्र किसी कोण से विशालकाय और अरुण किसी कोण से खुन्दकिया-नकचढ़े नहीं थे।
ReplyDelete--देखा न आपने मुखौटे का कमाल!! :)
अब के जवान लोग तब के जवान लोगों से ज्यादा संयत हैं, ज्यादा शरीफ, ज्यादा मैच्योर!
--सच में?? कहीं वैसा तो नहीं कि पहले कुछ चीजें, जैसे किसी के घर पर कलर टीवी या फ्रीज, बहुत आकर्षित करती थीं-अब कौड़ी के भाव मिल रही हैं तो आकर्षण भी कम हो गया है. :)
ऐसा माना जाता है कि हर अगली पीढी अपनी पिछली पीढी से ज्यादा स्मार्ट होती है एक दो अपवाद छोड दें तो व्यवहारिकता के मामले में आज की पीढी वाकई इस smartness theory की पुष्टि करती है।
ReplyDeleteहिन्दी ब्लागरी में अधिकांश लोग अच्छे हैं, वे जगत में लगातार मनुष्य मात्र के भले के लिए परिवर्तन के आकांक्षी हैं और उस के लिए कुछ न कुछ प्रयत्न करते हैं। पहले से बने हुए विचारों के कारण टकराव बना रहता है। यह टकराव मटकी में चलती मथनी के जैसा ही है जहाँ से माखन मिलता है और छाछ भी।
ReplyDeleteजो भी आप से मिलेगा आप को अच्छा ही लगेगा।
नजरिया बदल रहा है और लोग बदल रहे हैं। अब के जवान लोग तब के जवान लोगों से ज्यादा संयत हैं, ज्यादा शरीफ, ज्यादा मैच्योर!
ReplyDeleteहम तो पढकर ही प्रसन्न हो लिये :-) इंटरनेट के विकास में पार्न का भी विकास हुआ है । जैसा कि पहले होता था कि पार्न साईट बोले को कम्प्यूटर वायरस का घर, अब ऐसा नहीं है । पार्न वेबसाईट्स ने अपने क्षेत्र को समझा है और समय के साथ एक सर्विस की तरह अपने को विकसित किया है ।
मुझे इण्टरनेट का पहला परिचय प्रशासनिक अकादमी में प्रशिक्षण के दौरान मिला था। तब सारे प्रशिक्षु कम्प्यूटर कक्ष में वो स्थान चुनने की कोशिश करते थे जहाँ की स्क्रीन दूसरों को दिखायी न दे। लेकिन ये पॉप-अप वाली समस्या अक्सर उनका भेद खोल देती थी।
ReplyDeleteएक बार तो हालत इतनी खराब हो गयी थी कि निदेशक महोदय के सामने ही पहले से बन्द कम्प्यूटर खोलते-खोलते पोर्न साइट्स उछल-उछल कर स्क्रीन पर नाचने लगीं थीं। आनन-फानन में स्विच ऑफ करना पड़ा था।
नजरिया बदल रहा है और लोग बदल रहे हैं। अब के जवान लोग तब के जवान लोगों से ज्यादा संयत हैं, ज्यादा शरीफ, ज्यादा मैच्योर!
ReplyDeleteतसल्ली हुई ये जान कर की अब की जवान पीढी संयत, ज्यादा शरीफ और ज्यादा मेच्योर है ! फ़िर ताऊ अपनी विरासत किसे
सौपेंगा ? :) कुछ सोचना पडेगा !
लोगों का तो पता नहीं पर नए इंटरनेट एक्स्प्लोरर में काफी तकनीकी विकास हुआ है |
ReplyDelete्चलो कुछ तो बदला,किसी मामले मे तो नयी पीढी को अच्छा होने या सुधरने का खिताब मिला
ReplyDeleteपार्न वैबसाइट का मामला पर्याप्त रोचक है। अभी कुछ दिन पहले एक भौत सीनियर टाइप बोले तो दादाजी की उम्र के अफसर का फोन आया, फोनार्थी पूछ रहे थे कि वैबसाइट की ब्राऊसिंग हिस्ट्री में सविताभाभी डाट काम जमा हो गयी हैं। जाने के नाम नहीं ले रही हैं। दफ्तर में कंप्यूटरों को ठीक करने का काम चल रहा है। इस लपेटे में उनका कंप्यूटर भी आ सकता है। सबको पता लग जायेगा कि सीनियर अफसर बाल बच्चेदार क्या नाती पोतेदार सविता भाभी में नजरे गड़ाये हुए हैं।
ReplyDeleteमैने कहा इस काम के लिए पंद्रह हजार लगेंगे, सविता भाभी को हटाने के।
वो तैयार हो गये।
सविताभाभी गलत जगह पकड़ लें, तो आफत हो जाती है।
फिर मैंने उन्हे तरकीब बतायी कि कैसे गायब करें. बदले में उनसे कसम ली अब दफ्तर के कंप्यूटर सविता भाभी से ना मिलेंगे।
पार्न की डिमांड कम हो रही है, लोग बोर हो रहे हैं। कित्ता देखेंगे। यह विशुद्ध इंसानी बेहूदगी है जो दूसरों के संबंधों में इतनी दिलचस्पी लेता है। वरना बंदर या मगरमच्छ दूसरों को इस तरह से देखना कभी पसंद नहीं करते।
जो चीज मिल जाए उसका आकर्षण कम हो जाता है. यही कारण होगा की पोर्न पर कम सामाजिक साइटो पर ज्यादा लोग जाते है.
ReplyDeleteब्लॉग पढ़ छवियाँ बनाना गलत साबित होती रही है.
हुम्म, हम कैसे माने जी, अपने ब्लॉग पर तो आज भी लोग "सेक्स", "सेक्सी" सर्च करते हैं, पता नहीं क्यों!! ;) कसम से, सेक्स की तो एक ही पोस्ट छापे थे - इट्स ऑल अबाऊट सेक्स बेबी!!! :)
ReplyDeleteबाकी समीर जी की बात हमेशा की भांति गौर करने वाली है। :)
रहा सवाल मिलने मिलाने का, तो प्रमेन्द्र से अपना मिलना नहीं हुआ है अभी साक्षात तो इसलिए कुछ कहना बेइमानी होगी लेकिन पंगेबाज़ अरुण जी के मामले में आप धोखा नहीं खाए, बहुत पहुँची हुए बंदे हैं वो!! ;)
सन १४४० में जर्मनी में जोहांस गुटेनबर्ग ने प्रिंटिंग प्रेस का अविष्कार किया. उस समय सम्पूर्ण विश्व में साक्षरता का प्रतिशत शून्य से बहुत ऊपर नहीं था. छापेखाने से छपकर आयी किताबों को खरीदने वाले न के बराबर थे. अगर प्रेस जिन्दा रह पायी तो इसके लिए दो बड़े कारण थे:
ReplyDelete(१) धार्मिक पुस्तकें, जैसे बाइबल, कुरान, रामायण (बाद में रामचरितमानस भी) आदि. लोग भले पढ़ना ना जानते हों, पर श्रद्धावश इन पुस्तकों को खरीदकर घर में जरूर रखते आए हैं.
(२) पोर्नोग्राफिकल मटेरियल. चित्र देखने के लिए कोई पढ़ा लिखा होना जरूरी नहीं. और अगर किसी एक केटेगरी के चित्रों की बात करें तो पोर्नोग्राफी सबको आसानी से पछाड़ देगी.
इन दोनों वजहों से प्रिंटिंग प्रेस बची रही, क्योंकि छपे हुए मटेरियल के खरीदार मिलते रहे. बाद में जब लोगों में साक्षरता का पर्याप्त प्रसार हुआ तो अन्य विषयों की भी पुस्तकें पर्याप्त संख्या में उपलब्ध होने लगीं.
यही बात इंटरनेट के साथ भी है. शुरू-शुरू में न तो पर्याप्त कंटेंट उपलब्ध था, ना ही ज्यादा लोग जुड़े थे. तो इंटरनेट के आन्दोलन को जिलाए रखने में सबसे बड़ा योगदान पोर्नोग्राफी का ही रहा. उसे भरपूर उपभोक्ता मिलते रहे. अब जबकि घर-घर में इंटरनेट की पहुँच होने लगी है और विविध रूपों में नेट हमारी व्यक्तिगत और सामाजिक आवश्यकताओं का केन्द्र बिन्दु बन चुका है, तो अब पोर्नोग्राफी बैकसीट पर जा रही है. ये तो होना ही है और ऐसा होते देखना बड़ा सुखद है.
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और हम आपसे कब और कहाँ मिल सकते हैं? ई-मेज तो हमारी भी ग़लत ही बनती जा रही है. शायद थोड़ी सुधर जाए. :-)
sahi kahaa.. mere chitthe par to abhi bhi sabse jyada "bhabhi" ko search karte huye hi aate hain, dusara number "Blue Film" hai.. bechare aakar mujhe jaroor galiyan dete huye jate honge..
ReplyDeletemagar ek IP hai Delhi ka.. jo pichhale 4-5 mahine se ek hi page par har din kam se kam 30-40 bar aata hai bhabhi ko search karte huye.. pata nahi kya dhundhana chahta hai vo..
vaise Arun ji mujhe to bahut hi jindadil insaan lage the.. kaash thori jinda dili mujhe bhi de dete.. kabhi kabhi to lagta hai ki main javani me hi budha gaya hun aur vo mujhase itane bare hokar bhi javaan hain.. :)
बात तो सही है कि Key word की विभिन्नता बढ़ रही है, पोर्न के अलावा। Ghost Buster ने भी ठीक ही विश्लेषण किया है।
ReplyDeleteमेरे एक ब्लॉग ये मेरा इंडिया! पर भी लोग क्या-क्या ढ़ूँढ़ते हुये आते हैं, बेचारे जरूर निराश होते होंगे!
"अब के जवान लोग तब के जवान लोगों से ज्यादा संयत हैं, ज्यादा शरीफ, ज्यादा मैच्योर!" साधारणतया ऐसी बातें सुनाने को कम ही मिलती हैं... वर्ना यही सुनाने को मिलता है...'कैसा ज़माना आ गया है... ये आज कल के लड़के-लड़कियां...' सर्च में बदलाव का कारण शायद दुसरे माध्यमों से आसानी से उपलब्धता हो ! समाज में बदलाव है tab तो सच में अच्छा है.
ReplyDeleteबेशक...............
ReplyDeleteनज़रिया बदल रहा है...............
मैं नहीं मानता की हम बदल रहे हैं।
ReplyDeleteपुरुष जाती का स्वभाव ही ऐसा है।
एक जमाने में नौटंकी, मुजरे, वगैरह हुआ करते थे।
फ़िर आया कैबैरे, ब्लू फ़िल्म, पोर्न पत्रिकाएं इत्यादि
और आज का आकर्षण है पोर्न जालस्थल।
कल का किसको पता?
जब तक कोई चीज़ वर्जित है या दुर्लाभ है उसका आकर्षण रहेगा।
मैं सोचता हूँ कि फ़र्क इतना है कि पिछले सदी में केवल सम्पन्न लोगों को यह मौका मिलता था लेकिन धीरे धीरे सबको यह मौका मिल रहा है पोर्न का अनुभव करने का।
जिन देशों मे पोर्न अवैध नहीं है, (जैसे स्वीडन), वहाँ पोर्न का डिमांड भी कम है। कोई ध्यान भी नहीं देता।
अब पोर्न आम बन गया है। इसलिए उसकी लोकप्रियता कम होने लगी है।
विषय से हटकर:
जालजगत पर सबसे ज्यादा सर्च की जाने वाली चीज़ चाहे पोर्न हो या न हो, मेरे घर में सबसे ज्यादा सर्च की जाने वाली चीज है, रसोई घर में और फ़्रिज में छुपे हुए चॉकलेट/मिठाइयाँ/नमकीन इत्यादि जो पत्नि मुझ से बड़ी चालाकी से छुपाना चाहती है लेकिन किसी तरह उसका पता लगा लेता हूँ।
सब खेल है वक़्त का सर जी.....
ReplyDelete''नजरिया बदल रहा है और लोग बदल रहे हैं। अब के जवान लोग तब के जवान लोगों से ज्यादा संयत हैं, ज्यादा शरीफ, ज्यादा मैच्योर!''
ReplyDeleteजवान होने की खुशी तो हो रही है पर इस बात पर भरोसा नहीं हो रहा है-मैं जवान हूँ, संयत हूँ , शरीफ हूँ पर मैच्योर तो बुढ़ापे में ही हो पाऊँगा।
सबसे पहले तो हिन्दी शब्दकोष के लिए आपके अमूल्य योगदान (सर्चना = सर्च करना ) के लिए आपका धन्यवाद् .
ReplyDeleteरही बात सर्चने कि तो ये सूकून देने वाली जानकारी है कि इन्टरनेट का धीरे धीरे ही सही पर अब सही तरह से उपयोग किया जा रहा है.
ये तो बडी पोज़ीटीव खबरेँ दीख रही हैँ आज आपके जाल घर से ~ खुशी हुई पढकर और सम्भावनाएँ बढती हुई लगीँ :)
ReplyDelete- लावण्या
एक और बात तो कहना भूल गया कल की टिप्पणी में।
ReplyDeleteआजकल सबको पता है जालस्थल पर पॉर्न कहाँ उपलब्ध है।
"सर्चने" की जरूरत नहीं पढ़ती।
शायद इसी कारण से सर्च" घटने लगी है।
इसका एक बडा कारण यह भी है कि यौन विषयों पर बात करना अब 'बेशर्मी' नहीं रह गया है । निषेध सदैव आकर्षित करते हैं । विषयों का खुलापन अन्तत: सहजता में बदल जाता है ।
ReplyDeleteअनीता कुमार जी की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी -
ReplyDeleteआज पता नहीं क्युं आप के ब्लोग पर टिप्प्णी नहीं हो पा रही। इस लिए यहां लिख रही हूँ
घोस्ट बस्टर जी का कहना सही लग रहा है। आज कल के जवान ज्यादा संयत हैं कहना मुश्किल है, जिस तरह की वर्क क्ल्चर आज कल है 24X7 और जिस तरह का कोमपिटीशन है इन बच्चों को सांस लेने की फ़ुरसत मिल जाए तो गनिमत है। फ़िर हमारे जमाने में तो ज्यादातर लोग अच्छी और सुरक्षित नौकरी पा कर एक रूटीन में आ जाते थे खाली वक्त काफ़ी मिल जाता था लेकिन आज कल की पूरी पीढ़ी पहली पीढ़ी से ज्यादा महत्त्वकांशी है और अपने लोंग टर्म गोल्स के प्रति ज्यादा सचेत्।ये भी एक कारण है कि सेक्स की तरफ़ ज्यादा ध्यान नहीं देते।पूरी तरह उदासीन भी नहीं हैंघोस्ट बस्टर जी का कहना सही लग रहा है। आज कल के जवान ज्यादा संयत हैं कहना मुश्किल है, जिस तरह की वर्क क्ल्चर आज कल है 24X7 और जिस तरह का कोमपिटीशन है इन बच्चों को सांस लेने की फ़ुरसत मिल जाए तो गनिमत है। फ़िर हमारे जमाने में तो ज्यादातर लोग अच्छी और सुरक्षित नौकरी पा कर एक रूटीन में आ जाते थे खाली वक्त काफ़ी मिल जाता था लेकिन आज कल की पूरी पीढ़ी पहली पीढ़ी से ज्यादा महत्त्वकांशी है और अपने लोंग टर्म गोल्स के प्रति ज्यादा सचेत्।ये भी एक कारण है कि सेक्स की तरफ़ ज्यादा ध्यान नहीं देते।पूरी तरह उदासीन भी नहीं हैं
समाज पीछे छूटता जा रहा है शायद इसलिए लोग नेट पर सामाजिक होना चाहते है
ReplyDeleteसेक्स कांड अब हमको पड़ोस में भी मिल जाता है इसलिए इसके लिए लोग अब नेट पर नही आते
वीनस केसरी
"नजरिया बदल रहा है और लोग बदल रहे हैं। अब के जवान लोग तब के जवान लोगों से ज्यादा संयत हैं, ज्यादा शरीफ, ज्यादा मैच्योर!"
ReplyDeleteसौ फीसदी सही कहा आपने.ख़बर बड़ा ही सुखद है.
शायद आज के इस खुलेपन ने युवाओं के लिए उत्सुकता की वह जगह नही छोड़ी है,जिसके नज़ारे के लिए आज से ८-१० साल पहले तक किशोर से लेकर अधेड़ तक लालायित रहते थे.
बहुत ही अच्छा ल्रगा, अपने बारे मे आपके सुविचार जानकर, बहुत दिनों बाद यह पोस्ट देखी, आपको दशहरा की बहुत बहुत बधाई
ReplyDelete"अब के जवान लोग तब के जवान लोगों से ज्यादा संयत हैं, ज्यादा शरीफ, ज्यादा मैच्योर!" साधारणतया ऐसी बातें सुनाने को कम ही मिलती हैं... वर्ना यही सुनाने को मिलता है...'कैसा ज़माना आ गया है... ये आज कल के लड़के-लड़कियां...' सर्च में बदलाव का कारण शायद दुसरे माध्यमों से आसानी से उपलब्धता हो ! समाज में बदलाव है tab तो सच में अच्छा है.
ReplyDeleteहुम्म, हम कैसे माने जी, अपने ब्लॉग पर तो आज भी लोग "सेक्स", "सेक्सी" सर्च करते हैं, पता नहीं क्यों!! ;) कसम से, सेक्स की तो एक ही पोस्ट छापे थे - इट्स ऑल अबाऊट सेक्स बेबी!!! :)
ReplyDeleteबाकी समीर जी की बात हमेशा की भांति गौर करने वाली है। :)
रहा सवाल मिलने मिलाने का, तो प्रमेन्द्र से अपना मिलना नहीं हुआ है अभी साक्षात तो इसलिए कुछ कहना बेइमानी होगी लेकिन पंगेबाज़ अरुण जी के मामले में आप धोखा नहीं खाए, बहुत पहुँची हुए बंदे हैं वो!! ;)
सन १४४० में जर्मनी में जोहांस गुटेनबर्ग ने प्रिंटिंग प्रेस का अविष्कार किया. उस समय सम्पूर्ण विश्व में साक्षरता का प्रतिशत शून्य से बहुत ऊपर नहीं था. छापेखाने से छपकर आयी किताबों को खरीदने वाले न के बराबर थे. अगर प्रेस जिन्दा रह पायी तो इसके लिए दो बड़े कारण थे:
ReplyDelete(१) धार्मिक पुस्तकें, जैसे बाइबल, कुरान, रामायण (बाद में रामचरितमानस भी) आदि. लोग भले पढ़ना ना जानते हों, पर श्रद्धावश इन पुस्तकों को खरीदकर घर में जरूर रखते आए हैं.
(२) पोर्नोग्राफिकल मटेरियल. चित्र देखने के लिए कोई पढ़ा लिखा होना जरूरी नहीं. और अगर किसी एक केटेगरी के चित्रों की बात करें तो पोर्नोग्राफी सबको आसानी से पछाड़ देगी.
इन दोनों वजहों से प्रिंटिंग प्रेस बची रही, क्योंकि छपे हुए मटेरियल के खरीदार मिलते रहे. बाद में जब लोगों में साक्षरता का पर्याप्त प्रसार हुआ तो अन्य विषयों की भी पुस्तकें पर्याप्त संख्या में उपलब्ध होने लगीं.
यही बात इंटरनेट के साथ भी है. शुरू-शुरू में न तो पर्याप्त कंटेंट उपलब्ध था, ना ही ज्यादा लोग जुड़े थे. तो इंटरनेट के आन्दोलन को जिलाए रखने में सबसे बड़ा योगदान पोर्नोग्राफी का ही रहा. उसे भरपूर उपभोक्ता मिलते रहे. अब जबकि घर-घर में इंटरनेट की पहुँच होने लगी है और विविध रूपों में नेट हमारी व्यक्तिगत और सामाजिक आवश्यकताओं का केन्द्र बिन्दु बन चुका है, तो अब पोर्नोग्राफी बैकसीट पर जा रही है. ये तो होना ही है और ऐसा होते देखना बड़ा सुखद है.
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और हम आपसे कब और कहाँ मिल सकते हैं? ई-मेज तो हमारी भी ग़लत ही बनती जा रही है. शायद थोड़ी सुधर जाए. :-)
पार्न वैबसाइट का मामला पर्याप्त रोचक है। अभी कुछ दिन पहले एक भौत सीनियर टाइप बोले तो दादाजी की उम्र के अफसर का फोन आया, फोनार्थी पूछ रहे थे कि वैबसाइट की ब्राऊसिंग हिस्ट्री में सविताभाभी डाट काम जमा हो गयी हैं। जाने के नाम नहीं ले रही हैं। दफ्तर में कंप्यूटरों को ठीक करने का काम चल रहा है। इस लपेटे में उनका कंप्यूटर भी आ सकता है। सबको पता लग जायेगा कि सीनियर अफसर बाल बच्चेदार क्या नाती पोतेदार सविता भाभी में नजरे गड़ाये हुए हैं।
ReplyDeleteमैने कहा इस काम के लिए पंद्रह हजार लगेंगे, सविता भाभी को हटाने के।
वो तैयार हो गये।
सविताभाभी गलत जगह पकड़ लें, तो आफत हो जाती है।
फिर मैंने उन्हे तरकीब बतायी कि कैसे गायब करें. बदले में उनसे कसम ली अब दफ्तर के कंप्यूटर सविता भाभी से ना मिलेंगे।
पार्न की डिमांड कम हो रही है, लोग बोर हो रहे हैं। कित्ता देखेंगे। यह विशुद्ध इंसानी बेहूदगी है जो दूसरों के संबंधों में इतनी दिलचस्पी लेता है। वरना बंदर या मगरमच्छ दूसरों को इस तरह से देखना कभी पसंद नहीं करते।
हिन्दी ब्लागरी में अधिकांश लोग अच्छे हैं, वे जगत में लगातार मनुष्य मात्र के भले के लिए परिवर्तन के आकांक्षी हैं और उस के लिए कुछ न कुछ प्रयत्न करते हैं। पहले से बने हुए विचारों के कारण टकराव बना रहता है। यह टकराव मटकी में चलती मथनी के जैसा ही है जहाँ से माखन मिलता है और छाछ भी।
ReplyDeleteजो भी आप से मिलेगा आप को अच्छा ही लगेगा।